8/07/2007

पाकिस्तान पर छाये संकट के बादल

दुनिया में बहुत ही कम देश ऐसे होंगे जहाँ कि राजनेता बंखुशी अपने प्रतिपक्षी दलों को सत्ता हस्तान्तरित कर देते हों। खासतौर पर कई एशियाई देशों में तो सत्ता पर बने रहने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाते भी देखे गए हैं। उदाहरण के तौर पर देश में आपातकाल स्थिति की घोषणा कर देना, सत्ता पर बने रहने के लिए सदन द्वारा विशेषाधिकार प्राप्त कर लेना, फौजी हुकुमरान द्वारा सत्ता पर निरंतर क़ाबिंज रहना, लोकतांत्रिक सरकार को उखाड़कर फौजी सत्ता कायम करना जैसे तरीके सत्तालोभियों द्वारा कई देशों में अपनाए जाते रहे हैं। इन्हीं एशियाई देशों में पाकिस्तान भी एक ऐसा देश है जहाँ लोकतांत्रिक तरींके से चुनी गई सरकारों व सेना के मध्य प्राय: 36 का आँकड़ा दिखाई देता रहा है। यहाँ अनेकों बार फौजी शासकों ने लोकतांत्रिक सरकारों को उखाड़ फेंका है तथा सत्ता पर कब्जा जमा लिया है। इन दिनों भी पाकिस्तान जनरल परवेज़ मुशर्रफ के रूप में एक ऐसे शासक को सहन कर रहा है जिसने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को सत्ता से बेदखल कर पहले उन्हें जेल में डाला तथा बाद में सऊदी अरब के शाही परिवार के हस्तक्षेप की वजह से उन्हें देश निकाला देकर उनपर 'रहम' किया। एक अन्य पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को भी पाकिस्तान में दाखिल होने की इजाजत नहीं है। पाकिस्तानी सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत रखने के लिए जनरल मुशर्रफ़ सेना प्रमुख के अतिरिक्त पाक राष्ट्रपति के पद पर भी कब्जा जमाए बैठे हैं।

अपने विरोधियों को कुचलने की मुहिम की ऐसी ही एक कड़ी में गत् दिनों जनरल मुशर्रफ़ द्वारा एक गलत व असामयिक कदम उठा लिया गया था। पाकिस्तानी कानून मंत्रालय द्वारा प्रेषित एक रिपोर्ट जोकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कार्यालय से भी संस्तुति प्राप्त कर राष्ट्रपति मुशर्रफ़ तक पहुँची थी, उसके आधार पर मुशर्रफ़ ने पाकिस्तान सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को उनके पद से बर्खास्त कर दिया था। इस रिपोर्ट में इंफ्तिखार चौधरी पर अपने पद का दुरुपयोग करने, अपने कार्यक्षेत्र से अलग के कामों में दखलअंदाजी करने तथा भ्रष्टाचार जैसे कई ऐसे आरोप लगाए गए थे जिनके पर्याप्त सुबूत हासिल नहीं थे। इस बर्खास्तगी को जनरल मुशर्रफ़ द्वारा उठाया गया एक राजनैतिक कदम मात्र माना जा रहा था। इफ्तिखार चौधरी की बंर्खास्तगी परवेज़ मुशर्रफ़ के लिए बड़ा सिरदर्द साबित हुई। हालांकि आमतौर पर दक्षिण एशियाई देशों में सर्वाच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को लेकर जनता के बीच लोकप्रियता जैसी कोई बात नज़र नहीं आती। परन्तु पाकिस्तान में जस्टिस चौधरी की बर्खास्तगी के मुद्दे को लेकर मुशर्रफ़ विरोधी सभी राजनैतिक दल जस्टिस चौधरी के साथ हो लिए। अपनी बर्खास्तगी के बाद जस्टिस चौधरी ने पाकिस्तान के कई शहरों में ऐसी जनसभाएं कीं तथा मुख्य मार्गों पर उनके समर्थन में ऐसा जनसैलाब उमड़ता हुआ दिखाई दिया जैसा कि किसी अत्यन्त लोकप्रिय जननेता के समर्थन में भी दिखाई नहीं देता। दरअसल जस्टिस चौधरी के पीछे सारा जन समुदाय चौधरी के समर्थकों का नहीं बल्कि मुशर्रफ़ विरोधियों का ही था।

बहरहाल जस्टिस चौधरी की बर्खास्तगी के दिन चल ही रहे थे कि जनरल मुशर्रफ़ को इस्लामाबाद में लाल मस्जिद में छिपे आतंकवादियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करनी पड़ी। इस कार्रवाई का रूढ़ीवादी मुसलमानों द्वारा जबरदस्त विरोध शुरु कर दिया गया। पाकिस्तान में लाल मस्जिद में हुए ऑप्रेशन सनराईज के बाद कई दिनों तक लगातार आत्मघाती हमले होते रहे जिसमें सेना को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता रहा। कराची में बंर्खास्त मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चौधरी की एक सभा में भी ऐसा ही एक आत्मघाती हमला हुआ जिसमें कई लोग मारे गए। दिन प्रतिदिन पाकिस्तान के हालात इसी प्रकार बिगड़ते ही जा रहे थे कि गत् 20 जुलाई को पाकिस्तान सर्वाच्च न्यायालय की 13 सदस्यीय सम्पूर्ण पीठ ने जस्टिस इफ्तिखार चौधरी के निलंबन के सिलसिले में चौधरी द्वारा दायर चुनौती याचिका पर अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए उन्हें बहाल किए जाने का आदेश जारी किया। इस ऐतिहासिक फैसले से पाकिस्तान की राजनीति में फिर नया भूचाल आ गया है।

हालाँकि कुछ राजनैतिक विशेषकों का तो यह कहना है कि जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली में भी परवेज़ मुशर्रफ़ की संस्तुति व उनकी सहमति गुप्त रूप से शामिल है। परन्तु मुशर्रफ़ विरोधी जस्टिस चौधरी की बहाली के फैसले को इन्सांफ की जीत तथा मुशर्रफ़ सरकार की हार की संज्ञा दे रहे हैं। विपक्ष का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उनके अनुसार पाकिस्तान में चल रहे जँगलराज के अँधेरे को समाप्त करने की दिशा में उम्मीद की एक किरण है। अब विपक्ष द्वारा पाक सर्वोच्च न्यायालय से यह उम्मीद की जा रही है कि वह पाकिस्तान की सड़कों पर गश्त कर रही फौजों को बैरिकों में वापिस बुलाने में सहायक सिद्ध होगी। कुछ विपक्षी नेताओं का तो यहाँ तक कहना है कि यदि पाकिस्तान में आत्मघाती हमलों को रोकना है तो पाकिस्तान की राजनीति में जनरल मुशर्रफ़ व उनकी सेना की दखलअन्दांजी बन्द हो जानी चाहिए।

उधर परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट की सम्पूर्ण बेंच द्वारा जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली के निर्णय का स्वागत किया है। पाक प्रधानमंत्री शौकत अजीज का भी कहना है कि पाक सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करती है। अजीज ने यह भी कहा कि यह समय जीत या हार के दावे करने का नहीं है। परन्तु विपक्ष इस प्रकार के बयानों को मात्र थोथापन मान रहा है। विपक्षी दलों का कहना है कि राष्ट्रपति मुशर्रफ़ व प्रधानमंत्री शौकत अजीज द्वारा जस्टिस चौधरी की बहाली के फैसले का स्वागत करना या उसे स्वीकार करना उनका बड़प्पन नहीं बल्कि उनकी मजबूरी है। इन विपक्षी नेताओं का कहना है कि यदि मुशर्रफ़ वास्तव में अदालती फैसले को खुले दिल से स्वीकार करने का प्रमाण देना चाहते हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज से या तो त्यागपत्र मांग लेना चाहिए या उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। विपक्ष द्वारा प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज के साथ-साथ कानून मंत्री वसीम जफ़र से भी त्यागपत्र दिए जाने की माँग की जा रही है।

बहरहाल जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी ने पाकिस्तान में फैली भारी अशांति तथा उथल-पुथल के मध्य पुन: अपना कार्यभार संभाल लिया है। मुख्य न्यायाधीश का पद संभालते ही जस्टिस चौधरी ने तीन विशेष तीन सदस्यीय न्यायपीठ का गठन भी कर दिया है। यह विशेष पीठ छुट्टियों के दौरान तथा अदालत के अतिरिक्त समय में काम करेंगी तथा लम्बित मामलों की शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करेंगी। ऐसी ही प्रथम न्यायपीठ की अध्यक्षता स्वं जस्टिस चौधरी करेंगे जबकि दो अन्य जज जस्टिस भगवान दास व जस्टिस गुलाम रब्बानी इस पीठ के अन्य सदस्य होंगे। दूसरी ओर जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली से उत्साहित वकीलों द्वारा पूरे पाकिस्तान में जबरदस्त जश्न मनाया जा रहा है। पाकिस्तान में इस घटना को चौधरी की जीत की नज़र से तो कम जबकि मुशर्रफ़ सरकार की हार की नज़र से अधिक देखा गया है। जस्टिस चौधरी की बहाली से अत्यधिक उत्साहित पाकिस्तान बार कौंसिल के एक प्रवक्ता ने तो यहाँ तक कह डाला कि जस्टिस चौधरी की बहाली के लिए छेड़ा गया आन्दोलन यहीं समाप्त होने वाला नहीं है बल्कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली तक यह आन्दोलन जारी रहेगा।

निश्चित रूप से जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली के बाद परवेज़ मुशर्रफ़ के विरोध का एक बड़ा एवं मुख्य अध्याय ज़रूर बन्द हो गया है। परन्तु जस्टिस चौधरी की बहाली आने वाले समय में मुशर्रफ़ के लिए सहायक साबित होगी अथवा उनके लिए परेशानी का सबब बनेगी यह तो आने वाला समय ही बता सकेगा। हाँ, इतना ज़रूर है कि पाकिस्तान के समक्ष आतंकवाद की जो बड़ी चुनौती दरपेश है, जस्टिस चौधरी की बहाली से उसपर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। लाल मस्जिद घटनाक्रम का खुलकर विरोध करने वालों ने जस्टिस चौधरी के साथ खड़े होकर दुनिया को यह दिखाने का प्रयास ज़रूर किया है कि पाकिस्तान की रूढ़ीवादी विचारधारा भी जस्टिस चौधरी के साथ है। परन्तु खुदा न ख्वास्ता यदि जस्टिस चौधरी पर भी रूढ़ीवादी संगठनों का रंग चढ़ गया तथा उनकी बहाली के बाद कट्टरपंथ की जड़ों में पुन: पानी पहुँचना शुरु हो गया तो यह पूरे पाकिस्तान की अवाम के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हो सकता है। लिहाज़ा जस्टिस चौधरी को चाहिए कि पाकिस्तान के सत्ता संबंधी भीतरी राजनैतिक हालात से वे भले ही जिस प्रकार चाहे पेश आएं परन्तु आतंकवाद, तालिबानी विचारधारा के प्रसार, रूढ़ीवादी तथा थोथे जेहादी रंग में रंगे संगठनों व लोगों से वे ज़रूर सख्ती से निपटने का वैसा ही साहस दिखाएं जैसा कि मुशर्रफ़ ने लाल मस्जिद में कर दिखाया था अन्यथा यह तय समझना चाहिए कि यदि पाकिस्तान ने अपनी सेना व रेंजर्स के माध्यम से वहाँ मौजूद आतंकवादी नेटवर्क का सफाया नहीं किया तो वह समय दूर नहीं कि दुनिया में आतंकवाद को समाप्त करने का बीड़ा उठाने वाला स्वयंभू ठेकेदार किसी भी समय स्वयं पाकिस्तान में आतंकवाद विरोधी मुहिम छेड़ सकता है। और यह भी हो सकता है कि पाकिस्तानी सरकार से पूछे बिना ही यह मुहिम छेड़ दी जाए। और यदि ऐसा हुआ तो यह पाकिस्तान की स्वतंत्रता व सम्प्रभुता के लिए तो बहुत बड़ा खतरा होगा ही साथ-साथ पाकिस्तान की आम जनता के लिए भी बहुत ही घातक एवं दुर्भाग्यपूर्ण साबित होगा।

तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

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