9/17/2007

छत्तीसगढ़: आशियाना बचाने में जुटा 'परिवार'


-संजय द्विवेदी-

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के भाजपा मुख्यालय एकात्म परिसर में चार दिन चली विचार मंथन बैठक में भाजपा के जन प्रतिनिधि जार-जार रोते रहे और उनके नेता उन्हें ढाढस बंधाते रहे। सत्तारूढ़ दल के जन प्रतिनिधियों की ऐसी बेबसी शायद पहली बार देखी और सुनी गई। पिछले दिनों चंपारण्य में हुई बैठक में जब भाजपा के दिग्गज नेताओं को असंतोष के सिर से ऊपर निकल जाने का अहसास हुआ तभी यह तय हो गया था कि समय रहते आपदा प्रबंधन कर लेना उचित होगा। इसके दो फायदे थे पहला बैठक के बहाने वे चेहरे सामने आ जाएंगे, जो अपनी सरकार से कुछ ज्यादा ही संतप्त हैं। दूसरा नाराज कार्यकर्ता पार्टी नेताओं के सामने अपना गुस्सा निकालकर थोड़े ठंडे भी हो जाएंगे। नाराजगी को एक सही फोरम भी मिलेगा और चौक-चौराहों पर अपनी ही सरकार के खिलाफ आग उगलते कार्यकर्ता थोड़े शांत हो जाएंगे। जाहिर है भाजपा की यह रणनीति कामयाब रही और भाजपा संगठन यह संदेश देने में कामयाब रहा कि उन्हें कार्यकर्ताओं की भी चिंता है। चार दिन चली बैठक के निष्कर्षों के आधार पर कोई कार्रवाई हो या न हो पर भाजपा के आला नेताओं को फीडबैक तो मिल ही गया है। भाजपा के चार दिन चले विचार मंथन में केवल और केवल आर्तनाद और चीख-पुकारें सुनाई देती रहीं। विधायकों से लेकर मंडी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, नगर निगम, पालिकाओं के प्रतिनिधि सिर्र्फऔर सिर्फ शिकायतें करते रहे। निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की ऐसी दीनता देखने लायक थी, वह भी तब, जब पिछले साढ़े तीन सालों से उनकी सरकार सत्ता में है।

भाजपा शासित अन्य राज्यों के मद्देनजर छत्तीसगढ़ में सत्ता और संगठन में एक गजब किस्म का तालमेल दिखता है और यहां असंतोष कभी भी एक सीमा से बाहर नहीं जा सका। बावजूद इसके पार्टी के निर्वाचित प्रतिनिधियों में असुरक्षा बोध के साथ निराशा भी घर कर गई है। किसी भी राजनैतिक कार्यकर्ता का अधिकतम सपना सांसद या विधायक बनने का ही होता है। यहां हालात यह हैं कि भाजपा के सांसद और विधायक ही स्वयं को सर्वाधिक उपेक्षित मानते हैं। ऐसे में आम कार्यकर्ताओं के मानस को समझा जा सकता है। यह बात जब भारतीय जनता पार्टी जैसे काडर बेस दल में घटित हो रही हो तो खतरा बढ़ ही जाता है। जन प्रतिनिधियों के तेवरों पर नजर डालें तो निशाने पर भाजपा की सरकार और मुख्यमंत्री कम, नौकरशाही और कुछ मंत्री ज्यादा हैं। यह असंतोष मिल-जुलकर भाजपा सरकार के लिए संकट का सबब बन गया है। यह बहुत अच्छी बात है कि इस खतरे को भाजपा और उसके मुख्यमंत्री ने चुनाव से बहुत पहले पहचान लिया है और इस तरह की बैठकों का सिलसिला शुरू कर कार्यकर्ताओं को अपनी बात कहने का मौका दिया जा रहा है। पंचायत प्रतिनिधियों के तीखे तेवरों से जब पार्टी के दिग्गज हलाकान हो गए तो डा. रमन सिंह ने मोर्चा संभाला। उन्होंने कहा कि पंचायत प्रतिनिधियों का मानदेय बहुत कम है, इसे बढ़ाया जाएगा। साथ ही पंचायतों के अधिकार भी बढ़ाए जाएंगे। वहीं पार्टी के प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने भी कार्यकर्ताओं की दुखती रग पर हाथ रखा और यह कहकर माहौल को संभालने की कोशिश की कि भाजपा की सरकार कार्यकर्ताओं की सरकार है। अफसरों को यह भूल जाना चाहिए कि उनकी कार्यशैली वैसी ही बनी रहेगी, जो खुद को नहीं बदलेंगे, उसे सरकार बदल देगी। जाहिर है पार्टी नेताओं के तेवर कार्यकर्ताओं को दिलासा दिलाने में तो सफल रहे पर आने वाले दिनों में ये क्या रूप लेते हैं, इसे देखना शेष है।

लगभग सभी स्तरों पर नौकरशाही के खिलाफ जिस तरह का असंतोष उभरकर आया है, उसे सरकार महसूस कर रही है। यह ताप संगठन ने भी महसूस किया। धर्मेंद्र प्रधान के आश्वासन में भी इस पीड़ा से निजात पाने की ही इच्छा नजर आई। नौकरशाही का बेलगाम हो जाना और एक लंबे समय तक उस पर लगाम न लगा पाना भाजपा सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। जिसका सीधा शिकार पंचायतों के प्रतिनिधि ही हुए हैं। इसके साथ ही सांसद, विधायक भी अपनी सुनवाई न होने से खासे नाराज हैं। मंत्रियों को लेकर भी यही रोना रहा। शुरू के डेढ़-दो साल कई चुनाव लड़ते और यह कहते बीत गए कि मंत्रियों में ज्यादातर अनुभवहीन हैं और समय के साथ वे नौकरशाही पर सवारी करना सीख जाएंगे पर कार्यकर्ता मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और मंत्रियों पर संगठन का कोई प्रभाव नहीं दिखता। सब 'अपनी ढपली-अपना राग' की तर्ज पर काम कर रहे हैं।

भाजपा का यह द्वंद सिर्फ सत्ता में बने रहने का द्वंद नहीं है। यह भ्रष्टाचार और गुटबाजी को स्वीकार न कर पाने का भी द्वंद है। सत्ता में आते ही भाजपा को इन संकटों से दो-चार होना पड़ता है। जबकि प्रतिपक्ष में रहते हुए ये चीजें सतह पर नहीं दिखतीं। भाजपा का यह संकट दरअसल सिर्र्फछत्तीसगढ़ केंद्रित नहीं है, बल्कि यह द्वंद दो संस्कृतियों का द्वंद है और राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी इससे दो-चार हो रही है। यह द्वंद भाजपा के कांग्रेसीकरण और जनसंघ बने रहने के बीच में है। जनसंघ यानी भाजपा की पारंपरिक पहचान, जिसमें सत्ता से ज्यादा विचार की महत्ता है और भ्रष्टाचार तथा गुटबाजी के लिए कोई जगह नहीं है। लंबे संघर्ष के बाद कई राज्यों तथा केंद्र में सत्ता में आई भाजपा में चुनाव जीतकर आने वालों की तलाश बढ़ गई है। साधन, पैसे, ताकत, जाति सारे मंत्र आजमाए जाने लगे हैं। केंद्र में सरकार बनी तो गठबंधन के मंत्र ने भाजपा के सैद्धांतिक आग्रहों को भी शिथिल किया। इसने भाजपा के आत्मविश्वास, नैतिक राजनीति और संकट में एकजुट होकर संघर्ष करने की शक्ति को कम कर दिया। जिसका परिणाम यह है कि सत्ता में रहने पर भाजपा का काडर ही अपने आपको सबसे अधिक संतप्त अनुभव करता है। भ्रष्टाचार को खुले तौर पर भाजपा में स्वीकृति नहीं है, जबकि कांग्रेस ने इसे अपनी राजनीति का हिस्सा बना रखा है। राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार के सवाल पर सहज रहने के कारण कांग्रेस में यह मुद्दा कभी आपसी विग्रह का कारण नहीं बनता, बल्कि नेता व कार्यकर्ताओं के बीच में रिश्तों को मधुर बनाता है। कांग्रेस अपने सत्ता केंद्रित, कमीशन केंद्रित कार्य व्यवहार में अपने कार्यकर्ता को भी शामिल करती है, जबकि इसके उलट भाजपा में इसे लेकर बहुत द्वंद की स्थिति है। वहां भ्रष्टाचार तो है पर उसे मान्यता नहीं है। इसके चलते भाजपा का नेता भ्रष्टाचार करते हुए कार्यकर्ताओं और जनता में दिखना नहीं चाहता। नैतिक आवरण ओढ़ने की जुगत में वह अपने काडर से दूर होता चला जाता है। उसकी सारी कोशिशें यही होती हैं कि वह किस तरह से अपने कार्यकर्ताओं, जनता और संघ परिवार के तमाम संगठनों की नजर में पाक-साफ रह सके। इसके चलते परिवार सी दिखने वाली पार्टी में घमासान शुरू होकर महाभारत में बदल जाता है। राजनैतिक तौर पर प्रशिक्षित न होने के कारण भाजपा के कार्यकर्ता भावनात्मक आधार पर कार्य करते हैं। जरा से अपमान से आहत होकर या अपने नेताओं का अहंकार देखकर वे घर बैठ जाते हैं या अपनी ही पार्टी की सार्वजनिक छवि को मटियामेट करने में जुट जाते हैं। भाजपा पूरे देश में इसी संकट से जूझ रही है। ऐसा ही मामला गुटबाजी को लेकर है। कांग्रेस में एक आलाकमान है, जिस पर सबकी सामूहिक आस्था है। इसके बाद कांग्रेस विभिन्न क्षत्रपों में बंटी हुई है। गुटबाजी को कांग्रेस में पूरी मान्यता है। यह गुटबाजी कई अर्थों में कांग्रेस को शक्ति भी देती है। इस नेता से नाराज कार्यकर्ता दूसरे गुट के नेता को अपना नेता बनाकर पार्टी में अपना अस्तित्व बनाए रख सकते हैं। 'प्रथम परिवार' के अलावा उनमें किसी के प्रति कोई लिहाज नहीं है। लोकतंत्र ऐसा कि अदना सा कांग्रेस कार्यकर्ता किसी दिग्गज का इस्तीफा मांगता, पुतला जलाता दिख जाएगा। भाजपा का चरित्र इस अर्थ में बहुत आडंबरवादी है। यहां पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर ऊपर से नीचे तक बंटी हुई है पर इस प्रगट गुटबाजी के बावजूद इसे संगठन के स्तर पर मान्यता नहीं है। गुटबाजी और असहमति को मान्यता न देने के कारण भाजपा में षडयंत्र होते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार, मीडिया में आफ द रिकार्र्ड ब्रीफिंग, कानाफूसी आम बाते हैं। उमा भारती, कल्याण सिंह, शंकर सिंह बाघेला, मदनलाल खुराना, बाबूलाल मरांडी जैसे प्रकरणों में ये बातें उजागर हो चुकी हैं। जिससे अंतत: भाजपा को हानि ही उठानी पड़ती है। कांग्रेस में जो गुटबाजी है, वह तो उसे शक्ति देती है, वहीं भाजपा की गुटबाजी षडयंत्र का रूप लेकर कलह को स्थायी भाव दे देती है।

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि ऐसे संकटों में भी छत्तीसगढ़ भाजपा में विग्रह एक सीमा से बाहर जाते नहीं दिखते। राज्य के पार्टी नेताओं और मुख्यमंत्री की सौजन्यता के चलते संवाद का मार्ग कहीं बंद नहीं हुआ। यही कारण है कि पानी सिर से ऊपर जाता देख पार्टी ने अलग-अलग तरह की बैठकों के माध्यम से कार्यकर्ताओं के मन को टटोलना शुरू कर दिया है। अभी जबकि चुनाव में काफी वक्त है, भाजपा के लिए अपनी सत्ता की वापसी के सपने देखना गलत नहीं है। सही रणनीति और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के साथ-साथ कार्यकर्ताओं को यदि सत्ता और संगठन में सही भागीदारी मिलती है तो कोई कारण नहीं कि भाजपा बेहतर परिणाम ला सकती है। राज्य में पस्तहाल पड़ी कांग्रेस अभी तक राज्य सरकार के खिलाफ कोई निर्णायक आंदोलन नहीं छेड़ सकी है। हाल में हुए दो उपचुनाव को जीतकर भाजपा ने अपनी संगठनात्मक क्षमता और सामाजिक समीकरणों को समझकर कदम उठाने की अपनी इच्छाशक्ति भी प्रदर्शित की है। आदिवासी वर्ग सहित हर वर्ग से भाजपा के पास प्रखर नेतृत्व सामने आ रहा है, जिसकी जनता में एक पहचान बन रही है। चिंतन शिविर और मंथन बैठकों के माध्यम से कितना अमृत और कितना विष निकला है, यह तो भाजपा के नेता ही बताएंगे। इस अमृत मंथन से यदि वे अपने संगठन में जोश फूंक पाते हैं और सत्ता के माध्यम से जनता का कुछ भला कर पाते हैं, तो आने वाले समय में फिर से लोग उन्हें सेवा का एक अवसर दे सकते हैं। बशर्ते वे इस दौर में भी 'सेवा' ही करते दिखें।

(लेखक दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। )

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