12/31/2009

पांडुलिपि हेतु लेखकों से आमंत्रण

प्रमोद वर्मा जैसे हिन्दी के प्रखर आलोचक की दृष्टि पर विश्वास रखनेवाले, मानवीय और बौद्धिक संवेदना के साथ मनुष्यता के उत्थान के लिए क्रियाशील छत्तीसगढ़ राज्य के साहित्य और संस्कृतिकर्मियों की ग़ैरराजनीतिक संस्था ‘प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान’ द्वारा जनवरी, 2010 से प्रकाश्य त्रैमासिक पत्रिका ‘पांडुलिपि’ हेतु आप जैसे विद्वान, चर्चित रचनाकार से रचनात्मक सहयोग का निवेदन करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता हो रही है । हमें यह भी प्रसन्नता है कि ‘पांडुलिपि’ का संपादन ‘साक्षात्कार’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका के पूर्व संपादक, हिंदी के सुपरिचित कवि, कथाकार एवं आलोचक श्री प्रभात त्रिपाठी करेंगे ।

हम ‘पांडुलिपि’ को विशुद्धतः साहित्य, कला, संस्कृति, भाषा एवं विचार की पत्रिका के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं । आपसे बस यही निवेदन है कि ‘पांडुलिपि’ को प्रेषित रचनाओं के किसी विचारधारा या वाद की अनुगामिता पर कोई परहेज़ नहीं किन्तु उसकी अंतिम कसौटी साहित्यिकता ही होगी । ‘पांडुलिपि’ में साहित्य की सभी विधाओं के साथ साहित्येतर विमर्शों (समाज /दर्शन/चिंतन/इतिहास/प्रौद्योगिकी/ सिनेमा/चित्रकला/अर्थतंत्र आदि) को भी पर्याप्त स्थान मिलेगा है, जो मनुष्य, समाज, देश सहित समूची दुनिया की संवेदनात्मक समृद्धि के लिए आवश्यक है । भारतीय और भारतीयेतर भाषाओं में रचित साहित्य के अनुवाद का यहाँ स्वागत होगा । नये रचनाकारों की दृष्टि और सृष्टि के लिए ‘पांडुलिपि’ सदैव अग्रसर बनी रहेगी।

किसी संस्थान की पत्रिका होने के बावजूद भी ‘पांडुलिपि’ एक अव्यवसायिक लघुपत्रिका है, फिर भी हमारा प्रयास होगा कि प्रत्येक अंक बृहताकार पाठकों पहुँचे और इसके लिए आपका निरंतर रचनात्मक सहयोग एवं परामर्श वांछित है ।

प्रवेशांक ( जनवरी-मार्च, 2010 ) हेतु आप अपनी महत्वपूर्ण व अप्रकाशित कथा, कविता ( सभी छांदस विधाओं सहित ), कहानी, उपन्यास अंश, आलोचनात्मक आलेख, संस्मरण, लघुकथा, निबंध, ललित निबंध, रिपोतार्ज, रेखाचित्र, साक्षात्कार, समीक्षा, अन्य विमर्शात्मक सामग्री आदि हमें 20 जनवरी, 2010 के पूर्व भेज सकते हैं । कृति-समीक्षा हेतु कृति की 2 प्रतियाँ अवश्य भेजें ।

यदि आप किसी विषय-विशेष पर लिखना चाहते हैं तो आप श्री प्रभात त्रिपाठी से ( मोबाइल – 094241-83427 ) चर्चा कर सकते हैं । आप फिलहाल समय की कमी से जूझ रहे हैं तो बाद में भी आगामी किसी अंक के लिए अपनी रचना भेज सकते हैं ।

हमें विश्वास है – रचनात्मक कार्य को आपका सहयोग मिलेगा ।

रचना भेजने का पता –
01. प्रभात त्रिपाठी, प्रधान संपादक, रामगुड़ी पारा, रायगढ़, छत्तीसगढ़ – 496001
02. जयप्रकाश मानस, कार्यकारी संपादक, एफ-3, छगमाशिम, आवासीय परिसर, छत्तीसगढ़ – 492001

