6/17/2007

वैश्विक हिन्दी कविता की दिशा

विश्व हिंदी सम्मेलन पर विशेष


जिस तरह हिन्दी भाषा ने अंतरराष्ट्रीय क्षितिज का स्पर्श किया उसी तरह हिन्दी कविता ने भी अपनी वैश्विक चेतना के साथ विश्व रंगमंच पर अपनी अस्मिता को एक विशिष्ट पहचान दी है । न केवल भारवंशियों वरन् विदेशी मूल के हिन्दी प्रेमियों हिन्दी और हिन्दी कविता के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शायी है । फिर वह चाहे चेकोस्लोवाकिया के ओदोलेन स्मेकल हों या फिर ब्रिटेन के रूपर्ट स्लैन । बुल्गारिया के डॉ. फादर कामिल बुल्के हों या फिर हंगरी का मारिया न्येंजेशी । इनके जैसे अस्ख्य विदेशी महानुभाव हैं “जिनको हिन्दी भाषा ने अपनी ओर आकर्षित किया और आज इनके कारण हिन्दी ने वैशअविक हिन्दी स्वरुप ग्रहण कर लिया है । कविताओं में हम वैश्विक चैतना के साथ भारतीय संस्कृति का ‘नास्टेल्जिया’ देख सकते हैं । भारत के गाँव, लोग एवं परम्पराओं की स्मृतियाँ सती कुमार की कविताओं के केंद्रीय विषय बन जाते हैं । गाय जैसे प्रतीकों के माध्यम से वह शोषण पर कविता लिखते हैं ।

वैश्विक हिन्दी कविता के उन्नयन में आज अनेक भारतीय कवि पूरी दुनिया में सक्रिय हैं । ये लोग परदेस में रहते हुए भी अपने देश से, अपनी स्मृतियों से, अपनी परम्परा- संस्कृति से दूर नहीं हो सके हैं । इनके अंतम में माटी के प्रति गहरी रागात्मक अनुभूतियाँ विद्यमान हैं, जो समय-समय पर रचना के माध्यम से प्रकट होती रहती हैं। अनुवाद के माध्यम से विदेशी मूल के हिन्दी सेवियों ने भी भारतीय साहित्य को वैश्विक रूप प्रदान करके हिन्दी के प्रति आदर भाव ही प्रकट किया है। रामचरित मानस हो या श्रीमद् भागवत गीता, इन सब का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में किया गया। हम कह सकते हैं कि इन कालजयी रचनाओं ने भी वैश्विक हिन्दी कविता की विदेश में नींव रखी। डॉ. ओदोलेन की सशक्त हिन्दी कविताएँ किसी भी हिन्दी कवि के समकक्ष रखी जा सकती हैं। जापान के साईजी माकीतो ने वर्षों तक शांति निकेतन में रहकर हिन्दी में अनेक महत्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं। हंगरी के प्रो. टुमरै बैघा ने महाकवि धनानंद पर केंद्रित ग्रंथ “सनेह को मारग” के माध्यम से हिन्दी कविता को विश्वजनीन बना दिया । लंदन के रूपर्ट स्नैल के ब्रजभाषा में लिखे गए छंदों को पढ़ने का सौभाग्य मुझे भी मिला है। उन्होंने नई कविता के दौर में भी ब्रजभाषा में छंदिक कविताएं रचकर हिन्दी कविता की छंद परम्परा को वैश्विक ऊँचाई देकर इतिहास बना दिया है। प्रो. रुपर्ट की हिन्दी कविता और उस पर छंदानुराग हिन्दी को तथाकथित आधुनिक कवियों के लिए आत्म-मंथन का कारण बनना चाहिए। रूस के प्रो. वर्रान्निकोव की अनेक कविताएँ, ग्रन्थ भी हिन्दी के साहित्यकारों के लिए प्रेरणा का काम कर सकती हैं।

नेपाल के साहित्यकार धूस्वां सायमि के बारे में सुनना-पढ़ना भी अच्छा लगता है। उन्होंने तीन हजार से ज्यादा हिन्दी कविताएँ लिखी हैं। केदारनाथ मान के भी तीन-चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. ओदोलेन ने ‘गोदान’ का चेक भाषा में अनुवाद तो किया ही था, “हमारा हरित नीम” नामक काव्य संग्रह भी प्रकाशित करवाया था जिसमें भारतीय अस्मिता की झलक देखी जा सकती है। भारतवंशियों ने त्रिनिडाड, सूरीनाम, अमरीका, ब्रिटेन, मारीशस आदि देशों में न केवल हिन्दी की अलख जगाया वरन साहित्यक सर्जना में उस देश के मूल निवासियों को भी प्रवृत्त किया।
आज अगर हम वैश्विक हिन्दी कविता पर विमर्श करें तो यह जानकर सुखद लगेगा कि विश्व के लगभग एक सौ तिरपन (153 विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्यापन हो रहा है, तो यह जानकर भी खुशी होगी कि भारतवंशियों का एक बड़ा कुनबा पूरी दुनिया में हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में लगा हुआ है। जिसे पढ़ने, सराहने और भारत में सम्मानित करने की जरूरत है।

गिरीश पंकज
संपादक, सद्भावना दर्पण,
संपर्कः जी-31, नया पंचशील नगर,
रायपुर-492001,



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