8/21/2007

बाढ़ का कहर और देश का विकास



प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी देश के कई राज्य भयंकर बाढ़ की चपेट में रहे। इनमें सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित राज्य पहले की तरह बिहार राज्य ही चिन्हित किया गया। यहाँ एक करोड़ से अधिक लोगों के जनजीवन को बाढ़ ने प्रभावित किया। सैकड़ों लोग इस प्रलयकारी बाढ़ की भेंट चढ़ गए। हजारों मवेशी मारे गए। लाखों एकड़ फसल तबाह हो गई। जब बाढ़ और बारिश का सिलसिला थमा तो बाढ़ के उपरान्त फैलने वाली बीमारियों ने बाढ़ पीड़ित लोगों के जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित किया। परन्तु इसमें भी कोई शक नहीं कि बाढ़ की मार झेलने को ही अपनी नियति मान बैठने वाली बिहार की बहादुर व अति सहनशील जनता पुन: अपने दैनिक जीवन की व्यस्तताओं में पूर्ववत जुट गई। और शायद अब यही जनता करने लगी होगी प्रतीक्षा अगले वर्ष आने वाली संभावित बाढ़ की।

अभी मात्र कुछ माह पूर्व की ही तो बात है जबकि भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम ने बड़े उत्साहवर्धक वातावरण में इसी वर्ष जनवरी महीने में पटना में अनिवासी भारतीयों के एक सम्मेलन को संबोधित किया था। इस सम्मेलन में कलाम साहब ने उम्मीद जताई थी कि 2015 तक बिहार राज्य को देश के सबसे विकसित राज्य के रूप में पहचाना जाएगा। तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय यह भी कह चुके हैं कि हरित क्रांति की शुरुआत अब बिहार राज्य से किए जाने की ज़रूरत है। प्रश् यह है कि क्या बाढ़ में डूबे हुए बिहार को देखकर इस बात की कल्पना भी की जा सकती है कि यही राज्य वह राज्य है जिसके बारे में भारत के महान स्वप्दर्शी राष्ट्रपति ने देश के सबसे विकसित राज्य बनाए जाने का सपना देख रखा था? क्या इस प्रलयकारी बाढ़ के दृश्य देखने के पश्चात किसी अनिवासी भारतीय व्यवसायी से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह ऐसी प्राकृतिक विपदाओं को देखने के बावजूद बिहार में पूंजी निवेश भी करेगा?

इस वर्ष बिहार में आई बाढ़ के परिणामस्वरूप जहाँ प्रकृति के तबाही के दृश्य अत्यन्त भयानक व दयनीय थे वहीं इस बार बिहार से जुड़े राजनेताओं ने भी एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने तथा एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई अवसर गँवाना नहीं चाहा। सबसे बड़ी गैर जिम्मेदारी का काम तो स्वयं मुख्यमंत्री नीतिश कुमार द्वारा किया गया। वे बिहार में बाढ़ आने की चेतावनी सुनने के बावजूद अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार विदेश दौरे पर चले गए तथा विदेश में पांच सितारा वातावरण में बैठकर बाढ़ की त्रासदी झेल रही बिहार की जनता के विषय में जानकारी प्राप्त करते रहे। उन्होंने अपने विदेश दौरे को न्यायसंगत बताते हुए यह कहने में भी कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की कि उनका दौरा तो बिहारवासियों के लिए गर्व की बात है। नीतीश कुमार के विरोधी नेताओं ने भी बाढ़ प्रभावितों की सहायता किए जाने पर तो कम ध्यान दिया जबकि मुख्यमंत्री के मॉरिशस दौरे की आलोचना में अधिक समय गँवाया। नीतीश कुमार सरकार के सहयोगी दल भारतीय जनता पार्टी के नेता व राज्य के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने तो लालू यादव को निशाना बनाते हुए कहा कि यदि लालू जी बिहार की समस्त रेलगाड़ियों को समय पर नियमित रूप से चलवा दें तो बाढ़ पीड़ितों को उपयुक्त सहायता समय पर पहुंचाई जा सकती है। जाहिर है मोदी का यह वक्तव्य केवल व्यंग्य मात्र ही था। क्योंकि बाढ़ में डूबी हुई रेललाईनों पर समय से व नियमित रूप से रेलगाड़ी चलाए जाने की कल्पना आंखिर कैसे की जा सकती है। तो क्या सुशील मोदी को लालू यादव पर व्यंग्य कसने का यही एक अवसर मिला था?

इसमें कोई शक नहीं कि भारतवर्ष इस समय जिन भीषण त्रासदियों के दौर से गुजर रहा है उनमें सूखा व बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाएं भी शामिल हैं। यह न सिर्फ़ भारी आर्थिक क्षति का कारण बनती हैं बल्कि इनसे जान व माल की भी बड़ी तबाही होती है। यह ऐसी प्राकृतिक त्रासदी है जो गरीबी को जन्म देती है। और आगे चलकर यही गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और अराजकता की राह तय करती है। यहाँ फिर यही प्रश्न उठता है कि क्या बिहार सहित अन्य बाढ़ प्रभावित राज्यों की जनता इसे अपनी नियति मानकर ही ख़ामोश बैठ जाए और हमेशा बाढ़ के दिनों में अपनी तबाही का मंजर अपनी ही आँखों से देखने के लिए विवश रहे। क्या यही बाढ़ जहाँ प्रभावित लोगों की तबाही के दृश्य प्रस्तुत करे वहीं यही बाढ़ राजनेताओं द्वारा किए जाने वाले हवाई सर्वेक्षण के रूप में उनके व उनके परिवारजनों के मनोरंजन का साधन मात्र बनकर रह जाए?

जी नहीं। भारत को 2020 तक विकसित राष्ट्र बनाए जाने का संकल्प करने वाले जनता के राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम ने देश के विकास हेतु जो खाका तैयार किया है तथा उनमें जिन प्रमुख योजनाओं को लागू किए जाने की ज़रूरत महसूस की है उन्हीं में से एक प्रमुख योजना है सभी भारतीय नदियों को आपस में जोड़ा जाना। हालांकि गत् 10 वर्षों से इस विषय पर सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर चर्चाएं होती रही हैं। परन्तु इस दिशा में प्रगति के कोई संकेत अभी तक नज़र नहीं आ रहे हैं। हाँ इतना ज़रूर है कि इस अति विशाल परियोजना से असहमति रखने वाले कुछ राज्यों ने इस परियोजना की आलोचना करने वाले अपने विरोधी स्वर ज़रूर बुलंद किए हैं। निश्चित रूप से नदियों को जोड़ने वाली परियोजना बहुत बड़ी व ख़र्चीली योजना है। परन्तु इसमें कोई शक नहीं कि इस विशाल परियोजना के पूरा होने के बाद न सिर्फ़ अनचाही बाढ़ से देशवासियों को राहत मिल सकेगी बल्कि बाढ़ का यही पानी सूखी पड़ी नदियों में जाकर सूखाग्रस्त क्षेत्रों में सिंचाई हेतु भी प्रयोग में लाया जा सकेगा।


परन्तु राजनीति प्रधान इस देश में जहाँ समस्याओं को ही राजनीति का केंद्र बिंदु माना जाता है, क्या इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि बाढ़ व सूखे जैसी विकराल समस्या से निपटने हेतु राजनेताओं द्वारा नदियों को जोड़े जाने जैसे गंभीर विषय को लेकर कोई रचनात्मक कदम उठाया जा सकेगा? न सिर्फ़ बिहार सरकार बल्कि और भी कई राज्यों में छिछली नदियों के आसपास की आबादी को बाढ़ के प्रकोप से बचाने हेतु बड़े-बड़े बांध बनाने का कार्य किया जाता है। बाढ़ रोकने के इस काम चलाऊ उपाय से हालांकि जनता को कुछ समय के लिए राहत जरूर मिल जाती है परन्तु प्राय: यही बांध टूटते या दरार पड़ते भी देखे जाते हैं जिनसे बाढ़ जैसी तबाही पुन: आ जाती है। तमाम स्थान तो ऐसे हैं जहाँ बांध बनाने का कार्य चलते रहने के दौरान ही बाढ़ आ जाती है तथा बांध बनाने हेतु की जाने वाली सारी शुरुआती कोशिशें व इन पर होने वाला भारी ख़र्च सब कुछ बाढ़ की भेंट चढ़ जाता है। राजनीतिज्ञों की इच्छा के अनुरूप इसी प्रकार यही 'सिलसिला' अगले वर्ष फिर नए सिरे से शुरु हो जाता है।

भारत भले ही विकसित राष्ट्र बनने की दौड़ में शामिल हो गया हो परन्तु आर्थिक रूप से अभी भी भारत एक गरीब देश ही है। यहाँ प्रत्येक वर्ष पानी में बह जाने वाली लघुकालीन एवं अस्थाई राहत योजनाओं के बजाए उन दीर्घकालीन एवं स्थाई योजनाओं को लागू किए जाने व उनपर अमल किए जाने की ज़रूरत है जो देशवासियों को स्थाई रूप से राहत पहुंचा सके। भारत के समस्त राजनैतिक दलों, उनके नेताओं व समस्त भारतवासियों को कलाम साहब के उन शब्दों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि जब तक समस्त भारतवासियों के चेहरे पर मुस्कान नहीं आती तब तक भारत को खुशहाल राष्ट्र नहीं कहा जा सकता।

अत: आज ज़रूरत है ऐसी ही दीर्घकालीन योजनाओं की जोकि समस्त भारतवासियों के चेहरे पर मुस्कान लाने का कारण बन सकें। भारतीय नदियों को आपस में जोड़े जाने की परियोजना भी एक ऐसी ही परियोजना है जो देशवासियों को बाढ़ व सूखे जैसी त्रासदी से तो निजात दिलाएगी ही साथ-साथ देश को विकसित राष्ट्र बनाए जाने की दिशा में भी मील का पत्थर साबित होगी। ज़रूरत है इसे तत्काल लागू किए जाने व इसे तत्काल कार्यान्वित किए जाने की।

-तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

8/19/2007

चुनौतीपूर्ण है तालिबानों का पुन: संगठित होना


अफगानिस्तान में कट्टरपंथी इस्लाम का प्रतिनिधित्व करने वाले तालिबानी पुन: सक्रिय हो उठे हैं। तालिबानों ने अफगानिस्तान में अपनी माँगें पूरी करवाने हेतु इन दिनों अपहरण का साम्राज्य स्थापित कर रखा है। अफगानिस्तान की सरकार के सदस्य हों या वहाँ के विकास हेतु काम करने वाले विदेशी संस्थानों के लोग, पत्रकार हों या स्वयं सेवी संगठनों के सदस्य सभी इनके निशाने पर हैं। तालिबनों द्वारा इन लोगों का अपहरण कर इन्हें मानव ढाल के रूप में प्रयोग किया जा रहा है तथा इनके दम पर अपनी माँगें पूरी कराने की कोशिश की जा रही है। इस प्रकार के अपहरण के पश्चात तालिबानी लड़ाके आमतौर पर अपने गिरंफ्तार किए गए तालिबानी विद्रोहियों को रिहा किए जाने की शर्त रखते हैं। इनका हौसला उस समय और बढ़ गया जबकि इनके द्वारा एक इतालवी पत्रकार को उसके ड्राईवर के साथ गत् 6 मार्च को हेलमंद नामक स्थान से अपहृत किया गया तथा अपने 5 सहयोगी तालिबानों की रिहाई के बदले में इतालवी पत्रकार को रिहा कर दिया गया। इसी पत्रकार के साथ अजमल नक्शबंदी नामक एक अफगानिस्तानी पत्रकार का भी अपहरण किया गया था। परन्तु चूंकि सरकार ने अजमल की रिहाई के बदले में तालिबानी विद्रोहियों को रिहा नहीं किया इसलिए अजमल को तालिबानों द्वारा मार डाला गया।

क्रूर तालिबानों द्वारा अपनी माँगें मानवाए जाने हेतु अपहरण किए जाने जैसा गैर इस्लामी व गैर मानवीय सिलसिला लगातार जारी है। गत् 19 जुलाई को तालिबानों द्वारा 23 दक्षिण कोरियाई ईसाई सहायता कर्मियों का अपहरण कर लिया गया था जिनमें अधिकांश औरतें व बच्चे शामिल हैं। अभी तक इनमें से दो कोरियाई नागरिकों 42 वर्षीय पादरी वे ह्वूग कू तथा 29 वर्षीय सिम शंगु मिन की निर्मम हत्या की जा चुकी है। इन अपहृत कोरियाई नागरिकों की रिहाई के बदले में तालिबानों द्वारा अपने 8 सहयोगी लड़ाकुओं की रिहाई की मांग की जा रही है। इसके पूर्व निमरोंज प्रान्त में 2 फ्रांसीसी राहतकर्मियों का अपहरण कर लिया गया था। यह फ्रांसीसी अफगानिस्तान में शिक्षा से संबंधित एक गैर सरकारी संस्था में कार्य कर रहे थे।