12/24/2009

विश्वरंजन को राष्ट्र गौरव सम्मान


छत्तीसगढ़ अंधश्रद्धा-मुक्ति के लिए सरकारी प्रयास करनेवाला देश का पहला राज्य

रायपुर । अंधश्रद्धा और अंधविश्वास से उपजे सामाजिक, मानसिक और आर्थिक अपराधों को नियंत्रण करने के लिए सरकारी स्तर पर सामाजिक अभियान चलाने वाले देश के पहले राज्य छत्तीसगढ़ और उसके अगुआ पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन को ‘राष्ट्र-गौरव’ सम्मान से अलंकृत किया गया है । यह सम्मान श्री विश्वरंजन को उनके उल्लेखनीय पहल के लिए 20 दिसम्बर को नागपुर में आयोजित एक प्रतिष्ठापूर्ण अलंकरण समारोह में पिछले 27 वर्षों से सामाजिक कार्यों के लिए चर्चित संस्था अखिल भारतीय अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के राष्ट्रीय प्रतिष्ठान ने प्रदान किया गया । इसके अलावा नागपुर के विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों ने भी श्री विश्वरंजन को उनके इस उल्लेखनीय योगदान के लिए नागरिक अभिनंदन किया ।
इस अवसर पर अपने उद्बोधन में श्री विश्वरंजन ने कहा कि जो समाज प्रश्न नहीं कर सकता वह समाज पिछड़ जाता है, भय ग्रस्त हो जाता है और भयग्रस्त समाज अनैतिक तथा अवैज्ञानिक सोच का शिकार हो जाता है । इसलिए अपने अंधश्रद्धाओं के खिलाफ़ मुहिम तर्कहीन और रूढिवादी मानसिकता से निजात पाने का भी मुहिम है जो भारत जैसे पारंपरिक देश के विकास के लिए आवश्यक है । उन्होंने यह भी कहा कि भारत के इतिहास का आरंभ आर्य भट्ट जैसे विद्वानों से होता है । शून्य एवं दशमलव के माध्यम से नक्षत्रों की दूरी का पता लगाने का श्रेय भारत को जाता है । अंलकरण समारोह के पूर्व “अंधश्रद्धा और प्रचार-माध्यमों की भूमिका” विषय पर अपने व्याख्यान में वरिष्ठ पत्रकार एवं दैनिक 1857 के संपादक एस. एन. विनोद ने कहा कि वर्तमान पत्रकारिता कार्पोरेट घरानों के हाथों की कठपुतली है जिसका मूख्य ध्येय विज्ञापन है । मीडिया से अंधश्रद्धा के निवारण की दिशा में उल्लेखनीय अपेक्षा करने से कहीं अच्छा होगा कि अंधश्रद्धा को विकसित करने वाले चैनलों और समाचार पत्रों का ही बायकाट किया जाये । अतिथि वक्ता एवं युवा साहित्यकार जयप्रकाश मानस का अभिमत था कि आंचलिक संवाददाता यानी गाँव-खेड़ा के पार्टटाइम पत्रकार ऐसे समाज के प्रतिनिधि होते हैं जो बुनियादी तौर पर लोकआस्था वाली मानसिकता के कारण प्रगतिशील भूमिका में नहीं खड़ा हो सकते । और हम यह सभी जानते हैं कि अंधश्रद्धा के अधिकांश समाचार यथा टोनही, टोटके, दैवीय चमत्कार आदि इन्हीं अंचलों यानी गाँव-कस्बों से आते हैं ।
अलंकरण समारोह के पूर्व प्रखर प्रकाशन, नागपुर की ओर से प्रसिद्ध समाजसेवी और अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष उमेश चौबे द्वारा लिखित ‘पोल-खोल’ पुस्तक का विमोचन विश्वरंजन के हाथों किया गया । कार्यक्रम की अध्यक्षता नागपुर के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. गोविन्द शर्मा ने की । पुस्तक के लेखक उमेश चौबे ने कहा कि अब तक किये गये कार्यों को लेखा-जोखा उन्होंने इस पुस्तक में दिया है । भाषा के नाम पर बँटवारे की नीति करनेवालों को उन्होंने चेताते हुए कहा कि वे इससे दूर रहें । उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ एक मात्र राज्य है जहाँ अंधश्रद्धा निर्मूलन कानून बनाया गया है । एक कदम बढ़कर पुलिस महानिदेशक श्री रजंन ने इसे जनअभियान का स्वरूप प्रदान कर दिया है । समिति के राष्ट्रीय महासचिव हरीश देशमुख ने स्वागत भाषण और कार्यक्रम का संचालन हरिभाऊ पाथोड़े ने किया । अभिनंदन पत्र का वाचन डॉ. राजेन्द्र पटौरिया, संपादक खनन भारती के किया । इस अवसर पर नागपुर के गणमान्य नागरिक, प्रबुद्ध समाजसेवी, शासकीय अधिकारी, साहित्यकार पत्रकार बड़ी संख्या में उपस्थित थे ।

