10/06/2007

पृथ्वी से बैकुंठ की दूरी 12 लाख योजन

आज के तीव्र गति वाले वैज्ञानिक युग में भले ही स्वर्ग या बैकुंठ को कपोल कल्पना समझा जाय पर शताब्दियों से भारतीय मन और मनीषा में बैकुंठ की अवधारणा पर अटूट विश्वास है । हाल ही में मिली 400 वर्षीय प्राचीन और दुर्लभ पांडुलिपि ब्रह्मांड पुराण की मानें तो पृथ्वी से बैकुंठ की दूरी 12 लाख योजन है ।

रायगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 50 किमी दूर एवं उड़ीसा राज्य से जुड़े ग्राम सरिया के 83 वर्षीय ज्योतिषाचार्य हरिबंधू महापात्र ने जिला प्रशासन के पुरातत्व समिति को हस्तलिखित ब्रहांड पुराण सौंपा है जिसे लगभग 400 वर्ष प्राचीन माना गया है । यह पांडुलिपि कागज़ में नहीं बल्कि ताड़पत्र में है जो उड़िया भाषा में लिखित है । ताड़ वृक्ष के पत्तों में बड़े ही सुंदर ढंग से पुस्तक की तरह निर्मित यह पांडुलिपि 244 पृष्ठों का है । इस ग्रंथ के अनुसार पृथ्वी से बैकुंठ की दूरी 12 लाख योजन है । इतना ही नहीं, ज्योतिष केंद्रित इस दुर्लभ पांडुलिपि में उड़िया भाषा में यह भी लिखा हुआ है कि पृथ्वी से सूर्य की दूरी 1 लाख योजन, चंद्रमा की 2 लाख योजन, तारागण की 3 लाख योजन, ध्रुवतारा 4 लाख योजन, यम का घर 5लाख योजन, इंद्रदेव का घर 6 लाख योजन पर स्थित है । दूरी की पारंपरिक इकाई के अनुसार एक योजन को 12 कोस माना जाता है । श्री हरिबंधू महापात्र बताते हैं कि यह पांडुलिपि उनके दादा परदादा के ज़माने से है जिसे वे भी अब तक बड़े जतन से संभाल कर रखे हुए थे, उनके अनुसार इस पांडुलिपि की सहायता से जब भी कुछ ज्योतिषीय भविष्यवाणी की है सब कुछ सही साबित हुईं हैं । वे इसे विज्ञान सम्मत ज्ञान मानते हैं । इन सिद्धियों पर विश्वास करें तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि भारतीय विद्वानों को ब्रह्मांड भूगोल की सम्यक ज्ञान हजारों वर्षों पहले से ही था ।

श्री महापात्र के द्वारा जिन दुर्लभ पांडुलिपियों को पुरात्व समिति को जनहित में उपलब्ध कराया गया है उनमें प्राचीन शिक्षण से लेकर आधुनिक शिक्षा, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, सामाजिक जीवन पद्धति आदि की किताबें सम्मिलित हैं । इसमें विष्णु सहस्त्रनाम, खड़ी रत्न पंजिका, झाड़-फूँक मंत्र, विवाह पद्धति, नित्याचार शैव पद्धति, भार्गव केरल ज्योतिष, ब्रह्मांड पुराण, व्रत संहिता, गृह योग पद्धति, उड़िया भाषा का शब्दकोश-अमरकोश, शिव मंदिर प्रतिष्टा, यजुर्वेद कांड संहिता, तालाब प्रतिष्ठा आदि प्रमुख हैं । रविशंकर विश्वविद्यालय के इतिहासविद् डा. रमेन्द्रनाथ मिश्र का कहना है कि यद्यपि इनमें से अधिकांश किताबें कर्मकांड की हैं किन्तु इसमें भारतीय संस्कृति की समृद्ध जीवन-पद्धति की जानकारियाँ बिखरी पड़ी हैं और वे गंभीर शोध की विषय-वस्तु हैं । प्रख्यात भाषाशास्त्री डॉ. चित्तरंजन कर के अनुसार इन दुर्लभ कृतियों से उड़िया भाषा की प्राचीनता और उसकी साहित्येत्तर विषयों पर पैठ और क्षमता का भी आंकलन किया जा सकता है ।

कई पीढ़ी पहले श्री महापात्र के पूर्वज उड़ीसा से आकर पश्चिमी उड़ीसा से लगे छत्तीसगढ़ के इस छोटे से ग्राम में बस गये थे, जहाँ वे अपने पड़ोसी गाँवों के अलावा दूर-दूर से आने वाले लोगों की अनेक समस्यायों का हल वैदिक पद्धति से बताते हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं: