4/23/2008

कांग्रेस का भविष्य और सोनिया गांधी


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारत के सबसे पुराने राजनैतिक संगठन के रूप में जाना जाता है। 1885 ई0 में गठित यह राजनैतिक दल अपनी यात्रा के 122 वर्ष पूरे कर चुका है। जहाँ इस विशाल एवं सबसे पुरातन संगठन पर अपने गठन के समय भारत को अंग्रेंजों से मुक्त कराने जैसी बड़ी चुनौती थी, वहीं स्वतंत्रता के पश्चात अर्थात् 15 अगस्त 1947 के बाद इसी कांग्रेस पर स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र लोकतांत्रिक सरकार संचालित करने की भी ंजिम्मेदारी आ पड़ी। कांग्रेस ने अपने शुरुआती दौर में जहाँ एनी बेसन्ट, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, सर ह्यूम तथा महात्मा गांधी जैसे नेताओं का संरक्षण व नेतृत्व प्राप्त किया, वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यही कांग्रेस पंडित जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, ऱफी अहमद क़िदवई, कैप्टन शाहनवाज़ ख़ान, लाल बहादुर शास्त्री व इन्दिरा गांधी जैसे महान नेताओं का संरक्षण पाती रही है। सम्पूर्ण भारत में अपनी सफलता का परचम लहराने वाली तथा विविधता में एकता वाले इस बहुरंगी राष्ट्र में अपनी सर्वधर्म सम्भाव की नीतियों को मनवाने वाली कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता से लेकर अब तक अधिकांश समय केंद्र में अपना शासन चला चुकी है। एक समय ऐसा भी था जबकि भारत के अधिकांश राज्य भी प्राय: कांग्रेस शासित राज्य ही हुआ करते थे।


परन्तु आज कांग्रेस की स्थिति अनेकों उतार चढ़ाव आने के बाद पहले से कांफी बदल चुकी है। आज कांग्रेस पार्टी स्वर्गीय राजीव गांधी की विधवा सोनिया गांधी के नेतृत्व में विगत् दस वर्षों से संचालित हो रही है। सोनिया गांधी के नेतृत्व का परिणाम ही कहा जाएगा कि आज कांग्रेस पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ यू पी ए सरकार का सबसे बड़ा घटक दल है तथा कई राज्यों में भी कांग्रेस सत्तासीन है। परन्तु यदि हम सोनिया गांधी से पूर्व तथा राजीव गांधी की हत्या के पश्चात अर्थात् 1991 से लेकर 1998 के मध्य के कांग्रेस दौर को देखें तो हमें कांग्रेस की स्थिति वर्तमान की स्थिति से कहीं बद्तर दिखाई देगी। यह वह दौर था जबकि नेहरु गांधी परिवार से कांग्रेस की मशाल बुलंद करने वाला कोई व्यक्ति नज़र नहीं आ रहा था। सक्रिय राजनीति से सन्यास ले चुके नरसिम्हा राव को राजीव गांधी की हत्या के पश्चात पुन: राजनीति में वापस बुलाकर उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी। यह वही नरसिम्हा राव की पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने वाली सरकार थी जिसपर झारखंड मुक्ति मोर्चा के 4 सांसदों को धन देकर ख़रीदने तथा उनसे समर्थन लेकर 5 वर्ष तक राव सरकार चलाने का आरोप था। कहा जा सकता है कि तभी से कांग्रेस पार्टी पर ग्रहण लगना शुरु हो गया था।


उधर 1991 से 1998 तक एक ओर तो कांग्रेस नेतृत्व के लिए दिग्गज कांग्रेसी नेताओं में घमासान का दौर चल रहा था तो दूसरी ओर कांग्रेस की वास्तविक नब्ज़ को समझने वाला तथा कांग्रेस व नेहरु गांधी परिवार के प्रति पूरी वंफादारी रखने वाला कांग्रेसजनों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जो राजीव गांधी की विधवा सोनिया गांधी को 7 वर्षों तक इसी बात के लिए मनाता रहा कि आख़िर किसी प्रकार सोनिया स्वयं कांग्रेस को नेतृत्व प्रदान करें तथा टुकड़े-टुकड़े होती जा रही पार्टी को पुन: संगठित एवं मज़बूत करें। 14 मार्च 1998 को सोनिया समर्थकों व कांग्रेस के शुभचिंतकों की मुराद उस समय पूरी हुई जबकि सोनिया ने सीताराम केसरी को हटाकर स्वयं कांग्रेस की बागडोर संभाल ली। यह वह समय था जबकि पार्टी को कमज़ोर देखकर सत्ता के बिना अपनी सांस न ले पाने वाले तमाम नेता कांग्रेस पार्टी छोड़कर सत्ता की तलाश में अन्य राजनैतिक दलों में जाकर पनाह ले चुके थे। उस दौर में तथा उसके कुछ समय बाद तक भी कांग्रेस से ऐसे नेताओं ने अपना नाता तोड़ा जिनके बारे में पार्टी छोड़ने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जहाज के डूबते समय चूहों के कूद भागने की कहावत उस दौरान चरितार्थ हो रही थी। उधर सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के पश्चात कुछ ऐसे पार्टी नेताओं को भी तकलीफ़ महसूस हुई जोकि स्वयं को कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार समझ रहे थे। ऐसे भी कई लोग पार्टी छोड़कर चले गए। यहाँ तक कि ऐसे लोगों ने सोनिया गांधी पर विदेशी मूल की महिला होने जैसा ओछा हमला भी कर डाला। इसे समय की महिमा ही कहा जाएगा कि सोनिया को विदेश मूल का कहने वाले वही लोग आज फिर परिस्थितिवश सोनिया के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में घटक दल की भूमिका निभा रहे हैं तथा सत्ता में साझीदार भी बने बैठे हैं।


आज सोनिया गांधी की गिनती विश्व की चंद प्रमुख शक्तिशाली महिलाओं में की जा रही है। एक ओर तो सोनिया गांधी पर उनके विरोधी राजनीतिज्ञों द्वारा विदेशी मूल का होने, ईसाई होने जैसे तीसरे दर्जे के आक्रमण किए जा रहे हैं तो दूसरी ओर सोनिया गांधी त्याग, तपस्या और बलिदान की मूर्ति के रूप में स्वयं को स्थापित करती हुई आम लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाती जा रही हैं। सच्चाई तो यह है कि अप्रत्याशित रूप से सोनिया गांधी नेहरु परिवार के उस अभूतपूर्व लोक आकर्षण की वारिस भी बन चुकी हैं, जिससे कि लाखों लोगों की भीड़ इस परिवार के सदस्य को देखने व सुनने के लिए खिंची चली आती है। गत कई वर्षों से कांग्रेस से नेताओं के पलायन का जो सिलसिला शुरु हुआ था, वह भी लगभग थम सा गया है। पार्टी पहले की तुलना में अब अधिक संगठित व मज़बूत होने लगी है। इंदिरा गांधी की तर्ज़ पर फैसला लेते हुए सोनिया ने भी अपने सांसद पुत्र राहुल गांधी को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाकर एक बार फिर भारत के कांग्रेसजनों को यह संदेश दे दिया है कि नेहरु गांधी परिवार में कांग्रेस की पताका को बुलंद करने वाला वारिस अब सामने आ चुका है। परन्तु इन सब बातों के बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में अपना जनाधार वापस नहीं ला पा रही है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व गुजरात जैसे राज्य इसकी पकड़ से बाहर हैं। राजस्थान व उड़ीसा में भी कांग्रेस सत्ता में नहीं है। महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार है। बंगाल तो कई दशकों से कांग्रेस के हाथों से निकला हुआ है। हां हरियाणा व दिल्ली जैसे छोटे राज्यों पर ज़रूर कांग्रेस की हुकूमत है। आख़िर इसकी वजह क्या हो सकती है कि देश को स्वतंत्रता दिलाने का श्रेय लेने वाली कांग्रेस पार्टी तथा विशेषकर इस पार्टी को नेतृत्व प्रदान करने वाला नेहरु गांधी परिवार आज जनता को अपनी बात आख़िर क्यों नहीं समझा पा रहा है। यह विषय अत्यन्त गंभीर व चिंतनीय विषय है तथा प्रत्येक भारतवासी को इसे समझने की बहुत सख्त ज़रूरत है।


दरअसल कांग्रेस देश का एक ऐसा राजनैतिक दल है जोकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक भारत, एक भारतवासी, एक राष्ट्र, एक राष्ट्रीयता तथा एक पहचान की बात करता है। कांग्रेस पार्टी सर्वधर्म सम्भाव, अनेकता में एकता तथा साम्प्रदायिक सौहार्द्र की राष्ट्रव्यापी धारणा रखती है। यदि व्यापक राष्ट्रीय हित की नज़रों से देखा जाए तो आज यह सोच तथा ऐसी नीति केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि सभी राजनैतिक दलों की होनी चाहिए। परन्तु बड़े दु:ख की बात है कि धरातलीय स्थिति ऐसी नहीं है। देश के अधिकांश राजनैतिक दल इस समय या तो धर्म व सम्प्रदाय की राजनीति कर रहे हैं या फिर क्षेत्र, जाति, भाषा या वर्ग की राजनीति कर किसी न किसी आधार पर भारतवासियों में दरार डालने व मत आधारित ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रकार के ओछे हथकंडे अपनाने वाले क्षेत्रीय नेता दुर्भाग्यवश शक्तिशाली भी होते जा रहे हैं। वे अपने क्षेत्र के मतदाताओं को क्षेत्रीयता का पाठ पढ़ाते हैं, राष्ट्रीयता का नहीं। ज़ाहिर है चूँकि कांग्रेस पार्टी ऐसे सीमित, घटिया व ओछे हथकंडे नहीं अपनाती इसलिए उसे इसका नुक़सान भी उठाना पड़ रहा है। देश में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही मँहगाई भी कांग्रेस को बदनाम करने में अपनी अहम भूमिका निभा रही है। ऐसे में आम आदमी के हितों की बात करने वाली कांग्रेस पार्टी से मंहगाई की मार झेल रहा आम आदमी अब कतराता नज़र आ रहा है।


बहरहाल कांग्रेस गांधीवादी नीतियों व विचारधाराओं पर चलने वाला एक विशाल एवं पुरातन राजनैतिक संगठन है। अपने देश भारत में भले ही संकुचित सोच रखने वाली राजनीति के पैर पसारने की वजह से इसका आधार कम क्यों न होने लगा हो परन्तु इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस आज जिस स्थिति में भी खड़ी दिखाई दे रही है, उसका भी पूरा श्रेय सोनिया गांधी के नेतृत्व को ही जाता है। भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से इन्कार कर राजनैतिक त्याग का जो उदाहरण सोनिया गांधी ने पेश की है, उसकी दूसरी मिसाल पूरी दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलती। आशा की जा सकती है कि यदि बढ़ती हुई मँहगाई पर पार्टी नियंत्रण रख पाने में सफल रही तो सोनिया गांधी के नेतृत्व में गांधीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए सम्भवत: कांग्रेस पार्टी एक बार फिर अपने उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ सकेगी।
0तनवीर जाफ़री

4/19/2008

आरक्षण मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का न्याय

भारतवर्ष में राजनैतिक दलों द्वारा बड़े ही दुर्भाग्यपूर्ण तरींके से धर्म जाति, वर्ग, क्षेत्र तथा भाषा आदि के नाम पर जनता से वोट माँगे जाते हैं। राजनैतिक दल अथवा नेतागण इस बात को भली भाँति समझते हैं कि चूँकि उनके द्वारा विकास एवं प्रगति के नाम पर ऐसा कुछ विशेष नहीं किया गया है जिसकी दुहाई देकर वे मतदाताओं से अपने पक्ष में मतदान करने का निवेदन कर सकें। अत: मतदाताओं को धर्म जाति व सम्प्रदाय जैसे सीमित दायरों में बांधकर तथा उन्हीं सीमित स्वार्थों का वास्ता देकर मत प्राप्त करना इन निकृष्ट नेताओं व राजनैतिक दलों को सुगम प्रतीत होता है। और यही विचार आरक्षण जैसे उस फ़ार्मूले को जन्म देते हैं जोकि शायद ही समाज के किसी भी एक वर्ग का सही ढंग से कल्याण कर पाता हो। परन्तु देश में लागू आरक्षण की वर्तमान नीतियां अनारक्षित वर्ग के लोगों में आरक्षित वर्ग के प्रति वैमनस्य का पर्याय अवश्य बन जाती हैं।

स्वतंत्र भारत में आरक्षण की शुरुआत दलित समाज को अन्य समाज के बराबर खड़ा करने के उद्देश्य से की गई थी। समय गुज़रने के साथ-साथ दलित, आरक्षण तथा आरक्षण की आवश्यकताओं आदि की परिभाषा भी बदलती गई। यदि कुछ लोगों ने विशेषकर आरक्षित वर्ग के सम्पन्न लोगों ने इस आरक्षण नीति के लाभ उठाए हैं तो इसी आरक्षण के विद्वेष स्वरूप हमारा यह शांतिप्रिय देश कई बार आग की लपटों में भी घिर चुका है। मण्डल आयोग की सिंफारिशों को लागू किए जाने को लेकर पूरे देश में छात्रों द्वारा अपने भविष्य के प्रति चिंतित होकर जो आक्रोश व्यक्त किया गया था तथा उस दौरान जिस प्रकार की दर्दनाक घटनाएं सुनने में आई थीं, उन्हें याद कर आज भी दिल दहल जाता है। परन्तु आम जनता सिवाए मूकदर्शक बनी रहने के और कर भी क्या सकती है।


बहरहाल उच्चतम् न्यायालय ने गत् दिनों ओबीसी आरक्षण के विषय में अपना जो ऐतिहासिक निर्णय दिया है उसने वास्तव में नेताओं की आँखें खोल कर रख दी हैं। उच्चतम् न्यायालय की एक 5 सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मति से अपने ऐतिहासिक फैसले में ओ बी सी वर्ग को उच्च शिक्षण संस्थानों में दिए जाने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण के दायरे से आरक्षित वर्ग से सम्बद्ध रखने वाले सम्पन्न परिवार (क्रीमी लेयर) के लोगों को अलग रखने का निर्देश दिया है। साथ ही साथ माननीय न्यायालय ने शिक्षण संस्थानों को इस बात की भी हिदायत दी है कि आरक्षित सीटों के लिए अतिरिक्त सीटों का प्रबन्ध किया जाए ताकि सामान्य श्रेणी के छात्रों के हित भी सुरक्षित रह सकें।

माननीय उच्चतम् न्यायालय का यह ऐतिहासिक फैसला एक ऐसा अदालती फैसला है जिसकी प्रतीक्षा गत् 50 वर्षों से देश के बुद्धिजीवी समाज द्वारा की जा रही थी। पूरे देश में इस विषय पर प्राय: बहस होती रहती थी कि आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य क्या है तथा आरक्षण का आधार आंखिरकार क्या होना चाहिए। धर्म जाति के नाम पर आरक्षण किया जाना चाहिए अथवा आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र आरक्षण की ज़रूरत महसूस की जाए? अब तक देखा भी यही गया है कि आरक्षण तो बेशक दलित अथवा पिछड़े वर्ग के लोगों का उनकी जाति अथवा समुदाय के आधार पर कर दिया जाता था परन्तु उसका लाभ ज़मीनी स्तर पर वास्तविक ज़रूरतमंदों तक बहुत ही कम पहुँच पाता था। आमतौर पर आरक्षित समुदाय से संबंध रखने वाले शक्तिशाली, नेतागण तथा साधन सम्पन्न लोग ही आरक्षण का लाभ उठा पाते थे।


ऐसा होने से निश्चित रूप से आरक्षण दिए जाने का सरकार का वह उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता था जिसके लिए कि आरक्षण नीति लागू की जाती थी। अर्थात् दबे कुचले व अपेक्षित समाज को ऊपर उठाना, उन्हें बराबरी के दर्जे पर लाना तथा इस प्रकार सम्पन्न भारत का निर्माण करना।


उच्चतम् न्यायालय ने पहली बार उच्च शिक्षण संस्थानों में ओ बी सी को दिए जाने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण की परिधि से ओबीसी वर्ग के सम्पन्न परिवारों (क्रीमी लेयर) को अलग रखने की हिदायत देकर भविष्य के लिए एक नई एवं सार्थक बहस को निमंत्रण दे दिया है। हालांकि केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान जैसे सम्पन्न घरानों के लोगों को यह बात ज़रूर नागवार गुज़री है तथा इन्होंने सम्पन्न घरानों के आरक्षण की भी वकालत की है। परन्तु पासवान जैसे नेताओं की बातों में केवल स्वार्थ की ही झलक देखने को मिलती है जबकि उच्चतम् न्यायालय का निर्णय पूरी तरह न्यायपूर्ण, राष्ट्रहित में तथा आरक्षण के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति करता हुआ नज़र आता है। आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए, जातिगत नहीं। इस बात को लेकर कई दशकों से हमारे देश में अच्छी ख़ासी बहस होती रही है। टेलीविंजन व प्रिंट मीडिया में प्राय: इस विषय पर पत्रकारों व समीक्षकों के विचार आते रहे हैं। यदि मुट्ठी भर आरक्षित जातियों से संबंध रखने वाले नेताओं की बातें छोड़ दें तो आम समाज इसी विचारधारा का पक्षधर नज़र आया है कि सम्पन्न लोगों को आरक्षण क़तई नहीं दिया जाना चाहिए अर्थात् आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए जातिगत नहीं।

ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए कि उच्चतम् न्यायालय के फैसले से जाति आधारित आरक्षण की माँग करने वाले नेताओं के मुंह बंद होंगे तथा समाज का वास्तविक ज़रूरतमंद वर्ग जोकि आर्थिक रूप से कमंजोर होने की वजह से आरक्षण का हंकदार है, की उम्मीदें जागेंगी। चाहे वह अनारक्षित जाति से संबंध रखने वाला ही क्यों न हो। अभी तक तो आमतौर पर पूरे देश में यही देखा जा रहा है कि जाति आधारित आरक्षण का लाभ अधिकांशतय: पूरे देश में या तो आरक्षित जाति के नेताओं के परिवारों अथवा उनके रिश्तेदारों को प्राप्त हुआ है या आरक्षित जाति के प्रशासनिक अधिकारियों, राजपत्रित अधिकारियों अथवा आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यापारी वर्ग के लोगों को इसका लाभ मिल सका है। यह भी देखा जा सकता है कि गत् 50 वर्षों में इसी आरक्षण का लाभ उठाकर किस प्रकार से एक सम्पन्न परिवार और अधिक सम्पन्न, अति सम्पन्न बनता गया जबकि आरक्षण का वास्तविक हक़दार टकटकी लगाए अपनी बारी आने की प्रतीक्षा ही करता रह गया।

इस बात की प्रबल संभावना है कि भारत में बढ़ते जा रहे निजी कम्पनियों के बड़े जाल तथा उनमें रोंजगार की अत्यधिक संभावनाओं के परिणामस्वरूप सम्भवत: निजी क्षेत्र भी आरक्षण की नीतियों के दायरे में यथाशीघ्र आ जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो इस क्षेत्र में भी सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान निर्णय को मद्देनज़र रखा जाना चाहिए। यहां भी यदि आरक्षण लागू हुआ तो प्राथमिकता उन्हीं लोगों को दी जानी चहिए जो आर्थिक रूप से आरक्षण के हक़दार हैं न कि सिफ़ारिशी, सम्पन्न तथा नेताओं के रिश्तेदारों को।

आशा की जानी चाहिए कि उच्चतम् न्यायालय का यह फैसला भविष्य में लागू होने वाले आरक्षणों के लिए तो एक उदाहरण साबित होगा ही, साथ-साथ जो आरक्षण नीतियाँ इस समय शिक्षा अथवा नौकरी के क्षेत्रों में लागू हुई हैं, उन पर भी उच्चतम् न्यायालय के इस निर्णय को लागू करने की व्यवस्था की जाएगी। ताकि आरक्षण का वास्तविक लाभ उसके वास्तविक हक़दार को मिल सके। ऐसी आशा की जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक निर्णय से समाज में परस्पर सहयोग व भाईचारा भी बढ़ेगा तथा ज़रूरतमंद को उसके अधिकार भी मिलेंगे एवं ग़रीबों के जीवन स्तर में सुधार आने के परिणामस्वरूप भारत भी सम्पन्नता की ओर आगे बढ़ सकेगा।

निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा।

4/18/2008

तब बस्तर बहुत शांत था - पुलिस महानिदेशक, विश्वरंजन

प्रदेश पुलिस की कमान संभाल रहे डीजीपी विश्वरंजन सिर्फ पुलिसवाले नहीं हैं, उनके अंदर एक कवि, साहित्यकार, फोटोग्राफर, पेंटर और एक उपन्यासकार भी छुपा हुआ है। हालांकि वे अभी पुलिस की नौकरी के अलावा सिर्फ अपने कवि को ही जिंदा रख पा रहे हैं। पुलिस के कामकाज को उन्होंने काफी लंबे समय से काफी करीब से देखा है और उसकी समस्याओं को अच्छी तरह से जानते हैं। राज्य में पुलिस वालों की संख्या में कमी उन्हें खटकती है और वे बताते हैं कि इस समस्या को नई भर्तियों के जरिए क्रमश: दूर किया जा रहा है। विश्वरंजन का मानना है कि राजनीतिक दबाव में आना-न आना अफसर के चरित्र पर निर्भर करता है। अगर अफसर गलत काम करेगा तो वह दबेगा भी। जो सही काम करेगा, वह अड़ेगा और अपनी पहचान बनाएगा। कानून व्यवस्था बनाने में जनता के योगदान को वे अच्छी तरह समझते हैं और इसके लिए उनकी पुलिस काम भी कर रही है। राज्य के पुलिस प्रमुख विश्वरंजन से युवा पत्रकार बबलू तिवारी ने लंबी चर्चा की। प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-

0- गत दिनों हुए सुहैला कांड के पीछे आप क्या कारण पाते हैं? इसमें यह बात भी सामने आई है कि जिस सरपंच को गांव वालों ने मारकर जिंदा जलाया उसके खिलाफ वहां के लोकल थाने में बहुत सी शिकायतें थीं। उसका नाम थाने के निगरानी शुदा बदमाशों की लिस्ट में भी था। जिस दिन की घटना है, उस दिन वहां नाचा के दौरान थाने के दो सिपाही भी सुबह तक उपस्थित थे। पुलिस के पास इतनी जानकारी होने के वावजूद वह पहले से बचाव की कार्रवाई क्यों नहीं पाई? जनता क्यों कानून को अपने हाथ में लेने लगी है?

00- पुलिस बल की कमी एक बहुत बड़ा कारण है जिसके चलते बहुत सी बातों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है-जैसे वीसीएनबी यानी विलेज क्राइम नोट बुक। एक समय था जब गांव में गश्त लगती थी और उसकी एक रूटीन थी कि महीने में इतनी गश्त लगेगी इतने गांवों में लगेगी। गश्त के दौरान थानेदार उन गांवों में वीसीएनबी लेकर जाता था और बैठकर मिलान करता था कि यहां पर बदमाश कौन है, किन पर भरोसा किया जा सकता है, किन पर नहीं किया जा सकता, यहां की लोकल समस्याएं क्या हैं, यहां कोई झगड़ा तो नहीं होने वाला है। पिछले 12-15 साल से यह प्रक्रिया कम हो गई है, या बंद हो गई है। इसके पीछे कारण है कि पिछले कई सालों से पुलिस में भर्ती नहीं हुई, जिससे थानों में जो बल था वह आधा हो गया है। जिसकी वजह से गांवों में गश्त बंद हो गई।



अब किसी गांव में जब कोई घटना होती है, तभी थानेदार वहां जा पाता है, उस समय गांव के बारे में उसे उतनी जानकारी नहीं मिल पाती है। पुराने जमाने में में गांवों में उजली और अंधेरी रात में किस तरह गश्त लगेगी यह निर्धारित होता था। दूसरी चीज, इस बीच गांवों की आबादी भी बढ़ी उसकी अपेक्षा पुलिस का अनुपात कम होता गया। पुराने हिसाब से थाने का बल और बढ़ना चाहिए था, वह भी नहीं हुआ। हम प्रयास कर रहे हैं कि पुलिस में जो पुराना नियम था उसे फिर चालू किया जाए। इसमें समस्याएं भी बहुत सारी हैं, क्योंकि अभी फोर्स उतनी नहीं है कि हम उस तरह की गश्त कर पाएं। इसके लिए हमने बोला है कि इसमें जनता का सहयोग लीजिए। ग्राम रक्षा दल बनाने की कोशिश कीजिए। ताकि पुलिस को तुरंत जानकारी मिल सके। जहां तक सुहैला कांड का सवाल है, वहां रात में नाचा कार्यक्रम के दौरान दो सिपाही थे, उन्होंने रात में हुए झगड़े को शांत करा दिया। उन्हें लगा कि सब ठीक हो गया, वो इस बात का अंदेशा नहीं लगा पाए कि कल फिर यह झगड़ा तूल पकड़ सकता है। जांच में इस बात का पता लगाने के लिए कहा गया है कि दोनों सिपाहियों ने थाने में आकर रात की घटना की जानकारी दी थी कि नहीं?


पुराने जमाने में सिपाहियों को इंफार्मेशन नोट बुक और आब्जर्वेशन नोट बुक दी जाती थी। इंफार्मेशन नोटबुक में वह वीएसएनबी से जानकारियां नोट करके रखता था। जब भी वह गांवों में किसी काम से जाता था तो वह नई जानकारियां नोट करके लाता था। उसमें यह भी जानकारी रहती थी कि अगर मर्ग हो गया है तो इसकी सूचना किसे देनी है, किससे संपर्क करना है, किससे गांव में हो रही गतिविधि के बारे में जानकारी लेनी है। अब यह चीज बंद हो गई है।