12/08/2009

मीडिया विमर्श का वार्षिकांक समर्पित है मीडिया और महिलाएं विषय पर


भोपाल। महिलाएं आज मीडिया के केंद्र में हैं। मीडिया उन्हें एक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। मीडिया ने स्त्री को बिकने वाली वस्तु बना दिया है। मीडिया और स्त्री के बीच बनते नए संबंधों को उजागर करती है मीडिया विमर्श का नया अंक। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित देश की अग्रणी त्रैमासिक पत्रिका ने अपने वार्षिकांक को मीडिया और महिलाएं विषय पर समर्पित किया है।

यह पत्रिका अनेक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। इस विशेष अंक में आज के समय में मीडिया और स्त्री के विभिन्न आयामों को उजागर किया गया है। 88 पृष्ठों की इस पत्रिका में विषय पर केंद्रित 33 लेखों का संकलन है। इन विषय पर कलम चलाई है देश के ख्यातिलब्ध पत्रकारों, साहित्यकारों और विश्लेषकों ने। इस अंक में कमल कुमार, उर्मिला शिरीष, डा. विजय बहादुर सिंह, अल्पना मिश्र, जया दाजवानी, सच्चिदानंद जोशी, इरा झा, रूपचंद गौतम, मंगला अनुजा, गोपा बागची, डा. सुभद्रा राठौर, संजय कुमार, हिमाशु शेखर, रूमी नारायण, जाहिद खान, अमित त्यागी, स्मृति जोशी, कीर्ति सिंह, मधु चौरसिया, लीना, संदीप भट्ट, सोमप्रभ सिंह, निशांत कौशिक, पंकज झा, सुशांत झा, माधवीश्री, अनिका ओरोड़ा, इफत अली, फरीन इरशाद हसन, मधुमिता पाल, उमाशंकर मिश्र, डा. महावीर सिंह और रानू तोमर के आलखों का संग्रह है।

पत्रिका के संपादकीय में प्रख्यात कवि अष्टभुजा शुक्ल ने स्त्री और मीडिया पर लिखा है, ...मीडिया हमारे समय का बहुत प्रबल कारक है और स्त्री हमारे समय में अपनी पहचान और छाप पूरी शिद्दत के साथ अपने बूते पर दर्ज कराने के लिए जद्दोजहद कर रही है। स्त्री मीडिया की ओर आशा भरी निगाहों से देख रही है, जबकि मीडिया स्त्री को लोलुप दृष्टि से...। मीडिया अपनी चमक को और चमकीला बनाने के लिए स्त्री का उपयोग करने के लिए आतुर है। यह अंक पत्रकारों, मीडिया विश्लेषकों, शोधछात्रों, मीडिया विद्यार्थियों तथा महिला विशेषज्ञों के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पत्रिका ने कालजयी पत्रकार प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है..मुश्किल है उन्हें अलविदा कहना..। प्रो. कमल दीक्षित ने प्रभाष जोशी के विचारों को नए समाज के साथ जोड़ते हुए समाज को दिए गए उनके योगदान का स्मरण किया है।

10/14/2009

ज्ञानरंजन और विश्वरंजन के बीच



विश्वरंजन

इधर प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के द्वारा 10-11 जुलाई, 2009 को रायपुर में प्रमोद वर्मा के साहित्यिक अवदान तथा समकालीन आलोचना पर केंद्रित आयोजित 2 दिवसीय संगोष्ठी को लेकर कुछ विवाद उठ रहे हैं। इसकी सूचना तो मिल रही थी परन्तु उस विवाद में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। विवाद तो आयोजन के पहले भी उठ खड़ा हुआ था जब कुछ लोगों को इस बात से एतराज़ था कि एक डीजीपी कौन होता है प्रमोद वर्मा को हाईज़ैककरनेवाला? कुछ लोगों को मेरे और प्रमोद वर्मा के संबंध मालूम थे और इन लोगों को क़मोबेश मेरे बारे में तथा मेरे विचारों के बारे में भी पता है।

कुछ लेखक, जो माओवादी विचारधारा में आस्था रखते हैं या सलवा-जुडूम का विरोध कर रहे हैं, वे इसलिए शायद नहीं आना चाहते थे क्योंकि मैं सलवा जुडूम को समर्थन दे रहा था। मैं छत्तीसगढ़ 2007 में आया जबकि सलवा जुडूम 2005 से बस्तर में नक्सली आतंक का ख़िलाफ़त कर रहा है, फिर भी यह झूठ फैलाया जाता रहा कि मैं सलवा जुडूम का प्रणेता हूँ। हालाँकि मेरा यह भी मानना है कि हिंसा का सहारा लेकर नक्सली जिस तरह आदिवासियों को बस्तर में दबा रहे थे तो आदिवासी कभी न कभी विरोध तो करते ही।