दक्षिण कोरियाई स्वयं सेवकों के अपहरण के ठीक अगले दिन यानि 20 जुलाई को अफगानिस्तान के 4 न्यायाधीशों का अपहरण कर लिया गया था। बाद में इन चारों बंधक न्यायाधीशों की लाशें ग़जनी प्रांत के देहमाक जिले से प्राप्त हुईं। इनकी हत्या की जिम्मेदारी भी तालिबानी विद्रोहियों द्वारा स्वीकार की गई। इसी प्रकार गत् माह दक्षिण अफगानिस्तान के कंधार प्रांत के पंजवई जिले में तालिबानी विद्रोहियों द्वारा जस्टिस क़ाजी नेमतुल्ला की गोली मारकर हत्या कर दी गई। तालिबानी लड़ाकुओं द्वारा क्रूरता एवं अमानवीयता की हदें यहीं समाप्त नहीं होतीं। इन्होंने अपने ही लिए काम करने वाले तथा मूल रूप से पाकिस्तान के रहने वाले एक तालिबानी गुलाम नबी की गला रेतकर हत्या कर डाली। तालिबानी लड़ाकुओं को संदेह था कि गुलाम नबी तालिबानों के साथ रहकर अमेरिकी सेनाओं को तालिबान के कमांडरों के बारे में महत्वपूर्ण एवं गोपनीय सूचनाएं दे रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि तालिबानों द्वारा गुलाम नबी का गला काटने के लिए 12 वर्षीय मासूम बच्चे का प्रयोग किया गया जिसके हाथों में तलवार देकर गुलाम नबी की गला रेतकर हत्या कराई गई। तालिबानों द्वारा इस वीभत्स घटना का वीडियो टेप भी जारी किया गया था।

दिन-प्रतिदिन अफगानिस्तान में बिगड़ते जा रहे इन हालात से न केवल अमेरिका या अफगानिस्तान की हामिद क़रंजई सरकार चिंतित है बल्कि तालिबानियों का क्रूरतापूर्ण व इस्लाम विरोधी व्यवहार पूरे मुस्लिम जगत के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। तालिबानों का मत है कि अफगानिस्तान व इराक पर अमेरिका अपना कब्जा जमाए हुए है जिसे वे कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते। उनका कहना है कि जब तक विदेशी सेनाएं यहाँ मौजूद रहेंगी तब तक उनका खूनी संघर्ष इसी प्रकार जारी रहेगा। तालिबानों के अनुसार अमेरिकी सेना अथवा अमेरिका के इशारों पर चलने वाली अफगान सरकार के लिए काम करने वाले सभी लोग तालिबानों के दुश्मन हैं। यहाँ तक कि तालिबानी लड़ाके पड़ोसी देश पाकिस्तान की परवेज़ मुशर्रफ़ सरकार के विरुद्ध भी जेहाद का उदघोष कर चुके हैं। तालिबानों का मत है कि जनरल मुशर्रफ़ पाकिस्तान व पाकिस्तान से लगे क़बाईली क्षेत्र में अमेरिकी नीतियाँ लागू करने का जबरदस्त प्रयास कर रहे हैं जिसे वे सहन नहीं करेंगे।

दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश तक के लिए तालिबानी लड़ाकुओं का पुन: संगठित होना चिंता का विषय बना हुआ है। एक अनुमान के अनुसार इन हथियारबंद तालिबानों की संख्या लाखों में पहुंच गई है। राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अफगानिस्तान के तांजातरीन बिगड़ते हुए हालात पर चर्चा करने हेतु गत् दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति की आरामगाह कैंप डेविड में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद क़रंजई से मुलाकात की। बुश पहले ही यह कह चुके हैं कि अमेरिका आतंकवादियों को ढूँढने में आकाश व पाताल दोनों एक कर देगा। बुश यह चेतावनी भी दे चुके हैं कि यदि आवश्यकता पड़ी तो अमेरिकी सेना पाकिस्तान के संदिग्ध आंतरिक क्षेत्रों में सैन्य कार्रवाई करने से भी नहीं चूकेगी।

तालिबानी लड़ाकों की अमानवीय हरकतों के बीच कुछ परस्पर विरोधी बातें भी सामने आ रही हैं। उदाहरण के तौर पर तालिबानों व अमेरिकी नेतृत्व के मध्य जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ फंसे दिखाई दे रहे हैं। अर्थात् तालिबानों द्वारा मुशर्रफ़ को तो अमेरिका के पिट्ठु के रूप में देखा जा रहा है तथा उनके विरुद्ध भी जेहाद का नारा बुलन्द किया जा चुका है। जबकि अमेरिका द्वारा मुशर्रफ़ पर तालिबानों के प्रति नरमी व हमदर्दी बरतने का आरोप लगाया जा रहा है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश व क़रंजई की मुलाकात में हामिद करंजई ने तो यह स्वीकार किया है कि ईरान अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने में अफगान सरकार के साथ एक अच्छे सहयोगी की भूमिका अदा कर रहा है जबकि अमेरिका अफगानिस्तान के इस मत का विरोधी है। बुश प्रशासन का आरोप है कि ईरान अफगानिस्तान में अस्थिरता पैदा करने हेतु तालिबानी विद्रोहियों की सहायता कर रहा है। इसी प्रकार दक्षिण कोरियाई नागरिकों के अपहरण को लेकर दक्षिण कोरिया में तरह-तरह के मत व्यक्त किए जा रहे हैं। जहां अपहरण हेतु तालिबानी विद्रोहियों की समग्र निंदा की जा रही है वहीं एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो कोरियाई नागरिकों के अपहरण के लिए अमेरिका व उसकी नीतियों को ही जिम्मेदार मान रहा है। इस मत के पक्षधर कोरियाई नागरिकों का मानना है कि संकट की इस घड़ी में अमेरिका को ही सबसे आगे आना चाहिए तथा दक्षिण कोरियाई नागरिकों की रिहाई सुनिश्चित करनी चाहिए।

हालांकि अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान को इस वर्ष दस अरब डॉलर की सहायता दी जा रही है। जिसका उद्देश्य अफगानिस्तान में सुरक्षा उपायों व सुरक्षातंत्रों को और अधिक सुदृढ़ करना है। परन्तु इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि अफगानिस्तान में चरमपंथी हमलों की संख्या में भी दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। निर्दोष लोगों की मृत्यु दर भी लगातार बढ़ रही है। परन्तु इसके बावजूद सुखद समाचार यह आ रहे हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम जगत में तालिबानों, इस्लामी आतंकवादियों, अलंकायदा आदि के प्रति आम मुसलमानों की हमदर्दी व समर्थन में असाधारण कमी आती जा रही है। पाकिस्तान के हाल के लाल मस्जिद घटनक्रम में भी यह देखा गया कि वहाँ कट्टरपंथी नेटवर्क से जुड़े सक्रिय रूढ़ीवादी लोगों द्वारा तो लाल मस्जिद पर पाकिस्तानी सैन्य कार्रवाई का विरोध किया गया जबकि आम पाकिस्तानी नागरिक इस आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को देखता रहा।

वास्तव में यदि दुनिया में मानवता, शांति व सद्भाव को कायम रखना है, वास्तविक इस्लाम को जिंदा रखना है तो हथियारबंद लड़ाकों के हाथों में इस्लाम की बागडोर को जाने से हरगिज रोकना होगा। तालिबानी विचारधारा या तालिबानों के क्रूरतापूर्ण कृत्य तंजीदियत या शैतानियत के तो प्रतिनिधि हो सकते हैं, सच्चे इस्लाम के प्रतिनिधि हरगिज नहीं।

तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

8/07/2007

अब छत्तीसगढ़ी मे बोलेगा कंप्यूटर

(हरिभूमि में प्रकाशित टिप्पणी)


जी हाँ । यह सौ फीसदी सही है । कभी हम हिदीं का एक शब्द कंप्यूटर पर टाइप नही कर पाते थे । इंटरनेट पर हिदीं का एक शब्द देखने को तरस जाते थे । अब न केवल हमारा कंप्यूटर हिदीं में बोलने लगा है, इंटरनेट पर हिदीं के लाखों-करोड़ों पेज उपलब्ध हो चुके हैं । इतना ही नहीं, अब तो कंप्यूटर का पूरा का पूरा आपरेटिंग सिस्टम भी छत्तीसगढ़ी भाषा में बोलने वाला है । और इसे किसी विदेशी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के इंजीनियरों ने नहीं बल्कि हमारे अपने छत्तीसगढ़ के रवि रतलामी ने सही साबित कर दिखाया है । जो धनाभाव में अटका पड़ा है ।

रवि रतलामी मूलतः धमतरी जिले के निवासी हैं जो मध्यप्रदेश से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर इन दिनों रतलाम में रहते हैं । उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा काम करने वाला पूरा आपरेटिंग सिस्टम बनाने का गुर हासिल कर लिया है, जो किसी प्रोत्साहन और धनाभाव के कारण बाजार में आने से वंचित है । ऐसा नहीं है कि उन्होंने छत्तीसगढी का राग अलापने वाली सरकार के समक्ष अपना प्रस्ताव नहीं रखा । वे बताते हैं – मैंने कई बार राज्य के आईटी विभाग को ई-मेल किया परन्तु जैसा कि हम जानते हैं राजकाज तो फाइलों में होता है, आज तक कोई निर्णय या आश्वासन उन्हें नहीं मिल सका है । उनके अनुसार पत्राचार को लगभग 3-4 साल व्यतीत हो चुके हैं ।

यदि यह सुविधा छत्तीसगढ़ के आम उपयोगकर्ताओं को उपलब्ध हो सके तो वे अंग्रेजी ज्ञान के बिना भी कंप्यूटर का संचालन कर सकेगें । रवि अपने महत्वाकांक्षी परियोजना के बारे में कहते हैं - मैं जन्म से छत्तीसगढ़िया हूँ । यहाँ की मिट्टी की महक सदैव मुझे आकर्षित करती है । मेरा सपना है कि छत्तीसगढ़ी भाषा में ऑपरेटिंग सिस्टम (http://cg-os.blogspot.com ) हो, उसमें कार्य करने को अनुप्रयोग हों । गनोम 2.1 डेस्कटॉप युक्त छत्तीसगढ़ी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम वर्ष भर की मेहनत से तैयार हो सकता है । हमारे पास तमाम तकनीकी कौशल इसके लिए है । हमने हिन्दी के लिए कार्य किया ही है । इस कार्य के लिए कुछ आर्थिक संबल की आवश्यकता है। देखते हैं कब यह सपना पूरा होता है।

रवि दो करोड़ लोगों द्वारा प्रयुक्त और भारत के नवोदित राज्य छत्तीसगढ़ की प्रमुख भाषा-छत्तीसगढ़ी में आपरेटिंग सिस्टम बनाने वाले प्रथम टेक्नोक्रेट हैं, इस नाते छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ के विकास में ऐतिहासिक योगदान देने वाले भी । कुछ दिनों पहले ही उन्हें विश्व की सबसे बड़ी साफ्टवेर कंपनी माइक्रोसाफ्ट द्वारा माइक्रोसॉफ्ट मोस्ट वेल्युबल प्रोफेशनल्स का पुरस्कार 2007 से नवाजा जा चुका है । इतना ही नहीं उन्हें माइक्रोसॉफ्ट द्वारा गत वर्ष का सर्वेश्रेष्ठ ब्लागर्स का एवार्ड भी मिल चुका है ।

छत्तीसगढ़ी भाषा में आपरेटिंग सिस्टम लांच करने पर हानि ही हानि ही है क्योंकि इसका बाजार छत्तीसगढ़ में लगभग शून्य है पर छत्तीसगढ़ी भाषा प्रेम और माटी की पुकार ने उन्हें छत्तीसगढ़ी भाषा में आपरेटिंग सिस्टम बनाने के लिए प्रेरित किया । विश्व की कोई ऐसी कंप्यूटर कंपनी नहीं है जो कभी छत्तीसगढ़ी में आपरेटिंग सिस्टम तैयार करायेगी । क्योंकि इसके लिए कोई बाजार ही नहीं है । छत्तीसगढ़ में यूँ भी लोग-बाग ओपन सोर्स द्वारा उपलब्ध सॉफ्टवेर उपयोग में लाते हैं । उनमें साफ्टवेयर खरीदने की क्रयशक्ति भी नहीं है । आम छत्तीसगढ़िया अग्रेजी भी नहीं जानता और इस तरह से वह कंप्यूटर के उपयोग करने से वंचित हो जाता है । छत्तीसगढी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और छत्तीसगढ़ी भी हिंदी समूह की भाषा है । छत्तीसगढ़ी में कंप्यूटर तैयार होने से कंप्यूटर के प्रति ललक और उपयोग करने के विश्वास की संभावना को लेकर रवि रतलामी काम कर रहे हैं तो यह छत्तीसगढ़ की सरकार और समाज के लिए भी गौरव की बात है और इसका स्वागत किया ही जाना चाहिए । 2 करोड़ की आबादी वाले राज्य और हजारों करोड़ रूपयों वाली सरकार के रहते यदि उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिल सका तो शायद यह छत्तीसगढ़ी भाषा और भाषियों का दुर्भाग्य भी होगा ।

जहाँ तक लागत का प्रश्न है छत्तीसगढ़ी आपरेटिंग सिस्टम प्रोजेक्ट के तहत सेटअप और बुनियादी कार्य रवि द्वारा पूर्व में ही किया जा चुका है । अब इस कार्य में लगभग 5000 डालर की आवश्यकता होगी जो मूलतः कंप्यूटर में भाषायी स्थानीयकरण पर खर्च होगा, और जिसके लिए वह सक्षम भी नहीं है । इसमें अनुवादको, टायपिस्टों, भाषाविदों की सेवाओं पर भारी राशि खर्च होगी । । ऐसा नहीं है कि रवि रतलामी ने इसके लिए सार्वजनिक प्रयास नहीं किया । माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों ने इस सॉफ्टवेयर को लेकर बाजार की स्थिति का जायजा लेकर इससे मुँह बिचका दिया । रतलामी ने इंटरनेट और अखबारों के माध्यम से 1-1 डालर की सहायता का आव्हान भी किया था । ताकि अधूरी परियोजना का पूर्ण कर आम उपभोक्ता को आपरेटिंग सिस्टम का सॉफ्टवेयर मुफ्त में उपलब्ध कराया जा सके । किन्तु कोई खास उपलब्धि नहीं हासिल नहीं हुआ । विश्वास किया जाना चाहिए कि राज्य का कोई विश्वविद्यालय, कोई अकादमी, संस्कृति विभाग या राज्य सरकार का आईटी विभाग रवि रतलामी की ईजाद पर विचार करेगा । यदि ऐसा संभव हो सका तो 10 के भीतर छत्तीसगढ़ी भाषा का राग अलापने वाले राजनीतिज्ञों के राज्य का हर व्यक्ति छत्तीसगढ़ी भाषा वाला कंप्यूटर चला सकेगा ।

इंटरनेट पर छत्तीसगढ़ी तलाशते हुए

डॉ. सुधीर शर्मा
संपादक,

साहित्य वैभव
रायपुर, छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ी का सामर्थ्य अब अंतरजाल पर भी बोलने लगा है । यह बात अलग है कि वहाँ वह शैशवकाल में है परंतु चंद माह में ही उसकी विश्वसनीय व्याप्ति से मन को तोष मिलता है । एक विश्वास जागता है कि अब वह मुद्रित कागजों को लांघकर वेब-पृष्ठों पर भी अपनी छवि बिखेरने लगी है । यानी वह भी हिंदी के साथ-साथ अन्य संघर्षशील भाषाओं की तरह नये ज़माने की प्रौद्योगिकी - इंटरनेट के साथ चलना शुरू कर चुकी है । कहते हैं प्रौद्योगिकी के साथ जो तालमेल नहीं बैठा पाता वह पिछड़ जाता है । भाषाओं के मायने में भी इसे सच होते हम देखते रहे हैं । छत्तीसगढ़ी वैसे भी देवनागरी लिपि में लिखी-पढ़ी जाती है सो उसे भी हिंदी भाषा की तरह अंतरजाल पर स्वयं को प्रतिष्ठित करने मे कोई दिक्कत नहीं हुई और देखते ही देखते वह वेब-पृष्ठों पर अपनी आमद दर्ज करा चुकी है ।

छत्तीसगढ़ी भाषा के आलोचक छत्तीसगढ़ी के सामर्थ्य को लेकर अक्सर बतंगड बनाते हैं । कोहराम मचा देते हैं । एकबारगी जाने-गुने बिना उसे मनगढंत असमर्थता की परिधि में रखने लगते हैं । ऐसे ही एक दिन मैंने किसी भाषायी कार्यशाला के दरमिया सुना - कोई सज्जन बखाने जा रहे थे – कि और तो और छ्त्तीसगढ़ी के एक भी शब्द इंटरनेट पर नहीं है । कितने पिछड़ी है छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़िया । मैंने इसकी सच्चाई जानने की जब प्रायोगिक कोशिश की और तब जो तथ्य सामने आया उससे लगा कि वे या तो लफ्फाजी कर रहे थे या फिर स्वयं को उन्नत भाषा व तकनीक में पांरगत सिद्ध करने और साथ ही छत्तीसगढी को हतोत्साहित करने के लिए बेइमानी कर रहे थे ।

बहरहाल हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या ? आप ही देखिए लीजिए कभी अपने कंप्यूटर के पास बैठकर और विश्वजाल खोलकर । भले ही विलंब से पर 16 दिसम्बर 2006 से छत्तीसगढ़ी का पहला पूर्ण वेबसाइट भी आ चुका है । नाम है उसका – www.lokakshar.com । विश्व की पहली छत्तीसगढी वेबसाइट लोकाक्षर डॉट कॉम पूर्णतः साहित्यिक पत्रिका है । जिन्हें प्रिंट माध्यम में छत्तीसगढी में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका – छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर - का सूचना है वे भली-भाँति उसके संपादक श्री नंदकिशोर तिवारी को भी जानते हैं । अब तक इस त्रैमासिक पत्रिका की सामग्री छत्तीसगढ़ी के साहित्य प्रेमियों तक ही नियमित पहुँचती थी किन्तु श्री तिवारी के उद्यम से अब इसे संपूर्ण विश्व में फैले छ्तीसगढ़िया पाठक नियमित पढ़ रहे हैं । संपूर्णतः छत्तीसगढ़ी में इस एकमात्र और पहली वेबसाइट बनाने वाले युवा ललित निबंधकार जयप्रकाश मानस अब एक जबाब भी हैं कि छत्तीसगढिया भी नयी प्रौद्यगिकी को लेकर सतर्क है, प्रगतिशील है । यदि ऐसा नहीं होता तो उनका 13-14 वर्षीय किशोर पुत्र प्रशांत रथ लोकाक्षर को नेट पर नहीं ला पाता ।

इस वेबसाइट में कविता, कहानी, निबंध, पुस्तक समीक्षा, सांस्कृतिक समाचार आदि पठनीय है । यहाँ छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया, ड़ॉ. विमल कुमार पाठक, डॉ. प्रभंजन शास्त्री, गेंदराम सागर, कृष्ण कुमार भारतीय, संतोष कुमार कश्यप, एस. चन्द्रसेन, अशोक नारायण बंजारा, राघवेन्द्र अग्रवाल, रामफल यादव, रघुवीर अग्रवाल, ठाकुर जीवन सिंह की कविताएं ऑनलाइन उपलब्ध हैं । कहानीकार जो छत्तीसगढ़ी कहानी को सतत् अपनी उर्जा से विकसित कर रहे हैं उनमें यहाँ श्यामलाल चतुर्वेदी, रामलाल निषाद, मंगत रवीन्द्र, भावसिंह हिरवानी, सुशील भोले, सुभदा मिश्र, डॉ. नलिनी श्रीवास्तव, निशीथ पांडेय की विविध कथानकों पर लिखी कहानियाँ पाठकों को बाँधने में समर्थ हैं । यहाँ दुर्गाप्रसाद पारकर और कस्तुरी दिनेश के व्यंग्यों का आनंद भी लिया जा सकता है ।

यहाँ छत्तीसगढी विमर्श को बढावा देने वाले महत्वपूर्ण आलेख भी हैं जिनमें खास हैं- संपादकीय आलेख -छत्तीसगढ़ी भासा : उपेक्छा अउ अपेक्छा - नंदकिशोर तिवारी आलेख/निबंध छत्तीसगढ़ म आधुनिक हिन्दी कहानी के प्रवर्तक बाबू मावली प्रसाद श्रीवास्तव - डॉ. धनंजय वर्मा, छत्तीसगढ़िया मुक्ति - परिमल शुक्ल, डॉ. रामलाल कश्यप के जनप्रिय नाटक श्रीकृष्णार्जुन युद्ध - विद्या भूषण मिश्र, यात्रा-संस्मरन मोर विदेस यात्रा - रामसनेही पांडेय भाषा विमर्स - राज भासा छत्तीसगढ़ी : हमर सपना - रामनाथ साहू, अनिवर्चनीय मिठास हवय छत्तीसगढ़ी भासा म - डॉ.जगमोहन मिश्र, मातृभाषा के महत्ता के कोनो जोड़ नइये - जागेश्वर प्रसाद, छत्तीसगढ़ी विमर्स के विचारनीय बिन्दु - डॉ. हेमचन्द्र पाण्डेय, अपन भासा अपनेच हो थे - प्रो. बांके बिहारी शुक्ल, इंटरनेट -दुनिया भर म बगरे लगे हे छत्तीसगढ़ी साहित्य - राम पटवा, छत्तीसगढ़ के संस्कृति अउ लोक गीदा पंथी - अनिल जांगड़े 'गौंतरिहा', “चतुरा चोर” - मेथ्यू जहानी ‘जर्जर’, विविध- भरथरी के बहाना म - हरिठाकुर, छत्तीसगढ़ के तंत्र पीठ: सिवरीनरायन - प्रो. बांके बिहारी शुक्ल आदि ।

लोकाक्षर डॉट कॉम में छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के वरिष्ठ एवं विद्वान रचनाकार हरिठाकुर का एक साक्षात्कार भी प्रकाशित है जो बहुत पहले लिया गया था । यह साइट केवल छत्तीसगढ या छत्तीसगढी प्रिय पाठकों द्वारा ही देखी-पढ़ी नहीं जाती । इसकी लोकप्रियता का प्रमाण हमें तब पता चला जब हमने वेबपृष्ठ पर एक जगह पढ़ी जिसमें पीटर नामक कोई विदेशी पाठक एक साइट संपादक से पूछ रहा है - छत्तीसगढ़ी आपकी मादरी ज़बान है ? वेब पै छत्तीसगढ़ी में लिखी कहानियाँ मिल सकती हैं कहीं ? मैं पढ़ना चाहूँगा । तब उत्तरदाता बता रहा है – आप www.lokakshar.com पर लॉगऑन करलें बस । यह साइट दो ही अंक में कनाड़ा, युके, अमेरिका, युगांडा, बेल्जियम क्रोटिया जर्मनी, संयुक्त राज अमीरात, नीदरलैंड, पाकिस्तान, जापान, स्वीट्जरलैंड, फ्रांस आदि के पाठकों तक पहुँच चुकी है ।

सर्फिंग और तलाश जारी रखते हुए जरा आगे बढ़ें तो हमें मिलता है http://jrsoni.blogspot.com/ नामक जाल स्थल । यह ब्लॉग पर निर्मित है । यहाँ डॉ. जे. आर. सोनी द्वारा लिखित छत्तीसगढी उपन्यास – चंद्रकला पूरी तरह मौजूद है । यह अब छत्तीसगढी का पहला ऑनलाइन उपन्यास बन चुका है । सृजन-सम्मान नामक सांस्कृतिक संस्था द्वारा संचालित - अंतरजाल पर हिंदी और छत्तीसगढ़ी की प्रतिष्ठा अभियान – पर आस्था रखें तो आने वाले दिनों में हम छत्तीसगढ़ी में लिखी कई किताबों को ऑनलाइन पढ़ सकते हैं ।

छत्तीसगढ़ - छत्तीसगढ़ी – छत्तीसगढ़िया नामक जाल स्थल पहुँचेंगे तो आपको प्रख्यात भाषाविद् डॉ. चितरंजन कर और मेरे द्वारा लिखी किताब – छत्तीसगढी कैसे सीखें नामक किताब पढ़ने को मिलेगी । इसका पता है -(http://chhattisgarhi.blogspot.com/ इस साइट के माध्यम से विश्व में कहीं से भी हिंदी भाषा के ज्ञान के सहारे छत्तीसगढी बोलना एक माह में सीखा जा सकता है ।

