9/28/2009

ब्लॉग पर साहित्य विशेषांक - आमंत्रण

मित्रों,

सृजनगाथा का अगला अंक "ब्लॉग पर साहित्य" विशेषांक है ।

पत्रिका के इस अंक में ब्लॉग में रचे गये या उपलब्ध कराया गई साहित्यिक विधाओं (कविता, कथा, उपन्यास अंश, ललित निबंध, वैचारिक निबंध, पत्र, संस्मरण, आलोचना, समीक्षा, किताब समीक्षा, पत्रिका समीक्षा निबंध, बायोग्राफ़ी, संपूर्ण किताब, छंद गीत, ग़ज़ल, दोहे, हाइकु, मुक्तक आदि सभी विधाओं ) की सामग्री प्रकाशित की जायेगी ।

एक प्रकार से यह हिन्दी ब्लॉग में उपलब्ध साहित्य का मूल्याँकन भी होगा । ब्लॉग पर हिन्दी, भाषा, साहित्य, व्याकरण पर केंद्रित मूल्याँकनपरक लेखों के लिंक भी हमें भेजा सकता है ।

यूँ तो हम आपके ब्लॉग पर अब तक प्रकाशित साहि्त्यिक सामग्रियों का अवलोकन करते रहे हैं और उनमें से भी कुछ चयन कर रहे हैं फिर भी आप से आग्रह है कि आप हमारा ध्यान बँटा सकते हैं क्योंकि सारे ब्लॉगरों पर नज़र डाल पाना कठिन है ।

आप चाहें रचना का लिंक 29 सितंबर, 2009 तक srijangatha@gmail.com पर हमें सुझा सकते हैं ।

विजय दशमी पर्व की शुभकामनाओं सहित

9/25/2009

इस ख़तरनाक समय में...


ज्ञानरंजन के इस्तीफे और अन्य विवादों को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव का प्रो. कमला प्रसाद का बयान


भोपाल 23 सितंबर, 2009 विगत कुछ दिनों प्रकाशित पत्रिकाओं-समाचार पत्रों के कुछ लेखों तथा हमारे सम्मानित लेखक ज्ञानरंजन की टिप्पणियों ने प्रलेस से संबंधित सांगठनिक स्तर पर कुछ सवाल पैदा किए हैं। प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव होने के नाते मेरी ज़िम्मेदारी बनती है कि उठाए गए सवालों के बारे में वस्तुस्थिति स्पष्ट करूं। सवाल हैं कि प्रमोद वर्मा संस्था्न द्वारा आयोजित ‘प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह’ में प्रलेस की भागीदारी क्यों हुई? प्रगतिशील वसुधा ने गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से फोर्ड फाउण्डे्शन की राशि से प्रदत्त कबीर चेतना पुरस्कार चुपके-चुपके क्यों ले लिया?

पहले प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह के बारे में बातें करें। इस आयोजन में जलेस-प्रलेस और जसम के अलावा अन्य महत्वपूर्ण लेखकों को आमंत्रित किया गया था। संस्थान की ओर से भेजे गए पहले निमंत्रण पत्र में वे नाम थे जिन्हें आमंत्रण भेजा गया था। दूसरे और आखिरी निमंत्रण पत्र में वे नाम थे जिन्होंने आने की स्वीकृति दी थी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि जिनकी स्वीकृति नहीं मिली उन्हें छोड़ दिया गया। जहां तक प्रमोद वर्मा का सवाल है, वे मार्क्सवादी और मुक्तिबोध, परसाई के साथी थे। वे प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मण्डल में रहे हैं। छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि रही, इसलिए बहुत से लेखकों से उनके वैचारिक पारिवारिक रिश्ते थे। विश्वरंजन तब उसी क्षेत्र में पदस्थ होने के कारण प्रमोद जी की मित्र मण्ड्ली में थे। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान बना-तो उसमें रूचि से वे सहयोगी बने। छत्तीसगढ़ के अनेक लेखकों के साथ आजकल वे इसके अध्यक्ष हैं। निर्णय का अधिकार अकेले उन्हें ही नहीं है। पृष्ठभूमि के रूप में इसे जानना जरूरी है। इस कार्यक्रम की घोषणा हुई तो मैंने छत्तीसगढ़ प्रलेस के साथियों से पूछा कि क्या स्थिति है? छत्तीसगढ़ के साथियों ने सलाह दी कि प्रमोद वर्मा पर कार्यक्रम प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की ओर से है। सरकारी अनुदान नहीं है, इसलिए आना चाहिए। स्वीकृति देने वाले लेखकों में मैंने अनेक वैचारिक साथियों और संगठनों में शामिल लेखकों के नाम देखे तो जाना तय किया। समारोह में आने वालों में छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण लेखकों के अलावा खगेंद्र ठाकुर, अशोक वाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, शिवकुमार मिश्र, कृष्ण मोहन, प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे नाम थे। कृष्ण मोहन और श्री भगवान सिंह को आलोचना पुरस्कार भी दिया गया था। अच्छी बात यह हुई कि प्रमोद वर्मा समग्र का प्रकाशन हुआ।

कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री और कुछ नेताओं के आने तथा विवादास्पद वक्तव्य देने पर वहां आए लेखकों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई, और इनका आक्रामक उत्तर लोगों ने अपने-अपने वक्तव्यों में दिया। पूरे आयोजन में प्रमोद वर्मा की विचारधारा ‘मार्क्सवाद’ बहस का आधार बनी रही। इसी दौरान कहीं से चर्चा में सुनाई पड़ा कि एक मित्र लेखक ने ‘पब्लिक एजेण्डा' में विश्वरंजन अर्थात डी.जी.पी.छत्तीसगढ़ के सलवा जुडुम के समर्थन और नक्सलपंथियों के विरोध में छपे इंटरव्यू को मुद्दा बनाकर कार्यक्रम में शामिल होना स्थगित किया है। उस समय तक लोगों ने ‘पब्लिक एजेण्डा’ का इंटरव्यू नहीं देखा था। इसके अलावा, सीधे भाजपा शासित सरकारी कार्यक्रम न होने के कारण लोग इसमें आए थे। उन्हें पहले से पता था कि सलवा जुडुम भाजपा सरकार के एजेण्डे में है। आमंत्रित लेखकों ने प्रमोद वर्मा स्मृति के पूरे आयोजन को लेकर कुछ आपत्तियां दर्ज कराईं। संस्थान के साथियों को परामर्श दिया गया कि इसे हमेशा सत्ता के प्रमाण से अलग रखा जाए।

छत्तीसगढ़ के जलेस-प्रलेस के साथियों तथा वामपंथी राजनीतिक दलों ने लगातार सलवा जुडुम के मसले पर सरकार का विरोध किया है। डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद उनकी रिहाई के लिए हुए आंदोलन में ये सभी लेखक शामिल रहे हैं। लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में यह प्रमुख मुद्दा था। याद रखना होगा कि अपनी-अपनी तरह से हत्यारी नीतियां छत्तीसगढ की ही नहीं अन्य भाजपा शासित राज्यों की भी हैं। मध्य‍प्रदेश में पिछले छह वर्षों में अल्पसंख्यकों पर सैंकड़ों अत्याचार और हत्याएं हुईं हैं। प्रलेस के लेखकों ने यहां लगातार सरकारी कार्यक्रमों का समय-समय पर विरोध और यथासमय बहिष्कार किया है। एक सूची प्रकाशित की जानी चाहिए कि मध्यप्रदेश में और इन सारे प्रदेशों के सरकारी कार्यक्रमों में किनकी-किनकी कहां-कहां भागीदारी रही है। मैं नहीं मानता कि गैर सरकारी प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शामिल होने मात्र से लेखकों का हत्यारों के पक्ष में खड़ा होना कहा जाएगा।

साथियों की ओर से उठाया गया अन्य सवाल वसुधा के फोर्ड फाउण्डेशन की राशि से कबीर चेतना पुरस्कार लेने का है। मैं यह स्पष्ट कर दूं कि संस्था़न से स्पष्ट जानकारी के बाद कि यह पुरस्कांर राशि संस्थान की ओर से है फोर्ड फाउण्डेशन की ओर से नहीं, संपादकों ने चुपके-चुपके नहीं, एक समारोह में यह पुरस्कार प्राप्त किया है। लोग जानते हैं कि गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान इलाहाबाद केंद्रीय विश्वंविद्यालय का एक प्रभाग है। दलित संसाधन केंद्र उसकी एक इकाई है। दलित संसाधन केंद्र की ओर से विगत कई वर्षों से दलितों की स्थितियों पर अध्ययन होता रहा है। संस्थान द्वारा दलितों के बारे में दस्तावेजीकरण के अलावा इलाहाबाद तथा भोपाल जैसे अन्य शहरों में केंद्र की संगोष्ठियां हुईं हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि हिंदी का कौन-सा महत्वपूर्ण लेखक है जो इन कार्यक्रमों में नहीं गया और मानदेय स्वीकार नहीं किया। जहां तक कबीर चेतना पुरस्कार की बात है, पहले हंस और तद्भव ने ये पुरस्कार लिए हैं। इनके संपादक भी संगठनों के हिस्से हैं। प्रगतिशील वसुधा लगातार दलित साहित्य प्रकाशित करती रही है। एक विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था, इसलिए निर्णायकों ने इस पत्रिका की पात्रता तय की है। प्रलेस से सीधी जुड़ी होने के कारण प्रगतिशील वसुधा का ऑडिटेड आय-व्यय खुले पन्नों में है। कभी भी देखा जा सकता है।

दोनों सवालों का तथ्यात्मक ब्यौरा पेश करने के बाद मेरा कहना है कि आज की परिस्थितियों में जिस तरह सांप्रदायिक शक्तियों का जाल देश में फैल रहा है, समूची मानवीय संस्कृति का बाज़ारीकरण हो रहा है, मूल्यों को तहस-नहस करने की साजिश है, उस समय अपने-अपने संगठन को अधिक क्रांतिकारी अथवा व्यक्तिगत रूप से स्वयं को अति-शुद्ध सिद्ध करने की कोशिश सांस्कृतिक आंदोलन की एकजुटता खण्डित करेगी। मर्यादाएं टूटने के बाद आंदोलन छूट जाएगा और लोग व्यक्तिगत हमलों पर उतर आएंगे। माना कि अब लेखकों के संगठन प्रेमचंद कालीन नहीं हैं, हो भी नहीं सकते। पर आज की परिस्थितियों में जो संभव है, हो रहा है। जरूरत पड़ने पर इनका जुझारू रूप देखा जा सकता है। इनके बिना सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर आवश्‍यक सामूहिक पहल की कल्पना असंभव होगी। विरोधी शक्तियां इन्हें तोड़ना चाहती हैं। कदाचित इनके विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गई तो वह दिन खतरनाक होगा।

9/17/2009

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