1985 से 1990-91 तक बस्तर में आदिवासियों ने नक्सली आतंक और हिंसा के ख़िलाफ़ काफ़ी सारे छोटे-मोटे आंदोलन किये थे पर वे नक्सली हिंसा और दमन के सामने टिक नहीं पाये। 2005 में फ़र्क सिर्फ़ इतना हुआ कि जब नक्सलियों ने सलवा जुडूम के अनुयायियों की हत्या शुरू की तो वे शरणार्थी बनकर पुलिस थाने और कैंपों की ओर भाग आये और इस बार शासन ने उन्हें सुरक्षा देने का इंतेज़ाम किया। सीपीआई (माओवादियों) के पोलित ब्यूरो के 2005 से लेकर आज तक हुए निर्णयों से साफ़ ज़ाहिर हो जायेगा कि उन्होंने सिविल सोसायटीमें किस तरह सलवा-जुडूम के ख़िलाफ़ जहर बोये हैं ?

पर कुछ लेखकों ने कोशिश तो की ही कि साहित्यकारों को किसी तरह इस संगोष्ठी में आने सो रोका जा सके पर बहुतों को रोका नहीं जा सका। साहित्यकार बड़ी संख्या में आये। हर ख़ेमे से आये। शिवकुमार मिश्र आये। खगेन्द्र ठाकुर आये। कमला प्रसाद आये। चन्द्रकांत देवताले आये। अशोक बाजपेयी आये। नन्दकिशोर आचार्य आये। प्रभाकर श्रोत्रिय आये। अरविंदाक्षन आये प्रभात त्रिपाठी आये। रमाकांत श्रीवास्तव आयेपुरस्कृत रचनाकार द्वय श्रीभगवान सिंह और कृष्ण मोहन तो आये ही। साहित्यकार बिहार से आये, उत्तर प्रदेश से आये, गुजरात से आये, केरल से आये छत्तीसगढ़ से तो प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, इप्टा सहित सभी संगठनों के रचनाकर्मियों ने अपनी संपूर्ण निष्ठा के साथ सहभागिता दर्ज़ की। कुछ अपनी विशुद्ध साहित्यिक निष्ठा के कारण आये। कुछ प्रमोद वर्मा के कारण आये। कुछ मेरे कारण आये। जो मेरे कारण आये वे मुझे अच्छी तरह जानते हैं।

एक खुले मंच पर सबने अपनी बातें कही। आलेख पढ़े। कोई किसी से न दबा, न ही यह कोशिश की गई कि कोई लेखक-आलोचक अपनी आस्थाओं को बदले। राज्य के मुख्यमंत्री, कुछ अन्य मंत्री एवं राज्यपाल को सिर्फ़ औपचारिकता और प्रोटोकॉल के तहत आरंभ और समापन में बुलाया गया था क्योंकि बहुत दिनों के बाद एक बड़ा साहित्यिक आयोजन छत्तीसगढ़ में हो रहा था।

इधर एक और विवाद ज्ञानरंजन जी ने उठाया है। उन्होंने कमला प्रसाद, खगेन्द्र ठाकुर तथा नामवर सिंह पर बहुत सारे आरोप लगाकर प्रलेससे इस्तीफ़ा दे दिया। उसमें एक आरोप कमला प्रसाद और खगेन्द्र ठाकुर द्वारा रायपुर के आयोजन में शिरक़त करना भी है। वैसे में प्रलेस का सदस्य नहीं हूँ और प्रलेस के अंदरुनी विवादों से मेरा कोई लेना देना नहीं होना चाहिए पर क्योंकि विवाद में मुझे और संस्थान को भी घसीटा जा रहा है और अछूत क़रार दिया जा रहा है तो न चाहते हुए भी मुझे यह हलफ़नामा दर्ज़ करना पड़ रहा है।