धैर्य पूर्वक आप सर्फिग करेंगे तो आपको इस दौरान http://mahanadii.blogspot.com/ नामक एक ब्लॉग मिलेगा । यह छत्तीसगढ़ी रचना संसार का स्थल होगा जहाँ छत्तीसगढ़ी भाषा, साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित आलेख, कविता, निबंध और समीक्षा प्रकाशित हुआ करेगी । यह ऐसा मंच होगा जहाँ सभी लोकानुरागी व्यक्ति अपना विचार, मंतव्य आपस में बाँट सकेंगे । वे हर कोई जो छत्तीसगढ़ी को आगे ले जाना चाहते हैं यहाँ अपने स्वागत में हमें पायेंगे । यह भाषा और साहित्य का सहकारी मंच है जहाँ आप हमारे बारे में निःसंकोच अपनी बात रख सकते हैं । महानदी हमारी सबसे प्यारी नदी है । इसकी अनवरत धारा को प्रणाम करते हुए हमने इसका नाम महानदी रखा है । भविष्य में यहाँ ढ़ेर सारी छत्तीसगढ़ी सामग्री पढ़ने को हम पाठकों को मिलेगी ।

जो छत्तीसगढ़ी के रचनाकारों की जानकारी सरसरी नज़र से पढ़ना चाहते हैं उन्हें ज्यादा कोशिश नहीं करनी होगी । चाहे आप भक्तिकालीन साहित्यकारों के बारे में जानना चाहते हैं या फिर वर्तमान के सकिय रचनाकारों के बारे में । सामग्री को विधावार रखा गया है जो नेट पाठकों के लिए भी पढने में सरल है । आप बस किसी भी सर्च इंजन में हिंदी में टाइप कर दीजिए - छत्तीसगढ़ी के रचनाकार । आपके सामने कई साइट की सूची दिखाई देंगी । वस्तुत सभी में एक ही सामग्री है । महत्वपूर्ण और शोध आलेख होने के कारण इसे दुनिया की कई साइट संपादकों ने अपने वेबसाइट में अविकल रखा है । इसमें इंटरनेट विश्वकोश- विकिपीडिया सबसे प्रमुख है । वैसे यह हिंदी वेब विशेषज्ञ जय प्रकाश मानस का मूल लेख है । जो रखा गया है – srijansamman नामक जाल स्थल में । छत्तीसगढी में वेब-पत्रकारिता की शुरूआत www.srijangatha.com से मानी जानी चाहिए जो साहित्य, भाषा, संस्कृति की ऑनलाइन मासिक पत्रिका है । यह छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों को वैश्विक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए लगभग एक साल से सचांलित है । यहाँ लोक-आलोक नामक स्तम्भ में नंदकिशोर शुक्ल का भारतेन्दु हरिश्चन्द और ‘निज भाषा’ छत्तीसगढ़ी और सुरेश पर्वद का छत्तीसगढ़ी विवाह और लोकगीत नामक लेख भी है जो छत्तीसगढी भाषा में नहीं किन्तु छत्तीसगढी भाषा की पहुँच और उसकी संस्कृति की मूल बातों से परिचय कराते हैं । लोक-आलोक में मूलतः छत्तीसगढी संस्कृति को व्याख्यायित और प्रसारित करने के लिए डॉ. तृषा शर्मा का स्तंभ भी दिया जा रहा है।

मुझे इतिहास पर भी खास रूचि है सो सर्फिंग करते-करते मेरे मन में प्रश्न उभरा कि छत्तीसगढी या छत्तीसगढ़ के इतिहास पर कुछ है या नहीं । ऐसे में मेरे सामने भारत सरकार का एक वेबसाइट दिखा –
पता है उसका - http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/chgr0045.htm
भाषा साहित्य पर और साहित्य भाषा पर अवलंबित होते है। इसीलिये भाषा और साहित्य साथ-साथ पनपते है। परन्तु हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य के विकास अतीत में स्पष्ट रुप में नहीं हुई है। अनेक लेखकों का मत है कि इसका कारण यह है कि अतीत में यहाँ के लेखकों ने संस्कृत भाषा को लेखन का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ी के प्रति ज़रा उदासीन रहे। इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में जो साहित्य रचा गया, वह करीब एक हज़ार साल से हुआ है। इस वेबसाइट में छत्तीसगढ़ी भाषा-साहित्य के इतिहास के इस एक हजार वर्ष को साहित्यिक प्रवृत्तियों के अनुसार 3 खंडों में विभाजित किया गया है कि (१) गाथा युग सन् 1000 से 1500 ई. तक (२) भक्ति युग - मध्य काल सन् 1500 से 1900 ई. तक (३) आधुनिक युग सन् 1900 से आज तक
भारत सरकार में बैठे सांस्कृतिक प्रतिनिधियों को धन्यवाद देना होगा कि विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक विरासतों और अस्मिताओं की जानकारियों को संपूर्ण विश्व तक पहुँचाने के लिए इस विशाल और व्यापक जाल-स्थल का संचालन का गुरूत्तर भार स्वीकार किया है । राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ी और उसकी संस्कृति पर क्या राज्य के सांस्कृतिक कर्मों के लिए उत्तरदायी सरकारी संगठनों को इस जाल-स्थल से सीख लेनी चाहिए । पर किसे फूर्सत पड़ी है । बहरहाल..... यहाँ आप छत्तीसगढ़ का इतिहास, भौगोलिक स्थिति, राज्य का पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ को बड़ी रोचकता के साथ पढ़ सकते हैं । स्वाधीनता संग्राम में छत्तीसगढ़ का योगदान नामक आलेख यद्यपि संपूर्ण नहीं है किन्तु पं. सुंदरलाल शर्मा सहित 7 सेनानियों पर प्रकाश डाला गया है ।
जब तक छत्तीसगढ़ के लोकगीतों और लोकनृत्यों की चर्चा न की जाए सच मानिए तो छत्तीसगढ़ी भाषा की अस्मिता का मर्म भी व्याख्यायित नहीं हो पाता । मन खुश हो उठता है कि यहाँ अनेक लोकगीत को तवज्जो दिया गया है । चाहें तो आप आडियो फारमेट में इन गीतों का सस्वर रस भी ले सकते हैं । भरथरी जैसे विश्व प्रसिद्द लोकगाथा के बारे में भी पर्याप्त जानकारी हैं यहाँ । इसके अलावा यहाँ छत्तीसगढ़ी लोककथाओं, लोकवाद्यो, हाना, लोक उत्सवों, लोक खेलों, लोक आभूषणों, लोक जनजातियों आदि पर व्यापक सामग्री उपलब्ध है ।
यह सच है कि अंतरजाल पर किसी भाषा और संस्कृति की वैश्विक प्रतिष्टा के लिए सरकारी अभिरूचि और सदिच्छा लगभग शून्य है । पश्चिम देशों की भाषा की समृद्धि के पीछे उनका प्रौद्योगिकी के साथ पूर्णतः तालमेल भी है । आप किसी भी विदेशी भाषा और उसके व्यापक संदर्भों पर अद्यतन जानकारी और संदर्भ जब चाहें उनके वेबसाइटों पर देख-पढ़ सकते हैं पर भारतीय सोच के अनुसार यह अभी भारत में संभव नहीं हो सका है । छत्तीसगढ़ी जैसी लोकभाषा की बात छोडिए हिंदी की ही स्थिति को देखेंगे तो अपनी कमजोरियां हमारा मुँह चिढ़ाने लगती हैं । आप भी विश्व की बड़ी भाषा होने के बावजूद इंटरनेट पर उनकी व्याप्ति बहुत पीछे है । हिंदी और लोकभाषाओं को इंटरनेट पर व्यापक उपस्थिति का मतलब अंग्रेजी की सुरसा गति पर रोक भी है । व्यक्तिगत प्रयासों से ही इस दिशा में सफलता अर्जित की जा सकती है । व्यक्तिगत प्रयास की बात चल निकली है तो उस वेब-स्थल का भी जिक्र लाजिमी होगा जिसे छत्तीसगढ के एक पत्रकार दिल्ली से संचालित कर रहे हैं । यह सीजीनेट डॉट इन इसका पता ठिकाना है । वस्तृतः यह हिंदी का साइट है और ग्रामीण पत्रकारिता को गति देने के लिए संचालित है पर छत्तीसगढी में भी कुछ जानकारियाँ, विचारोत्तेजक लेख, घटनाओं पर टिप्पणियाँ यहाँ पढ़ने को मिल सकती हैं ।
गूगल पर हिंदी में – छत्तीसगढ़ी – शब्द लिखकर सर्च करते वक्त एक रोचक तथ्य भी मिलता है । जानते हैं कहाँ ? बीबीसी हिंदी नामक विश्व प्रसिद्ध समाचार केंद्रित जाल स्थल पर । यहाँ छत्तीसगढ़िया-ग़ैर छत्तीसगढ़िया नामक एक रिपोर्टिंग है । इसमें लिखा गया है कि पचास प्रतिशत के लगभग पिछड़ी जाति, 32 प्रतिशत आदिवासियों और 14 अनुसूचित जाति वाले प्रदेश में राज्य बनने के बाद से छत्तीसगढ़िया-ग़ैर छत्तीसगढ़िया का मामला भी ख़ूब उछाला गया और इन चुनावों में इसका ख़ासा असर भी देखा जा रहा है । छत्तीसगढ़ी को राजभाषा को दर्जा दिया जाना भी एक बड़ा चुनावी मुद्दा है । अब यह अलग बात है कि अब तक जितनी भी दलों ने छत्तीसगढियों पर राज किया है किसी ने भी इसे याद नहीं रखा । क्या बीबीसी वालों का यह आंकलन झूठा है या ये सत्ताधारी का वादा और छत्तीसगढ़ी प्रेम । वैसे छत्तीसगढ़ सरकार भी nic के सहयोग से राज्य सरकार की दो-दो जाल-स्थल संचालित कर रही है । http://cg.gov.in/ और www.chhattisgarh.gov.in नाम से । कहने को राज्य का प्रौद्योगिकी प्रमुख को सूचना तकनीकी को विकसित करने के लिए पुरस्कार मिलने का अबाध सिलसिला जारी है पर आश्चर्य होता है कि राज्य सरकार का एक भी ऐसा साइट नहीं है जहाँ छत्तीसगढ़ी में कुछ हो । आप थोड़े ना बिहार, उत्तरप्रदेश या उड़ीसा या बंगाल के निवासी हैं जहाँ की सरकारें भी उनकी मातृभाषाओं में असंख्य पेज अंतरजाल पर रख चुकी हैं जिसका बाकायदा आप लाभ उठा सकते हैं । चाहे लंदन में रहें या वेस्टइंड़ीज में । भाषाओं को विकसित और व्यापक बनाने के कार्य के बारे में अक्सर यही कहा जाता है कि यह कार्य राज्य की विश्वविद्यालयों का है । ठीक भी है । पर जहाँ (छत्तीसगढ़ में) 7-7 विश्वविद्यालयों के लिए जब एक भी छत्तीसगढ़ी भाषी कुलपति के लायक योग्य नज़र नहीं आता, वहाँ छत्तीसगढ़ी भाषा का साइट कैसे बन सकता है । जय हो मोर छत्तीसगढ़ भूईंया ।
महानदी छत्तीसगढ़ी सबसे प्यारी नदी है । इसी नाम से एक और जाल-स्थल विकसित किया जा रहा है जयप्रकाश द्वारा । mahanadi.blogspot.com पर अंकित घोषणा को ध्यान दें तो यह छत्तीसगढ़ी रचना संसार का स्थल होगा जहाँ छत्तीसगढ़ी भाषा, साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित आलेख, कविता, निबंध और समीक्षा प्रकाशित हुआ करेगी । यह ऐसा मंच होगा जहाँ सभी लोकानुरागी व्यक्ति अपना विचार, मंतव्य आपस में बाँट सकेंगे । वे हर कोई जो छत्तीसगढ़ी को आगे ले जाना चाहते हैं यहाँ अपने स्वागत में हमें पायेंगे । यह भाषा और साहित्य का सहकारी मंच है जहाँ कोई भी निःसंकोच अपनी बात रख सकता है । वैसे यह ब्लॉग आधारित जाल-स्थल सूना पड़ा है । विश्वास किया जाना चाहिए छत्तीसगढ़ के साहित्यकार और भाषासेवी मिलकर इस जगह को भरने आगे आयेंगे ।
अंतरजाल आज सारी दुनिया में समूह चर्चा के अनेक घरों के की मुफ़्त उपलब्धता के लिए भी बहुप्रयुक्त और लोकप्रिय माध्यम है । कदाचित् वह 21 सदी में मनुष्य द्वारा वैश्विक स्तर पर चर्चा का सबसे प्रभावी मंच भी बन सकता है । हमने उसकी भी जानकारी लेनी चाही । हमें ऑरकुट (www.orkut.com) और रेडिफ जैसे महान साइटों पर भी छत्तीसगढ़ी में लिख कर चर्चा करने वाले ऐसे हजारों लोग मिले जो वास्तव में अंतरजाल पर छत्तीसगढी की लौ को जिंदा करके रखे हुए हैं । इनमें से अधिकांश विदेशों में रोजी-रोटी के लिए रह रहे हैं ।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों की तरह ही अंतरजाल पर उनकी उपस्थिति नहीं के बरोबर है । है तो भी आधी अधूरी और लगता है अभी छत्तीसगढ़ी को अंतरजाल पर प्रतिष्ठित देखने की पुलक और ललक जागी नहीं है । ऐसी ही एक नौसिखिया साइट है - http://chhollywood.info/ । यहाँ दो-तीन व्यक्तियों की आवाज में छत्तीसगढ़ी लोकगीत सुने जा सकते हैं । कहने को तो छत्तीसगढ से 30 हजार से अधिक साइट संचालित हैं पर छत्तीसगढी का कही भी अता-पता नहीं है । कहने को हाल ही में दो और जाल-स्थल (प्रिंट माध्यम में इतवारी अखबार और अक्षर पर्व)और तैयार हुए हैं पर इनमें शायद ही छत्तीसगढी की कोई सामग्री हो ।

जब आप छत्तीसगढ़ी भाषा में कुछ पढ़ना चाहेंगे और इंटरनेट के सर्च इंजनों से छत्तीसगढ़ी शब्द टाइप करके खोजने लगेंगे तो आपके समक्ष 503 वेबसाइटों की सूची आ टपकेगी । पर इतनी जगहों पर छत्तीसगढी भाषा के नाम पर वह कुछ नहीं मिलेगा जिसे आप ढूँढना चाहते हैं । यानी कि छत्तीसगढी सामग्री आपको वहाँ नहीं मिलगी । तुलनात्मक रूप से यह अंतरजाल पर छत्तीसगढी प्रेमियों की क्षीण उपस्थिति का भी द्योतक है । अंतरजाल पर छत्तीसगढ़ी कितनी क्षीण है वह इस बात से भी पता लग जाता है कि सर्च इंजनें भोजपुरी के 27900, राजस्थानी के 11100, मराठी के 1,850,000 अवधी के 2490 और हिंदी के 587,000 जाल-स्थलों की सूची हमारे समक्ष रख देती हैं । फिर भी यह कम गौरव की बात नहीं है जो छत्तीसगढ के मूल निवासी और रवि रतलामी पूरी तरह से छत्तीसगढी में संचालित होने वाला आपरेटिंग सिस्टम भी बना लिया है । सुनते हैं उन्होंने इसे अनसमर्थन देने हेतु छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास का सिंहनाद करने वाली सरकार के पास भी भेजा था परन्तु सालों बीत गये उन्हें उनके मेल का कोई जबाब तक नहीं मिल सका है । भगवान बचाये ऐसे छत्तीसगढ़िया लोगों से । वैसे इसकी विस्तृत जानकारी जानने और सीड़ी आदि लेने के लिए http://cg-os.blogspot.com/ पर लॉग ऑन किया जा सकता है ।
भविष्य में संचार, सूचना, शिक्षा, ज्ञान, भाषा संरक्षण, उद्योग, व्यापार, जनकल्याणकारी योजनाओं का संचालन आदि का माध्यम इंटरनेट ही है । पश्चिम तो इसे लगभग प्राप्त करने जा रहा है । यह मैं ब्रिटेन और मारीशस में देख चुका हूँ कि कैसे वहाँ अपनी भाषा में घर बैठे ही सारा काम इंटरनेट से संचालित कर लिया जाता है – चाहे वह किसी गृहिणी द्वारा किसी स्टोर से मशाला क्रय करने का कार्य हो या किसी शोध छात्र द्वारा किसी खास विषय पर जानकारी और ज्ञान प्राप्त करने का । विश्वास किया जाना चाहिए छत्तीसगढ़ से भी सांस्कृतिक संगठनें भविष्य में अंतरजाल की ओर मुडेंगी । लेखकगण भी अपनी बात दुनिया भर के लिए अंतरजाल पर रखेंगे । आनलाइन होने की शुरूआत और अधिक गति पायेगी । तब भोजपुरी की तरह छत्तीसगढी भी इंटरनेट में सक्रियता की विश्व स्तर के पुरस्कारों से सम्मानित हो सकेगी ।

आतंकवाद का अन्त नहीं है ऑप्रेशन सनराईज

पाकिस्तान की लाल मस्जिद में आतंकवादियों को बाहर निकालने हेतु पिछले दिनों हुई सैन्य कार्रवाई जिसे कि मीडिया द्वारा ऑप्रेशन साइलेन्स के नाम से प्रचारित किया गया था, पाक सैन्य सूत्रों के अनुसार दरअसल यह मीडिया द्वारा दिया गया नाम ही था। जबकि पाक सेना ने इसे ऑप्रेशन सनराईंज का नाम दिया था। पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बाद 'ऑप्रेशन सनराईंज' पाकिस्तान की पहली ऐसी आतंक विरोधी बड़ी कार्रवाई थी जोकि आतंकवाद के विरुद्ध छेड़ी गई थी। इस सैन्य कार्रवाई को लेकर नाना प्रकार की टिप्पणियाँ की जा रही हैं। कोई इसे मुशर्रफ़ द्वारा उठाया गया गलत कदम बता रहा है तो कोई यह कहता भी सुनाई दे रहा है कि मुशर्रफ़ ने ऑप्रेशन सनराईंज शुरु करने में काफी देर कर दी। अमेरिका मुशर्रफ़ की पीठ थपथपा रहा है तो अफगानिस्तान भी आतंकवाद विरोधी इस ऑप्रेशन से बेहद खुश है। कुल मिलाकर दुनिया का प्रत्येक वह वर्ग जोकि आतंकवाद को मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन मानता है, उसने मुशर्रफ़ की इस कार्रवाई का पूरा समर्थन किया है। जबकि इस्लाम को हर समय जेहादी रंग में डूबा हुआ देखने वाला कट्टरपंथी मुस्लिम वर्ग लाल मस्जिद में हुई सैन्य कार्रवाई का खुलकर विरोध कर रहा है।

ऑप्रेशन सनराईंज के विरुद्ध सबसे पहले अपनी आवाज़ बुलन्द करने वाला आतंकवादी नेता एमन अल जवाहिरी था जिसने जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ व उनकी सेना के विरुद्ध जमकर जहर उगला तथा दुनिया के मुसलमानों से पाकिस्तान पर चौतरफा हमला करने का आह्वान किया। उधर लाल मस्जिद की घटना के बाद पाकिस्तान में सैनिकों पर हमले भी तेज हो गए हैं। आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी मुहिम छेड़ने का दावा करने वाला अमेरिका भी लाल मस्जिद घटना को बड़ी ही सूक्ष्मता से देख रहा है। यही वजह है कि अलकायदा में दूसरे नम्बर की हैसियत रखने वाले एमन अल जवाहिरी की पाक के विरुद्ध की गई यलंगार के तुरन्त बाद ही अमेरिका ने अलंकायदा प्रमुख ओसामा बिन लाडेन को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ने हेतु पुरस्कार स्वरूप निर्धारित राशि को दोगुना अर्थात् 5 करोड़ डॉलर किए जाने की तत्काल घोषणा कर डाली है। अमेरिका भी इस बात से बखूबी वाकिफ है कि जेहादी विचारधारा रखने वाले कट्टरपंथी मुसलमान ऑप्रेशन सनराईंज के बाद ख़ामोश नहीं बैठेंगे। अमेरिका को पाकिस्तान में अशान्ति फैलने के साथ-साथ इस बात की भी जबरदस्त चिंता है कि कहीं पाकिस्तान स्थित परमाणु संयंत्रों पर इन्हीं आतंकवादियों का कब्ज़ा न हो जाए। इसी स्थिति से निपटने के लिए अमेरिका इस कोशिश में है कि यथाशीघ्र संभव अलकायदा के नेटवर्क को कमजोर कर दिया जाए। जाहिर है ओसामा बिन लाडेन व जवाहिरी जैसे अलकायदा के शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी अथवा उन्हें मारा जाना अमेरिका के लिए अत्यन्त सुखद होगा।

इसमें कोई शक नहीं कि चाहे वह अमेरिका हो या पाकिस्तान आज यह दोनों ही देश अपने ही बोए हुए बीजों की बेल काट रहे हैं। आज आतंकवाद की इस बेल ने इस हद तक अपना विस्तार कर लिया है कि 911, लंदन ब्लास्ट तथा ऑप्रेशन सनराईंज जैसी घटनाएँ सुनाई दे रही हैं। इसी आतंकवादी विचारधारा ने अफगानिस्तान जैसे प्राचीन एवं ऐतिहासिक देश को खंडहरों के देश के रूप में परिवर्तित कर दिया है। यही आतंकवाद समय-समय पर भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश की साम्प्रदायिक एकता को चुनौती देता रहता है। इसी आतंकवाद ने भारत का स्वर्ग समझे जाने वाले कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में रहने के लिए मजबूर कर दिया है। यही वह आतंकवाद है जो पाकिस्तान में मस्जिदों में नमाज पढ़ने वाले अपने ही मुसलमान भाइयों पर गोलियां चलाकर उनकी सामूहिक हत्याएँ करने से नहीं हिचकिचाता। इसी आतंकवाद ने अब तक लाखों बेगुनाह लोगों की जानें ले लीं। इन सभी के पीछे कट्टरपंथी एवं जेहादी इस्लामी विचारधारा का जबरदस्त योगदान है। और अब यही आतंकवादी चेहरा संफेदपोश मौलवी, मुल्लाओं के रूप में इस्लामी शरिआ लागू करने की बातें करने लगा है। धर्म व राजनीति के घालमेल की बात की जा रही है। यदि इस्लाम के 73 वर्गों में से एक ही वर्ग इस्लामी शरिआ की बात करे तो शेष 72 इस्लामी वर्गों के लिए यह चिन्ता का विषय ज़रूर है कि आखिर किस शरिआ को इस्लामी शरिआ बताने का प्रयास किया जा रहा है। क्या लाल मस्जिद द्वारा संचालि गतिविधियाँ ही इस्लामिक शरिआ की छवि प्रस्तुत करती हैं? हुकूमत से टकराव का रास्ता अख्तियार करना, आराधना स्थल में नाजायज़ अस्त्रों-शस्त्रों को संग्रह करना, अपनी जान की रक्षा हेतु औरतों व बच्चों को मानव ढाल के रूप में प्रयोग करना आदि गैर मानवीय कृत्य, क्या यही हैं इस्लामी शरिआ के संदेश?

यहाँ लाल मस्जिद में हुई सैन्य कार्यवाही से संबंधित एक बात काबिले गौर है- जुलाई को जिस दिन पाक सेना ने लाल मस्जिद में घुसकर आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई शुरु की, उस दिन सबसे पहली प्रतिक्रिया तालिबानी संगठनों की ओर से प्राप्त हुई थी। हजारों की तादाद में तालिबानी समर्थक पाकिस्तान-चीन के मध्य कराकोरम राजमार्ग पर उतर आए थे तथा उन्होंने इस राजमार्ग पर जाम लगा दिया था। इस विरोध प्रदर्शन का सीधा अर्थ यही है कि लाल मस्जिद में तालिबानी विचाराधारा का ही पोषण हो रहा था। तालिबानों का इस्लाम क्या है, वे इस्लाम के कौन से रूप को दुनिया में फैलाना चाहते हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। अफगानिस्तान में व पाकिस्तान के सीमावर्ती अफगानी क्षेत्रों में अफीम जैसे नशीले पदार्थों की खेती करना इनकी तस्करी कराना तथा इन पैसों से हथियार व गोला बारूद खरीदना यही तालिबानियों का मुख्य पेशा रहा है। शान्तिदूत गौतम बुद्ध जैसे महान संत जिसने कि पूरे विश्व को शान्ति प्रेम व सद्भाव का पाठ पढ़ाया हो, उस महान सन्त की अफगानिस्तान के बामियान प्रान्त में स्थित प्राचीन एवं विशालकाय मूर्तियों को तोपों से उड़ाए जाने जैसा घिनौना व दुनिया में वैमनस्य फैलाने वाला कृत्य तालिबानियों द्वारा ही किया गया था। अफगानिस्तान में हजारों बेगुनाह लोगों को सरेआम दिन दहाड़े गोली मार देना, उन्हें बिजली के खम्बों या पेड़ों पर फाँसी के फंदे पर लटका देना, यह सब तालिबानी 'इस्लाम' के कारनामे रहे हैं। आखिर इन्हें इस्लाम के वास्तविक स्वरूप से कैसे जोड़ा जा सकता है?

आज ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया का हर वह वर्ग जिसमें कि उदारवादी मुसलमानों का भी एक बड़ा वर्ग शामिल है, इस्लाम पर आतंकवादी व तालिबानी विचारधारा के हावी होने की कोशिशों का प्रबल विरोध करे। अब इस बात का समय शेष नहीं रह गया है कि आतंकवाद विरोधी मुहिम की समीक्षा नकारात्मक दृष्टिकोणों से की जाए बल्कि ज़रूरत इस बात की है कि आतंकवाद विरोधी मुहिम कहीं भी और किसी के द्वारा भी क्यों न चलाई जा रही हो, उसे विश्व के समस्त शान्तिप्रिय लोगों का समर्थन मिलना ही चाहिए। आतंकवादी विस्तार का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि इसने न सिर्फ दक्षिण एशियाई देशों की बल्कि मध्य एशियाई देशों व अमेरिका व ब्रिटेन की सरकारों व आम लोगों की नींदें हराम कर रखी हैं।

'देर आयद दुरुस्त आयद' की कहावत को चरितार्थ करते हुए जनरल मुशर्रफ़ ने लाल मस्जिद पर धावा बोलकर जिस आतंकवाद विरोधी मुहिम की शुरुआत की है, वह वास्तव में एक शुरुआत मात्र ही है। जनरल मुशर्रफ़ की इस कार्रवाई की आलोचना करने के बजाए उनकी इस कोशिशों का समर्थन किया जाना चाहिए। लाल मस्जिद की कार्रवाई को कट्टरपंथियों द्वारा इस्लाम विरोधी कार्रवाई प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। पाकिस्तान में सत्ता के खेल में लगे मुशर्रफ़ विरोधी इस घटना को भुनाने का पूरा प्रयास करने लगे हैं। ऐसा करना मुशर्रफ़ के विरुद्ध उन्हें राजनैतिक सफलता तो दिला सकता है परन्तु मुशर्रफ़ के राजनैतिक पतन से कट्टरपंथी तालिबानियों के हौसले भी ज़रूर बुलन्द होंगे। मुशर्रफ़ की ताजातरीन प्रत्येक पराजय को तालिबानी अपनी विजय के रूप में दर्ज करेंगे। लिहाँजा लाल मस्जिद के ऑप्रेशन सनराईज को राजनैतिक लिबास ओढ़ाने के बजाए इसे इस नज़रिए से देखा जाना चाहिए कि ऑप्रेशन सनराईज वास्तव में इस्लाम के 'सनराईज' के रूप में सामने आए। इसे आतंकवाद के विरुद्ध जनरल मुशर्रफ़ की एक अच्छी व हौसलाकुन शुरुआत मानी जानी चाहिए। जनरल मुशर्रफ़ को चाहिए कि जब उन्होंने इतना बड़ा साहस किया ही है तो उन्हें इसे अन्जाम तक भी पहुंचाना चाहिए। पाकिस्तान व विशेषकर पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे सभी आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों को नेस्तोनाबूद कर दिया जाना चाहिए। यदि समय रहते ऐसा हो गया, फिर शायद इस्लाम में निरंतर लगने वाले बदनुमा धब्बों को समय रहते धोया जा सके।

तनवीर जाफरी

पाकिस्तान पर छाये संकट के बादल

दुनिया में बहुत ही कम देश ऐसे होंगे जहाँ कि राजनेता बंखुशी अपने प्रतिपक्षी दलों को सत्ता हस्तान्तरित कर देते हों। खासतौर पर कई एशियाई देशों में तो सत्ता पर बने रहने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाते भी देखे गए हैं। उदाहरण के तौर पर देश में आपातकाल स्थिति की घोषणा कर देना, सत्ता पर बने रहने के लिए सदन द्वारा विशेषाधिकार प्राप्त कर लेना, फौजी हुकुमरान द्वारा सत्ता पर निरंतर क़ाबिंज रहना, लोकतांत्रिक सरकार को उखाड़कर फौजी सत्ता कायम करना जैसे तरीके सत्तालोभियों द्वारा कई देशों में अपनाए जाते रहे हैं। इन्हीं एशियाई देशों में पाकिस्तान भी एक ऐसा देश है जहाँ लोकतांत्रिक तरींके से चुनी गई सरकारों व सेना के मध्य प्राय: 36 का आँकड़ा दिखाई देता रहा है। यहाँ अनेकों बार फौजी शासकों ने लोकतांत्रिक सरकारों को उखाड़ फेंका है तथा सत्ता पर कब्जा जमा लिया है। इन दिनों भी पाकिस्तान जनरल परवेज़ मुशर्रफ के रूप में एक ऐसे शासक को सहन कर रहा है जिसने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को सत्ता से बेदखल कर पहले उन्हें जेल में डाला तथा बाद में सऊदी अरब के शाही परिवार के हस्तक्षेप की वजह से उन्हें देश निकाला देकर उनपर 'रहम' किया। एक अन्य पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को भी पाकिस्तान में दाखिल होने की इजाजत नहीं है। पाकिस्तानी सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत रखने के लिए जनरल मुशर्रफ़ सेना प्रमुख के अतिरिक्त पाक राष्ट्रपति के पद पर भी कब्जा जमाए बैठे हैं।

अपने विरोधियों को कुचलने की मुहिम की ऐसी ही एक कड़ी में गत् दिनों जनरल मुशर्रफ़ द्वारा एक गलत व असामयिक कदम उठा लिया गया था। पाकिस्तानी कानून मंत्रालय द्वारा प्रेषित एक रिपोर्ट जोकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कार्यालय से भी संस्तुति प्राप्त कर राष्ट्रपति मुशर्रफ़ तक पहुँची थी, उसके आधार पर मुशर्रफ़ ने पाकिस्तान सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को उनके पद से बर्खास्त कर दिया था। इस रिपोर्ट में इंफ्तिखार चौधरी पर अपने पद का दुरुपयोग करने, अपने कार्यक्षेत्र से अलग के कामों में दखलअंदाजी करने तथा भ्रष्टाचार जैसे कई ऐसे आरोप लगाए गए थे जिनके पर्याप्त सुबूत हासिल नहीं थे। इस बर्खास्तगी को जनरल मुशर्रफ़ द्वारा उठाया गया एक राजनैतिक कदम मात्र माना जा रहा था। इफ्तिखार चौधरी की बंर्खास्तगी परवेज़ मुशर्रफ़ के लिए बड़ा सिरदर्द साबित हुई। हालांकि आमतौर पर दक्षिण एशियाई देशों में सर्वाच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को लेकर जनता के बीच लोकप्रियता जैसी कोई बात नज़र नहीं आती। परन्तु पाकिस्तान में जस्टिस चौधरी की बर्खास्तगी के मुद्दे को लेकर मुशर्रफ़ विरोधी सभी राजनैतिक दल जस्टिस चौधरी के साथ हो लिए। अपनी बर्खास्तगी के बाद जस्टिस चौधरी ने पाकिस्तान के कई शहरों में ऐसी जनसभाएं कीं तथा मुख्य मार्गों पर उनके समर्थन में ऐसा जनसैलाब उमड़ता हुआ दिखाई दिया जैसा कि किसी अत्यन्त लोकप्रिय जननेता के समर्थन में भी दिखाई नहीं देता। दरअसल जस्टिस चौधरी के पीछे सारा जन समुदाय चौधरी के समर्थकों का नहीं बल्कि मुशर्रफ़ विरोधियों का ही था।

बहरहाल जस्टिस चौधरी की बर्खास्तगी के दिन चल ही रहे थे कि जनरल मुशर्रफ़ को इस्लामाबाद में लाल मस्जिद में छिपे आतंकवादियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करनी पड़ी। इस कार्रवाई का रूढ़ीवादी मुसलमानों द्वारा जबरदस्त विरोध शुरु कर दिया गया। पाकिस्तान में लाल मस्जिद में हुए ऑप्रेशन सनराईज के बाद कई दिनों तक लगातार आत्मघाती हमले होते रहे जिसमें सेना को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता रहा। कराची में बंर्खास्त मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चौधरी की एक सभा में भी ऐसा ही एक आत्मघाती हमला हुआ जिसमें कई लोग मारे गए। दिन प्रतिदिन पाकिस्तान के हालात इसी प्रकार बिगड़ते ही जा रहे थे कि गत् 20 जुलाई को पाकिस्तान सर्वाच्च न्यायालय की 13 सदस्यीय सम्पूर्ण पीठ ने जस्टिस इफ्तिखार चौधरी के निलंबन के सिलसिले में चौधरी द्वारा दायर चुनौती याचिका पर अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए उन्हें बहाल किए जाने का आदेश जारी किया। इस ऐतिहासिक फैसले से पाकिस्तान की राजनीति में फिर नया भूचाल आ गया है।

हालाँकि कुछ राजनैतिक विशेषकों का तो यह कहना है कि जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली में भी परवेज़ मुशर्रफ़ की संस्तुति व उनकी सहमति गुप्त रूप से शामिल है। परन्तु मुशर्रफ़ विरोधी जस्टिस चौधरी की बहाली के फैसले को इन्सांफ की जीत तथा मुशर्रफ़ सरकार की हार की संज्ञा दे रहे हैं। विपक्ष का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उनके अनुसार पाकिस्तान में चल रहे जँगलराज के अँधेरे को समाप्त करने की दिशा में उम्मीद की एक किरण है। अब विपक्ष द्वारा पाक सर्वोच्च न्यायालय से यह उम्मीद की जा रही है कि वह पाकिस्तान की सड़कों पर गश्त कर रही फौजों को बैरिकों में वापिस बुलाने में सहायक सिद्ध होगी। कुछ विपक्षी नेताओं का तो यहाँ तक कहना है कि यदि पाकिस्तान में आत्मघाती हमलों को रोकना है तो पाकिस्तान की राजनीति में जनरल मुशर्रफ़ व उनकी सेना की दखलअन्दांजी बन्द हो जानी चाहिए।

उधर परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट की सम्पूर्ण बेंच द्वारा जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली के निर्णय का स्वागत किया है। पाक प्रधानमंत्री शौकत अजीज का भी कहना है कि पाक सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करती है। अजीज ने यह भी कहा कि यह समय जीत या हार के दावे करने का नहीं है। परन्तु विपक्ष इस प्रकार के बयानों को मात्र थोथापन मान रहा है। विपक्षी दलों का कहना है कि राष्ट्रपति मुशर्रफ़ व प्रधानमंत्री शौकत अजीज द्वारा जस्टिस चौधरी की बहाली के फैसले का स्वागत करना या उसे स्वीकार करना उनका बड़प्पन नहीं बल्कि उनकी मजबूरी है। इन विपक्षी नेताओं का कहना है कि यदि मुशर्रफ़ वास्तव में अदालती फैसले को खुले दिल से स्वीकार करने का प्रमाण देना चाहते हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज से या तो त्यागपत्र मांग लेना चाहिए या उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। विपक्ष द्वारा प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज के साथ-साथ कानून मंत्री वसीम जफ़र से भी त्यागपत्र दिए जाने की माँग की जा रही है।

बहरहाल जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी ने पाकिस्तान में फैली भारी अशांति तथा उथल-पुथल के मध्य पुन: अपना कार्यभार संभाल लिया है। मुख्य न्यायाधीश का पद संभालते ही जस्टिस चौधरी ने तीन विशेष तीन सदस्यीय न्यायपीठ का गठन भी कर दिया है। यह विशेष पीठ छुट्टियों के दौरान तथा अदालत के अतिरिक्त समय में काम करेंगी तथा लम्बित मामलों की शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करेंगी। ऐसी ही प्रथम न्यायपीठ की अध्यक्षता स्वं जस्टिस चौधरी करेंगे जबकि दो अन्य जज जस्टिस भगवान दास व जस्टिस गुलाम रब्बानी इस पीठ के अन्य सदस्य होंगे। दूसरी ओर जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली से उत्साहित वकीलों द्वारा पूरे पाकिस्तान में जबरदस्त जश्न मनाया जा रहा है। पाकिस्तान में इस घटना को चौधरी की जीत की नज़र से तो कम जबकि मुशर्रफ़ सरकार की हार की नज़र से अधिक देखा गया है। जस्टिस चौधरी की बहाली से अत्यधिक उत्साहित पाकिस्तान बार कौंसिल के एक प्रवक्ता ने तो यहाँ तक कह डाला कि जस्टिस चौधरी की बहाली के लिए छेड़ा गया आन्दोलन यहीं समाप्त होने वाला नहीं है बल्कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली तक यह आन्दोलन जारी रहेगा।

निश्चित रूप से जस्टिस इफ़्तिखार चौधरी की बहाली के बाद परवेज़ मुशर्रफ़ के विरोध का एक बड़ा एवं मुख्य अध्याय ज़रूर बन्द हो गया है। परन्तु जस्टिस चौधरी की बहाली आने वाले समय में मुशर्रफ़ के लिए सहायक साबित होगी अथवा उनके लिए परेशानी का सबब बनेगी यह तो आने वाला समय ही बता सकेगा। हाँ, इतना ज़रूर है कि पाकिस्तान के समक्ष आतंकवाद की जो बड़ी चुनौती दरपेश है, जस्टिस चौधरी की बहाली से उसपर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। लाल मस्जिद घटनाक्रम का खुलकर विरोध करने वालों ने जस्टिस चौधरी के साथ खड़े होकर दुनिया को यह दिखाने का प्रयास ज़रूर किया है कि पाकिस्तान की रूढ़ीवादी विचारधारा भी जस्टिस चौधरी के साथ है। परन्तु खुदा न ख्वास्ता यदि जस्टिस चौधरी पर भी रूढ़ीवादी संगठनों का रंग चढ़ गया तथा उनकी बहाली के बाद कट्टरपंथ की जड़ों में पुन: पानी पहुँचना शुरु हो गया तो यह पूरे पाकिस्तान की अवाम के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हो सकता है। लिहाज़ा जस्टिस चौधरी को चाहिए कि पाकिस्तान के सत्ता संबंधी भीतरी राजनैतिक हालात से वे भले ही जिस प्रकार चाहे पेश आएं परन्तु आतंकवाद, तालिबानी विचारधारा के प्रसार, रूढ़ीवादी तथा थोथे जेहादी रंग में रंगे संगठनों व लोगों से वे ज़रूर सख्ती से निपटने का वैसा ही साहस दिखाएं जैसा कि मुशर्रफ़ ने लाल मस्जिद में कर दिखाया था अन्यथा यह तय समझना चाहिए कि यदि पाकिस्तान ने अपनी सेना व रेंजर्स के माध्यम से वहाँ मौजूद आतंकवादी नेटवर्क का सफाया नहीं किया तो वह समय दूर नहीं कि दुनिया में आतंकवाद को समाप्त करने का बीड़ा उठाने वाला स्वयंभू ठेकेदार किसी भी समय स्वयं पाकिस्तान में आतंकवाद विरोधी मुहिम छेड़ सकता है। और यह भी हो सकता है कि पाकिस्तानी सरकार से पूछे बिना ही यह मुहिम छेड़ दी जाए। और यदि ऐसा हुआ तो यह पाकिस्तान की स्वतंत्रता व सम्प्रभुता के लिए तो बहुत बड़ा खतरा होगा ही साथ-साथ पाकिस्तान की आम जनता के लिए भी बहुत ही घातक एवं दुर्भाग्यपूर्ण साबित होगा।

तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

'बुंदेलखंड के वीरप्पन' को मँहगा पड़ा राजनैतिक दल-बदल

उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के सीमावर्ती जिलों में गत् 30 वर्षों से आतंक का पर्याय बना शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ डकैत गत् 22 जुलाई रविवार को प्रात: उत्तर प्रदेश पुलिस की विशेष टास्क फोर्स के साथ चली दो दिन की मुठभेड़ में मारा गया। यह मुठभेड़ चित्रकूट जिले के मारकुंडी के जंगलों में थाना मानिकपुर के अन्तर्गत हुई। इस डकैत पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने 5 लाख रुपए का ईनाम घोषित कर रखा था जबकि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भी इस पर 1 लाख रुपए का ईनाम रखा गया था। ददुआ पर हत्या, डकैती व अपहरण जैसे गंभीर अपराधों के अन्तर्गत 225 से अधिक मुंकद्दमे चल रहे थे। ददुआ से मुठभेड़ करने वाली पुलिस टीम के सभी सदस्यों को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पदोन्नति देने के साथ-साथ एक लाख रुपए की नंकद इनाम राशि देने की भी घोषणा की गई है। ददुआ गिरोह के साथ चली इस पुलिस मुठभेड़ में ददुआ के 11 साथी भी मारे गए।

वैसे तो भारतवर्ष में सैकड़ों प्रसिद्धि प्राप्त ऐसे डाकू पहले भी हो चुके हैं जो अपने आतंक के साथ-साथ राजनीति के क्षेत्र में दखलअन्दांजी करने के लिए भी प्रसिद्ध रहे हैं। अनेकों डाकुओं व गैंगस्टरों ने तो राजनीति को कवच के रूप में इस्तेमाल करने का काम किया है। आज भी राजनीति में अनेकों ऐसे लोग सक्रिय देखे जा सकते हैं जो भले ही डाकू न हों परन्तु एक अपराधी गिरोह का सरगना होने के नाते उनके अपने क्षेत्रों में उनकी दहशत किसी बड़े डाकू की दहशत से कम नहीं है। दुर्भाग्यवश विभिन्न राजनैतिक दलों के टिकट पर अथवा अपने व्यक्तिगत बाहुबल पर चुनाव जीतकर यह लोग आज हमारे देश की लोकसभा व कई विधानसभाओं को कलंकित कर रहे हैं। किसी न किसी कारणवश राजनैतिक दल-बदल तो देश के तमाम नेता करते ही रहते हैं। परन्तु एक पेशेवर अपराधी के दल-बदल का मंकसद सत्ता या सिद्धान्त अथवा टिकट आदि देने दिलाने जैसी बातें न होकर केवल एक ही होती है कि आखिर उसके जीवन की गारंटी किस राजनैतिक दल की छत्रछाया में सुनिश्चित है। अपने इसी लक्ष्य के तहत आमतौर पर अपराधी लोग एक राजनैतिक दल का दामन छोड़कर दूसरे राजनैतिक दल का दामन थामने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं।

आज उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की पुलिस ने बड़ी मशक्कत कर ददुआ को मार गिराने में सफलता हासिल कर ली है। उत्तर प्रदेश की पुलिस ने मायावती के सत्ता में आते ही ददुआ को मारने हेतु चित्रकूट व मानिकपुर के जंगलों में विशेष अभियान चला रखा था। उत्तर प्रदेश पुलिस का कहना है कि मुख्यमंत्री ने उत्तर प्रदेश से अपराधियों का सफाया किए जाने का ऐलान कर रखा है। इस मुठभेड़ पर रौशनी डालते हुए उत्तर प्रदेश के डी जी पी ने कहा कि चूंकि मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस तंत्र को मुक्त रूप से कार्य करने की छूट दी हुई है, इसी वजह से ददुआ गिरोह को समाप्त करने में सफलता मिली है। प्रश् यह है कि ददुआ ही सबसे पहले क्यों बना मायावती की पुलिस का निशाना?

ददुआ के अपराधिक जीवन के साथ-साथ यदि उसकी राजनैतिक पृष्ठभूमि पर भी नज़र डाली जाए तो मिलेगा कि ददुआ ने अपनी जान बचाने के लिए स्थानीय स्तर पर कई राजनैतिक दलों का संरक्षण प्राप्त किया हुआ था। परन्तु लगभग एक दशक तक वह बहुजन समाज पार्टी के पक्ष में ही वोट मांगता रहा। ददुआ से प्रभावित क्षेत्रों में उसके नाम से पर्चे बांटे जाते थे तथा पोस्टर छपवाए जाते थे जिसमें बाकायदा ददुआ की अपील छपी होती थी। कई बार चेतावनी भरे वाक्य प्रकाशित कर ददुआ लोगों से वोट देने की अपील करता था। ऐसे ही एक पोस्टर में बहुजन समाज पार्टी के पक्ष में ददुआ ने इन शब्दों में वोट माँगा था- मोहर लगेगी हाथी पर- नहीं तो गोली छाती पर- लाश मिलेगी घाटी पर। उपरोक्त वाक्यों से ददुआ की बहुजन समाज पार्टी के प्रति समर्पित वफादारी के साथ-साथ उसके घोर आतंक की झलक भी साफ दिखाई देती है। परन्तु इसके बावजूद उसी ददुआ को बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने गोलियों से छलनी कर डाला। क्या था ददुआ का कुसूर? यदि दुर्दान्त डकैत होना ही उसका अपराध था तो वह तो गत् 30 वर्षों से आतंक का प्रतीक बना घूम रहा था। 1975 में पहली बार ददुआ हत्या के एक जुर्म में उत्तर प्रदेश पुलिस के हत्थे चढ़ा था। परन्तु वह पुलिस हिरासत से भाग निकला था। तब से लेकर उसके मारे जाने तक पुलिस ददुआ का कोई सुराग प्राप्त नहीं कर पा रही थी। उसका कोई चित्र भी पुलिस के पास नहीं था। इस दौरान मायावती पहले भी तीन बार उत्तर प्रदेश के सिंहासन को सुशोभित कर चुकी थीं। परन्तु उस समय ददुआ को मारने का ख्याल मायावती सरकार को नहीं आया।

आज ददुआ के राजनैतिक समीकरण बदल चुके थे। वह अपनी जान बचाने के लिए उत्तर प्रदेश की पिछली सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के संरक्षण में चला गया था। यहाँ तक कि ददुआ का बेटा समाजवादी पार्टी की मदद से ही जिला परिषद का अध्यक्ष बन गया था। इतना ही नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी ने ददुआ के भाई को प्रतापगढ़ जिले से विधानसभा के चुनावों में अपनी पार्टी का उम्मीदवार भी बनाया था। जाहिर है ददुआ का राजनैतिक दल-बदल बसपा सुप्रीमो को अच्छा नहीं लगा तथा इस बार सत्ता में आते ही उन्होंने ददुआ से मुठभेड़ करने हेतु उत्तर प्रदेश पुलिस को हरी झण्डी दिखा दी। अब तक सरकार ददुआ गिरोह पर नियंत्रण पाने हेतु 100 करोड़ से भी अधिक खर्च कर चुकी थी।
बेशक ददुआ के मारे जाने के बाद बुंदेलखंड क्षेत्र में आतंक का एक अध्याय समाप्त हो गया है तथा ददुआ से प्रभावित तेंदुए के जंगलों में आने वाले बीड़ी के पत्तों के व्यापारियों से लेकर पन्ना में आने वाले हीरा व्यापारियों तक ने राहत की साँस ली है। परन्तु ददुआ की मुठभेड़ ने यह बहस ज़रूर छेड़ दी है कि आखिर राजनेताओं की नज़र में या मायावती जैसे प्रदेश शासकों की नज़र में कोई अपराधी वास्तविक अपराधी कब कहा जाएगा। यदि यही ददुआ हाथी पर वोट न डालने वालों की छाती में गोली मारने का नारा बुलंद करता था, उस समय तो वह मायावती को उनका होनहार पार्टी कार्यकर्ता नज़र आ रहा होगा। परन्तु वही व्यक्ति जब अपनी जान बचाने के लिए समाजवादी पार्टी के संरक्षण में चला गया तो वह 5 लाख का इनामी डाकू ही नहीं बन गया बल्कि सत्ता में आते ही उसके विरुद्ध विशेष अभियान चलाना भी मायावती की मजबूरी बन गई?

वास्तव में इन दिनों देश में बदले की राजनीति का एक घातक दौर शुरु हो गया है। कई प्रान्तों में यह देखा जा रहा है कि सत्ता संभालने वाला नया सत्ताधीश बिदा होने वाले सत्ताधीश के विरुद्ध जमकर बदले की कार्रवाई कर रहा है। इस सिलसिले में सरकारी तंत्रों विशेषकर पुलिस विभाग का भरपूर प्रयोग किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यही रविश पुलिस मुठभेड़ व हत्या तक आ पहुँची है। फिलहाल तो सुखद यह है कि ददुआ जैसे ईनामी डाकू को पुलिस का निशाना बनना पड़ा। राजनैतिक प्रतिद्वन्दिता के चलते ही सही परन्तु पूरे देश से ऐसे डाकुओं का सफाया हो जाना चाहिए चाहे वे किसी भी राजनैतिक दल का संरक्षण क्यों न प्राप्त कर रहे हों। परन्तु इसमें पारदर्शिता अवश्य होनी चाहिए। मायावती ने ददुआ को मारकर बेशक बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की है परन्तु वे इस आरोप से स्वयं को बचा नहीं सकतीं कि उन्होंने ददुआ को उस समय मरवाया जबकि वह समाजवादी पार्टी को समर्थन दे रहा था। कितना अच्छा होता कि मायावती ने अपने इसके पहले के मुख्यमंत्रित्वकाल में इस गिरोह का उस समय सफाया कराया होता जबकि वह बसपा का झण्डा बुलंद कर रहा था। शायद उस समय मायावती की प्रतिष्ठा में और अधिक चार चाँद लगता तथा जनता को यह समझने में कोई दिक्कत न होती कि वास्तव में मायावती ने अपराधियों के सफाए का संकल्प ले रखा है।

निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा

लोक गायकों का सीधा प्रसारण होगा अमेरिका से

दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित समाचार


रायपुर । अमेरिका की प्रथम बहुभाषीय रेडियो(सलाम नमस्ते) ने राज्य की प्रमुख अखबार दैनिक हरिभूमि के प्रति आभार प्रकट करते हुए उसके द्वारा सांस्कृतिक मूल्यों के लिए किये जा रहे प्रयासों का खास जिक्र किया है । डैलास से संचालित वेब एवं इंटरनेट पर ऑनलाइन संचालित रेडियो सलाम नमस्ते (www.radiasalaamnamste.com)के प्रमुख अधिकारी श्री आदित्य प्रकाश सिंह ने 30 जुलाई को एक विशेष प्रसारण में छत्तीसगढ़ राज्य का खास जिक्र करते हुए दैनिक हरिभूमि के सांस्कृतिक प्रयासों का उल्लेख करते हुए रेडियो सलाम नमस्ते पर केंद्रित एवं प्रकाशित आलेख के लिए विशेष तौर पर धन्यवाद ज्ञापित किया ।

अमेरिका से संचालित रेडियो सलाम नमस्ते के सांस्कृतिक प्रतिनिधि जयप्रकाश मानस ने यह भी बताया है कि उनके प्रस्ताव पर रेडियो सलाम नमस्ते द्वारा देश के छत्तीसगढ़ के प्रमुख कवियों सहित प्रमुख लोकभाषाओं में गायन करने वाले कलाकारों जैसे भारती बंधु (कबीर गायन), गोरेलाल वर्मन (पंथी गीत) सहित प्रहलाद टिपाणिया(कबीर गायन), राम कैलाश(बिरहा गायक), उर्मिला श्रीवास्तव (कजरी गायिका), मनोज तिवारी(भोजपुरी गायन), इस्माइल खां (कालबेलिया गायन), शिवानंद वर्धन (छोटा नागपुर-लोक गायन) आदि के लोकगायन का भी सीधा प्रसारण किये जाने की श्रृंखला शुरू की जा रही है । इतना ही नहीं हिंदी को समृद्ध करने वाली विविध भाषाओं के कवियों जैसे भोजपुरी के डॉ. बच्चन पाठक और मनोज भावुक, छत्तीसगढी के लक्ष्मण मस्तुरिया और डॉ. राजेन्द्र सोनी, बुंदेली से रमेश दत्त दुबे निमाड़ी से वसंत निरगुणे और मालवी से डॉ. श्रीराम परिहार का साक्षात्कार भी प्रसारित करेगा ।

संजय दत्त यदि अभिनेता के बजाए नेता होते!


मुंबई स्थित टाडा की विशेष अदालत ने 1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के दोषियों को सजा सुना दी है। 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस का बदला लेने के उद्देश्य से मुम्बई में इन धमाकों का षडयन्त्र मुंबई के कुछ माफ़िया सरगनाओं के इशारों पर रचा गया था। इसमें 257 बेगुनाह व्यक्ति मारे गए थे तथा भारी सरकारी व निजी सम्पत्ति की क्षति हुई थी। इस मुंबई बम कांड पर अपना फैसला सुनाने वाली विशेष टाडा अदालत ने इस भयंकर अपराध के लिए 100 व्यक्तियों को सजा सुनाई जिनमें सजाए मौत से लेकर 3 वर्ष के कारावास तक की सजा शामिल है। जबकि कुछ आरोपियों को साक्ष्यों के अभाव के कारण बरी भी किया गया है। इन्हीं आरोपियों में एक नाम फिल्म अभिनेता संजय दत्त का भी था। संजय दत्त को शस्त्र अधिनियम के तहत नाजायंज तरीके से हथियार रखने के जुर्म में 6 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई है। ज्ञातव्य है कि संजय दत्त के घर से प्रतिबंधित ए के 56 राईंफल बरामद हुई थी जिसे नष्ट करने का भी संजय दत्त ने प्रयास किया था। विशेष टाडा अदालत के न्यायाधीश जस्टिस पी जी कोड ने इसी जुर्म में संजय दत्त को 6 वर्ष के लिए जेले भेजने का आदेश जारी किया।

सजा सुनाए जाने के बाद संजय दत्त को बिना किसी मोहलत के तत्काल मुंबई की आर्थर रोड जेल भेज दिया गया। इसके अगले ही दिन आर्थर रोड जेल प्रशासन ने यह महसूस किया कि इस जेल में संजय दत्त की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो सकता है लिहाजा जेल प्रशासन ने उन्हें आर्थर रोड जेल मुंबई से रातों रात स्थानान्तरित कर पुणे की उच्च सुरक्षा वाली यरवदा जेल भेज दिया। मुंबई से लेकर पुणे तक संजय दत्त के लाखों समर्थकों ने जगह-जगह उनका स्वागत किया, उन्हें देखकर मुन्नाभाई जिन्दाबाद के नारे लगाए तथा उनकी एक झलक पाने के लिए बेचैन दिखाई पड़े।

संजय दत्त को सजा सुनाए जाने से पहले ही आम लोगों की नंजर केवल संजय दत्त जैसे लोकप्रिय अभिनेता को लेकर ही इस फैसले पर टिकी हुई थी। शायद इसी रहस्य को बनाए रखने के लिए माननीय अदालत ने संजय दत्त को सजा सुनाए जाने की तिथि को तीन बार आगे बढ़ाया तथा इस मुंकद्दमे के फैसले के ठीक अन्तिम दिन संजय दत्त को सजा सुनाए जाने की घोषणा की। संजय की सजा को लेकर आम लोगों में इस हद तक उत्सुकता बनी हुई थी कि सट्टा बांजार के लोग इसमें भी कूद पड़े तथा करोड़ों रुपए का सट्टा लगा डाला। इन सब बातों से यह जाहिर होता है कि संजय दत्त भले ही एक अपराधी क्यों न रहे हों परन्तु एक सफल नायक होने की वजह से वे आम लोगों के दिलों पर भी राज करते रहे हैं।
संजय दत्त को सजा सुनाए जाने के बाद साधारण अनपढ़ व्यक्ति से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई थी कि संजय वास्तव में सजा के हकदार थे या माफी के? न्यायालय ने उन्हें 6 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा देकर ठीक किया अथवा इसी सिलसिले में 15 महीने पहले का उनके द्वारा काटा गया कारावास ही संजय की सजा के रूप में कांफी था? मुंबई ब्लास्ट तथा संजय दत्त के पास से हुई शस्त्र बरामदगी का आपस में कोई रिश्ता था भी या नहीं? जब अदालत ने स्वयं संजय दत्त के आतंकवादी न होने की बात स्वीकार कर ली तथा उनपर लगा टाडा भी इसी कारण हटा लिया गया फिर आंखिर आर्म्स एक्ट के तहत 15 महीने की सजा को ही कांफी क्यों नहीं समझा गया? वगैरह-वगैरह! इसमें कोई शक नहीं कि यदि संजय दत्त को अदालत बरी कर देती तथा इसी आरोप के तहत पूर्व में उनके द्वारा 15 माह के बिताए गए कारावास को ही सजा की अवधि के रूप में स्वीकार कर लिया जाता तो देश की आम जनता में निश्चित रूप से यही संदेश जाता कि अदालत ने संजय दत्त की उच्चकोटि की पारिवारिक पृष्ठभूमि, ऊँची राजनैतिक पहुँच, उनकी लोकप्रियता आदि के आधार पर उन्हें मुक्त कर दिया। परन्तु 6 वर्षों के सश्रम कारावास की सजा देकर अदालत ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि कानून की नंजर में कोई छोटा या बड़ा नहीं है। निष्पक्ष सोच रखने वालों ने जहां इस फैसले पर सन्तोष व्यक्त किया है वहीं इस फैसले से तमाम ऐसे हाई प्रोंफाईल लोगों के कान भी खड़े हो गए हैं जिनपर या जिनके सगे संबंधियों पर संगीन अपराधों के तहत अदालत में मुंकद्दमे विचाराधीन हैं।

इन सब बातों से अलग हटकर इसी सजा को लेकर एक बात और भी अत्याधिक विचारणीय है कि यदि संजय दत्त अभिनेता के बजाए नेता होते और तब उन्हें यही सजा सुनाई गई होती तो कैसे दृश्य की सम्भावना हो सकती थी? अभी कुछ वर्ष पूर्व की ही बात है जबकि तमिलनाडू की ए आई डी एम के नेता सुश्री जयललिता को घोटालों के आरोप में जेल जाना पड़ा था। जयललिता बेशक पहले कभी तमिल ंफिल्मों की लोकप्रिय अभिनेत्री थीं तथा आम जनता इनकी प्रशंसक भी थी। परन्तु राजनीति में पदार्पण के बाद तथा विशेषकर एम जी रामाचन्द्रन की राजनैतिक विरासत पर कब्जा जमाने के बाद उनके जनाधार व लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ है। यहां तक कि तमिल राजनीति में अपना पूरा दबदबा रखने वाले एम करुणानिधि से भी वे किसी भी समय दो-दो हाथ कर पाने में हर समय सक्षम हैं। अर्थात् जयललिता के इस भारी जनाधार का कारण उनकी राजनीति में सक्रियता मात्र ही है। यही वजह थी कि जयललिता को जेल भेजे जाने के समय उनके समर्थकों ने सड़कों पर ऐसा नंगा नाच दिखाया जिससे न्यायपालिका भी दहल उठी। जयललिता के समर्थकों ने उनकी गिरफ्तारी व जेल भेजे जाने के विरोध में हजारों की तादाद में सड़कों पर उतर कर भारी तोड़-फोड़ की, आगंजनी की घटनाएं घटीं, सरकारी सम्पत्ति का काफी नुकसान हुआ। यहाँ तक कि तीन छात्राएं बस में जिंदा जलाकर मार डाली गईं। यह ताण्डव जयललिता के समर्थकों द्वारा केवल इसलिए किया गया था क्योंकि वे अपने नेता को जेल भेजे जाने के अदालती आदेश से सहमत नहीं थे।

यदि जनाधार की ही बात की जाए अथवा प्रशंसकों की संख्या पर चर्चा की जाए तो जयललिता भले ही एक क्षेत्रीय राजनीति में महारत रखने वाली तमिलनाडू की अति लोकप्रिय नेता क्यों न हों परन्तु उनकी तुलना में संजय दत्त अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक ऐसा लोकप्रिय अभिनेता है जिनके लाखों प्रशंसक हैं जो प्रत्येक गाँवों व कस्बों से लेकर दूर-दरांज के देशों तक पाए जा सकते हैं। बेशक संजय दत्त की सजा को लेकर उन सभी प्रशंसकों में बेचैनी जरूर पैदा हुई। परन्तु इसके बावजूद भारी मन से ही क्यों न सही, उन सभी प्रशंसकों ने अन्त्तोगत्वा अदालती फैसले को स्वीकार कर ही लिया। जयललिता समर्थकों की तरह किसी ने इस फैसले के विरुद्ध हिंसक प्रदर्शन करने की कोशिश नहीं की।

संजय दत्त ने अपने 15 महीनों के जेल प्रवास के दौरान तथा पिछले दिनों सजा सुनाए जाने के अन्तिम क्षण तक जिस विनम्रता तथा सहनशीलता का परिचय दिया है वह निश्चित रूप से सराहनीय है। यदि संजय दत्त भी चाहते तो अपने समर्थकों व प्रशंसकों के माध्यम से वे भी सड़कों पर वैसा ही नंगा नाच करवा सकते थे जैसा कि जयललिता के समर्थकों ने किया था। परन्तु अदालत की गरिमा, उसकी मर्यादा व ंकानून व्यवस्था की बेहतरी के दृष्टिगत् यही सुखद था कि संजय दत्त एक मर्यादित लोकप्रिय अभिनेता थे, एक पेशेवर तथाकथित 'नेता' नहीं।


निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा