7/24/2007

मीडिया विमर्श के वेब मीडिया अंक का विमोचन



रायपुर । जनसंचार के विविध आयामों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श के वेब मीडिया पर केंद्रित अंक का विमोचन अवंति विहार में फिल्मस डिवीजन(सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार) के पूर्व मुख्य संपादक डब्लू. डी. साठे (मुंबई) ने किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि मीडिया को लेकर पत्रिका ने एक गंभीर विमर्श की शुरूआत की है।वह पत्रिका एक वैचारिक फोरम ही नहीं आंदोलन का भी रूप लेगी क्योंकि इसके लेखों में सच कहने का साहस दिखता है।

श्री साठे ने कहा कि मीडिया के सामाजिक दायित्वबोध को जगाने के लिए ऐसे प्रयासों की जरूरत है। पत्रिका में जिस तरह के लेख और विश्लेषण आ रहे हैं उससे यह जल्द ही मीडिया कर्मियों की अनिवार्य जरूरत बन जाएगी। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार एवं बख्शी सृजनपीठ के अध्यश्र बबन प्रसाद मिश्र ने कहा कि मीडिया विमर्श पत्रिका के माध्यम से मीडिया जगत मं छत्तीसगढ़ की महत्वपूर्ण पहचान कायम हुयी है। यह मीडिया पर केंद्रित देश की पहली हिंदी पत्रिका है जो इंटरनेट और प्रिंट माध्यम पर एक साथ प्रकाशित होती है। पत्रिका ने अपने चार महत्वपूर्ण विशेषांकों के माध्यम से एक वैचारिक बहस का सूत्रपात किया है।

इस मौके पर श्री मिश्र ने शाल-श्रीफल एवं छत्तीसगढ़ के प्रमुख रचनाकारों की पुस्तकें भेंटकर श्री साठे का सम्मान भी किया। प्रारंभ में मिडिया विमर्श की प्रकाशक भूमिका द्विवेदी ने अतिथियों का स्वागत किया । कार्यक्रम में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर के रीडर डॉ. शाहिद अली, पत्रकार संजय द्विवेदी यशवंद गोहिल आदि मौजूद थे। संचालन जयप्रकाश मानस एवं आभार ज्ञापन तपेश जैन ने किया।

7/17/2007

अपमान की वजह भी बन सकता है घर बैठे ऋण प्राप्त करना

दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी है। चारों ओर 'वैश्वीकरण' की गुहार लग रही है। विज्ञान, आधुनिकीकरण तथा बेपनाह चकाचौंध के दौर से हम गुंजर रहे हैं। हर खास-ओ-आम इस बेतहाशा भागदौड़ में शामिल होना चाह रहा है। आंखिर ज़माने के साथ चलना उसकी मजबूरी जो ठहरी! इसी को उपभोक्तावाद का दौर भी कहा जा रहा है। इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए दुनिया के तमाम छोटे व बड़े पूंजी निवेशक भारत जैसे विशाल बाजार को गिद्ध दृष्टि से देखते हुए यहाँ अपना निवेश कर रहे हैं। इन निवेशकों में जहां तमाम उत्पाद बेचने वाली कंपनियाँ भारत जैसे विशाल बांजार में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही हैं, वहीं मध्यम व निम् मध्यम वर्ग की बड़ी आबादी को मद्देनजर रखते हुए सैकड़ों फाइनेंस कम्पनियों व निजी बैंकों ने भी भारत में अपना भाग्य आंजमाने का फैसला किया है। ऐसी कुछ कंपनियाँ भारत के कई चिरपरिचित एवं प्रतिष्ठित बैंकों से फ्रैंचाईजी लेकर उनके नाम पर फाइनेंस का कारोबार कर रही हैं।

एक गरीब देश होने के नाते भारत में ऋण अथवा लोन का कारोबार बहुत पुराना है। बंधुआ मजदूरी जैसी सामाजिक बुराई की जड़ में भी कहीं न कहीं कर्ज जैसी मजबूरी ही छुपी दिखाई देती है। को-ऑपरेटिव बैंकों के किसानों से ऋण वसूली के तरींके भी काफी सख्त हैं। दूसरी ओर इसी देश का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे हम हाई प्रोफाईल कर्जदार कह सकते हैं। चाहे वह इन्कम टैक्स विभाग का कर्जदार हो, किसी वित्तीय औद्योगिक प्राधिकरण का बैंक का या किसी अन्य वित्तीय संस्थान का। परन्तु ऐसे हाई प्रोफाईल कर्जदारों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक व्यक्ति कर्जदार भी हो सकता है। अर्थात् उसकी वसूली या अदायगी का लेखा-जोखा ऋण देने वाले संस्थान की फाइलों तक ही सीमित रहता है। हां कभी मीडिया के माध्यम से इन महान कर्जदारों के नाम अवश्य पता लग जाते हैं जिससे साधारण लोगों के ऋण लेने के हौसले भी बुलन्द हो जाते हैं।

उदारीकरण के इस तथाकथित युग से पहले मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के साथ भी कुछ ऐसा ही था। बैंकों द्वारा ऋण वसूली के लिए वास्तविक 'उदारवाद' की नीति अपनाई जाती थी। कर्ज लेने वाले व्यक्ति को भले ही पूंजी से अधिक ब्याज की कीमत क्यों न चुकानी पड़ी। परन्तु कम से कम उसे तत्काल अपमानित तो हरगिज नहीं होना पड़ता था। हालांकि देश की आर्थिक स्थिति पर इसका नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ता था मगर इसके लिए किया क्या जा सकता है? भारतवर्ष एक विशेष प्रकृति के लोगों का देश है। सहिष्णुता, उदारवादिता, सहनशीलता, मान-सम्मान, स्वाभिमान जैसी तमाम विशेषताएं हमारे देश की मिट्टी में शामिल हैं। इस देश का गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी बेटी को बिदा कर ही देता है। भूख से कोई व्यक्ति मरने न पाए इसके लिए हमारे ऋषि-मुनियों व साधू सन्तों ने लंगर और भण्डारों की जो परम्परा शुरु की थी वह आज भी आमतौर पर कायम है। हमारी इसी उदारवादिता ने न जाने कितने विदेशियों को भारत आने पर मजबूर कर दिया और वे यहाँ आकर इस देश की मिट्टी में ही समाकर रह गए। धिक्कारना, दुत्कारना, अपमानित करना जैसी बातें कम से कम भारतीय परंपरा में तो बिल्कुल शामिल नहीं हैं। आज समस्या स्वरूप ही क्यों न सही परन्तु पूरे भारत में लाखों साधु, वेशधारी भिक्षु या गरीब लोग भारतीय रेल पर प्रतिदिन बेटिकट इधर से उधर आते जाते देखे जा सकते हैं। पूरे देश में दानी सानों ने एक से बढ़कर एक धर्मार्थ कार्यक्रम चला रखे हैं जिनके तहत शिक्षा, औषधि, इलाज, कन्यादान, वृद्धाश्रम, गरीबों को राशन, कृत्रिम अंग वितरण, अपाहिजों को ट्राईसाईकिल, बेरोंजगारों को रोजगार हेतु सहायता पहुँचाना जैसी तमाम योजनाएं शामिल हैं। ऐसे उदारवादी देश में यदि मामूली से पैसों की वसूली के लिए किसी मल्टीनेशनल कम्पनी या निजी बैंक द्वारा अपने किसी कर्जदार को अपमानित करने का योजनाबद्ध तरीका अपनाया जाए तो यह देशवासियों के स्वाभिमान पर एक गहरा आघात है।

नि:सन्देह कोई भी गरीब व्यक्ति कर्ज तभी लेता है जब वह आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट चुका होता है, ऋण लेने के अतिरिक्त उसके समक्ष अपने अस्तित्व को कायम रखने का कोई चारा नहीं बचता। परन्तु यह भी सत्य है कि इन्हीं कर्ज लेने वालों में उन शहरी ग्राहकों की संख्या भी बहुत बड़ी है जो विलासिता की वस्तुएं जैसे कार, फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन जैसी वस्तुएं खरीदने के लिए फाइनेंस कम्पनियों के आगे हाथ फैलाते हैं। उधार पर ऐश करने वाले इन ग्राहकों की नब्ज से यह निजी फाईनेंस कंपनियाँ या निजी बैंक भी भली-भांति परिचित है। अत: यह संस्थान इन्हें घर बैठे ही ऋण मुहैया करा देते हैं। इन विलासितापूर्ण वस्तुओं के शोरूम में तो बांकायदा इन ऋण मुहैया कराने वाले संस्थानों ने अपनी अलग मेंज तक लगा रखी है जहाँ इनका कर्मचारी शोरूम में आने वाले ग्राहकों को ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह ऋण भी चूंकि 0 प्रतिशत ब्याज पर होता है इसलिए ग्राहक शीघ्र ही इनकी ओर आकर्षित हो जाता है। थोड़े समय के लिए यह माना जा सकता है कि यह एक सुविधा है जोकि ग्राहकों को मुहैया कराई जा रही है। परन्तु खुदा न ख्वास्ता यदि ऋण लेने वाले व्यक्ति से किसी मजबूरीवश उधार की कुछ किश्तें टूट गईं और वह समय पर इसका भुगतान नहीं कर सका तो उस कर्जदार व्यक्ति के साथ कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसके बारे में उसने पहले कभी सोचा भी न हो।

जी हाँ। निजी बैंकों व निजी फाईनेंस कम्पनियों द्वारा अब ऋण वसूली के लिए ऐसे नवयुवकों की भर्ती की जाती है जो कर्जदार पर हर तरह का दबाव डाल सकें। यहाँ तक कि ऋणदाता संस्थान शहर के छटे हुए गुण्डों, बदमाशों व उठाईगीरों तक की मदद अपने इस काम के लिए ले रहे हैं। कम्पनियों द्वारा अपने इस विशेष दस्ते को बाकायदा इस बात की ट्रेनिंग दी जाती है कि उन्हें किस प्रकार क्रमवार किसी ग्राहक पर दबाव बनाना है। चार छ: लोगों के बीच में आपसे कर्ज माँगना, आपके दरवाजे पर खड़े होकर तेंज आवाज में पैसे वसूलने की बात करना, डराना-धमकाना, गाली गलौच करना आदि कुछ उनके तौर तरीकों में शामिल है। यानी सीधे तौर पर यह समझा जा सकता है कि यदि आपके साथ कोई ऐसी मजबूरी आ गई कि ऋण अदायगी के लिए कुछ समय के लिए आप असमर्थ हो गए तो समझिए कि आपने अपने अपमान को न्यौता दे डाला।

अत: हम भारतवासियों को अपने पूर्वजों की उस कहावत को कभी नहीं भूलना चाहिए कि 'ते ते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर' अर्थात् हमें अपनी चादर की लम्बाई के अनुसार ही पैर फैलाना चाहिए। यानी सदैव अपनी आय के अनुसार ही खर्च करना चाहिए। विलासितापूर्ण इच्छाओं का कोई अन्त नहीं होता। मनुष्य की इच्छाएं कभी पूरी नहीं होतीं। लिहाजा चकाचौंध और वैश्वीकरण की इस दौड़ में वही शामिल हो सकता है जो या तो बड़ी हैसियत रखने वाला है या जिसने अपनी इंात को खूंटी पर लटका कर रख दिया है। एक साधारण व्यक्ति जिसके पास धन सम्पत्ति हो या न हो, एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी गरीबी व अपनी सीमाओं में ही भले ही क्यों न जी रहा हो मगर वह अपने मान-सम्मान व स्वाभिमान पर ही पूरी तरह संतुष्ट है तथा उसकी रक्षा करता है। ऐसा साधारण व्यक्ति यदि दुनिया को देखते हुए उस दौड़ में शामिल होने की कोशिशों के तहत कर्ज और उधार के चक्कर में पड़ता है और समय पर ऋण अदायगी नहीं कर पाता तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि उसके द्वारा लिया गया ऋण जो उसने अपनी सुविधा व झूठी इज्जत बनाने हेतु लिया था वही ऋण उसके अपमान का कारण भी बन सकता है।

निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा।

7/16/2007

सलवा जुडूम अभियान की वेबसाइट का शुभारंभ



सलवा जुडूम अभियान की वेबसाइट का शुभारंभ किया : श्री कश्यप ने


रायपुर 15 जुलाई 2007लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी एवं ग्रामोद्योग राज्यमंत्री श्री केदार कश्यप ने आज यहां अपने निवास पर लोकमान्य सद्भावना समिति द्वारा तैयार किए गए सलवा जुडूम अभियान की वेबसाइट का शुभारंभ किया। श्री कश्यप ने कहा कि इस वेबसाइट के जरिए सलवा जुडूम की वास्तविक स्थिति से लोग अवगत हो सकेंगे। उन्होंने सलवा जुडूम अभियान को वैचारिक क्रांति के साथ जोड़ने तथा वनवासियों के विकास में बाधक बने नक्सलियों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए व्यापक जन समर्थन पर जोर दिया। उन्होंने वेबसाइट तैयार करने के लिए लोकमान्य सद्भावना समिति के पदाधिकारियों को बधाई एवं शुभकामनाएं दी।

लोकमान्य सद्भावना समिति के संचालक श्री तपेश जैन ने बताया कि सलवा जुडूम अभियान के संबंध में वेबसाइट www.salvajudum.com पर जानकारी प्राप्त की जा सकती है। श्री जैन ने कहा कि पहली बार किसी अभियान की वेबसाइट बनी है। सलवा जुडूम की गतिविधियों की जानकारी हिन्दी भाषा के अलावा तेलगू, तमिल, कन्नड, पंजाबी, अंग्रेजी, उड़िया, बंगाली तथा मलयालम भाषा की लिपि में में भी प्राप्त की जा सकती है। इस अवसर पर हरिभूमि के संपादक श्री संजय द्विवेदी ने कहा कि इस वेबसाइट के जरिए सलवा जुडूम अभियान की सच्चाई को सभी जान सकेंगे। यह वेबसाइट सलवा जुडूम के प्रति लोगों में उत्पन्न होने वाली भ्रम को तोड़ने में भी सहायक सिध्द होगी। उन्होंने समय-समय पर वेबसाइट को अपडेट करते रहने की आवश्यकता व्यक्त की। इस अवसर पर संपादक सृजनगाथा श्री जयप्रकाश मानस , श्री गोपाल अग्रवाल, वरिष्ठ पत्रकार, एच।एस.ठाकुर, अनुपम वर्मा, सहित अनेक पत्रकार एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े लोग उपस्थित थे।

यह वेबसाइट छत्तीसगढ़ राज्य के किशोर वेबमास्टर व प्रतिष्ठित पत्रिका www.srijangatha.com के तकनीकी संपादक प्रशांत रथ द्वारा तैयार किया गया है । ज्ञातव्य हो कि बालक प्रशांत कक्षा 10 वीं में अध्ययन रत है जिसके द्वारा राज्य के कई महत्वपूर्ण मुद्दो पर वेबसाइट तैयार किया जा चुका है ।

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7/15/2007

हिंदी सम्मेलन में ग़ैर भारतीय हिंदी भाषी





रिज़वी न्यूयार्क से )

विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी के विद्वान प्रोफ़ेसर हरमन भी हिस्सा ले रहे हैं
भारतीय मूल के हिंदी भाषी तो करोड़ों की संख्या में विश्व भर में मिल जाएंगे.
लेकिन हिंदी भाषा का यह भी कमाल है कि हज़ारों की संख्या में ग़ैर भारतीय हिंदी भाषी भी आपको विश्व के कोने कोने में मिल जाएंगे.
ऐसे ही कुछ हिंदी के विद्वान जो विदेशी मूल के हैं न्यूयॉर्क में विश्व हिंदी सम्मेलन में पधारे हुए हैं.
प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन ऑस्टिन शहर के टेक्सास विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर हैं.
ख़ुद डच मूल के हैं लेकिन अब अमरीकी हो गए हैं. प्रोफ़ेसर ऑल्फन ने कई दशक पहले हिंदी सीखी और उसके लिए उन्होंने भारत तक का सफ़र किया.
अपनी हिंदी की शिक्षा और उसके साथ ज़िंदगी के सफ़र के बारे में प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन कहते हैं, “ चालीस साल पहले मैंने टेक्सास विश्विद्यालय में एक विद्यार्थी की हैसियत से हिंदी सीखी और फिर वहीं आज तक हिंदी पढ़ा रहा हूँ.”
हालैंड के एम्स्टरडैम शहर में पैदा हुए प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन 12 साल की उम्र में ही अमरीका आ गए थे.
वो कहते हैं कि यह संयोग ही था कि उन्होंने विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान एक विदेशी भाषा चुने जाने का जब मौक़ा आया तो हिंदी ही चुनी.
उनका कहना है, “ संयोग ही कहेंगे क्यूंकि जीवन में तो ऐसा होता है न. मैं यह तो नहीं बता सकता कि मुझे हिंदी में क्यूं ज़्यादा दिल्चस्पी होने लगी, मैंने क्यूं हिंदी चुनी, इसका विश्लेषण आसानी से नहीं हो सकता.”
विश्वविद्यालय की ओर से ही उन्हे छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने भारत जाकर दो साल तक विभिन्न शिक्षण संस्थानें में हिंदी की पढ़ाई की और अब वह अमरीका में ही छात्रों को हिंदी सिखाते हैं.
संयोग ही कहेंगे क्यूंकि जीवन में तो ऐसा होता है न. मैं यह तो नहीं बता सकता कि मुझे हिंदी में क्यूं ज़्यादा दिल्चस्पी होने लगी, मैंने क्यूं हिंदी चुनी, इसका विश्लेषण आसानी से नहीं हो सकता

प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन
इनकी एक बेटी का जन्म भी भारत में ही हुआ था. वह कई बार भारत भी जा चुकी हैं.
लेकिन प्रोफ़ेसर ऑल्फन को यह मलाल है कि उनके बच्चों में से किसी ने हिंदी सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
वो कहते है, “यह बड़ी मुश्किल बात है अब बच्चों को तो आप ज़ोर डालकर नहीं कह सकते कि हिंदी सीखो.”
ऑस्टिन शहर के टेक्सास विश्विद्यालय में इस साल से प्रोफ़ेसर ऑल्फन ने हिंदी और उर्दू को साथ पढ़ाने की एक नई योजना शुरू करवाई है.
प्रोफ़ेसर ऑल्फन का कहना है कि भारत में हिंदी की तरफ़ और ध्यान दिया जाना चाहिए तब उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाए जाने की मांग की जानी चाहिए.
कोरिया की हिंदी विद्वान
इसी तरह एक और विदेशी मूल की हिंदी की प्रोफ़ेसर वू जो किम दक्षिण कोरिया की रहने वाली हैं और वहां के हानकूक विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं.
प्रोफ़ेसर वू जो किम पिछले 35 साल से हिंदी से ही जुड़ी हुई हैं.
उन्होने दक्षिण कोरिया में उस समय हिंदी सीखने की शुरूआत की जब वहां पहली बार हिंदी के विभाग की स्थापना हुई.
दक्षिण कोरिया की हिंदी विद्वान प्रोफ़ेसर वू जो किम
वो कहती हैं, “मैंने सोचा कि जो नई भाषा है उसको सीखते हैं क्यूंकि वह चुनौती देने वाली चीज़ थी. हिंदी लेने का मतलब भारत की ओर कोई लगाव या हिंदी से प्रेम ऐसा कुछ नहीं था बस यह नई भाषा थी.”
प्रोफ़ेसर किम कहती हैं कि शुरू में बहुत कठिनाई हुई थी. वो कहती हैं कि शुरू शुरू का मामला था इसलिए कोई मार्गदर्शन करने वाला भी नहीं था.
अब प्रोफ़ेसर वू जो किम हिंदी की विद्वान हैं. उन्होंने भारत में जेएनयू में पढ़ाई करने के बाद विश्वभारती विश्वविद्यालय से पीएचडी भी की है.
वो कहती हैं कि दिल्ली और बंगाल में रहने के दौरान उनको हिंदी फ़िल्मों से ज़्यादा नाटक देखना पसंद थे और वो अब भी जब भारत जाती हैं तो नाटक ज़रूर देखने जाती हैं.
कोरिया में हिंदी की पाठ्य पुस्तकें तैयार करने के अलावा वह हिंदी साहित्य से संबंधित काम में ही लगी रहती हैं और मूल पात्रों पर आधारित हिंदी साहित्य के इतिहास पर काम कर रही हैं.
वो कहती हैं, '' चार साल पहले से मैंने साखी, पदमावत, सूरसागर, रामचरित मानस जैसे मूल स्रोतों को पढ़ना शुरू किया है. यह पढ़कर जो कुछ मुझे लगा है उसके आधार पर साहित्य का इतिहास लिख रही हूँ.''
आजकल वह भारत में सांप्रदायिकता पर भी लेखन का काम कर रही हैं.
वो अभ्रंश साहित्य पर भी काम कर रही हैं. इसके अलावा वो कोरियाई भाषा को हिंदी में अनुवाद करने वाला शब्दकोष भी बना रही हैं.

सलीम रिज़वीन्यूयॉर्क से


विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी के विद्वान प्रोफ़ेसर हरमन भी हिस्सा ले रहे हैं
भारतीय मूल के हिंदी भाषी तो करोड़ों की संख्या में विश्व भर में मिल जाएंगे.
लेकिन हिंदी भाषा का यह भी कमाल है कि हज़ारों की संख्या में ग़ैर भारतीय हिंदी भाषी भी आपको विश्व के कोने कोने में मिल जाएंगे.
ऐसे ही कुछ हिंदी के विद्वान जो विदेशी मूल के हैं न्यूयॉर्क में विश्व हिंदी सम्मेलन में पधारे हुए हैं.
प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन ऑस्टिन शहर के टेक्सास विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर हैं.
ख़ुद डच मूल के हैं लेकिन अब अमरीकी हो गए हैं. प्रोफ़ेसर ऑल्फन ने कई दशक पहले हिंदी सीखी और उसके लिए उन्होंने भारत तक का सफ़र किया.
अपनी हिंदी की शिक्षा और उसके साथ ज़िंदगी के सफ़र के बारे में प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन कहते हैं, “ चालीस साल पहले मैंने टेक्सास विश्विद्यालय में एक विद्यार्थी की हैसियत से हिंदी सीखी और फिर वहीं आज तक हिंदी पढ़ा रहा हूँ.”
हालैंड के एम्स्टरडैम शहर में पैदा हुए प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन 12 साल की उम्र में ही अमरीका आ गए थे.
वो कहते हैं कि यह संयोग ही था कि उन्होंने विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान एक विदेशी भाषा चुने जाने का जब मौक़ा आया तो हिंदी ही चुनी.
उनका कहना है, “ संयोग ही कहेंगे क्यूंकि जीवन में तो ऐसा होता है न. मैं यह तो नहीं बता सकता कि मुझे हिंदी में क्यूं ज़्यादा दिल्चस्पी होने लगी, मैंने क्यूं हिंदी चुनी, इसका विश्लेषण आसानी से नहीं हो सकता.”
विश्वविद्यालय की ओर से ही उन्हे छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने भारत जाकर दो साल तक विभिन्न शिक्षण संस्थानें में हिंदी की पढ़ाई की और अब वह अमरीका में ही छात्रों को हिंदी सिखाते हैं.
संयोग ही कहेंगे क्यूंकि जीवन में तो ऐसा होता है न. मैं यह तो नहीं बता सकता कि मुझे हिंदी में क्यूं ज़्यादा दिल्चस्पी होने लगी, मैंने क्यूं हिंदी चुनी, इसका विश्लेषण आसानी से नहीं हो सकता

प्रोफ़ेसर हरमन वैन ऑल्फन
इनकी एक बेटी का जन्म भी भारत में ही हुआ था. वह कई बार भारत भी जा चुकी हैं.
लेकिन प्रोफ़ेसर ऑल्फन को यह मलाल है कि उनके बच्चों में से किसी ने हिंदी सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
वो कहते है, “यह बड़ी मुश्किल बात है अब बच्चों को तो आप ज़ोर डालकर नहीं कह सकते कि हिंदी सीखो.”
ऑस्टिन शहर के टेक्सास विश्विद्यालय में इस साल से प्रोफ़ेसर ऑल्फन ने हिंदी और उर्दू को साथ पढ़ाने की एक नई योजना शुरू करवाई है.
प्रोफ़ेसर ऑल्फन का कहना है कि भारत में हिंदी की तरफ़ और ध्यान दिया जाना चाहिए तब उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाए जाने की मांग की जानी चाहिए.
कोरिया की हिंदी विद्वान
इसी तरह एक और विदेशी मूल की हिंदी की प्रोफ़ेसर वू जो किम दक्षिण कोरिया की रहने वाली हैं और वहां के हानकूक विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं.
प्रोफ़ेसर वू जो किम पिछले 35 साल से हिंदी से ही जुड़ी हुई हैं.
उन्होने दक्षिण कोरिया में उस समय हिंदी सीखने की शुरूआत की जब वहां पहली बार हिंदी के विभाग की स्थापना हुई.
दक्षिण कोरिया की हिंदी विद्वान प्रोफ़ेसर वू जो किम
वो कहती हैं, “मैंने सोचा कि जो नई भाषा है उसको सीखते हैं क्यूंकि वह चुनौती देने वाली चीज़ थी. हिंदी लेने का मतलब भारत की ओर कोई लगाव या हिंदी से प्रेम ऐसा कुछ नहीं था बस यह नई भाषा थी.”
प्रोफ़ेसर किम कहती हैं कि शुरू में बहुत कठिनाई हुई थी. वो कहती हैं कि शुरू शुरू का मामला था इसलिए कोई मार्गदर्शन करने वाला भी नहीं था.
अब प्रोफ़ेसर वू जो किम हिंदी की विद्वान हैं. उन्होंने भारत में जेएनयू में पढ़ाई करने के बाद विश्वभारती विश्वविद्यालय से पीएचडी भी की है.
वो कहती हैं कि दिल्ली और बंगाल में रहने के दौरान उनको हिंदी फ़िल्मों से ज़्यादा नाटक देखना पसंद थे और वो अब भी जब भारत जाती हैं तो नाटक ज़रूर देखने जाती हैं.
कोरिया में हिंदी की पाठ्य पुस्तकें तैयार करने के अलावा वह हिंदी साहित्य से संबंधित काम में ही लगी रहती हैं और मूल पात्रों पर आधारित हिंदी साहित्य के इतिहास पर काम कर रही हैं.
वो कहती हैं, '' चार साल पहले से मैंने साखी, पदमावत, सूरसागर, रामचरित मानस जैसे मूल स्रोतों को पढ़ना शुरू किया है। यह पढ़कर जो कुछ मुझे लगा है उसके आधार पर साहित्य का इतिहास लिख रही हूँ.''


आजकल वह भारत में सांप्रदायिकता पर भी लेखन का काम कर रही हैं.
वो अभ्रंश साहित्य पर भी काम कर रही हैं. इसके अलावा वो कोरियाई भाषा को हिंदी में अनुवाद करने वाला शब्दकोष भी बना रही हैं।
(बीबीसी हिंदी से, 15 जुलाई, 2007 साभार)

7/14/2007

8वां विश्व हिंदी सम्मेलन के गुणी जन

8वां विश्व हिंदी सम्मेलन के वक्तागण


शैक्षिक सत्र-1 : संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ में हिंदी
13 जुलाई, 2007, शुक्रवार, 11.30 से 12.30, कॉंफ्रेंस रूम-4, सं. रा. सं मुख्यालय

अध्‍यक्ष -डॉ. गिरिजा व्यास (अध्यक्ष, राष्ट्रीय महिला आयोग) । संचालक-श्री नारायण कुमार । बीज वक्‍ता:श्री अनंतराम त्रिपाठी, प्रो. राम शरण जोशी मुख्‍य वक्‍ता, डॉ रत्‍नाकर पांडेय । अन्‍य वक्‍ता -प्रो. हरमन वैन ऑल्‍फन (यू एस ए), प्रो. जिआंग जिंग कुई, डॉ. विनोद बाला अरुण, रिपोर्टर, डॉ. नवीन चंद लोहानी


शैक्षिक सत्र-2 (समानांतर) : देश-विदेश में हिंदी शिक्षण: समस्‍याएं और समाधान
13 जुलाई, 2007, शुक्रवार, 15.10 से 17.40, हाफ्ट ऑडीटोरियम, एफ. आई. टी.


अध्‍यक्ष -श्री प्रेम चंद शर्मा( राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग) । संचालक-सुश्री अंजना संधीर (यू एस ए) बीजवक्‍ता-प्रो. वू जो किम (दक्षिण कोरिया) । डॉ. सूरजभान सिंह मुख्‍यवक्‍ता-डॉ. उल्‍फत, उज्‍बेकिस्‍तान । वक्‍ता-डॉ. ताकेशी फूजिई, डॉ. श्रीचंद जायसवाल (केन्‍द्रीय हिंदी संस्‍थान), डॉ. ली, दक्षिण कोरिया, डॉ. पद्मेश गुप्‍त (यू के), प्रो. दोनातेला डोलचिनी (इटली), डॉ. हरजेन्द्र चौधरी, खुला सत्र-प्रति वक्ता अधिकतम 3 मिनट । रिपोर्टर-प्रो. सत्‍यकाम (बल्‍गारिया)



शैक्षिक सत्र-3 (समानांतर) : वैश्‍वीकरण, मीडिया और हिंदी
13 जुलाई, 2007, शुक्रवार, 15.10 से 17.40, केटी मर्फी एम्फी थिएटर, एफ. आई. टी.

अध्‍यक्ष-श्रीमती मृणाल पांडे-संचालक- श्री राहुल देव । बीज वक्‍ता-डॉ. अच्युतानंद मिश्र, (मा. ला. च. पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय), प्रो. सुधीश पचौरी । मुख्‍य वक्‍ता-श्री रवीन्‍द्र कालिया (नया ज्ञानोदय), वक्‍ता-सुश्री बी सुधा (कालीकट), श्री ओम थानवी (संपादक जनसत्‍ता), श्री पंकज शर्मा, श्री कुरबान अली (दूरदर्शन), डॉ. सुभाष धूलिया (विभागाध्‍यक्ष, इग्‍नू), डॉ. पुरुषोत्‍तम अग्रवाल, डॉ. संजीव भानावत (विभागाध्‍यक्ष, जनसंचार विभाग, राजस्‍थान विवि.), प्रो. रामबक्ष जाट (इग्‍नू), श्री सुनील हाली
खुला सत्र-कुल समय 30 से 45 मिनट / प्रति वक्ता अधिकतम 3 मिनट । रिपोर्ट-श्री हरेन्‍द्र प्रताप/ सुश्री अंबालिका मिश्रा ।




शैक्षिक सत्र-4 : विदेशों में हिंदी सृजन (प्रवासी हिंदी साहित्‍य)
14 जुलाई, 2007, शनिवार, 10.00 से 12.30, हाफ्ट ऑडीटोरियम, एफ. आई. टी.

अध्‍यक्ष - डॉ. इंदिरा गोस्‍वामी, डॉ. रूपर्ट स्नेल (अमरीका) । संचालकश्री उमेश अग्निहोत्री (अमरीका)
बीज वक्‍ता-डॉ. सुषम बेदी । श्रीमती उषा राजे सक्‍सेना । मुख्‍य वक्‍ता-श्री मोहन कांत गौतम । वक्‍ताश्री कृष्‍ण किशोर (अमरीका), डॉ. कृष्ण कुमार (बर्मिंघम),श्री केदार कुमार मंडल (प्रवासी कथा पर शोध), श्री हरिदेव सहतू (सूरीनाम),श्री अनिल शर्मा जोशी, डॉ. सुनीता जैन, श्री डम्बर नारायण यादव (नेपाल), खुला सत्र कुल समय 30 से 45 मिनट / प्रति वक्ता अधिकतम 3 मिनट । रिपोर्टर राकेश पांडे (दिल्‍ली)




शैक्षिक सत्र-5 (समानांतर) : हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका
14 जुलाई, 2007, शनिवार, 10.00 से 12.30, केटी मर्फी एम्फी थिएटर, एफ. आई. टी.

अध्‍यक्ष -प्रो. अशोक चक्रधर, इंस्टीट्यूट ऑफ लाइफ लौंग लर्निंग, दिल्ली विश्वविद्यालय,संचालकश्रीबालेन्‍दु दाधीच । बीज वक्‍ता : बीज प्रस्तुति – श्री हेमंत दरबारी श्री परविन्दर गुजराल (माइक्रोसॉफ्ट, अमरीका) । मुख्‍य वक्‍ता-प्रो. अरविंदाक्षन (केरल) । वक्‍ता-प्रो. सुरेन्‍द्र गंभीर । डॉ. ओम विकास, आईआईटी, ग्वालियर, डॉ. वशिनी शर्मा, डॉ. विजय कुमार मल्‍होत्रा, श्री विनोद संदलेश, श्री अनूप भार्गव, श्री अनुराग चक्रधर (आस्‍ट्रेलिया) खुला सत्र :कुल समय 30 से 45 मिनट / प्रति वक्ता अधिकतम 3 मिनट । रिपोर्टर -अमेरिका के युवा कम्‍प्‍यूटर प्रयोक्‍ता



शैक्षिक सत्र-6 : हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदी फिल्‍मों की भूमिका
14 जुलाई, 2007, शनिवार, 14.30 से 17.00, हाफ्ट ऑडीटोरियम, एफ. आई. टी.

अध्‍यक्ष श्री गुलजार (मुंबई) । संचालक-बीजवक्‍ता-डॉ. तोमियो मिज़ोकामी, श्री जगमोहन मूंदड़ा
मुख्‍यवक्‍ता-डॉ. निखिल कौशिक (यू के) । वक्‍ता-डॉ. निर्मला एस मौर्या (चेन्‍नै),डॉ. कुसुम खेमानी (कोलकाता), श्री दलजीत सचदेव (आना संदिग्‍ध), श्री अनिल-प्रभा कुमार,सुश्री सीमा खुराना (यू एस ए), श्री राजेन्‍द्र उपाध्‍याय (आकाशवाणी, समाचार, नई दिल्‍ली), खुला सत्र-कुल समय 30 से 45 मिनट / प्रति वक्ता अधिकतम 3 मिनट । रिपोर्टर-प्रो. रामबीर सिंह



शैक्षिक सत्र-7 (समानांतर) : हिंदी, युवा पीढ़ी और ज्ञान विज्ञान
14 जुलाई, 2007, शनिवार, 14.30 से 17.00, केटी मर्फी एम्फी थिएटर, एफ. आई. टी.

अध्‍यक्ष- डॉ. वाई लक्ष्‍मी प्रसाद, श्री गोविन्द मिश्र । संचालक- श्री राम चौधरी, । बीज वक्‍ता-श्री नवीन मेहता (यू एस ए)। मुख्‍य वक्‍ता-श्री गोपीनाथन । वक्‍ता-श्रीमती पुष्पा भारती-डॉ. बी. संजीवैया, श्री शक़ील अहमद खान, (अध्‍यक्ष, नेहरू युवा केन्‍द्र संगठन), डॉ. रहमतुल्‍ला साहिब (चेन्‍नै), श्री पवन जैन, श्री हीरा लाल कर्नावट, श्री बिन्‍देश्‍वरी अग्रवाल, खुला सत्र- कुल समय 30 से 45 मिनट / प्रति वक्ता अधिकतम 3 मिनट । रिपोर्टर-सुश्री मोना कौशिक



शैक्षिक सत्र-8 : हिंदी भाषा और साहित्‍य: विविध आयाम
15 जुलाई, 2007, रविवार, 10.00 से 12.30, हाफ्ट ऑडीटोरियम, एफ. आई. टी.

अध्‍यक्ष -श्रीमती चित्रा मुद्गल । संचालक-श्रीमती ममता कालिया । बीज वक्‍ता-प्रो. निर्मला जैन । मुख्‍य वक्‍ता-डॉ. कृष्ण दत्त पालीवाल । वक्‍ता-श्री ओम प्रकाश वाल्‍मीकि (सम्‍मानित),डॉ. प्रभा खेतान, श्री उदय प्रकाश, डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. रमेश गौतम, डॉ. विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी (गोरखपुर),डॉ. शंभुनाथ, सुश्री रमणिका गुप्‍ता, खुला सत्र-कुल समय 30 से 45 मिनट / प्रति वक्ता अधिकतम 3 मिनट, रिपोर्टर-श्री प्रत्‍यूष गुलेरी



शैक्षिक सत्र-9 (समानांतर, तीन भागों में विभक्त, प्रति सत्र 50 मिनट)

15 जुलाई, 2007, रविवार, 10.00 से 12.30, केटी मर्फी एम्फी थिएटर, एफ. आई. टी.


शैक्षिक सत्र-9A : साहित्‍य में अनुवाद की भूमिका

अध्‍यक्ष -डॉ. गोपीचंद नारंग । संचालक-श्री राजेन्‍द्र मिश्र (एन टी पी सी) । बीज वक्‍ता-डॉ. इंद्र नाथ चौधुरी । मुख्‍य वक्‍ता- डॉ. विमलेश कांति वर्मा । वक्‍ता- डॉ. तंकमणि अम्‍मा, श्री एम शेषण, डॉ. तनुजा मजूमदार, डॉ. बॉब हम्‍सटेड (यू एस ए), प्रो. नसीम हाइंस (यू एस ए), डॉ. सुमंगला एस मुम्‍मगट्टी (धारवाड़) । रिपोर्टर-अमरीका से


सत्र-9B : हिंदी और बाल साहित्‍य

अध्‍यक्ष -डॉ. बाल शौरि रेड्डी । संचालक-डॉ. क्षमा शर्मा । बीजवक्‍ता-डॉ. हरिकृष्‍ण देवसरे । मुख्‍यवक्‍ता - डॉ. मृदुला गर्ग । वक्‍ता-डॉ. स्मिता चतुर्वेदी (इग्‍नू) । श्रीमती सुशीला गुप्‍ता (हि.प्र.स. मुंबई), डॉ. शमशेर अहमद खान । रिपोर्टर-श्री रतन लाल भगत/श्री हनुमान प्रसाद



शैक्षिक सत्र-9C : देवनागरी लिपि

अध्‍यक्ष -श्री बालकवि बैरागी । संचालक-श्री जवाहर कर्नावटबीज वक्‍ता-डॉ. परमानंद पांचाल । मुख्‍य वक्‍ता-डॉ. शहाबुद्दीन शेख । वक्‍ता-श्री अजामिल माताबदल, श्री सूर्यवंशी चौधरी (गुवाहाटी), सुश्री भारती हिरेमठ, श्री अजय गुप्‍ता, रिपोर्टर- अमेरिका से
(श्री बा श दाधीच के सौजन्य से)

विश्व हिंदी सम्मेलन का शुभारंभ

न्यूयॉर्क। आज हिंदी भाषा के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अवसर था, जब संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। विश्व संस्था के इतिहास में, उसके मुख्यालय मेंहिंदी प्रेमियों का इतना बड़ा जमावड़ा पहले कभी नहीं हुआ था, न सिर्फ भारतीय हिंदी प्रेमियों का, न सिर्फ अनिवासी भारतीयों का, बल्कि हिंदी के प्रति प्रेम और श्रद्धा रखने वाले विदेशियों का भी। सुबह के दस बजे दर्शकों से खचाखच भरे समारोह में स्वयं संयुक्त राष्ट्र महासचिव श्री बान की मून सम्मिलित हुए और उन्होंने हिंदी भाषा के वैश्विक महत्व को स्वीकार भी किया। समारोह में मौजूद हुए हिंदी प्रेमी यह सुनकर रोमांचित थे कि श्री मून ने स्वयं हिंदी भाषा सीखी है और टूटी-फूटी बोल भी लेते हैं। प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह के संदेश में भी साफ कर दिया कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के प्रयास पूरी गंभीरता और लगन के साथ चलाए जाते रहेंगे। विदेश राज्यमंत्री श्री आनंद शर्मा ने भी अपने ओजस्वी उद्बोधन में कहा कि जिन लोगों को विश्व हिंदी सम्मेलन के संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में आयोजित किए जाने पर शंकाएं थीं उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासचिव की स्वीकारोक्ति से पता चल गया होगा कि हिंदी भाषा की मजबूती और उसके प्रति जागरूकता का स्तर कितना बड़ा है।संयुक्त राष्ट्र में एकत्र हुए हिंदी विद्वानों और हिंदीप्रेमियों के माध्यम से हिंदी की आवाज आज खूब गूंजी। इतने बड़े विश्व मंच पर भारत की राजभाषा को विश्व भाषा बनाने की पहल को लेकर चर्चा हुई और विश्व संस्था का मुख्यालय हिंदीमय हो गया। समारोह में कुछ अन्य देशों के मंत्रियों की भागीदारी से कार्यक्रम का स्वरूप अंतरराष्ट्रीय हो गया।सम्मेलन को संबोधित करने वाले अन्य गणमान्य व्यक्तियों मेंअमेरिका में भारत के राजदूत श्री रणेन्द्र सेन, संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि श्री निरूपम सेन, मारीशस के शिक्षा और मानव संसाधन मंत्री श्री धरमबीर गोखुल, नेपाल के उद्योग, वाणिज्य एवं आपूर्ति मंत्री राजेन्द्र महतो और भारतीय विद्या भवन, न्यूयॉर्क के अध्यक्ष डा. नवीन मेहता शामिल थे। विदेश राज्यमंत्री श्री आनंद शर्मा ने इस अवसर पर 'हिंदी उत्सव ग्रंथ','गगनांचल'के विशेषांक और हिंदी विद्वानों की निर्देशिका का लोकार्पण भी किया।संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के सम्मेलन कक्ष-4 में आठवें विश्वहिंदी सम्मेलन के पहले शैक्षिक सत्र का आयोजन भी हुआ। विषय था- संयुक्त राष्ट्र में हिंदी। इस कार्यक्रम में विश्व भर के हिंदी प्रेमियों का यह संकल्प एक बार फिर दृढ़ता के साथ दोहराया गया कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा हिंदी को अवश्य स्थान मिलना चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. गिरिजा व्यास ने की और उनके अतिरिक्त श्री अनंत राम त्रिपाठी, प्रो. रामशरण जोशी, डॉ. रत्नाकर पांडेय एवं श्री नारायण कुमार ने अपने विचार प्रकट किए।

13 जुलाई 2007

(साभारः http://www.vishwahindi.com/sammelan_sthal_se.htm)

'आप बुलाएँ हम न आएँ, ऐसे तो हालात नहीं'

सुधीश पचौरी
लेखक और स्तंभकार


आठवाँ हिंदी सम्मेलन न्यूयॉर्क में होने जा रहा है। सम्मेलन के इतिहास में यह किंचित ही विशिष्ट घटना है. सूचना यह है कि इस बार का उदघाटन सत्र संयुक्त राष्ट्र संघ(यूएनओ) के किसी सभागार में होगा। यह भी एक प्रतीकात्मक घटना होगी। अरसे से हिंदी को यूएनओ की एक मान्य भाषा बनाए जाने की माँग हो रही है. शायद इस बार यह माँग फलीभूत हो. मुझको एक सत्र में बीज-वक्तव्य देने के लिए निमंत्रित किया गया है। मैं जा रहा हूँ. सारा इंतज़ाम आयोजकों की ओर से हैं. भारत सरकार का विदेश मंत्रालय सम्मेलन का आयोजक है।

महत्व
सम्मेलनों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। वे वातावरण बनाते हैं. लेखक समूहों के बीच नए संवाद बनाया करते हैं. हिंदी सम्मेलन यही करेगा. हिंदी भाषा के बारे में लगातार पढ़ते, सोचते और लिखते रहने की वजह से इतना तो अब कह ही सकता हूँ कि इस हिंदी भाषा में अधिकतम जनतंत्र है। कट्टरता की जगह उदारता हिंदी की पहचान है। शुद्धतावादी विचारकों की प्रस्थापनाएँ पुरानी पड़ गईं हैं. हिंदी समकालीन भूमंडलीकरण के दौर में एक सशक्त, सर्वत्र उपस्थित विश्वभाषा बन चली है। उसके अनेक स्तर, अनेक रूप, अनेक शैलियाँ हैं और एक नई अंतरंग किस्म की बहुलता है. मुक्त बाज़ार, ग्लोबल जनसंचार, तकनीक क्रांति और हिंदी क्षेत्रों के विराट उपभोक्ता बाज़ार ने हिंदी को एक नई शिनाख़्त और ताकत दी है। संस्कृतवाद का दामन छोड़, बोलियों को अपने में सजोकर, उर्दू के साथ दोस्ती स्थापित कर और अंग्रेज़ी से सहवर्ती भाव में विकास पाती हिंदी अपना 'ग्लोबल ग्लोकुल' बना रही है।

समस्याएँ
मुक्त बाज़ार, ग्लोबल जनसंचार, तकनीक क्रांति औऱ हिंदी क्षेत्रों के विराट उपभोक्ता बाज़ार ने हिंदी को एक नई शिनाख़्त और ताकत दी है.संस्कृतवाद का दामन छोड़, बोलियों को अपने में सजोकर, उर्दू के साथ दोस्ती स्थापित कर और अंग्रेज़ी से सहवर्ती भाव में विकास पाती हिंदी अपना 'ग्लोबल ग्लोकुल' बना रही है.

ज़ाहिर है विकास के साथ-साथ उसकी समस्याएँ भी सामने हैं। ऐसे सम्मेलन इन समस्याओं को भी चिन्हित करने की कोशिश कर सकते हैं. अपना वक्तव्य हिंदी के मीडिया के साथ-साथ हिंदी की 'आर्थिकी' के बारे में है. भाषा के विकास की समस्या समाज के आर्थिक विकास के साथ जुड़ी है। हिंदी भाषा को अगर घर के भीतर पूरा सम्मान नहीं मिलता तो इसकी वजह यही है कि हिंदी को विकास और उत्पादकता से नहीं जोड़ा गया। राष्ट्रवादी, अस्मितावादी और शुद्धतावादी विचार से सोचकर हिंदी बहुत आगे नहीं जा सकती। हिंदी जब अर्थ-उत्पादन में सक्षम होगी तभी आगे जाएगी. अपनी चिंता इसी के आसपास है. कई मित्र और लेखक नहीं जा रहे हैं. उनके न जाने की वजहें निजी होंगी। जाना या न जाना उनकी च्वायस. अपनी च्वायस तो साफ़ है. जो नहीं जा रहे वो अनेक बार गए हैं। तब शायद उन्हें ऐतराज़ नहीं रहा होगा. अब हो गया है.

उनकी वो जानें। अपनी तो लाइन है- आप बुलाएँ, हम ना आएँ, ऐसे तो हालात नहीं.
(साभारः बीबीसी बुधवार, 11 जुलाई, 2007)

हिन्दी को संरा की भाषा बनाने की कोशिशें जारी

नई दिल्ली (भाषा), शनिवार, 14 जुलाई 2007।

प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सशक्त कदम उठाने का वादा किया है।सिंह ने आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन को भेजे संदेश में कहा कि पिछले विश्व हिन्दी सम्मेलन में इस आशय का प्रस्ताव किया गया था, जिसके बाद सरकार इस दिशा में काम कर रही है।हिन्दी को वैश्विक भाषा बनने पर जोर देते हुए सिंह ने मजबूत सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर और सर्च इंजन बनाने की पैरवी की, ताकि इसे इंटरनेट का फायदा उठाने लायक बनाया जा सके।उन्होंने हिन्दी साहित्य के लेखकों की कृतियों को विदेश में स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल करने की भी वकालत की।सिंह ने कहा कि विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार हरसंभव प्रयास कर रही है और इस उद्देश्य के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि किसी भी देश की आर्थिक प्रगति उसकी भाषा के विकास पर भी निर्भर करती है।प्रधानमंत्री ने कहा कि भारतीयों की प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत के नतीजतन हिन्दी का प्रभाव दुनियाभर में फैल रहा है। उन्होंने कहा कि भाषा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति, संगीत, फिल्मों और व्यंजनों की महत्ता भी स्वीकार की गई है।

हिन्दी के समर्थन में विश्वव्यापी अभियान-शर्मा

न्यूयार्क(14 जुलाई 2007) आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन को पहले दिन मिले समर्थन से उत्साहित भारत सरकार हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए जल्द ही विश्वव्यापी अभियान शुरू करेगी।विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा ने सम्मेलन के पहले दिन की कार्यवाही के बाद संवाददाता सम्मेलन में कहा कि हिन्दी के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र के दो तिहाई सदस्यों का बहुमत जुटाने के लिए जल्द ही विश्व व्यापी अभियान शुरू किया जाएगा।उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के प्रांगण में विराट हिन्दी सम्मेलन का उदघाटन होने के साथ हमारी राष्ट्रभाषा विश्व मंच पर आ गई है तथा इसे और आगे बढ़ाने के लिए सरकार अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ेगी।शर्मा ने कहा कि वे इस लक्ष्य की प्राप्ति की कोई समय सीमा नहीं बता सकते, लेकिन सम्मेलन के उदघाटन समारोह में संयुक्त राष्ट्र महासचिव तथा पचास से अधिक राजनयिकों की उपस्थिति से इस अभियान की शुभारंभ हो गई है।शर्मा ने कहा कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा देने की माँग हमने एक अधिकार के रूप में उनके सामने रख दी है। यह एक ऐसा महायज्ञ है, जिसमें सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत है तथा इस सामूहिक कार्य मे सभी को योगदान करना होगा।

अमेरिका ने हिंदी सम्मेलन के प्रतिनिधियों को वीजा नहीं दिया

मुंबई (एजेंसी)। अमेरिका ने आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए मुम्बई से जाने वाले 35 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के 12 सदस्यों को इस आधार पर वीजा देने से इनकार कर दिया है कि उन्होंने अमेरिका के बाहर सामाजिक,आर्थिक और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में पर्याप्त कार्य नहीं किया है। मुंबई के साहित्यिक, सामाजिक एवं सास्कृतिक संगठन आशीर्वाद के निदेशक डा.उमाकांत बाजपेयी ने बताया कि प्रतिनिधिमंडल में शामिल 12 साहित्यकारों ने हिंदी को बढ़ावा देने के लिए अपने कई बहुमूल्य वर्षों की सेवाएं दी हैं। श्री बाजपेयी ने कहा अमेरिका द्वारा इन लोगों को वीजा नहीं देने के लिए बताया गया कारण जानकर हमें बहुत ठेस लगी है और यह बेहद अपमानजनक है। गौरतलब है कि विदेश मंत्रालय ने न्यूयार्क में 13 जुलाई से तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया है। इस सम्मेलन का उद्देश्य हिंदी को संयुक्त राष्ट्र एवं विश्व भाषा के रूप में मान्यता देने के कारणों को सामने लाना है।

हिंदी सम्मेलन के विशेष दूत- कर्ण सिंह

हिंदी सम्मेलन में पीएम के विशेष दूत - कर्ण सिंह
भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के अध्यक्ष और संसद सदस्य डॉ. कर्ण सिंह 8वें विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रधानमंत्री के विशेष दूत के तौर पर भाग ले रहे हैं । ज्ञातव्य हो कि यह सम्मेलन न्यू यॉर्क में 13 से 15 जुलाई तक हो रहा है । डॉ. कर्ण सिंह समापन भाषण देंगे और देश-विदेश से आए हिंदी के विद्वानों को विशेष पुरस्कारों से सम्मानित करेंगे। डॉ. सिंह ने मॉरीशस में 1976 में आयोजित दूसरे विश्व हिंदी सम्मेलन में भी भारतीय शिष्टमंडल की अगुवाई की थी।

हिंदी की मिठास में संरा महासचिव सराबोर


न्यूयार्क। आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने हिंदी बोलकर प्रतिनिधियों को गदगद कर दिया। दुनिया भर से आए 1000 प्रतिनिधि इस सम्मेलन में हिंदी को अंतरराष्ट्रीय फलक पर लोकप्रिय बनाने के तौर तरीकों पर विचार करेंगे। हिंदी को खासतौर से उन देशों में बढ़ावा दिया जाएगा, जहां अप्रवासी भारतीयों की तादाद काफी अधिक है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सशक्त कदम उठाने का वायदा किया है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में संरा मुख्यालय में कहा, 'नमस्ते, क्या हालचाल है।' उन्होंने धाराप्रवाह हिंदी न बोलने पर बेबसी जाहिर की और कहा, 'हिंदी बहुत सुंदर भाषा है। मून ने हिंदी नई दिल्ली स्थित कोरिया दूतावास में रहते हुए सीखी। उन्होंने कहा, उनके बेटे का जन्म भारत में हुआ। बेटी की शादी भी भारतीय से हुई है। उन्होंने यह भी बड़े फºसे बताया कि उनका दामाद बहुत अच्छी हिंदी बोलता है। संरा महासचिव ने हिंदी के महत्व को रेखांकित किया और अंत में हिंदी में ही कहा, 'विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेते हुए उन्हें बहुत खुशी हो रही है। मैं आपको शुभकामनाएं देता हूं। नमस्ते और धन्यवाद।' प्रतिनिधियों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ मून का आभार जताया। मून के सम्मेलन में आने व हिंदी बोलने से विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा प्रफुल्लित हो गए। उन्होंने कहा कि यह सम्मेलन न्यूयार्क में करना कितना उचित व सामयिक है, इसका जवाब आपको मून के भाषण से मिल गया होगा। वहीं प्रधानमंत्री ने आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन को भेजे संदेश में कहा कि पिछले सम्मेलन में इस आशय का प्रस्ताव पेश किया गया था, जिसके बाद सरकार इस दिशा में काम कर रही है। हिंदी को ग्लोबल भाषा बनने पर जोर देते हुए प्रधानमंत्री ने मजबूत साफ्टवेयर, हार्डवेयर और सर्च इंजन बनाने की पैरवी की, ताकि यह इंटरनेट की भाषा के रूप में भी उभर सके। उन्होंने हिंदी साहित्य के लेखकों की कृतियों को विदेश में स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल करने की वकालत की। प्रधानमंत्री ने कहा कि विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार हरसंभव प्रयास कर रही है। इस उद्देश्य के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। किसी भी देश की आर्थिक प्रगति राष्ट्रभाषा के विकास पर निर्भर करती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि भारतीयों की प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत के परिणामस्वरूप हिंदी का प्रभाव दुनिया भर में फैल रहा है। भाषा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति, संगीत, फिल्मों व व्यंजनों की महत्ता भी स्वीकार की गई है। बालीवुड की फिल्में व संगीत विश्व के तमाम देशों में लोकप्रिय है। यह फिल्में उन देशों में देखी जाती है, जहां लोग हिंदी नहीं समझ पाते। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अध्यक्ष व हिंदी व संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान करन सिंह आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रधानमंत्री के विशेष दूत के रूप में भाग ले रहे हैं। (जागरण से साभार)

'विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्देश्य ही संदिग्ध हैं'


(हिन्दी सम्मेलन पर वरिष्ठ कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल से बीबीसी संवाददाता पाणिनी आनंद की बातचीत)

दुनिया के कई देशों में यह सम्मेलन आयोजित हो चुका है। अब यह आठवाँ हिन्दी सम्मेलन न्यूयॉर्क में हो रहा है। इन आठ सम्मेलनों में क्या हुआ- इसका कोई लेखा-जोखा हमारे पास नहीं है। इस सम्मेलन के उद्देश्य ही संदेह के घेरे में आ गए हैं।अभी तक जहाँ भी हिन्दी सम्मेलन हुए हैं उन पर हिन्दूवादियों और पुनरुत्थानवादियों का ही वर्चस्व रहा है। इनके वर्चस्व को कम करने की कोई कोशिश अबतक नहीं की गई है।ऐसी हिन्दी की स्थापना की कोशिश नहीं की गई जो सच्चे अर्थों में आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष हो। जहाँ हिन्दी का स्वरूप लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बनाने की कोशिश नहीं दिखाई दे रही हो उस सम्मेलन में मैं एक लेखक की हैसियत से शामिल नहीं हो सकता।समस्याएँ : इस सम्मेलन में कौन लोग जा रहे हैं उससे अधिक महत्वपूर्ण ये जानना है कि ये लोग क्यों जा रहे हैं। इस बार सम्मेलन में लगभग एक हजार लोग इकट्ठा हो रहे हैं। और ये लोग कुछ ठोस कर पाने में सक्षम नहीं दिखते।न्यूयॉर्क जाकर कुछ नहीं किया जा सकता। हमारे देश में हिन्दी जाति की अपनी समस्याएँ हैं, हिन्दी साहित्य के संकट हैं उन्हें कोई भी संबोधित नहीं कर रहा है। इस सम्मेलन में जिन लोगों को इस बार सम्मानित किया जा रहा है उनसे तो हिन्दी साहित्य समाज परिचित भी नहीं है।अगर मैं कहूँ कि सम्मेलन के आयोजन में बड़ी भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीमल सिंघवी का हिन्दी साहित्य में क्या योगदान है तो शायद ही कोई कुछ जानता होगा। आप एक संसद सदस्य हैं और सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े हैं, इसलिए आप हिन्दी के लेखक नहीं हो सकते।न्यूयॉर्क में मेला जुटाकर हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए कूटनीतिक स्तर पर कोशिश किए जाने की जरूरत है। मेरे पास विदेश मंत्रालय की जो चिट्ठी आई उसमें लिखा था कि मुझे बोलने के लिए अधिकतम पाँच मिनट दिए जाएँगे।इतने कम समय में हिन्दी भाषा से जुड़े अपने सरोकारों को सबके सामने रखना मेरे लिए मुश्किल था। इसलिए भी मैं वहाँ नहीं जा रहा हूँ।
आयोजन
की गंभीरता : हिन्दी के जानेमाने कवि केदारनाथ सिंह का हिन्दी सम्मेलन में सम्मान होना तय हुआ लेकिन उनके जाने में ही कई तरह की दिक्कतें सामने आईं।केदारनाथ सिंह ने हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ में लिखा कि उन्हें विदेश मंत्रालय से संदेश आया कि पहले वो 4200 रुपए वीजा शुल्क जमा करें। इंटरनेट से वीजा के लिए अर्जी दें। अमेरिकी दूतावास से वीजा लें। वीजा मिलने पर किसी ट्रैवल एजेंट से टिकट के लिए संपर्क करें।इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार इन आयोजनों और हिन्दी साहित्यकारों को लेकर कितनी गंभीर है। इन सरकारी आयोजनों के समानांतर सम्मेलन किए जाने की बात भी संभव नहीं लगती क्योंकि हिन्दी का साहित्यकार एक निर्धन समाज का साहित्यकार है।हिन्दी भाषी क्षेत्र ही अपनेआप में निर्धन हैं। हिन्दी के साहित्कारों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे समानांतर सम्मेलन आयोजित कर सकें। सरकार का यह दायित्व है कि वो अपनी भाषा के विकास और समृद्धि के लिए कोशिश करे और अपने साहित्कारों का सम्मान करे।चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि हम हिन्दी को दूसरे देशों में सही तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं, जो हिन्दी आज न्यूयॉर्क पहुँच रही है उसके किसी लेखक को आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है।हमारे यहाँ हिन्दी के कम से कम ऐसे 20 लेखक हैं जो नोबल पुरस्कार पाने योग्य हैं। इसके लिए दुनिया के दूसरे देशों में हिन्दी को सही रूप में पेश किए जाने की जरूरत है।
Source : www.bbchindi.com

विवादों में घिरा विश्व हिंदी सम्मेलन


नई दिल्ली (वार्ता) : अमेरिका के न्यू यॉर्क में 13 जुलाई से शुरू होने वाला तीन दिवसीय 8 वां विश्व हिन्दी सम्मेलन विवादों में घिर गया है। हिन्दी के प्रख्यात लेखक और 'हंस' के सम्पादक राजेंद्र यादव और प्रख्यात बंगला लेखिका महाश्वेता देवी ने भी सम्मेलन में शामिल न होने का फैसला किया है। इससे पहले महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. नामवर सिंह, मशहूर लेखक अशोक बाजपेयी, जाने-माने कवि केदार नाथ सिंह और साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि मंगलेश डबराल भी अपना विरोध प्रकट करते हुए सम्मेलन में भाग न लेने की घोषणा कर चुके है। राजेंद्र यादव ने कहा कि सम्मेलन पर हिंदुत्ववादियों का कब्जा है।
तरफ हिन्दी के कई वामपंथी लेखक एवं पत्रकार सम्मेलन में भाग ले रहे है। इनमें रामशरण जोशी, डॉ. शम्भू नाथ, चंचल चौहान और सुधीश पचौरी शामिल हैं। सम्मेलन में लेखकों पत्रकारों और राजनीतिज्ञों का सरकारी प्रतिनिधिमंडल भाग ले रहा है। सम्मेलन में 250 प्रवासी और विदेशी हिन्दी लेखक भी भाग लेंगे। । उधर महाश्वेता देवी ने बताया कि उन्हें सम्मेलन में भाग लेने के लिए कोई निमंत्रण पत्र नहीं मिला है।

7/12/2007

राजनैतिक घमासान के मध्य होता राष्ट्रपति का चुनाव


भारत में होने जा रहे राष्ट्रपति पद के चुनाव हेतु नामांकन भरने की अन्तिम तिथि समाप्त होने के साथ ही चुनाव की तस्वीर लगभग साफ हो गई है। देश की सत्तारूढ़ पार्टी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का सीधा मुकाबला निर्दलीय कहे जाने वाले प्रत्याशी तथा भारत के वर्तमान उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत के मध्य होने जा रहा है। इस चुनाव में मतों की गणित के आधार पर यह साफ नज़र आता है कि बड़े पैमाने पर क्रॉस वोटिंग न होने की स्थिति में यूपीए प्रत्याशी प्रतिभा पाटिल के रूप में भारतवर्ष पहली बार अपने सर्वोच्च संवैधानिक पद तथा देश के प्रथम नागरिक के रूप में प्रतिभा पाटिल रूपी किसी महिला को आसीन होते देखने जा रहा है। राष्ट्रपति पद की चुनावी सरगर्मियों को लेकर पिछला महीना भारतीय राजनीति में काफी उथल-पुथल से भरा रहा। कहा जा सकता है कि देश की स्वतंत्रता से लेकर अब तक राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर इतना विवाद व राजनैतिक दलों द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले हथकण्डों का प्रदर्शन पहले कभी देखने को नहीं मिला।

सर्वप्रथम तो यूपीए की सबसे बड़ी घटक कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रपति पद हेतु ऐसा उम्मीदवार ढूंढने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा जिसके नाम पर कि सत्तारूढ़ यूपीए के अन्य घटक दल भी राजी हो सकें। प्रणव मुखर्जी, शिवराज पाटिल, अर्जुन सिंह तथा कर्ण सिंह जैसे दिग्गज नेताओं के नाम पर यूपीए के घटक दलों में सहमति न बन पाने के बाद कांग्रेस ने प्रतिभा पाटिल जैसी कमजोर परन्तु वफादार प्रत्याशी का चयन यह कहकर किया कि यूपीए पहली बार राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर एक महिला को आसीन होते हुए देखना चाहता है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश् उठता है कि यदि यूपीए वास्तव में किसी महिला को ही इस पद पर बैठे देखना चाहता था तो प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह, कर्ण सिंह व शिवराज पाटिल जैसे नामों के चर्चा में आने की जरूरत ही क्या थी। शुरु से ही केवल दो-चार महिला नेत्रियों में से ही किसी एक का नाम चुना जा सकता था। लिहाजा यूपीए का प्रथम महिला राष्ट्रपति बनाए जाने का तर्क न सिर्फ खोखला बल्कि मात्र मजबूरी के तहत लिया फैसला नज़र आ रहा है। बेशक इस राजनैतिक उठा पटक के बीच भारत को महिला राष्ट्रपति मिलने की सम्भावना प्रबल हो गई है।

प्रतिभा पाटिल के नाम को लेकर कई प्रकार के आरोप भी लगने शुरु हो गए हैं जिनमें हत्या के एक मामले में अपने भाई की सहायता करने, घोटाला करने तथा अनियमितताएं बरते जाने जैसे कई मामले सामने आ रहे हैं। देश के सर्वोच्च पद पर संभावित रूप से बैठने वाली प्रथम महिला प्रतिभा पाटिल पर अंधविश्वास को बढ़ावा देने का भी आरोप लग रहा है। परन्तु यूपीए ने इन सभी आरोपों को विपक्ष का दुष्प्रचार बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया है। जबकि मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने तीसरे मोर्चे का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से भैरो सिंह शेख़ावत को निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतारा है। इसमें कोई शक नहीं कि भैरो सिंह शेखावत जो कि वर्तमान में देश के उपराष्ट्रपति भी हैं प्रतिभा पाटिल से कहीं अधिक तजुर्बा रखने वाले व्यक्ति हैं। वे राजस्थान के मुख्यमंत्री सहित संगठन व सरकार के कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। परन्तु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता रह चुके होने के नाते वे यह भली-भांति जानते हैं कि तीसरा मोर्चा उनका समर्थन नहीं करेगा अत: उन्होंने स्वयं को भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी घोषित करने के बजाए निर्दलीय उम्मीदवार घोषित करना अधिक उचित समझा है।

राष्ट्रपति पद के वर्तमान चुनाव में जहाँ प्रत्येक राजनैतिक दल व घटक जबरदस्त राजनैतिक दाँव पेंच खेल रहे हैं वहीं महाराष्ट्र में अपना अच्छा प्रभाव रखने वाली क्षेत्री पार्टी शिवसेना ने भी कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा पाटिल को अपना समर्थन देने की बात कहकर अपनी पारंपरिक सहयोगी भारतीय जनता पार्टी को भी स्तब्ध कर दिया है। शिवसेना का यह समर्थन केवल इस एक सूत्रीय मकसद को लेकर है कि प्रतिभा पाटिल मूल रूप से महाराष्ट्र की रहने वाली हैं तथा मराठा परिवार की बेटी हैं। इसके पूर्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार को भी प्रधानमंत्री पद हेतु अपना समर्थन देने की बात केवल इसलिए कह चुके हैं क्योंकि शरद पवार भी महाराष्ट्र से संबंध रखने वाले एक मराठा नेता हैं। शिवसेना द्वारा भारत के राष्ट्रपति पद के चुनाव के संबंध में उठाए गए ऐसे संकीर्णतापूर्ण कदम का यह पहला अवसर है जबकि क्षेत्रीयता के आधार पर यूपीए के घटक दलों से विपरीत विचारधारा रखने वाली पार्टी उसके किसी उम्मीदवार को अपना समर्थन दे रही है। ज्ञातव्य है कि शिवसेना अपने मराठा प्रेम के लिए पहले से ही कांफी चर्चित रही है। यहां तक कि उसे गैर मराठियों के विरुद्ध जहर उगलते भी कोई पछतावा नहीं होता। देश की एकता और अखंडता के पक्ष में इसे एक अच्छा कदम अथवा स्वस्थ सोच नहीं कहा जा सकता।

भारत रत्न डा. ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम को लेकर भी राजनैतिक दलों के बीच जमकर घमासान हुआ। पिछले कई महीनों से भारत की कई सर्वेक्षण एजेंसियों द्वारा चलाए जा रहे सर्वेक्षण यह साफतौर पर बता रहे थे कि राष्ट्रपति पद हेतु आम भारतवासियों की पहली पसंद ए पी जे अब्दुल कलाम ही हैं। जाहिर है ऐसे में कोई भी दल कलाम के नाम को नकार पाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। परन्तु अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति कलाम ने अनेकों बार जिस दृढ़ता का परिचय दिया तथा भारतीय संसद को आईना दिखाने का जो प्रयास किया संभवत: देश के बड़े राजनैतिक दल इसीलिए इस बार उत्साहित होकर उन्हें पुन: राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में नहीं थे। यह सही है कि हालांकि राष्ट्रपति कलाम ने अन्तिम समय में पहले अपने नाम पर आम सहमति होने तथा बाद में अपनी जीत सुनिश्चित होने की शर्त पर पुन: राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की थी परन्तु यह भी सत्य है कि कलाम द्वारा काफी पहले ही पुन: राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने हेतु इन्कार किया जा चुका था। राष्ट्रपति कलाम ने कहा था कि वे पुन: राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ेंगे बल्कि पदमुक्त होने के बाद अपने प्रिय शिक्षण व्यवसाय को ही अपनाएंगे।

कलाम को पुन: राष्ट्रपति बनाए जाने की अपनी मुहिम में मैंने भी जहाँ देश के अनेकों सांसदों व राजनेताओं से समर्थन माँगा था वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद विजय दर्ड़ा से मिलकर जब मैंने यह निवेदन किया कि वे भी इस बात की कोशिश करें कि कांग्रेस पार्टी राष्ट्रपति पद के आगामी चुनाव में ए पी जे अब्दुल कलाम को ही यूपीए के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत करें इस पर विजय दर्ड़ा ने मुझे बताया कि कलाम साहब से वे इस विषय पर व्यक्तिगत रूप से भी बात कर चुके हैं। वे पुन: चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं रखते। ऐसा लगता है कि कलाम की इसी अनिच्छा का बहाना लेकर कांग्रेस ने किसी योग्य प्रत्याशी की तलाश करने के बजाए एक वंफादार प्रत्याशी का चयन करना अधिक उचित समझा। प्रतिभा पाटिल का नाम ऐसे ही नामों में से एक था जोकि वफादारी को ही योग्यता मानने वाले मापदण्ड पर पूरी तरह खरा उतर रहा था।

बहरहाल इस बात की प्रबल संभावना है कि भारतवर्ष पहली बार एक महिला को राष्ट्रपति के रूप में देखे। परन्तु जैसा कि यूपीए द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि यह कदम महिलाओं को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से तथा महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा दिए जाने के मकसद से उठाया गया है तो इस बात की भी जरूर उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद बुलाए जाने वाले संसद के प्रथम सत्र में ही महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं बल्कि इसे संसद के दोनों सदनों को पारित भी कर देना चाहिए। यदि यूपीए ऐसा करती है, फिर तो राष्ट्रपति पद पर एक महिला उम्मीदवार को बिठाकर महिलाओं को आगे बढ़ाए जाने का उसका दावा किसी हद तक सही माना जा सकेगा। अन्यथा प्रतिभा पाटिल की उम्मीदवारी को महज मजबूरी के तहत सत्तारूढ़ यूपीए द्वारा लिया गया एक फैसला मात्र ही माना जाएगा।
तनवीर जाफ़री
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

7/11/2007

इराक में धर्मस्थलों पर होने वाले 'रहस्यपूर्ण' हमले


इराक में मौजूद अमेरिकी सेना के तमाम दावों व प्रयासों के बावजूद इराक की स्थिति सुधरने के बजाए दिन-प्रतिदिन और अधिक बिगड़ती हुई प्रतीत हो रही है। इराक के प्रमुख शहरों में भीड़-भाड़ वाली जगहों पर की जाने वाली आक्रमणकारी कार्रवाई हो या इराक में मौजूद विदेशी सेनाओं पर होने वाले हमले, कुछ भी थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। और इन सबसे अधिक चिन्ता का विषय है इराक में धार्मिक स्थलों पर लगातार होने वाले ऐसे विस्फोट जोकि इराक को गृहयुद्ध की ओर भी ढकेल सकते हैं। ऐसे विस्फोटों में भी कमी आने के बजाए बढ़ोत्तरी ही दर्ज की जा रही है। नि:सन्देह इराक के ऐसे हालात न सिंर्फ इराकी अवाम के लिए अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण हैं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के समक्ष भी यह बहुत बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। धर्मस्थलों पर होने वाले हमलों के सिलसिले में एक और दिलचस्प बात यह है कि इराकी अवाम अभी तक यही समझ पाने में नाकाम है कि आंखिर आम लोगों की आस्थाओं को झकझोरने वाली इन प्रलयकारी साजिशों के पीछे कौन सी शक्तियाँ काम कर रही हैं। जैसे ही किसी प्रमुख ऐतिहासिक धर्मस्थल पर आक्रमण होता है या सुनियोजित साजिश के तहत उस स्थल पर कोई बड़ा बम विस्फोट होता है, उसी समय इराक की राजनीति से जुड़ा प्रत्येक पक्ष उन आक्रमणों अथवा विस्फोटों को अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने लग जाता है। यदि ऐसा कोई विस्फोट किसी शिया स्थान पर होता है तो इराक में मौजूद अमेरिकी सेना आनन-फानन में ऐसे हमलों की जिम्मेदारी अलकायदा अथवा अन्य सुन्नी विद्रोही गुटों पर मढ़ने की कोशिश करती है। उधर इराक की मौजूदा सरकार भी आमतौर पर अमेरिकी वक्तव्य का ही समर्थन करती दिखाई देती है। दूसरी ओर इराक के शिया संगठन, पड़ोसी देश ईरान, शिया नेता मुक्तदा अल सद्र व लेबनान में बैठे शिया नेता हसन नसरुल्ला आदि इराक में होने वाली ऐसी सभी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर सिर्फ अमेरिका को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। इराक में प्रमुख शिया धर्मस्थलों पर कई हमले ऐसे भी हुए हैं जिनके लिए अलकायदा या सुन्नी विद्रोही गुटों को जिम्मेदार तो ठहराया गया परन्तु इन संगठनों ने ऐसे हमलों में अपना हाथ होने से इन्कार भी किया है। फिर आखिर प्रश्न यह उठता है कि इराक में शिया व सुन्नी वर्गों के मध्य आग भड़काने वाले तथा अपनी इन नापाक हरकतों से इराक में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा करने वाली इन सांजिशों के पीछे वास्तव में कौन सी शक्तियाँ सक्रिय हैं।

इराक की राजधानी बगदाद के उत्तर पश्चिम में लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर स्थित समारा शहर में शिया समुदाय के छठे इमाम हजरत अली नंकी एवं ग्यारहवें इमाम हजरत हसन असकरी का रौंजा (दरगाह) सामूहिक रूप से एक ही इमारत में स्थित है, जिसे अल असकरी मस्जिद के नाम से जाना जाता है। समूचे विश्व के शिया समुदाय के लिए गहन आस्था का केंद्र समझे जाने वाले इस धर्मस्थल के चारों ओर हालांकि सुन्नी समुदाय के लोग अधिक संख्या में रहते हैं तथा समारा शहर भी सुन्नी बाहुल्य शहर है। इसके बावजूद इस पवित्र स्थल पर 22 फरवरी 2006 से पहले न तो कोई आक्रमण किया गया न ही यहाँ कोई बड़ा विस्फोट हुआ। परन्तु 22 फरवरी 2006 को इस पवित्र अल असकरी मस्जिद में प्रात: लगभग 6 बजकर 55 मिनट पर हुए विस्फोट ने तो पूरे विश्व के शिया समुदाय में उस समय हलचल पैदा कर दी जबकि इस धर्मस्थल का मुख्य एवं विशाल स्वर्ण जड़ित गुम्बद एक बड़े बम विस्फोट के द्वारा उड़ा दिया गया।

गत् वर्ष 22 फरवरी को हुई इस घटना की जिम्मेदारी भी हालांकि अमेरिकी सेना व इराकी प्रशासन ने अल ंकायदा के सिर मढ़ी थी परन्तु यदि उस मस्जिद के आस-पास के रहने वाले चश्मदीद लोगों की बातें मानी जाएं तो यह घटना किसी ऐसी बहुत बड़ी साजिश का परिणाम नज़र आती है जोकि इराक में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर इराक को बांटने के प्रयास के लिए रची जा रही है। 22 फरवरी 2006 की घटना के चश्मदीद बताते हैं कि इस हादसे से पूर्व समारा शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था कि अचानक भारी तादाद में आई सशस्त्र अमेरिकी सेना ने भारी टैंकों व बख्तरबंद गाड़ियों के साथ इस पवित्र स्थल को 21 फरवरी की रात 8 बजे के बाद चारों ओर से घेर लिया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार दरगाह के इर्द-गिर्द इतनी भारी संख्या में हथियारबंद सैनिकों को घेरा डालते पहले कभी नहीं देखा गया था। अमेरिकी सेना अपनी सहयोगी इराकी सेना के साथ सारी रात उस दरगाह के चारों ओर संदेहपूर्ण स्थिति में घेरा डाले रही। और यह सिलसिला रात 8 बजे से शुरु होकर 22 फरवरी की सुबह 6 बजे तक अर्थात् दस घंटे तक चला। 22 फरवरी को प्रात: 6 बजे के पश्चात अमेरिकी नेतृत्व वाली इस सैन्य टुकड़ी ने अल अस्करी मस्जिद का क्षेत्र छोड़ दिया तथा इस धर्मस्थल की सुरक्षा पूर्ववत वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मियों को सौंप दी। इस घटना के कुछ ही मिनट बाद 6 बजकर 55 मिनट पर उसी पवित्र स्थल में एक ऐसा बड़ा विस्फोट हुआ जिसने अल अस्करी मस्जिद के प्रमुख स्वर्ण जड़ित विशाल गुंबद को ध्वस्त कर डाला।

उपरोक्त हालात जिस ओर भी इशारा करते हों परन्तु अमेरिकी सेना ने इस हादसे के लिए तुरन्त अल कायदा को जिम्मेदार ठहराया था। एक बार फिर गत् 13 जून 2007 को प्रात: 9 बजे इसी धर्मस्थल की 2 गगनचुम्बी मीनारों को निशाना बनाया गया है। इस बार भी अल कायदा को इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि अलकायदा दुनिया का एक सबसे खतरनाक ऐसा आतंकवादी संगठन है जोकि अपने आतंकवादी कारनामों को अंजाम देकर केवल जान माल की ही भारी क्षति नहीं पहुंचाता बल्कि वैचारिक आतंकवाद का भी जबरदस्त प्रसार करता है। जहाँ तक इराक में अलकायदा की मौजूदगी व दिलचस्पी का प्रश्न है तो स्वाभाविक रूप से अलकायदा की दिलचस्पी इस बात में हो सकती है कि इराक की हुकूमत सुन्नी अरब लोगों के हाथों से निकल कर शिया समुदाय के लोगों के हाथों में न जाने पाए। इस बात का भी अब तक कोई पुख्ता सुबूत नहीं मिल सका है कि पूर्व इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन के अलकायदा से कोई संबंध रहे हों। यह भी सच है कि 11 सितम्बर को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमले के बाद बुश प्रशासन ने जिस प्रकार अलकायदा की कमर तोड़ने का प्रयास किया है, उससे अलकायदा लगभग पूरी तरह टूट चुका है। ऐसे में यदि अलकायदा को इराक में स्थित अति संवेदनशील एवं पवित्र धर्मस्थलों पर होने वाले हमलों का दोषी ठहराया जाए तो इसमें कितनी वास्तविकता हो सकती है? और यदि ऐसी घटनाओं के लिए अलकायदा को ही जिम्मेदार माना भी जाए फिर भी अमेरिकी सेना अपनी जिम्मेदारियों से कतई नहीं बच सकती। विश्व की सबसे आधुनिक समझी जाने वाली सेना जिस विशेष स्थल की निगरानी कर रही हो उसी स्थल पर तथाकथित रूप से अलकायदा द्वारा विस्फोट कर दिया जाए, इसमें दो ही बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि अमेरिकी सेना इस प्रकार के हमलों को रोक पाने में समर्थ व सक्षम नहीं है और यदि ऐसा है तो भी उसे इराक में कानून व्यवस्था संभालने का स्वयंभू ठेकेदार बनने का कोई अधिकार नहीं है। और दूसरी बात तो फिर वही है जैसा कि न सिंर्फ ईरान व शिया नेता बल्कि तमाम सुन्नी नेताओं व संगठनों द्वारा भी यही आरोप लगाए जा रहे हैं कि ऐसी घटनाएं और कुछ नहीं बल्कि केवल दूरगामी अमेरिकी साजिश का ही परिणाम हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि धर्मस्थलों पर होने वाली ऐसी घटनाओं के फौरन बाद वर्गवाद भड़क उठता है। परिणामस्वरूप हंजारों बेगुनाह लोग मारे जाते हैं तथा शिया व सुन्नी समुदाय की सैकड़ों मस्जिदें व दरगाहें इसी वर्गवाद की भेंट चढ़ जाती हैं। ऐसे में अमेरिका दुनिया को फिर यह दिखा पाने में सफल हो जाता है कि इराक की स्थिति अभी भी अत्यन्त चिंताजनक है तथा यहाँ के हालात अभी ऐसे नहीं कि अमेरिकी सेना निकट भविष्य में यहाँ से वापस जा सके। और इस प्रकार उन धर्मस्थलों पर हुए हमलों व विस्फोटों के पीछे कौन? जैसा दक्ष प्रश्न जस का तस बना रह जाता है। और इराक का वर्तमान स्वयंभू रहबर नित नए कारणों व बहानों की तलाश एवं नई सांजिशों की संरचना में लग जाता है। ऐसे ही हालात के तहत शायर कहता है:-

तू इधर-उधर की बात न कर, यह बता कि काफिला क्यों लुटा।
मुझे रहजनों से गरज नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है॥
तनवीर जाफ़री
सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी
अम्बाला

माया हिताय बहुजन हिताय?


भारतीय राजनीति गत् दो दशकों से अत्यधिक संक्रमणकालीन दौर से गुजर रही है। राजनेताओं की लोकप्रियता तथा जनता के बीच उनकी पकड़ दिनों-दिन कम होती जा रही है। भारतीय नेता आमतौर पर जनता के मध्य अपनी पहचान एक झूठे वायदे करने वाले, केवल आश्वासनों के भरोसे पर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की महारत रखने वाले, रिश्वतख़ोर, भ्रष्टाचारी तथा सिद्धान्तविहीन स्वार्थी राजनेताओं के रूप में बना चुके हैं। परन्तु भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की यह मजबूरी ही कही जाएगी कि जनता की नज़रों से गिर जाने के बावजूद उन्हें प्रत्येक चुनाव के समय उसी जनता के बीच जाना ही पड़ता है। ऐसे में इन राजनेताओं ने लोकहित के अथवा विकास संबंधी कार्यों के लम्बे चौड़े वायदे करने के बजाए एक शॉर्टकट रास्ता अपनाना शुरु किया है। और यह शॉर्टकट रास्ता है साम्प्रदायिकता का, जातिवाद का, वर्गवाद, क्षेत्रवाद तथा भाषावाद आदि का।

हमारे देश में कहीं मन्दिर के नाम पर राजनीति कर कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी मतों को एक झण्डे के नीचे एकत्रित करने का असफल प्रयास किया जा रहा है तो कहीं मस्जिद बनाने का आश्वासन देकर अल्पसंख्यक मतों को आकर्षित करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। कोई मराठा हितों की बात कर अपनी क्षेत्रीय सत्ता बरकरार रखना चाहता है तो कहीं सिख, तमिल, गुर्जर, तेलगू, कन्नड़ आदि क्षेत्रीय समीकरण के आधार पर सम्बद्ध नेतागण अपनी राजनैतिक दुकानदारी चलाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही एक प्रमुख राजनैतिक कार्ड का नाम है 'दलित कार्ड'। दलित राजनीति में वैसे तो तमाम नेता राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर सक्रिय हैं तथा इसी के नाम पर कमा खा रहे हैं। कांग्रेस व भाजपा जैसे राष्ट्रीय स्तर के राजनैतिक दलों ने तो अपनी-अपनी पार्टियों में कई दलित चेहरे प्रमुख पदों पर बिठा रखे हैं ताकि दलित मतों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया जा सके। दलित राजनीति से अपने राजनैतिक सफ़र की शुरुआत करने वाली ऐसी ही एक सफल नेत्री को इस समय देश मायावती के रूप में देख रहा है।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में सत्ता पर विजय पाने के लिए मायावती ने जिस सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया, उसे देखकर भारतीय राजनीति के विशेषक एवं समीक्षक हैरान रह गए। कहाँ तो बहन मायावती ने अपनी राजनीति का सफ़र ही उनके अपने शब्दों में मनुवादी व्यवस्था के विरोधस्वरूप, दबे कुचले लोगों को ऊँचा उठाने के उद्देश्य से तथा दलितों को सत्ता दिलाने के मकसद से शुरु किया था। परन्तु जब उन्हें महसूस हुआ कि केवल दलित राजनीति उन्हें सत्ता तक नहीं पहुँचा सकती, तब उन्होंने बहुजन समाज के बजाए सर्वजन समाज की बातें करनी शुरु कर दीं। इस नए राजनैतिक समीकरण के अन्तर्गत मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ-साथ ब्राह्मणों तथा मुसलमानों को भी अपने साथ जोड़ने का सफल प्रयास किया। परिणामस्वरूप मायावती का मिशन सर्वजन समाज सफल हुआ और बहुजन समाज पार्टी सर्वजन समाज के कंधों पर बैठकर उत्तर प्रदेश में सत्तासीन हो गई तथा बसपा प्रमुख मायावती ने चौथी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के सिंहासन को सुशोभित किया।

मायावती द्वारा उत्तर प्रदेश की सत्ता पर चौथी बार काबिज होने के पश्चात राजनैतिक विशेषकों का ध्यान प्राकृतिक रूप से मायावती की ओर आकर्षित हुआ। अब यह जानने की जरूरत महसूस की जा रही है कि आखिर मायावती की राजनैतिक महत्वाकांक्षा के पीछे का सत्य क्या है तथा यह दलित नेत्री जिसकी कि बुनियाद ही दलित राजनीति पर खड़ी हो वास्तव में देश के दलितों के बारे में क्या चिंतन करती है। अब जनता शिद्दत से यह जानना चाह रही है कि जिस प्रकार बसपा सुप्रीमो कांशीराम के समय में मायावती पार्टी की नम्बर दो नेता के रूप में देखी जाती थीं, उसी प्रकार अब मायावती के पार्टी प्रमुख होने के दौर में पार्टी के नम्बर दो के नेताओं में कौन-कौन से लोग प्रमुख हैं। एक चिंता यह भी है कि मायावती ने किसी नेता को पार्टी में नम्बर दो की हैसियत पर बिठाया भी है या नहीं। क्या वजह है कि बसपा में मायावती के सिवा किसी अन्य नेता के विषय में देश जानता ही नहीं? आखिर इसके पीछे का सत्य क्या है? यह जानने हेतु मायावती के कुछ बेबाक राजनैतिक फैसलों व कदमों का अध्ययन करना जरूरी है।

मायावती ने अपने पार्टी नेताओं को यह सख्त हिदायत दे रखी है कि वे मीडिया से दूर रहने की कोशिश करें तथा टी.वी. कैमरे का सामना तो हरगिज न करें। ऐसा करने वाले के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। मीडिया से रुबरु होने तथा टी.वी. कैमरे के समक्ष अपनी बातों को 'पढ़ने' का अधिकार बहन जी ने अपने ही हाथों में सुरक्षित रखा हुआ है। देश नहीं जानता कि बहन जी के सिवाए बसपा का नेता कौन, पदाधिकारी कौन अथवा प्रवक्ता कौन? जहाँ अन्य नेता प्रत्यक्ष रूप से पैसों से दूर रहने का प्रयास करते हैं, वही मायावती एक अकेली ऐसी नेता हैं जोकि इस संबंध में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं का खुला आह्वान करती हैं कि वे उन्हें फूल गुलदस्ते भेंट करने के बजाए केवल नकद धनराशि ही भेंट किया करें। उनका साफतौर पर मानना है कि दबे समाज को ऊपर उठाने हेतु किए जाने वाले संघर्ष में पैसों की बहुत सख्त जरूरत है तथा इसके लिए उन्हें अधिक से अधिक धन की दरकार है। चाहे मायावती के जन्मदिन पर उनपर होने वाली धनवर्षा हो अथवा पार्टी की उम्मीदवारी हेतु पैसे देकर टिकट बाँटे जाने का मामला हो। मायावती का स्पष्ट कहना है कि उन्हें इन सभी रास्तों से धन चाहिए तथा यह उनके व उनकी पार्टी के लिए बहुत जरूरी है।

चुनाव घोषणा पत्र जैसे अहम दस्तावेज को लेकर भी मायावती का रुख निराला है। इस विषय पर उनका मानना है कि चुनाव घोषणा पत्र एक फ़िजूल का ऐसा दस्तावेज है जोकि अपनी वादाखिलाफी के लिए मतदाताओं में बदनाम हो चुका है। लिहाजा वे चुनाव पूर्व के किसी भी ऐसे दस्तावेज पर विश्वास नहीं करतीं जो लम्बे चौड़े वायदों पर आधारित हो। मायावती का कहना है कि समय और जरूरत के अनुसार किसी कार्य अथवा योजना की माँग पैदा होती है तथा उसी के अनुसार उसे पूरा किया जना चाहिए। यही वजह है कि वे चुनाव घोषणा पत्र जैसे उस दस्तावेंज को बिल्कुल गैर जरूरी समझती है जिसे कि अन्य सभी राजनैतिक दल एक आवश्यक दस्तावेज मानते हैं।

गत् दिनों राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित जो गहमा गहमी चली, उसमें बसपा की भी प्रमुख भूमिका रही। बसपा के उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद पहली नज़र में यह अनुमान लगाया जा रहा था कि सम्भवत: मायावती किसी दलित व्यक्ति को राष्ट्रपति का पद दिए जाने हेतु सोनिया गांधी से सलाह मशवरा करेंगी। परन्तु ऐसा दूर तक नज़र नहीं आया। कहा जाता है कि ऐसे किसी समझौते के बजाए आगरा ताज कॉरिडोर मामले पर केंद्र सरकार से रियायत हासिल करने को अधिक अहमियत दी गई। इस घटना के बाद राजनैतिक चिंतकों ने मायावती पर जब अपनी नज़र और गहरी की तो यही पाया कि उनके राजनैतिक जनाधार को तैयार करने हेतु अथवा उसके विस्तार हेतु भले ही दलित, दबे कुचले, मनुवाद, बहुजन अथवा सर्वजन जैसे जादुई शब्दों का प्रयोग क्यों न किया जा रहा हो परन्तु वास्तविकता यही है कि बहुजन समाज पार्टी का पूरा ढांचा केवल मायावती के व्यक्तिगत राजनैतिक हितों की ही निगरानी करता है। चाहे वह उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का पद उन्हें दिलाने हेतु बहुजन से सर्वजन की बात करनी हो अथवा सत्ता प्राप्त करने के बाद किसी समस्या विशेष से छुटकारा प्राप्त करने हेतु राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस को बसपा का आंख मूंद कर दिया जाने वाला समर्थन हो अथवा भविष्य के ऐसे राजनैतिक समीकरण जोकि किसी अन्य को नहीं बल्कि मायावती को प्रधानमंत्री जैसी अति महत्वपूर्ण कुर्सी तक पहुंचाने वाले हों। क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि मायावती हिताय का ही दूसरा नाम है बहुजन हिताय।
निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा।

7/10/2007

विश्व मंच पर हिन्दी की सार्थकता

प्रसंगः विश्व हिंदी सम्मेलन-13-15 जुलाई2007

अमेरिका में माह जुलाई में आयोजित होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन के चिंतन की मूल भावना (थीम) है-'विश्व मंच पर हिन्दी'। हिन्दी भाषा से प्यार करने और स्वाभिमान रखने वाले हर भारतीय के लिए हिन्दी का विश्व भाषा होना एक गर्व की बात होगी और वह इस आयोजन की सफलता की कामना करेगा, पर साथ ही दिल में चिंतन यह भी पनपेगा कि जब स्वदेशी मंच पर ही हिन्दी हकीकत में विराजमान नही हो पाई है, तो विश्व मंच पर कैसे संभव होगा। इसी दष्टि से सम्मेलन को सार्थक बनाने के लिए चर्चा के लिए कुछ विचार प्रस्तुत हैं।

किसी भी विषय पर चिंतन तब ही सार्थक हो सकता है जब हम सोचें कि हम क्या चाहते हैं, क्यों चाहते हैं और कैसे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं। लक्ष्य को हासिल करना माँग और आपूर्ति के समीकरण पर भी निर्भर करता है

अतः महत्वपूर्ण प्रश्न है कि विश्व मंच पर हिन्दी से हमारा क्या ल्क्ष्य है या हम क्या चाहते हैं। क्या हमारा लक्ष्य हिन्दी साहित्य की दृष्टि से है, या हिन्दी को मनोरंजन की विश्व भाषा बनाने से है, या संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनाना या ज्ञान विज्ञान की वाहक बनाना या हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करना।

इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है हम क्यों चाहते हैं। हिन्दी साहित्य, संगीत और मनोरंजन से जुय्डे व्यक्तियों के हित के लिए या इसलिए कि विश्व मंच पर प्रतिष्ठापित करके ही हिन्दी को हकीकत में भारत की राष्ट्रभाषा /राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठापित किया जा सकता है।

आज अपने देश में हिन्दी बाजार और मनोरंजन की भाषा बन चुकी है। अतः मनोरंजन और बाजार की भाषा के रूप में विश्व के लोग इसे अपनाएँगे क्योंकि हिन्दीभाषियों की जन संख्या अधिक होने के कारण विदेशियों के लिए हिन्दी व्यावसायिक दृष्टि से लाभदायक होगी। उसके लिए किसी प्रयास की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि यह माँग और पूर्ति के समीकरण को पूरा करती है। यह देखा जा सकता है कि विदेशों से भारत आने वाले राजदूत हिन्दी का अध्ययन केवल बोलने एवं समझने की दृष्टि से करते हैं, पय्ढने की दृष्टि से नहीं। यह भी देखा जा सकता है कि जब वे राजदूत भारत आकर हिन्दी में बोलते हैं और भारत के लोग अंगरेज़ी में, तो वे सोचते हैं कि उन्होंने हिन्दी सीखने में क्यों समय व्यतीत किया। जिन देशों की अपनी भाषा हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित है, उन देशों मे विदेश से जाने वाले राजदूत उस भाषा का अध्ययन पूरी तरह से करते हैं।

हिन्दी साहित्य को पय्ढने में भी उन्हीं को दिलचस्पी होगी जो या तो साहित्यकार बनना चाहें और भारत को समझना चाहें। हिन्दी साहित्य में दिलचस्पी पैदा करने के लिए विदेशों में सम्मेलन सार्थक सिध्द हो सकते हैं। पर चिंतनीय बात यह है कि हमारे ही देश में अंगरेज़ी माध्यम के स्कूलों की बढौत्तरी के कारण हिन्दी साहित्य के पय्ढने वालों की संख्या कम होती जा रही है। यदि ऐसा रहा तो हिन्दी साहित्यकार किसके लिए साहित्य लिखेगा। विचारणीय है कि विदेशियों में हिन्दी साहित्य के प्रति रुचि पैदा करने से भारतीयों में भी रुचि पैदा हो जाएगी क्या?

हाँ यह विश्व सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनाने में सार्थक सिध्द हो सकता है, पर विचारणीय यह है कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने पर हमारे जो भी प्रतिनिधि वहाँ जाते हैं, उन्हें हिन्दी में बोलना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो भय लगता है कि हिन्दी वैसे ही अपमानित न हो जाए जैसे वह राजभाषा के रूप में अपने ही देश में अपमानित हो रही है। कोई भी भाषा तब अपमानित होती है, जब उसका प्रयोग उस उद्देश्य के लिए न हो जिसके लिए उसे निधारित किया गया है। यह देखा जा सकता है कि वर्तमान में जिस देश की राष्ट्रभाषाएं संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषाएँ हैं, उस देश से आने वाले प्रतिनिधि उस देश की राष्ट्रभाषा में ही बोलते हैं। हमारे राष्ट्र के संविधान में कोई भी भारतीय भाषा संपूर्ण भारत की सम्पर्क राष्ट्रभाषा घोषित नहीं है और राजभाषा के रूप में घोषित भाषा हिन्दी सभी देशवासियों को मान्य नही हैं। अतः इस सम्मेलन में यह सुनिश्चित करने के लिए चिंतन आवश्यक है कि हमारे देश के सभी प्रतिनिधि हिन्दी में बोलें।

कार्यभाषा के रूप में न तो वह राष्ट्र की सम्पर्क भाषा है और न ही राजभाषा होते हुए भी वह हकीकत में राजभाषा है। यह हम सभी जानते हैं कि आज इस कम्प्यूटर युग में हिन्दी हकीकत में तब ही राजभाषा बन सकती है जब वह पूर्ण रूप से संगणक (कम्प्यूटर) की भाषा बन जाए। संविधान में राष्ट्र की सम्पर्क राष्ट्रभाषा न होने एवं अंगरेज़ी के प्रयोग की छूट के कारण निजी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी संस्थानो, उच्च शैक्षणिक एवं व्यावसायिक शिक्षा एवं सभी क्रिया कलापों की लिखने पय्ढने की भाषा का माध्यम अंगरेज़ी है। इसी कारण अंगरेज़ी माध्यम से शिक्षा के स्कूलों की संख्या दिन प्रति दिन बय्ढती जा रही है। अतः विचारणीय है कि हिन्दी को भारत मे ही ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठापित किए बिना उसे विश्व मंच पर कैसे प्रतिष्ठाापित किया जा सकता है।

यह तब ही संभव है जब भारत में उच्च शैक्षणिक शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो और संविधान में संशोधन करके राजभाषा हिन्दी राष्ट्र की सम्पर्क राष्ट्रभाषा घोषित हो और अंगरेज़ी की अनिवार्यता समाप्त हो तथा अंगरेज़ी का अध्ययन एक विषय के रूप में किया जाए। इस सम्मेलन में इस तथ्य पर चर्चा करना सम्मेलन के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होगा।

संक्षेप में हमारे अनुसार इस सम्मेलन का आयोजन सार्थक सिध्द तब ही होगा जब वह लक्ष्य राष्ट्र स्तर पर भी पूरा हो, जैसेः-

1. हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनाने के लिए भारत सरकार सुनिश्चित करे कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जाने वाले उसके प्रतिनिधि हिन्दी में ही बोलें।
2. हिन्दी को विश्व मंच पर प्रतिष्ठापित करने के लिए भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि हिन्दी भारत में हर स्तर की शिक्षा का माध्यम और हकीकत में हर स्तर के कार्य की कार्यभाषा हो।

उपर्युक्त दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता होगी।
अतः इस सम्मेलन के लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि भारत में भी हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने के लिए एक ज्ञापन तैयार किया जाए और उसे राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री एवं अध्यक्ष ज्ञापन आयोग को प्रस्तुत किया जाए। यह भी सुनिश्चित किया जाए कि उस पर उपयुक्त कार्रवाई की गई है।
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विजय कुमार भार्गव,

सेवानिवृत्त वैज्ञानिक,
भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र एवं परमाणु ऊर्जा नियामक परिषद, मुंबई
(एफ-6/1, सैक्टर 7 (मार्केट), वाशी
मुंबई 400703)

7/08/2007

'रेडियो' पर लिखें पारिश्रमिक के साथ

प्रिंट एवं अंतरजाल की पत्रिका मीडिया विमर्श के लिए
लेखकों से निवेदन


।। मीडिया विमर्श का आगामी अंक- वार्षिकांक ।।
(रेडियो की वापसी पर केंद्रित)

मीडिया विमर्श मीडिया की पड़ताल करने वाली हिंदी की एकमात्र पत्रिका है जो कागज और वेब दोनों पर प्रकाशित होती है । यह मीडियाकर्मियों में खासा लोकप्रिय पत्रिका है । पत्रिका देश भर के सभी विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता विभागों और मीडिया संस्थानों में समादृत है । इसके अलावा यह देश-विदेश के विशिष्ट एवं वरिष्ट लेखकों, पत्रकारों एवं मीडियाकर्मियों को उपलब्ध करायी जाती है । पत्रिका से देश के नामी पत्रकार जुड़े हुए हैं ।
मीडिया के नए-नए साधनों की बहुलता और टेलिविजन मीडिया के हल्लाबोल में यूं लगा कि रोडियो की तो मौत ही हो जाएगी पर अब रेडियो का नया अवतार सामने आ रहा है । एफएम की क्रांति के साथ-साथ सामुदायिक रेडियो सेवा भी पैर पसार रही है । इंटरनेट ने उसे विश्व के दूसरे छोर तक पहुंचा दिया है । रेडियो के इतिहास, विकास, दशा दिशा पर गंभीर विश्लेषण के साथ होगी खास सामग्री ? भेजिए अपने लेख, अनुभव एवं विश्लेषण 30 जुलाई 2007 तक ।
संभावित विषय-
1. रेडियो का महत्व
2. रेडियो का प्रभाव
3. रेडियो और ग्रामीण संसार
4. मनोरंजन और रेडियो
5. रेडियो और वर्तमान चुनौतियाँ
6. रेडियो और कानून
7. रेडियो और संगीत
8. रेडियो और साहित्य
9. हिंदी के वैश्वीकरण में रेडियो का वर्चस्व
10. मीडिया और रेडियो
11. रेडियो के प्रमुख व्यक्तित्व
12. साक्षात्कार (देश-विदेश के प्रमुख रेडियोकर्मियों से )
13. रेडियो और प्रजातंत्र
14. रेडियो और इंटरनेट
15. शिक्षा का लोकव्यापीकरण और आकाशवाणी
16. रेडियो का संकट
17. रेडियो का वर्तमान
18. रेडियो का भविष्य
19. रेडियो से जुड़ी कहानियाँ और लघुकथायें, कवितायें, कृति समीक्षायें आदि साहित्य
20 रेडियो और अर्थशास्त्र
21. रेडियो और शासकीय हस्तक्षेप
22. रेडियो पत्रकारिता
23. रेडियो पत्रकारिता के संस्थान
24. रेडियो और विज्ञापन
25. रेडियो से जुडी प्रामाणिक सांख्यिकी
26. रेडियो और कैरियर्स
27. लोकभाषाओं की अस्मिता और रेडियो
28. राष्ट्रीय सद्भाव और रेडियो
29. समकालीन चुनौतियाँ और रेडियो की दुनिया
30. रेडियो जिसने बदल दी दुनिया (प्रसंग, प्रेरक प्रसंग)
31. रेडियो के चर्चित हस्तियाँ, स्लोगन, कार्यक्रम, प्रभाव का अनुशीलन
32. आकाशवाणी के श्रोतागण (विभिन्न कोणों से मूल्याँकन)
33. ऑनलाइन रेडियो का संसार
34.रेडियो और तकनीकः दशा और दिशा
35. अन्य विषय जो लेखक सुझाना चाहें ।
नियमावली-
1. सामग्री युनिकोडित हिंदी फोंट में ही भेजें ।
2. जो इंटरनेट के माध्यम से नहीं भेज सकते वे डाक से भेज सकते हैं ।
3. आपका आलेख, अप्रकाशित, मौलिक, अप्रसारित हो ।
4. प्रेषित रचनाओं का अन्यत्र उपयोग बिना स्वीकृति के न करें ।
5. स्वीकृत रचनाओं का कॉपीराइट मीडिया विमर्श के पास रहेगा ।
6. लेख अधिकतम 4-5 पेज का हो ।
पारिश्रमिक या मानदेय-
1. सभी स्वीकृत रचनाओं पर सम्मानजनक मानदेय या पारिश्रमिक देय ।
2. रचना या आलेख प्रकाशनोपरांत लेखक को 10 दिवस में देय ।
3. प्रकाशित होने वाले रचनाकारों को मुद्रित अंक की एक प्रति निःशुल्क ।
संपर्क-
प्रतिभागी लेखक,विशेषज्ञ उपर्युक्त विषय के अलावा किसी खास विषय पर लेख लिखने हेतु mediavimarsh@gmail.com पर चर्चा कर सकते हैं । वे अपने नियत विषय की सूचना से भी पूर्व में हमें अवगत करा सकते हैं । परिचर्चा आयोजक कृपया आयोजन के पूर्व अवश्य अपने विषय की जानकारी हमें दे देवें कि वे कितने विशेषज्ञों के विचार दे रहे हैं ।
जयप्रकाश मानस

7/05/2007

गोपाल सिंह नेपाली स्मृति निबंध प्रतियोगिता


प्रविष्टि आमंत्रण

भाषा, साहित्य और संस्कृति की वेब-पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम, काव्यांजलि (बहुभाषीय एवं भारतीय संस्कृति के संवर्धन हेतु प्रतिबद्ध रेडियो सलाम नमस्ते, डलास, अमेरिका) के संयुक्त तत्वाधान में हिंदी के प्रभापुरुष एवं गीतकार स्व. गोपाल सिंह नेपाली की स्मृति में निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया है ।

इस प्रतियोगिता का उद्देश्य नयी पीढ़ी में हिंदी भाषा में रचनात्मक लेखन की प्रवृति को प्रोत्साहित करना एवं भारतीय संस्कृति को मनीषा में जीवंत बनाये हेतु वातावरण बनाये रखना है । इस खुली प्रतियोगिता हेतु आयोजन समिति द्वारा प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं ।

सामान्य विवरणः-
- निबंध का विषय- अरुण यह मधुमय देश हमारा
- शब्द सीमा – अधिकतम 2000 शब्दों में ।
- प्रतिभागी – कक्षा 8 से 12 से विद्यार्थी या 14 से 18 वर्ष आयु समूह के व्यक्ति ।
- निबंध प्राप्ति की अंतिम तिथि – 30 जुलाई 07 शाम 5 बजे तक ।

डाक से निबंध भेजने का पता –
1. सृजनगाथा डॉट कॉम, एफ-3, छग माध्यमिक शिक्षा मंडल आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ा, रायपुर,
2. लोकमान्य सद्भावना समिति, जैनबाड़ा, बैजनाथ पारा, रायपुर, छत्तीसगढ़ या
3. मिनीमाता फाउंडेशन, जलविहार कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़ ।
ई-मेल से निबंध भेजने का पता-
srijansamman@gmail.com

नियमावलीः-
1. प्रतिभागियों को अपनी प्रविष्टि डाक के पते भेजनी होगी ।
2. लिफाफे में ‘शालेय निबंध प्रतियोगिता-2007’ अवश्य लिखा होना चाहिए ।
3. निबंध साफ कागज में एक तरफ लिखा हुआ होना चाहिए ।
4. निबंध में नाम, कक्षा, उम्र, स्कूल का पूरा पता,अंकित हो, फोटो भी हो ।
5. एक ही स्कूल के प्रतिभागियों की प्रविष्टियाँ प्राचार्य गण एक साथ भेज सकते हैं ।
6. निबंध नितांत मौलिक और अप्रकाशित होना चाहिए ।
7. निबंधो का चयन एक विशेषज्ञ समिति द्वारा किया जायेगा ।
8. लेखन में काट-पीट अयोग्यता मानी जायेगी ।

विशेषः-
ई-मेल से भेजी जानी वाली प्रविष्टि हिंदी युनिकोडित फोंट में ही टंकित हो ।

पुरस्कार एवं अन्य पारितोषिकः-

1. प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्थान अर्जित करने वाले विद्यार्थी को क्रमशः 1500, 1000, 500 रुपये नगद, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिंह, एवं 1000 रुपयों का साहित्य दिया जायेगा ।
2. पुरस्कृत रचनाओं को इंटरनेट पत्रिका में भी प्रकाशित की जायेगी ।
3. पुरस्कृत रचनाओं सहित कुछ उत्कृष्ट रचनाओं कीपुस्तिका भी यथा समय प्रकाशित की जायेगी ।
4. अन्य 100 स्तरीय निबंधों के लेखकों को प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जायेगा ।

पुरस्कार हेतु रचना चयन की घोषणाः-
उत्कृष्ट रचनाओं का चयन दिनांक 5 अगस्त 2007 तक किया जायेगा तथा इसकी घोषणा दिनांक 6 से 10 अगस्त 2007 के मध्य की जायेगी ।

चयन मंडलः-
1. श्री आदित्य प्रकाश सिंह, वरिष्ठ हिंदी सेवी, डलास, अमेरिका
2. श्री नंदलाल सिंह, कार्यक्रम प्रस्तोता, रेडियो सलाम नमस्ते, डलास, अमेरिका
3. श्री संजय द्विवेदी, संपादक, दैनिक हरिभूमि, रायपुर, भारत
4. डॉ. चित्तरंजन कर, विभागाध्यक्ष, भाषा विज्ञान, रविशंकर विवि, रायपुर, भारत
5. श्री जयप्रकाश मानस, संपादक, सृजनगाथा डॉट कॉम, रायपुर, भारत

पुरस्कार वितरण समारोहः-
यह पुरस्कार एक विशिष्ट आयोजन में छत्तीसगढ़ राज्य के शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री एवं प्रख्यात हिंदी विशेषज्ञों के सानिध्य में प्रदान किया जायेगा, जिसकी सूचना पृथक से पुरस्कृत रचनाकारों को भेजी जायेगी । न पहुँच पाने वाले प्रतिभागियों को पुरस्कार राशि प्रेषित की जायेगी ।

राम पटवा
सृजन-सम्मान, रायपुर
छत्तीसगढ़, भारत