मैं नामवर सिंह, खगेन्द्र ठाकुर, देवताले, ज्ञानरंजन, मैनेजर पांडेय, अशोक बाजपेयी तथा नन्दकुमार आचार्य प्रभृति को महत्वपूर्ण साहित्यकार मानता आया हूँ और उन सबके प्रति मेरे मन-मनीषा में एक आदर भाव भी है। पर यह कतई ज़रूरी नहीं कि हर बार मैं उनसे सहमत ही होता रहा हूँ। आदर, सहमति-असहमति से ऊपर की चीज़ होती है। किसी का आंकलन सहमतियों-असहमतियों के सीमाओं में रहकर नहीं की जा सकती, न ही व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की सीमाओं में रहकर। सुदीप बनर्जी से मेरी बहुत विषयों पर घोर असहमति थी पर हम अन्त तक बहुत अच्छे मित्र रहे। प्रमोद वर्मा के साथ भी मेरी तीव्र बहसें होती थी। परन्तु हमारी मित्रता में आँच नहीं आई और हम एक दूसरे की असहमतियों के बावजूद परस्पर आदर-भाव से जुड़े रहे। प्रमोदजी आज तक मेरे लिए साहित्यिक गुरू सदृश नज़र आते हैं। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के आयोजन में जो निजी कारणों से अथवा किसी अन्य कारणों से नहीं आये मैं तो उनका भी आदर करता हूँ, ख़ासकर उनका जो अपनी सर्जनात्मक हस्तक्षेप को निरंतर बनाये हुए हैं।

व्यक्तिगत या आईडियोलॉजिकल मतभेदों के कारण यदि लोगों को अछूत बनाया जाये और यह कहा जाये कि तुम फ़लां मंच पर क्यों बैठे, फ़लां व्यक्ति के आयोजन में क्यों गये तो ऐसा करने वाला व्यक्ति एक नयी जातिप्रथा को जन्म दे रहा है, एक नये ब्राह्मणवाद को जन्म दे रहा है। (वैसे यदि हम सचमुच अपने-अपने गिरहबान में गहरी दृष्टि से झाँके तो शायद बहुत बार ख़ुद के साथ भी नहीं बैठ सके।) छूत-अछूत की बात कोई और करे तो भी बात कुछ समझ में आती है पर प्रगतिशील विचारधारा और उससे मिलते-जुलते विचारधारा को माननेवालों के बीच यह बात उठे तो अचंभित होना स्वाभाविक है।

छूत-अछूत की बात उठाना जैसे, किसे कहाँ जाना चाहिए, कहाँ नहीं जाना चाहिए, किसके साथ उठना-बैठना चाहिए और किसके साथ नहीं उठना-बैठना चाहिए, गणतांत्रिक मूल्यों के भी विपरीत है। इतिहास के पन्नों में तो जाइये ! स्टालिन ने क्यों हिटलर के साथ बैठ कर जर्मनी के साथ संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किये ? बाद में हिटलर के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक कैपिटलिस्ट आइजनहॉवर को ऐलाइड फ़ोर्सेसका कमांडर मान रूसी फ़ौजी को आइजेनहॉवर के अधीन किया। माओ ने क्यों कैपिटलिस्ट किसिन्जर के साथ बैठ दुनिया के हालातों पर चर्चा की और क्यों अमेरिका और चीन को नज़दीक लाने की कोशिश की ?

ऐसा करने से न स्टालिन और न ही माओ कैपिटलिस्ट हो गये थे। किसी के साथ बैठने से, या किसी खुले मंच में विरोधियों के साथ बैठकर अपनी बात कहने से कोई अपनी आईडियालॉजी नहीं खो देता। किसी अवार्डको लेकर भी विवाद उठाया जा रहा है। आख़िर नोबेल पुरस्कार या ज्ञानपीठ पुरस्कार में भी कैपिटलिस्टों का धन लगा हुआ है। प्रगतिशील विचारधारा के बहुसंख्य साहित्यकारों ने इन अवार्ड्स को स्वीकारा है। तो क्या इससे उनकी प्रगतिशीलता ख़त्म हो गई ? ज़ाहिर है ऐसा नहीं हुआ। तो फिर विवाद की जड़ शायद कहीं और ही है। शायद व्यक्तिगत लड़ाई-झगड़ों को आइडियोलॉजिकल ज़ामा पहनाया जा रहा हो। और यदि ऐसा है तो यह बहुत दुख की बात है।


ब्रिटिश इतिहासकार ए. जे. पी. टेलर और इतिहासकार ह्यूग ट्रेवर रोपर में टेलर की एक पुस्तक को लेकर ज़बर्दस्त विवाद हुआ था। टेलर और रोपर में गहरी मित्रता भी थी, जो इस विवाद के बाद भी क़ायम रही। टेलर ने बाद में एक साक्षात्कार में इस विवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यदि रोपर दोस्ती के कारण उनका विरोध करने से कतराते तो वे टेलर की नज़रों में गिर गये होते। पूरा का पूरा विवाद टेलर और रोपर ने बौद्धिक स्तर पर रखा था। उसे छुआछूत के स्तर पर नहीं उतारा। क्या हम ऐसा हिन्दी जगत में नहीं कर सकते ? किसी भी देश में विवाद इस स्तर पर नहीं उतारा जाता कि कोई फ़लां के साथ बैठ गया या फ़लां के मंच से बोल गया तो वह अछूत हो गया ?

प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान हर खेमे, हर गुट, हर आइडियालजी के साहित्यकारों को खुला मंच प्रदान करता रहेगा। हर किसी को अपनी बात कहने की छूट देगा। ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि प्रमोद वर्मा स्वयं प्रगतिशील थे और इसलिए न सिर्फ़ उदार थे पर गणतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनकी संपूर्ण आस्था थी। वे किसी भी मंच पर जाने से कतराते नहीं थे और अपनी बात ज़ोर देकर तीव्र बौद्धिकता के साथ रखने में सक्षम थे।

( लेखक छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष हैं)

10/01/2009

हरिनारायण को बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान




भोपाल। दिल्ली से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका कथादेश के संपादक हरिनारायण को पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान दिये जाने की घोषणा की गई है। वर्ष 2008 के सम्मान के लिए श्री हरिनारायण के नाम का चयन पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने किया जिसमें नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव( मुंबई), सप्रे संग्रहालय, भोपाल के संस्थापक विजयदत्त श्रीधर( भोपाल ), छत्तीसगढ़ हिन्दी ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैयर,कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, साहित्य अकादमी के सदस्य गिरीश पंकज (रायपुर) शामिल थे। पूर्व में यह सम्मान वीणा(इंदौर) के यशस्वी संपादक डा.श्यामसुंदर व्यास और दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को दिया जा चुका है।

सम्मान समिति के सदस्य संजय द्विवेदी ने बताया कि हिन्दी की स्वस्थ साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित एवं रेखांकित करने के उद्देश्य से इस सम्मान की शुरूआत की गई है। इस सम्मान के तहत किसी साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ संपादन करने वाले संपादक को 11 हजार रूपये, शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह एवं सम्मान पत्र देकर सम्मानित किया जाता है। मार्च 1948 में जन्में श्री हरिनारायण 1980 से कथादेश का संपादन कर रहे हैं। वे हंस, विकासशील भारत, रूप कंचन के संपादन से भी जुड़े रहे हैं। उनके संपादन में कथादेश ने देश की चर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी जगह बना ली है।
-- जयप्रकाश मानस

9/28/2009

ब्लॉग पर साहित्य विशेषांक - आमंत्रण

मित्रों,

सृजनगाथा का अगला अंक "ब्लॉग पर साहित्य" विशेषांक है ।

पत्रिका के इस अंक में ब्लॉग में रचे गये या उपलब्ध कराया गई साहित्यिक विधाओं (कविता, कथा, उपन्यास अंश, ललित निबंध, वैचारिक निबंध, पत्र, संस्मरण, आलोचना, समीक्षा, किताब समीक्षा, पत्रिका समीक्षा निबंध, बायोग्राफ़ी, संपूर्ण किताब, छंद गीत, ग़ज़ल, दोहे, हाइकु, मुक्तक आदि सभी विधाओं ) की सामग्री प्रकाशित की जायेगी ।

एक प्रकार से यह हिन्दी ब्लॉग में उपलब्ध साहित्य का मूल्याँकन भी होगा । ब्लॉग पर हिन्दी, भाषा, साहित्य, व्याकरण पर केंद्रित मूल्याँकनपरक लेखों के लिंक भी हमें भेजा सकता है ।

यूँ तो हम आपके ब्लॉग पर अब तक प्रकाशित साहि्त्यिक सामग्रियों का अवलोकन करते रहे हैं और उनमें से भी कुछ चयन कर रहे हैं फिर भी आप से आग्रह है कि आप हमारा ध्यान बँटा सकते हैं क्योंकि सारे ब्लॉगरों पर नज़र डाल पाना कठिन है ।

आप चाहें रचना का लिंक 29 सितंबर, 2009 तक srijangatha@gmail.com पर हमें सुझा सकते हैं ।

विजय दशमी पर्व की शुभकामनाओं सहित

9/25/2009

इस ख़तरनाक समय में...


ज्ञानरंजन के इस्तीफे और अन्य विवादों को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव का प्रो. कमला प्रसाद का बयान


भोपाल 23 सितंबर, 2009 विगत कुछ दिनों प्रकाशित पत्रिकाओं-समाचार पत्रों के कुछ लेखों तथा हमारे सम्मानित लेखक ज्ञानरंजन की टिप्पणियों ने प्रलेस से संबंधित सांगठनिक स्तर पर कुछ सवाल पैदा किए हैं। प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव होने के नाते मेरी ज़िम्मेदारी बनती है कि उठाए गए सवालों के बारे में वस्तुस्थिति स्पष्ट करूं। सवाल हैं कि प्रमोद वर्मा संस्था्न द्वारा आयोजित ‘प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह’ में प्रलेस की भागीदारी क्यों हुई? प्रगतिशील वसुधा ने गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से फोर्ड फाउण्डे्शन की राशि से प्रदत्त कबीर चेतना पुरस्कार चुपके-चुपके क्यों ले लिया?

पहले प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह के बारे में बातें करें। इस आयोजन में जलेस-प्रलेस और जसम के अलावा अन्य महत्वपूर्ण लेखकों को आमंत्रित किया गया था। संस्थान की ओर से भेजे गए पहले निमंत्रण पत्र में वे नाम थे जिन्हें आमंत्रण भेजा गया था। दूसरे और आखिरी निमंत्रण पत्र में वे नाम थे जिन्होंने आने की स्वीकृति दी थी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि जिनकी स्वीकृति नहीं मिली उन्हें छोड़ दिया गया। जहां तक प्रमोद वर्मा का सवाल है, वे मार्क्सवादी और मुक्तिबोध, परसाई के साथी थे। वे प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मण्डल में रहे हैं। छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि रही, इसलिए बहुत से लेखकों से उनके वैचारिक पारिवारिक रिश्ते थे। विश्वरंजन तब उसी क्षेत्र में पदस्थ होने के कारण प्रमोद जी की मित्र मण्ड्ली में थे। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान बना-तो उसमें रूचि से वे सहयोगी बने। छत्तीसगढ़ के अनेक लेखकों के साथ आजकल वे इसके अध्यक्ष हैं। निर्णय का अधिकार अकेले उन्हें ही नहीं है। पृष्ठभूमि के रूप में इसे जानना जरूरी है। इस कार्यक्रम की घोषणा हुई तो मैंने छत्तीसगढ़ प्रलेस के साथियों से पूछा कि क्या स्थिति है? छत्तीसगढ़ के साथियों ने सलाह दी कि प्रमोद वर्मा पर कार्यक्रम प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की ओर से है। सरकारी अनुदान नहीं है, इसलिए आना चाहिए। स्वीकृति देने वाले लेखकों में मैंने अनेक वैचारिक साथियों और संगठनों में शामिल लेखकों के नाम देखे तो जाना तय किया। समारोह में आने वालों में छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण लेखकों के अलावा खगेंद्र ठाकुर, अशोक वाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, शिवकुमार मिश्र, कृष्ण मोहन, प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे नाम थे। कृष्ण मोहन और श्री भगवान सिंह को आलोचना पुरस्कार भी दिया गया था। अच्छी बात यह हुई कि प्रमोद वर्मा समग्र का प्रकाशन हुआ।

कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री और कुछ नेताओं के आने तथा विवादास्पद वक्तव्य देने पर वहां आए लेखकों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई, और इनका आक्रामक उत्तर लोगों ने अपने-अपने वक्तव्यों में दिया। पूरे आयोजन में प्रमोद वर्मा की विचारधारा ‘मार्क्सवाद’ बहस का आधार बनी रही। इसी दौरान कहीं से चर्चा में सुनाई पड़ा कि एक मित्र लेखक ने ‘पब्लिक एजेण्डा' में विश्वरंजन अर्थात डी.जी.पी.छत्तीसगढ़ के सलवा जुडुम के समर्थन और नक्सलपंथियों के विरोध में छपे इंटरव्यू को मुद्दा बनाकर कार्यक्रम में शामिल होना स्थगित किया है। उस समय तक लोगों ने ‘पब्लिक एजेण्डा’ का इंटरव्यू नहीं देखा था। इसके अलावा, सीधे भाजपा शासित सरकारी कार्यक्रम न होने के कारण लोग इसमें आए थे। उन्हें पहले से पता था कि सलवा जुडुम भाजपा सरकार के एजेण्डे में है। आमंत्रित लेखकों ने प्रमोद वर्मा स्मृति के पूरे आयोजन को लेकर कुछ आपत्तियां दर्ज कराईं। संस्थान के साथियों को परामर्श दिया गया कि इसे हमेशा सत्ता के प्रमाण से अलग रखा जाए।

छत्तीसगढ़ के जलेस-प्रलेस के साथियों तथा वामपंथी राजनीतिक दलों ने लगातार सलवा जुडुम के मसले पर सरकार का विरोध किया है। डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद उनकी रिहाई के लिए हुए आंदोलन में ये सभी लेखक शामिल रहे हैं। लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में यह प्रमुख मुद्दा था। याद रखना होगा कि अपनी-अपनी तरह से हत्यारी नीतियां छत्तीसगढ की ही नहीं अन्य भाजपा शासित राज्यों की भी हैं। मध्य‍प्रदेश में पिछले छह वर्षों में अल्पसंख्यकों पर सैंकड़ों अत्याचार और हत्याएं हुईं हैं। प्रलेस के लेखकों ने यहां लगातार सरकारी कार्यक्रमों का समय-समय पर विरोध और यथासमय बहिष्कार किया है। एक सूची प्रकाशित की जानी चाहिए कि मध्यप्रदेश में और इन सारे प्रदेशों के सरकारी कार्यक्रमों में किनकी-किनकी कहां-कहां भागीदारी रही है। मैं नहीं मानता कि गैर सरकारी प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शामिल होने मात्र से लेखकों का हत्यारों के पक्ष में खड़ा होना कहा जाएगा।

साथियों की ओर से उठाया गया अन्य सवाल वसुधा के फोर्ड फाउण्डेशन की राशि से कबीर चेतना पुरस्कार लेने का है। मैं यह स्पष्ट कर दूं कि संस्था़न से स्पष्ट जानकारी के बाद कि यह पुरस्कांर राशि संस्थान की ओर से है फोर्ड फाउण्डेशन की ओर से नहीं, संपादकों ने चुपके-चुपके नहीं, एक समारोह में यह पुरस्कार प्राप्त किया है। लोग जानते हैं कि गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान इलाहाबाद केंद्रीय विश्वंविद्यालय का एक प्रभाग है। दलित संसाधन केंद्र उसकी एक इकाई है। दलित संसाधन केंद्र की ओर से विगत कई वर्षों से दलितों की स्थितियों पर अध्ययन होता रहा है। संस्थान द्वारा दलितों के बारे में दस्तावेजीकरण के अलावा इलाहाबाद तथा भोपाल जैसे अन्य शहरों में केंद्र की संगोष्ठियां हुईं हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि हिंदी का कौन-सा महत्वपूर्ण लेखक है जो इन कार्यक्रमों में नहीं गया और मानदेय स्वीकार नहीं किया। जहां तक कबीर चेतना पुरस्कार की बात है, पहले हंस और तद्भव ने ये पुरस्कार लिए हैं। इनके संपादक भी संगठनों के हिस्से हैं। प्रगतिशील वसुधा लगातार दलित साहित्य प्रकाशित करती रही है। एक विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था, इसलिए निर्णायकों ने इस पत्रिका की पात्रता तय की है। प्रलेस से सीधी जुड़ी होने के कारण प्रगतिशील वसुधा का ऑडिटेड आय-व्यय खुले पन्नों में है। कभी भी देखा जा सकता है।

दोनों सवालों का तथ्यात्मक ब्यौरा पेश करने के बाद मेरा कहना है कि आज की परिस्थितियों में जिस तरह सांप्रदायिक शक्तियों का जाल देश में फैल रहा है, समूची मानवीय संस्कृति का बाज़ारीकरण हो रहा है, मूल्यों को तहस-नहस करने की साजिश है, उस समय अपने-अपने संगठन को अधिक क्रांतिकारी अथवा व्यक्तिगत रूप से स्वयं को अति-शुद्ध सिद्ध करने की कोशिश सांस्कृतिक आंदोलन की एकजुटता खण्डित करेगी। मर्यादाएं टूटने के बाद आंदोलन छूट जाएगा और लोग व्यक्तिगत हमलों पर उतर आएंगे। माना कि अब लेखकों के संगठन प्रेमचंद कालीन नहीं हैं, हो भी नहीं सकते। पर आज की परिस्थितियों में जो संभव है, हो रहा है। जरूरत पड़ने पर इनका जुझारू रूप देखा जा सकता है। इनके बिना सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर आवश्‍यक सामूहिक पहल की कल्पना असंभव होगी। विरोधी शक्तियां इन्हें तोड़ना चाहती हैं। कदाचित इनके विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गई तो वह दिन खतरनाक होगा।

9/17/2009

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