आब्जर्वेशन नोट बुक में वह खुद के अध्ययन के हिसाब से जानकारियां नोट करके लाता था। यह भी अब खत्म हो गया है। मप्र के दिनों में भी यह बंद हो गया था, लेकिन उसकी जगह सिपाही एक नोटबुक रखते थे और उसमें जानकारियां नोट करके लाकर थानेदार को दिखाते थे। थानेदार उस पर दस्तखत करता था और जरूरी जानकारी वीसीएनबी में दर्ज कर लेता था और अपने हिसाब से कार्रवाई करता था। ये सब चीजें आज से 22 साल पहले जब मैं यहां था तब चालू थीं, अब आकर पता चल रहा है कि ये सब खत्म हो चुकी हैं। एक तीसरी चीज और उस समय थी कि एसपी अपने हाथ से क्राइम डायरी भरता था। अब वह क्राइम डायरी नहीं भरता, डीएसपी और एसडीओपी भरते हैं। क्राइम डायरी नहीं भरने की वजह से एसपी को यह पता नहीं चल पाता कि कहां क्या चल रहा है, उसे बड़ी घटनाएं ही मालूम हो पाती हैं। क्राइम डायरी भरने से एसपी को एक नजर में पता चल जाता था कि किस-किस थाने में क्या प्राब्लम चल रही है, किस-किस तरह के अपराध हो रहे हैं। उसे यह भी पता लग जाता था कि कौन सा थानेदार सही काम कर रहा है, कौन सा थानेदार तफ्तीश में अच्छा है, कौन लॉ एंड आर्डर सही तरीके से संभाल लेता है, कौन इंवेस्टिगेशन अच्छा करता है। इसके हिसाब से वह जरूरत पड़ने पर उन थानेदारों को काम के मुताबिक इस्तेमाल कर लेता था। थानों में एसपी तीन-तीन दिन का निरीक्षण करते थे। अभी भी निरीक्षण हो रहा है, उसमें बहुत लंबा लिखा भी जा रहा है कि यह रिकार्ड ठीक नहीं है, उसे दुरुस्त करने के लिए मेमो भेज दिया जाता है। लेकिन उन दिनों एसपी थाने में ही बैठकर रिकार्ड ठीक कराता था। रजिस्टर नहीं भरा है, वीसीएनबी में नोट नहीं पड़ा है, सब ठीक करवाता था। इसके बाद वहां एक सम्मेलन होता था, जिसमें एसपी थाने में पूरे स्टाफ को बुलाता था और प्रत्येक से इलाके में बारे में उसकी जानकारी लेता। इसमें जो पुलिसकर्मी इलाके में बारे में काफी जानता था उसे रिवार्ड भी दिया जाता था और जो कम जानता था उसे सजा। अब इसका स्वरूप बदलकर यह हो गया है कि पुलिसकर्मियों से उनकी समस्याएं पूछी जाती हैं, यह भी ठीक है, लेकिन हम पुराने स्वरूप को वापस चालू करने का प्रयास कर रहे हैं। सुहैला कांड का असल भी यही है कि अगर थाने में वीसीएनबी भरा गया होता और किसी ने उसका निरीक्षण किया होता तो उसे पता चल जाता कि सुहैला में यह झगड़ा लंबे समय से चल रहा है। उसमें थानेदार पहला काम करता कि प्रो-एक्टिव एक्शन लेता। पुलिस भेजकर वर्तमान स्थिति की जानकारी लेता। हम बुनियादी पुलिसिंग को भूल रहे हैं। हम त्वरित पुलिसिंग की ओर बढ़ रहे हैं । यहां समस्या है, यहां फोर्स लगा दो, यहां घटना हुई है, यहां इंवेस्टिगेशन कर लो। जब तक हम बुनियादी पुलिसिंग नहीं करेंगे, तब तक हम बहुत सारी चीजों को कंट्रोल नहीं कर पाएंगे। यह हमारे लिए और भी जरूरी हो गया है क्योंकि स्टाफ कम हो गया है, आबादी बढ़ रही है, राजधानी बन गई है, नए इलाके बढ़ रहे हैं, नए लोग आ रहे हैं, उनके साथ नौकर-चाकर आ रहे हैं, नए कारखाने खुल रहे हैं, उनमें काम करने के लिए लोग आ रहे हैं। वीसीएनबी चालू होने से उसमें कुछ तो भरा जाएगा, जैसे उस इलाके में कितने सजायफ्ता है, किसे कौन सी सजा हुई है, कौन निगरानीशुदा बदमाश है, कितनी बार चोरी हो चुकी है, कौन किस अपराध में लिप्त है इसकी जानकारी मिल सकेगी। इसे चालू नहीं करने से हो सकता है कि हम बड़ी-बड़ी चोरी, डकैती पकड़ लें, लेकिन रोजमर्रा के क्राइम को हम कंट्रोल नहीं कर पाएंगे। बुनियादी चीजों में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन इससे पुलिस के पास हर इलाके की पूरी तस्वीर होती है। सुहैला कांड में जाति की समस्या भी सामने आई है। जाति की समस्या सिर्फ पुलिस नहीं सुलझा सकती। ये जाति की समस्या थी। बिहार में हम रहे हैं हम जानते हैं कि जाति संघर्ष कितना खतरनाक होता है। विदेशों में काउंटी पुलिसिंग में इसका बहुत अच्छा समाधान है, वहां पंचायतों का अपना थाना है, वह खुद ही पुलिसकर्मियों की भर्ती करती हैं। एक थाने में 5-10 पुलिसकर्मी होते हैं। थाने का हेड भी वहीं का लोकल होता है, उसे अच्छी तरह से पता होता है कि गांव में क्या चल रहा है। उस पर जिम्मदारी भी होती है, क्योंकि वह सही काम नहीं करेगा तो पंचायत उसे निकाल देगी। हमारे यहां यह इसलिए नहीं हो सकता कि ना तो यहां की पंचायतों में उतनी पारदर्शिता है और न ही उतना पैसा। हमारे यहां रूरल थानों के क्षेत्र में 50-100 गांव आते हैं, जहां बराबर जा पाना फोर्स की कमी के कारण संभव नहीं है। इसके उपाय के रूप में हमारे पास कोटवार सिस्टम था, जो कि अभी भी है, लेकिन इसमें अब समस्या ये हो रही है कि हम जो जानकारी उससे ले पाते थे अब नहीं ले पा रहे हैं। क्योंकि कोटवार भी अब गांव की अंदरूनी राजनीति का हिस्सा बन जा रहा है। वह उसी गांव का रहने वाला होता है, इसलिए वह अपने फायदे-नुकसान के हिसाब से पुलिस को जानकारी देता है। उसको मिलने वाला मानदेय भी ना के बराबर ही है। दूसरा पुलिस गांव में फोर्स की कमी की वजह से नहीं जा पा रही है। पुलिस गांव के आसपास होने वाले क्राइम में ही उलझी रहती है जिससे बुनियादी पुलिसिंग नहीं हो पा रही है। हमने कहा है कि कम से कम वीसीएनबी का रिकार्ड दुरुस्त कर लिया जाए ताकि कोई जब गांव में जाए तो वीसीएनबी पढ़कर जाए,जिससे उसे उस गांव के बारे में जानकारी रहे। अगर पुलिस वीसीएनबी पढ़ने लगेगी तो वह भरना भी शुरू कर देगी।


जहां तक एसपी के तीन दिन के निरीक्षण का सवाल है उसका भी हल निकाला जा सकता है। हमने बोला है कि आप थानों का निरीक्षण करें, एक साथ तीन दिन रुकने की बजाय आप एक-एक दिन निरीक्षण कर सकते हैं, थानेदार को निरीक्षण के बाद बोल दीजिए कि फलां-फलां रिकार्ड ठीक नहीं है, इसे दुरुस्त करवाएं हम दोबारा आकर देखेंगे। शहर की बात छोड़ दीजिए तो रूरल थानों में तो इसे किया ही जा सकता है, एसपी की जगह एसडीओपी और डीएसपी भी निरीक्षण कर सकता है, दरअसल होता यह है कि एक बार आदत छूट जाने के बाद उसे वापस लाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। हमारे जमाने में हम लोग रोज दिन की शुरुआत ही क्राइम डायरी लिखने से करते थे। सुबह सात बजे से 8 -9-10 बजे तक डायरी लिखते थे फिर तैयार होकर आफिस जाते थे। यह आदत में शामिल था। उस समय दो दिन परेड होती थी- मंगलवार और शुक्रवार। आप हफ्ते में दो दिन लाइन में जाते थे तो मालूम रहता था कि वहां क्या हो रहा है।

सिपाहियों से बात करते थे तो पता चलता था कि उन्हें क्या समस्या है। जब हम यह सब कुछ छोड़ देंगे, तो समस्याएं होंगी ही। अब फोर्स कम है, और वही लोग रात में डयूटी करके आए रहते हैं तो सुबह आप किसकी परेड लेंगे। चार आदमी की परेड तो लेंगे नहीं। अब ये हो रहा कि परेड न होने की वजह से अधिकारी लाइन ही नहीं जाते हैं। हमने कहा है कि आप बगैर काम के ही रोज लाइन में जाकर एक-दो घंटे बैठिए। इसी बहाने आप कर्मचारियों से बात करेंगे, आप को पता चलेगा कि उसे रोजमर्रा या अन्य वजह से क्या परेशानी हो रही है, जिसका उसकी कार्यक्षमता पर असर पड़ रहा है। जहां तक जनता का कानून हाथ में लेने का सवाल है उसमें कई बातें होती हैं, पहली कि जब कोई चीज गांव में उबल रही है, और पुलिस को उसकी जानकारी नहीं होती है तो उसको संभालने के लिए आपको बहुत सख्ती करनी पड़ती है। अगर पुलिस इस वजह से सख्ती नहीं करती है कि वह संभाल लेगी, तब आप संभाल नहीं पाते हैं, यह बहुत संभव है। दूसरी यह कि यह स्थिति आई क्यों इसके लिए मैंने बताया ही कि मौलिक पुलिसिंग नहीं होने से थाने को यह पता ही नहीं चलता कि गांव में चल क्या रहा है। इसके साथ ही इसका राजनीतिक कारण भी होता है, जिसमें ऐसी चीजें कराई जाती हैं। चुनाव के आसपास इसका ग्राफ बढ़ जाता है। यह मामला इससे अलग है, यहां पुलिस यह अनुमान नहीं लगा पाई कि छोटी सी घटना कितना बड़ा रूप ले लेगी। अनुमान आप तभी लगा पाएंगे जब आपको पता होगा कि गांव ऐसे कौन से लोग हैं जो ऐसा काम कर सकते हैं, या फिर जो लोग गांव में इकट्ठा हुए हैं वे क्या करेंगे। इसलिए मैं कहता हूं कि जब तक पुलिस बुनियादी पुलिसिंग नहीं करेगी, तब तक समस्या का निदान नहीं हो सकता। हम सिर्फ समस्या खड़ी कर रहे हैं आज के लिए, कल के लिए।


0- फोर्स की कमी शहर-गांव के थानों में बनी हुई है, उसके लिए क्या किया जा रहा है, अभी थानों में जो फोर्स के स्वीकृत पद हैं वह 1992 की आबादी के हिसाब से हैं, क्या इसमें भी बढ़ोतरी की गई है? भर्ती के साथ क्या इस पर ध्यान दिया जा रहा कि फोर्स का दुरुपयोग अफसरों व नेताओं के बंगलों पर न हो?

00- राज्य सरकार ने पुलिस फोर्स को 21 हजार से बढ़ाकर 42 हजार कर दिया है। इसमें डीएफ, सीएएफ, एसटीएफ और एटीएस भी शामिल है। खाली पदों को भरने के साथ ही आबादी के हिसाब से थानों का बल बढाया भी गया है। चूंकि काफी लंबे समय से भर्ती हुई नहीं है, इसलिए इतनी बड़ी संख्या में भर्ती की नहीं जा सकती। दूसरी समस्या यह है कि अगर हम एक साथ भर्ती कर भी लेते हैं तो हम हवलदार-एएसआई कहां से लाएंगे। हम सिपाही और सब इंसपेक्टर के पदों पर ही भर्ती करते हैं। ऐसे में सिपाही और हवलदार को लीड कौन करेगा। इतने पदों पर एक साथ ट्रेनिंग की समस्या भी है। हम अभी स्टेप-टू-स्टेप भर्ती कर रहे हैं, ताकि हवलदार-एएसआई की कमी ना हो पाए। मेरा मानना है कि अगले दो साल में हम रूरल थानों में फोर्स की कमी को पूरा कर लेंगे। अभी तक करीब 5 हजार पदों पर भर्ती हो चुकी है।

दूसरी चीज फोर्स के दुरुपयोग की जो है उसमें एक सुरक्षा ढांचा बना हुआ है कि किस अफसर के यहां कितना बल तैनात रहेगा। हमारी समस्या यह हो रही है कि जब राज्य बना था तो अफसर व वीआईपी के लिए जो ढांचा बनाया गया था उसमें अब बढ़ोतरी हो गई है। अब वीआईपी और अफसर बढ़ गए हैं और बल उतना ही है। इसलिए इसमें मिस-यूज नहीं होता। अगर होता है तो इसके लिए दूसरे कारण हैं, जैसे अगर कोई एसपी डीएफ के जवानों को अपने हिसाब से बंगलों पर तैनात करता है तो इसका पता हमें नहीं चल पाता है। क्योंकि डीएफ एसपी के अधीन रहता है। जब ऐसे मामलों का पता चलता है तो उस पर कार्रवाई भी होती है। हालांकि सीएएफ का दुरुपयोग एसपी भी नहीं कर पाता है क्योंकि जवान के परेड इंसपेक्शन के समय तथा डयूटी बुक में वह नोट हो जाती है। हमने 40-50 सीएएफ के जवानों को बंगलों से हटाया है, इन्हें पीएचक्यू में रखा गया है, जो कि लॉ एंड आर्डर के समय जिला पुलिस की मदद करते हैं। सीएएफ का दुरुपयोग हम रोक रहे हैं। डीएफ का हमें पता नहीं चल पाता है, अगर पता चल जाता है तो दबाव तो डाला जा सकता है।


0- कम्युनिटी पुलिसिंग के लिए प्रदेश में क्या काम किया जा रहा है।

00- शहरों में हम हर मोहल्ले में कमेटी बनाने की धीरे-धीरे शुरुआत कर रहे हैं। यह कमेटी स्थायी नहीं रहेगी, हर दो महीने में इसके सदस्य बदलते रहेंगे ताकि किसी भी तरह से इसमें घालमेल ना किया जा सके। देखा गया है कि कमेटी के लोग पुलिस से मिल जाते हैं या एक समुदाय या गुट के लोग कमेटी से जुड़ जाते हैं जिससे पुलिस को कोई फायदा नहीं मिल पाता है। इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को पुलिस से जुड़ने का मौका भी मिलेगा। इसको शुरू करने के लिए मीटिंग रखी गई है। अभी इसे हम बिलासपुर-रायगढ़ समेत चार शहरों में प्रायोगिक रूप में शुरू कर रहे हैं, ताकि इसमें अगर कोई सुधार करने की जरूरत पड़े तो उसे किया जा सके। फिर इसे सभी जिलों में चालू किया जाएगा। गांवों में ग्राम रक्षा दल बनाने के लिए थानेदारों को कहा गया है। हालांकि सभी गांवों में बनाना संभव नहीं है, लेकिन सेंसेटिव गांवों में रक्षा दल बनाना थानेदारों के लिए अनिवार्य किया गया है।


0- भारत में कौन से स्टेट की पुलिस आपको अच्छी लगी और क्यों? छत्तीसगढ़ पुलिस वैसा बनने के लिए क्या कर रही है?

00- देखिए यह ऐसा प्रश्न है कि आप किस हिसाब से देखते हैं। अगर क्राइम कंट्रोल के हिसाब से देखें तो महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्रा, कर्नाटक की पुलिस बहुत प्रोफेशनल है। इनका रिस्पांस टाइम काफी अच्छा है। इनके पास फोर्स अधिक है। ट्रेनिंग स्कूल्स अच्छे हैं। राज्य सरकारें पुलिस बजट पर काफी पैसा खर्च करती हैं। नार्थ इंडिया में फोर्स की कमी शुरू से रही है। मप्र पुलिस 15-20 साल पहले बहुत अच्छी मानी जाती थी। यहां पर एसपी के लेबल पर पब्लिक रिस्पांस काफी अच्छा था। इसका कारण भी मैंने खोजा है, यहां चूंकि रजवाड़े होते थे, इसलिए एसपी यह रिस्क नहीं लेता था वह किसी से ना मिले, ना जाने कौन किस राजा का आदमी हो। सत्तर के दशक में भी आधी रात को फोन करने पर एसपी फोन उठाते थे। आज जितने भी एडवांस स्टेट हैं वहा कमिश्नरी सिस्टम लागू है। कमिश्नरी सिस्टम में पुलिस के पास फंड भी अधिक होता है और पॉवर भी। उनके पास मजिस्ट्रेट के अधिकार भी रहते हैं। जबकि छग, मप्र, राजस्थान, यूपी, बिहार, उड़ीसा आदि में यह सिस्टम नहीं है। वहीं महाराष्ट्र, तमिलनाडु , केरला,आंध्रा, कर्नाटक, कलकत्ता में यह शुरू से है। इन राज्यों को यह बात जल्दी समझ में आ गई कि अगर राज्य को विकास करना है तो वहां की कानून व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त रखनी होगी। इसके लिए पुलिस पर खर्च अधिक करना होगा।


0- बंगलौर सहित कुछ जगहों में जनता सीधे पुलिस से शिकायत करने के बजाय वहां तैनात स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं को अपनी शिकायत दर्ज कराती है। इसे पुलिस द्वारा जनता के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार को कम करने के लिए किया गया है यहां ऐसा कुछ किया जा सकता है क्या?

00- यह काम कई जगह किया जा रहा है, इसकी शुरुआत तमिलनाडु कैडर के आईपीएस अफसर फिलिप्स ने की थी। पुलिस फ्रेंड्स आज कई राज्यों में काम कर रहे हैं, हालांकि ये साधारण मामलों को सुलझाने का प्रयास करते हैं, जब मामला उनसे नहीं संभलता तो वो इसे पुलिस के पास ट्रांसफर कर देते है। मेजर अफेंस में पुलिस सीधे कार्रवाई करती है। केरला, तमिलनाडु, आंध्रा में इस पर काम हो रहा है। पंजाब में टेरेरिज्म के बाद दूसरे टाइप से इस पर काम करने का प्रयास किया गया। लखनऊ में कोशिश की जा रही है। फ्रेंड्स पुलिस में पुलिस कम्युनिटी के पास नहीं जाती है, बल्कि कम्युनिटी ही पुलिस के पास जाकर कहती है कि वह उनकी मदद करना चाह रही है। पुलिस फ्रेंड्स पर पिछले दस साल में बहुत सारा काम हुआ है। हम यहां कम्युनिटी के पास जाकर कमेटी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। धीरे से यहां भी लोग पुलिस की मदद के लिए सामने आएंगे।


0- महिला थाने में पारिवारिक प्रकरणों को सुलझाने के लिए जो काउंसिलिंग की व्यवस्था की गई है उसे आप कितना सफल पाते हैं?

00- मैं इसे बहुत ज्यादा सफल नहीं पाता हूं, क्योंकि ज्यादातर मामलों को सुलझाने में टीम सफल नहीं हो पाती। इसके पीछे पुरुष और महिला के बीच फर्क और दहेज की व्यवस्था कारण हैं। आदमी महिला को अपने बराबर मानने को तैयार नहीं होता। महिलाएं शिक्षित हो रही हैं तथा अपना अधिकार मांगती हैं, तब विवाद पैदा होता है। इस समस्या को कोई भी काउंसलर सुलझा नहीं सकता क्योंकि घर जाते ही दोनों का एटीटयूड पहले जैसा हो जाता है। दहेज से संबंधित मामलों में काउंसिलिंग टीम को जरूर सफलता मिल रही है।


0- राजनेताओं द्वारा आए दिन पुलिस अफसरों को धमकाने की खबरें मिलती रहती हैं, पुलिस अफसरों पर नेता दबाव बनाकर मनमाफिक काम करवाते हैं, ना कहने पर उन्हें दंडित करवाने के लिए कहा जाता है, इसे आप किस तरह से लेते हैं?

00- यह समस्या नेता या अधिकारी की नहीं है, इसके पीछे सामाजिक परिवेश कारण है। यह सामंतवाद के शक्ति विखंडन से निकली है। जो चीज आप नेता के लिए बोल रहे हैं वह अधिकारी पर भी लागू होती है। अब शक्ति नेता और अधिकारी के पास आ गई है। दबाव में वही अफसर आते हैं जो खुद कानून से खेलने लगते हैं और करप्ट होते हैं। जो अफसर खुद दस गलत काम करेगा, तो वह दबाव में आएगा ही। इसका मतलब नेता और पुलिस से नहीं है, इसका सीधा मतलब आप की ईमानदारी से है। जब आप दस गलत काम करेंगे, तो दूसरे को कैसे मना कर सकते हैं। अगर आपने अपने नीचे गङ्ढा खोदकर रखा है तो आप लड़ेंगे कैसे, लड़ेंगे तो गङ्ढे में गिरेंगे जरूर। आप अगर ईमानदार हैं तो कार्रवाई कीजिए, कोई दबाव बनाता है तो उसे समझाइए और अपनी बात पर अड़िए। कोई भी आप का ज्यादा से ज्यादा क्या कर सकता है, ट्रांसफर । जहां नई जगह जाएं वहां भी ईमानदारी से काम करें, कितनी बार आपका ट्रांसफर किया जा सकता है, एक-दो-तीन-चार बार। अफसर को अपनी पर्सनालिटी खुद बनानी होती है। दबाव में वही आते हैं जिनकी गलती कोई दूसरा पकड़ लेता है। इसमें एक बड़ा रोल जिले के एसपी का भी होता है, अगर एसपी ईमानदार और दबाव में नहीं आने वाला है, तो इसका असर उसकी पूरी टीम पर पड़ता है। अन्यथा पूरी टीम भी उसके जैसी ही हो जाती है, क्योंकि वह ईमानदारी से काम करने वाले अधिकारी के काम में भी दखल डालता है।


0- छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ इतनी बड़ी लड़ाई जा रही है, इस दौरान यह देखा जा रहा है कि कई पुलिसकर्मियों पर फर्जी इनकाउंटर के मामले दर्ज हो रहे हैं, अंबिकापुर की घटना इसका ताजा उदाहरण है, जिसमें पुलिस अधिकारी को इनामी नक्सली का इनकाउंटर करने पर पदोन्नति के साथ राष्ट्रपति पदक भी प्रदान किया गया था और उसी इनकाउंटर के लिए उस पर 302 का मामला कायम किया गया है, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

00- देखिए अंबिकापुर का मामला अभी न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए मैं इसपर नहीं बोलूंगा। मेरा मानना है कि अगर इनकाउंटर फर्जी है तो गलत है। पुलिस का अधिकार कानून के अंदर ही है। जब भी पुलिस कानून के दायरे से बाहर जाती है तो वह खुद ही गैरकानूनी हो जाती है। बहुत जगह देखा जा रहा कि जहां नक्सलवाद या आतंकवाद है, वहां ये लोग एक ग्रुप खड़ा कर देते हैं जो हर इनकाउंटर को फर्जी साबित करने का प्रयास करता है। अगर आप दस आदमी को गवाह के रूप में खड़ा कर देते हैं तो मुकदमा तो कायम हो जाएगा लेकिन मुकदमा कायम होने का यह मतलब नहीं है कि आप दोषी साबित हो गए। अगर आपका इनकाउंटर सही है तो कोर्ट से आपका छूटना निश्चित है। रही बात विभाग के सपोर्ट करने की तो विभाग जिस इनकाउंटर में संशय की स्थिति नहीं होती उसमें पूरी मदद करता है। लेकिन जिसमें संशय होता है उसमें एक सीमा तक ही किसी का साथ दिया जा सकता है। देश में कई मामले अधिकारियों द्वारा अपने फायदे के लिए फर्जी इनकाउंटर करने के सामने आए हैं। अब अगर कोई अधिकारी ऐसा करता है तो उसे कैसे रोका जा सकता है? हर जगह तो सीनियर अधिकारी उपस्थित होता नहीं है। जहां-जहां भी आतंकवाद या नक्सलवाद है, वहां यह समस्या सामने आ रही है, ऑल इंडिया लेबल पर भी इस पर विचार किया जा रहा है, लेकिन समस्या यह है कि हम किस आधार पर कह सकते हैं कि फर्जी इनकाउंटर नहीं होंगे। इसलिए हर इनकाउंटर के बाद उसकी मजिस्ट्रेट जांच कराई जाती है। अंबिकापुर वाले मामले में कोर्ट मजिस्ट्रेट जांच को नहीं मान रही है। डिपार्टमेंट ज्यादातर मामलों में अधिकारी का साथ देता है, उस समय तक उसे पगार भी मिलती है। कोर्ट यह नहीं कहता है कि आपने फर्जी इनकाउंटर किया है, कोर्ट का कहना यह रहता है कि उसके पास ये-ये प्रमाण मिले हैं, जिसमें प्रथम दृष्टया फर्जी इनकाउंटर होना पाया जाता है। फिर आप का काम होता है कि आप इसे झूठा साबित करें और जीतने के बाद डैमेज क्लेम भी कर सकते हैं।


0- बस्तर में इतने बड़े स्तर पर फोर्स तैनात की गई है, लेकिन वहां जो पुलिसकर्मी काम कर रहा है उसे ऐसा लगता है कि वह पनिशमेंट में वहां भेजा गया है। कुछ अधिकारी और नेताओं को बार-बार यह कहते भी देखा जाता है कि वह अधिकारी का ट्रांसफर बस्तर में करवा देगा। इसे आप किस नजरिए से देखते हैं?

00- देखिए यह यहां की घबराहट है, लेकिन जब आप लड़ाई के मैदान में कूद जाते हैं तो घबराहट नहीं रहती। इसका मैं उदाहरण देता हूं, अभी जो 12 पुलिसवाले मरे हैं वे लोग अपने एक मलेरिया पीड़ित साथी को पहुंचाने के लिए 35 जवानों की एक टोली में रवाना हुए थे। रास्ते में उन पर नक्सलियों ने अटैक कर दिया। 12 पुलिसकर्मियों ने बाकी साथियों को उसे लेकर जाने के लिए कहा। उन बारह लोगों को अच्छी तरह से पता था कि वे रुक रहे हैं तो उनकी मौत होनी निश्चित है, लेकिन फिर भी वे रुके, इससे पता चलता है कि फोर्स का मनोबल कितना ऊंचा है। यहां से पुलिसकर्मियों को जाते समय बुरा लगता है लेकिन वहां पहुंचने के बाद वह मोरल डाउन करके रह ही नहीं सकता है। रही बात पनिशमेंट की तो पुलिस का जवान लड़ने के लिए ही होता है, उसे इसे पनिशमेंट के रूप में नहीं लेना चाहिए।
0- आंध्र प्रदेश में जिस तरह से नक्सलियों से मोर्चा ले रही पुलिस को सुविधाएं मिल रही है, वैसा हम क्यों नहीं कर पा रहे हैं? क्या हम फोर्स को आंध्र प्रदेश की तरह बैक सपोर्ट दे पा रहे हैं?00- वेतन के मामले में हम भी आंध्र प्रदेश की तर्ज पर काम करने जा रहे हैं, एसटीएफ की सैलरी में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है। डीएफ के जो जवान सघन नक्सल इलाके में हैं उनकी सैलरी 20 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्र में तैनात जवानों के वेतन में 15 प्रतिशत इजाफा करने का प्रस्ताव पास होने के लिए राज्य सरकार के पास भेजा गया है जो कि जल्द ही मंजूर हो जाएगा। रही बात संसाधन की तो जवानों को लगभग सभी जरूरी चीजें उपलब्ध कराई गई हैं, लेकिन देखा गया है कि जवान बुलेट प्रूफ जैकेट और टोपी भारी होने की वजह से नहीं पहनते हैं। यहां समस्या दूसरी है, नक्सलियों की मैन पॉवर ज्यादा है, वे लोग दंतेवाड़ा-बीजापुर के जंगलों में बराबर ट्रेनिंग कैंप चला रहे हैं, जिसमें झारखंड, आंध्रा, उड़ीसा , महाराष्ट्र आदि जगहों के 2 हजार के लगभग लोगों को 12 महीनों ट्रेनिंग दी जाती है। नक्सली 300 से ऊपर वाले पुलिस दल पर कभी हमला नहीं करते, वे 30-40 जवानों वाली टोली पर ही हमला करते हैं, बड़ी टोली के सामने से वे हट जाते हैं।


0- बस्तर में आप 22 साल पहले रहे हैं, आज के बस्तर को भी आप देख रहे हैं, वहां क्या बदलाव देखते हैं?

00- बस्तर में नक्सली प्राब्लम होने वाला है, इसकी जानकारी सबसे पहले शासन को हमने दी थी। सन 198 1 की बात है जब मैं एआईजी स्पेशल ब्रांच में था उस समय जानकारियां आने लगी थीं कि नक्सली उस इलाके में घूमने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि उस समय मप्र में नक्सली नहीं थे, पहला नक्सली मप्र में 196 8 में पकड़ाया था भोपालपट्नम में। दूसरा 1971 में पकड़ाया था जगदलपुर में। उसके बाद मैंने पूरे बस्तर का दौरा किया। जंगलों में पत्रकार बनके घूमा, उस समय कोई आईडेंटिटी कार्ड नहीं देखता था। सुकमा, गोलापल्ली, भोपालपट्नम सहित पूरे इलाके का दौरा करके शासन को रिपोर्ट दी। उसके बाद मुझे वहां का एसपी बना दिया गया। उस समय आज की अपेक्षा बस्तर में पुलिस फोर्स बहुत कम था। कई थानों में मात्र 1-4 का ही बल था। फिर बहुत सारी फोर्स बढ़ाई गई। 198 2 में नई बटालियन बनाई गई। बस्तर डेवलपमेंट प्लान बना। मैं एसपी भी था और बटालियन का कमाडेंट भी। वहां पीटीएस खोला गया। जवानों को टे्रंड किया गया। उस समय कोंटा, गोलापल्ली, चिंतागुड़ा आदि इलाकों में नक्सलियों का मूवमेंट आधिक था। उस समय नक्सलियों ने ब्लास्ट करना शुरू नहीं किया था। चंद्रपुर में ब्लास्ट हो चुका था, आंध्रा में शुरू कर दिया था, लेकिन बस्तर में नहीं हुआ था। उस समय बस्तर बहुत शांत जगह थी। चारों तरफ हरियाली थी। मैंने अबूझमाड़ पैदल पार किया। उस समय वहां नक्सली नहीं थे। अब वहां दहशतभरा माहौल है।


फोटोग्राफी और पेंटिंग के लिए नहीं मिलता समय


0- आप कवि-साहित्यकार भी हैं, पुलिस की व्यस्त जिंदगी में इसके लिए समय कैसे निकालते हैं?

00- मैं सिर्फ कवि और साहित्यकार नहीं हूं, मैं फोटोग्राफर भी हूं, पेंटिंग भी करता हूं । मेरी फोटोग्राफी और पेंटिंग छूट गई। मेरी पेंटिंग की बस्तर सहित कई शहरों में एक्जीबिशन भी लग चुकी है। अभी सिर्फ कविता के लिए ही समय निकाल पाता हूं। वो इस लिए कि इसके लिए अलग से समय नहीं निकालना पड़ता, क्योंकि कविता कहीं पर भी और कभी भी सूझ जाती है। गाड़ी में चलते-चलते सूझ गया और उसे लिख लिया। मैं उन लोगों में नहीं हूं जो नौकरी के समय तमाम दूसरे काम करते हैं। मुझे पैसा किसलिए मिलता है, पुलिस की नौकरी के लिए। उसी से मेरा परिवार चलता है, इसलिए मैं पहली प्राथमिकता पुलिस के काम को देता हूं। उसमें मैं कोई समझौता नहीं करता हूं, तो मेरी पेंटिंग और फोटोग्राफी दोनों छूटी। कविता चलती रही, क्योंकि मैं इसे कहीं भी लिख सकता हूं, फोटोग्राफी के लिए मुझे घूमना ही पड़ेगा, पेंटिंग के लिए मुझे बैठना पड़ेगा। उसमें दो घंटे भी लग सकते हैं पांच घंटे भी। इसके लिए समय निकालना पड़ेगा जो मैं नहीं निकाल सकता। इसलिए सिर्फ कविता चल रही है। दूसरी चीजें मैं नहीं कर पा रहा हूं और मुझे लगता है, कि उसे रिटायरमेंट के बाद ही कर पाउंगा। मेरे नाना थे रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी जो कि उर्दू के बड़े शायर माने जाते हैं। उनकी बायोग्राफी का काम कर रहे थे, वह भी यहां रुक गया। हम एक उपन्यास पर काम कर रहे थे वह भी रुक गया। बायोग्राफी, उपन्यास, आलेख, फोटोग्राफी, पेंटिंग मैं पुलिस के काम से समझौता करके नहीं कर सकता, क्योकि पुलिस महकमे से ही मैं जिंदा हूं, मेरी फैमिली जिंदा है। कविता बीच-बीच में निकल जाती है। मेरे कई साथी भी रुके हुए काम को पूरा करने के लिए बोलते हैं, मैं उन्हें भी यही जवाब देता हूं।


0- आपने बिहार में भी काम किया है, वहां और यहां में आप क्या फर्क पाते हैं?

00- बहुत फर्क है, वहां अब जातीयता का मुद्दा राजनीतिक हो गया है। वहां अब एसटीएससी, बैकवर्ड की बात कम हो गई है। वहां राजनीतिक जागरूकता लोगों में बढ़ी है। लोग शिक्षित हो रहे हैं। राजनीति में सब को साथ लेकर चलने का काम जो मायावती ने अभी किया है वहां काफी पहले से हो रहा है। वहां कोई ऐसी कास्ट नहीं है जो अपने बल पर चुनाव जीत सके । नक्सलवाद से इसे जोड़कर नहीं देखा जा सकता। वहां नक्सली लोकल मुद्दे लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं। जैसे वे यहां पर फारेस्ट को लेकर जंग में उतरे। झारखंड में इन्होंने जमीन और मुआवजे की बात उठाई, लोगों को बहकाना शुरू किया कि आप को कुछ नहीं मिला और बाहर के लोग आकर यहां राज कर रहे हैं। वहां टाटा जैसी कंपनियां पहले ही आ चुकी थीं। इसलिए वे इस मुद्द को नहीं उठा सके। बिहार में ये भी नहीं बचा, तो वहां नक्सलियों ने इात को हथियार बनाया। नार्थ बिहार में बड़े-बड़े जमींदार हैं, जिनके पास 10-10 हजार एकड़ जमीनें हैं। वहां अमीरी गरीबी में बहुत बड़ी खाई है लेकिन वहां भी नक्सली कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं। वहां के गरीबों को उन्होंने जमींदारों द्वारा उनके ऊपर किए गए अत्याचार को लेकर उकसाने का प्रयास किया। लेकिन वहां के जमींदार अपने कर्मचारियों को बहुत ज्यादा सहयोग देते हैं, शादी-ब्याह में भरपूर सहयोग देते हैं, बीमार होने पर गाड़ी से पटना भिजवा देते हैं, इसलिए इनकी दाल वहां ज्यादा नहीं गल पाई। वहां पालिटिकलअवेयरनेस भी ज्यादा है, आप देखते होंगे पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो स्टेशन में सबसे ज्यादा चिट्ठी बिहार से ही आती है। वो भी किसी दूरदराज के छोटे से गांव से जिसमें वह राष्ट्रीय मुद्दे पर सवाल पूछता है। छत्तीसगढ़ में लोग बहुत सीधे हैं। गांवों में पालिटिकल अवेयरनेस न के बराबर है। अब धीरे-धीरे यह बढ़ रही है। जैसा कि रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग के आसपास के इलाकों में ही दिखाई देता है। इसका एक कारण और भी है, यहां अभी पढ़ने-लिखने को लेकर वो जागरूकता नहीं आई है जो बिहार में है। यहां प्राकृ तिक संसाधन भरपूर हैं, जो कि बिहार में नहीं हैं।


0- भारत सरकार से आप तत्काल दस बटालियन देने की मांग कर रहे हैं, केंद्रीय केबिनेट सेक्रेटरी से भी आप की बात हो चुकी है। क्या उम्मीद करते हैं, कब तक कितनी बटालियन मिल पाएगी?

00- गवर्नमेंट आफ इंडिया के लेबल पर भी अभी बटालियन की काफी तंगी है। हम यहां बैठकर काफी आसानी से मांग कर सकते हैं, लेकिन मैं वहां भी रहा हूं, इसलिए जानता हूं कि उनके सामने क्या परेशानी है। अभी चार राज्यों में चुनाव होने हैं, चुनाव आयोग ने उन्हें अलर्ट कर रखा है। शार्ट नोटिस पर उन्हें फोर्स को डायवर्ट करना पड़ेगा। केंद्र की यह सबसे बड़ी परेशानी है। वहां के सभी अधिकारी अच्छी तरह जानते हैं कि नक्सलियों के खिलाफ सबसे बड़ी लड़ाई यहां चल रही है और मदद भी देना है। लेकिन फोर्स कहां से निकालें? उन्हें लगता है कि कहीं फोर्स भेजें और 15 दिन में उसे वापस न बुलाना पड़े। मुझे ऐसा लगता है कि बड़ी संख्या में ना सही , लेकिन 4-5 बटालियनें तो हमें जल्द मिलेंगी।

सदके इन मासूम तर्कों के

वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं। लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में, अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा दी जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते। -संजय द्विवेदी

छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने पहली बार मुस्कराने का मौका दिया है। उन्होंने रायपुर में छत्तीसगढ़ सरकार की आलोचना कर लंबे समय से चली आ रही कांग्रेसियों की मुराद पूरी कर दी है। होता यह रहा है कि केंद्र सरकार के मंत्री राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहे हैं। राज्य में आने वाले लगभग हर मंत्री ने जब भी मौका मिला राज्य सरकार के कामकाज की तारीफ ही की। श्री प्रकाश जायसवाल ने नक्सल मामले पर रमन सरकार को नाकाम बताते हुए कहा कि छ: महीने बाद जब राज्य में कांग्रेस की सरकार होगी, तो वह ही नक्सलियों से निपटेगी। जाहिर है केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का यह बयान राज्य सरकार की तार्किक आलोचना कम, चुनावी बयान ज्यादा है। चुनाव निकट आते देख एक सच्चो कांग्रेसी होने के नाते उनका जो फर्ज है, उसे उन्होंने निभाया है। यह सिर्फ़ संदर्भ के लिए कि पिछले महीने जब श्रीप्रकाश जायसवाल के 'बास केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल रायपुर प्रवास पर आए थे तो उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।

गृह राज्यमंत्री ने नक्सलवाद के मुद्दे पर राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया, तो इसके कोई बहुत मायने नहीं हैं। क्योंकि नक्सलवाद के खिलाफ यह पहली सरकार है, जो इतनी प्रखरता के साथ हर मोर्चे पर जूझ रही है। सिर्फ़ बढ़ती नक्सली घटनाओं का जिक्र न करें, तो राज्य सरकार की सोच नक्सलियों के खिलाफ ही रही है। डा. रमन सिंह की सरकार की इस अर्थ में सराहना ही की जानी चाहिए कि उसने राजकाज संभालने के पहले दिन से ही नक्सलवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबध्दता का ऐलान कर दिया था। राजनैतिक लाभ के लिए तमाम पार्टियां नक्सलियों की मदद और हिमायत करती आई हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। इन आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग डा. रमन सिंह की सरकार ने पहली बार नक्सलियों को उनके गढ़ में चुनौती देने का हौसला दिखाया है। राज्य सरकार की यह प्रतिबध्दता उस समय और मुखर रूप में सामने आई, जब श्री ओपी राठौर राज्य के पुलिस महानिदेशक बनाए गए। डा. रमन सिंह और श्री राठौर की संयुक्त कोशिशों से पहली बार नक्सलवाद के खिलाफ गंभीर पहल देखने में आई। वर्तमान डीजीपी विश्वरंजन की कोशिशों को भी उसी दिशा में देखा जाना चाहिए।

होता यह रहा है कि नक्सल उन्मूलन के नाम पर सरकारी पैसे को हजम करने की कोशिशों से ज्यादा प्रयास कभी नहीं दिखे। पहली बार नक्सलियों को वैचारिक और मैदानी दोनों मोर्चों पर शिकस्त देने के प्रयास शुरू हुए हैं। यह अकारण नहीं है कि सलवा जुड़ूम का आंदोलन तो पूरी दुनिया में कुछ बुध्दिजीवियों के चलते निंदा और आलोचना का केंद्र बन गया किंतु नक्सली हिंसा को नाजायज बताने का साहस ये बुध्दिवादी नहीं पाल पाए। जब युध्द होते हैं, तो कुछ लोग अकारण ही उसके शिकार होते ही हैं। संभव है इस तरह की लड़ाई में कुछ निर्दोष लोग भी इसका शिकार हो रहे हों। लेकिन जब चुनाव अपने पुलिस तंत्र और नक्सल के तंत्र में करना हो, तो आपको पुलिस तंत्र को ही चुनना होगा। क्योंकि यही चुनाव विधि सम्मत है और लोकहित में भी। पुलिस के काम करने के अपने तरीके हैं और एक लोकतंत्र में होने के नाते उसके गलत कामों की आलोचना तथा उसके खिलाफ कार्रवाई करने के भी हजार हथियार भी हैं। क्योंकि पुलिस तंत्र अपनी तमाम लापरवाहियों के बावजूद एक व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है, जिस पर समाज, सरकार और अदालतों की नजर होती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की इसलिए तारीफ करनी पड़ेगी कि पहली बार उन्होंने इस 'छद्म जनवादी युध्द को राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दी। वे देश के पहले ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने इस समस्या को उसके राष्ट्रीय संदर्भ में पहचाना है।

आज भले ही केंद्रीय गृह राज्यमंत्री राज्य शासन को कटघरे में खड़ा कर रहे हों, लेकिन उन्हें यह तो मानना ही होगा कि नक्सलियों के खिलाफ छत्तीसगढ़ सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए। इसका कारण यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी जिस 'विचार परिवार से जुड़ी है वह चाहकर भी माओवादी अतिवादियों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकती। एक वैचारिक गहरे अंर्तविरोध के नाते भारतीय जनता पार्टी की सरकार राजनैतिक हानि सहते हुए भी माओवाद के खिलाफ ही रहेगी। यह उसकी वैचारिक और राजनैतिक दोनों तरह की मजबूरी और मजबूती दोनों है।

नक्सलवाद के खिलाफ आगे आए आदिवासी समुदाय के सलवा-जुड़ूम आंदोलन को कितना भी लांछित किया जाए, वह किसी भी कथित जनक्रांति से महान आंदोलन है। महानगरों में रहने वाले, वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं, लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की यातना और पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते। इस तरह का ढोंग रचकर वैचारिकता का स्वांग रचने वाले लोग यहां के दर्द को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे पीड़ा और दर्द के ही व्यापारी हैं। उन्हें बदहाल, बदहवास हिंदुस्तान ही रास आता है। हिंदुस्तान के विकृत चेहरे को दिखाकर उसकी मार्केटिंग उन्हें दुनिया के बाज़ार में करनी है, डालर के बल पर देश तोड़क अभियानों को मदद देनी है। उन्हें वैचारिक आधार देना है, क्योंकि उनकी मुक्ति इसी में है। दुनिया में आज तक कायम हुई सभी व्यवस्थाओं में लोकतंत्र को सर्वश्रोष्ठ व्यवस्था माना गया है। जिनकी इस लोकतंत्र में भी सांसें घुट रही हैं, उन्हें आखिर कौन सी व्यवस्था न्याय दिला सकती है। वे कौन सा राज लाना चाहते हैं, इसके उत्तर उन्हें भी नहीं मालूम हैं। निरीह लोगों के खिलाफ वे एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका अंत नजर नहीं आता। अब जबकि सरकारों को चाहे वे केंद्र की हों या राज्य की कम से कम नक्सलवाद के मुद्दे पर हानि-लाभ से परे उठकर कुछ कड़े फैसले लेने ही होंगे। नक्सल प्रभावित सभी राज्यों और केंद्र सरकार के समन्वित प्रयासों से ही यह समस्या समूल नष्ट हो सकती है। यह बात अनेक स्तरों पर छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से कही जा चुकी है। समाधान का रास्ता भी यही है। सही संकल्प के साथ, न्यूनतम राजनीति करते हुए ही इस समस्या का निदान ढूंढा जा सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य में चल रही यह जंग छत्तीसगढ़ की अकेली समस्या नहीं है। देश के अनेक राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं और दिन-प्रतिदिन नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करते जा रहे हैं।

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री भले ही यह कहें कि राज्य सरकार में नक्सलवाद से लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं है, किंतु सच्चाई यह है कि पहली बार छत्तीसगढ़ सरकार ने ही यह इच्छाशक्ति दिखाई है। इसे हौसला, हिम्मत और साधन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है वरना आरोपों-प्रत्यारोपों के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा।

(लेखक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं)