6/21/2007

नक्सली हिंसा या सलवा जुड़ुम बंद किया जाए ?

आखिर आप क्या सोचते हैं?
रायशुमारी हेतु विचार आमंत्रित

रायपुर। नक्सली हिंसा के खिलाफ चल रहे आदिवासियों के स्वः स्फूर्त सत्याग्रह “सलवा जुड़ुम” के खिलाफत कर इसे बंद करने की मांग लगातार की जा रही है। जबकि बस्तर में नक्सली हिंसा के चलते निरीह निर्दोष आदिवासी लोग बैमौत मारे जा रहे हैं।
ऐसे समय में अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायती समय-समय पर सलवा जुड़ुम को बंद करने की मांग पता नहीं किससे करते हैं ? इसमें देश के बड़े-बड़े तथाकथित समाजसेवी, संगठन, बुद्धिजीवी भी हैं जो इन दिनों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता से रायपुर आकर मानव अधिकार के नाम से हो हल्ला मचा कर एक तरह से नकस्लवाद को हवा दे रहे हैं । अगर वे सरकारों से मांग कर रहे हैं तो मुगालते में है क्योंकि ये आंदोलन 5 जून 2005 को फरसगढ़ थाना के अंबेली गांव से स्वः स्फूर्त शुरु हुआ है और इससे नक्सलादियों का असली चेहरा सामने आ गया है।
उधर जनता की मान्यता है कि आदिवासियों के हक के लिए शुरू हुई सहस्त्र क्रांति का चरित्र ही बदल गया है। असहाय आदिवासी और निर्दोष ही मारे जा रहे हैं । सारे राज्य में एक अदृश्य आतंक छाया हुआ है । सबसे बड़ी बात की आदिवासी ही इस हिंसा के शिकार हो रहे हैं । ऐसे समय में जन सरोकार के मुद्दों से जुड़ी संस्था लोकमान्य सद्भावना समिति एवं मिनीमाता फाउंडेशन ने इस मुद्दे पर जनता की राय आमंत्रित की है।


संस्था के अध्यक्ष तपेश जैन एवं रामशरण टंड़न ने सभी वर्गों से “नक्सली हिंसा या सलवा जुड़ुम बंद किया जाए ?” विषय पर उनका अभिमत अधिकतम 300 शब्दों तक 30 जून 207 तक आमंत्रित किया है। इसके साथ ही पासपोर्ट साईज फोटो एवं पूरा पता भी संलग्न किया जाना होगा ।
प्राप्त विचारों को पुस्तक के रुप में प्रकाशित कर आम लोगों को और देश भर में अवगत कराया जायेगा।
विचार इस पते पर भेज सकते हैं-
लोकमान्य सद्भावना समिति, जैन बाड़ा बैजनाथपारा रायपुर (छ.ग.) ।
ई-मेलः filmkar@gmail.com


रामशरण टंडन

6/18/2007

नेता उवाच-वचन जाए प्राण न जाए

भारतीय राजनीति

भारतीय लोकतंत्र के समक्ष जब कभी भी चुनावों से रूबरू होने का समय आता है, उस समय इस विशाल लोकतंत्र के खेवनहार समझे जाने वाले 'राजनेता' जनता के समक्ष एक-दूसरे नेताओं पर तरह-तरह के आरोप लगाते, उनपर कटाक्ष करते तथा जनता से तरह-तरह के वायदे करते दिखाई देते हैं।

जहां इन नेताओं द्वारा अपने प्रतिद्वन्दी नेताओं को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, वहीं इनके द्वारा अनेकों प्रकार के सुनहरे सपने भी मतदाताओं को दिखाए जाते हैं। सत्ता में आने पर राम राज्य स्थापित करने जैसी बातें की जाने लगती हैं। केवल आश्वासन के दम पर वोट झटकने में महारत रखने वाले यह नेता मतदाताओं को यह समझाने की पूरी कोशिश करते हैं कि यदि राजा हरिशचन्द्र के बाद कोई सत्यवादी है तो वह केवल स्वयं वही हैं। अत: वह उस समय जो भी कह रहे हैं, वही सत्य है तथा वे जो भी वायदा कर रहे हैं, उसे वे ंजरूर पूरा करेंगे। परन्तु सच्चाई तो कुछ और ही है। आरोप-प्रत्यारोप, वचन, वायदे, घोषणाएं आदि महंज अस्थायी एवं सामयिक बातें ही मात्र रह जाती हैं। अब तो हालत यह हो चली है कि यदि किसी नेता ने अपना कथन पूरा कर दिया अथवा उसपर कायम रहा तो मानो उसमें नेता जैसे सम्पूर्ण गुणों का ही अभाव है। यह नेता कहते कुछ और हैं तथा करते कुछ और। 'कथनी और करनी में अन्तर' होने जैसी कहावत तो मानो इन्हीं नेताओं के लिए ही निर्धारित होकर रह गई हो। सिद्धान्त नाम की कोई चीज इनमें नंजर नहीं आती। अनर्गल और अनाप-शनाप बयानबाजियां करने में तो यह नेता इस हद तक आगे बढ़ चुके हैं कि प्राय: इनके पास अपनी ही कही बातों का कोई जवाब नहीं होता और यह अपने ही रचे शब्द जाल में खुद ही फंसकर रह जाते हैं।

उदाहरण के तौर पर वर्तमान यू.पी.ए. सरकार के गठन के समय भारतीय जनता पार्टी द्वारा कांग्रेस व डी.एम.के साथ गठबंधन के मामले को लेकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया गया था। भाजपा का कहना था कि जब कांग्रेस पार्टी डी.एम.के. पर राजीव गांधी की हत्या की सांजिश में शामिल होने का आरोप लगा रही थी फिर उसे नैतिक आधार पर डी.एम.के. से चुनावपूर्व गठबंधन नहीं करना चाहिए था। भाजपा इसे कांग्रेस का अवसरवाद बता रही थी। कांग्रेस पार्टी प्रत्युत्तर में कानूनी जवाब देते हुए यह कहकर अपने व डी.एम.के. के नऐ रिश्ते को उचित ठहरा रही थी कि जब जैन कमीशन की रिपोर्ट में डी.एम.के. को क्लीन चिट दे दी गई है तो आयोग की रिपोर्ट का आदर करते हुए डी.एम.के. से गठबंधन करना कोई अनैतिक कदम नहीं है। इस आरोप प्रत्यारोप के मध्य एक प्रश्न भारतीय जनता पार्टी के लिए यह ंजरूर खड़ा होता है कि जैन कमीशन की रिपोर्ट आने से पूर्व इसी डी.एम.के. को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सम्मानित घटक के रूप में आंखिर क्यों रखा था जबकि उस समय डी.एम.के. संदेह के घेरे में थी तथा राजीव गांधी की हत्या की सांजिश के लिए कांग्रेस उस पर उंगली उठा रही थी। परन्तु भाजपा इस विषय पर अपने गिरेबान में झांकने के बजाए कांग्रेस पर उंगली उठाना ज्यादा उचित समझती है।

इसी प्रकार भाजपा प्रवक्ता सुषमा स्वराज जिन्होंने कि देवगौड़ा की गठबंधन सरकार को कभी भानुमति का कुनबा कहा था परन्तु अपना समय आने पर वही स्वयं उसी भनुमति के कुनबे अर्थात् गठबंधन सरकार की ंजरूरत को देश की आवश्यकता बताने लगी थीं। उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व अपने शब्द जाल के तर्कश से एक तीर छोड़ा था कि 'सोनिया गांधी को राजनीति की ए.बी.सी.डी. का भी पता नहीं है।' यदि सुषमा स्वराज की इस बात को ठीक मान लिया जाए तो क्या यह नहीं मानना पड़ेगा कि सुषमा स्वराज के अनुसार राजनीति से पूरी तरह अनभिज्ञ उसी महिला अर्थात् सोनिया गांधी ने बेल्लारी से अपने को राजनीति का पंडित समझने वाली सुषमा स्वराज को आंखिर किन परिस्थितियों में चुनाव हरा दिया था? क्या इससे सुषमा स्वराज की अपनी राजनैतिक हैसियत का पर्दांफाश नहीं होता कि वह उन्हीं के अनुसार उस महिला से चुनाव हार चुकी हैं जिसे कि राजनीति की ए.बी.सी.डी. भी नहीं आती? गलत बयानबांजी का एक और उदाहरण भारतीय जनता पार्टी में ही उस दौरान देखने को मिला था जबकि भाजपा ने उतावलेपन में आकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली डी.पी. यादव को पार्टी में शामिल कर लिया था। वैसे तो 1998 में भाजपा सम्भल संसदीय क्षेत्र से डी.पी. यादव को अपना समर्थन पहले भी दे चुकी है परन्तु गत् संसदीय चुनावों के दौरान चूंकि मीडिया, आम जनता, चुनाव आयोग, पत्रकारों व लेखकों तथा राष्ट्र के दूसरे तमाम हितैषी संगठनों ने देश में होने वाले चुनावों तथा राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों पर अपनी पैनी नंजर रखी हुई थी इसलिए भाजपा के एक प्रवक्ता ने डी.पी. यादव को पार्टी में शामिल करते हुए ही इस आश्चर्यजनक कथन का प्रयोग भाजपा के पक्ष में किया कि- 'भारतीय जनता पार्टी एक समुद्र है तथा इसमें जो भी आकर मिलता है वह भी पवित्र हो जाता है।' अपने इस कथन के ठीक चार दिन बाद डी.पी. यादव को पार्टी से तब अलग कर दिया गया जबकि मीडिया द्वारा भारतीय जनता पार्टी पर राजनीति का अपराधीकरण करने का खुला आरोप लगाया गया। इस परिस्थिति में भाजपा के उसी प्रवक्ता को क्या पुन: इस प्रकरण को लेकर अपने कथन पर रौशनी नहीं डालनी चाहिए थी कि जब डी.पी. यादव भाजपा रूपी कथित समुद्र में शामिल होकर पवित्र हो चुके थे फिर आंखिर उन्हें क्यों उस कथित समुद्र से बाहर निकलना पड़ा? क्या भाजपा के प्रवक्ता के कथन की वास्तविकता यहां समाप्त नहीं हो जाती। क्या इससे यह बात जाहिर नहीं होती कि भाजपा रूपी कथित समुद्र में किसी अपवित्र चींज को पवित्र करने की क्षमता नहीं है? ऐसा नहीं है कि अपने पक्ष में की जाने वाली ऐसी अनाप-शनाप बातें करना केवल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की ही विशेषता हो। वास्तविकता तो यह है कि पूरे देश की अधिकांश पार्टियों के अधिकतर नेता इसी प्रकार की अनर्गल और बेसिर पैर की बातों पर विश्वास करने लगे हैं। वे जब जनता के समक्ष अपना मुंह खोलते हैं तो उनकी आंखें बंद हो जाती हैं। पूरे देश ने सुना कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए कहा कि इनमें एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ। परन्तु उन्होंने यह नहीं स्पष्ट किया कि कौन सांपनाथ है और कौन नागनाथ। इसके कुछ ही दिन बाद इन्हीं माया बहन ने एक और बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि मैं अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी बेटी हूं। अब मायावती के इस बयान के बाद स्वाभाविक रूप से एक प्रश्न जन्म लेता है कि यदि वह वाजपेयी जी की दूसरी बेटी हैं तो या तो वह सांपनाथ की बेटी हैं अथवा नागनाथ की। अब यहां यह बताने की जरूरत तो नहीं रह जाती है कि सांपनाथ या नागनाथ की बेटी स्वयं क्या हो सकती है। तांजातरीन राजनैतिक घटनाक्रम में यही माया बहन कांग्रेस से अपने नए रिश्ते स्थापित करने में जुटी हैं। शायद यही वर्तमान राजनीति का तकाजा हो। अब फिलहाल न तो यह कांग्रेस उन्हें नाग नंजर आ रही है, न ही सांप। यह सब नेताओं द्वारा प्रयोग किए गए ऐसे ही शब्द जाल हैं जिनका प्रयोग तो वे यह सोचकर कर देते हैं कि वह जो कुछ भी बोल रहे हैं वह लोक लुभावन है परन्तु वह यह भूल जाते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि वह स्वयं अपने ही बुने इन्हीं शब्द जालों में खुद ही फंस जाएं। कल्याण सिंह द्वारा वाजपेयी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना भी सभी ने देखा है। उसके बाद कल्याण सिंह ने ही कितनी बेहयाई के साथ मीडिया के इस प्रश् का उत्तर दिया कि 'कल तक आप वाजपेयी पर उंगली उठा रहे थे आंखिर आज अचानक यह परिवर्तन कैसा?' इस पर कल्याण सिंह ने कहा था कि 'कल तक मैं वाजपेयी पर एक उंगली उठाता था तो आज पांचों उंगलियों से उन्हें लड्डू भी खिला दिया है।' इस वाक्य को नैतिकता, सिद्धांत या आदर्श की कसौटी पर यदि परखा जाए तो इसमें फरेब, छलावा, स्वार्थ और मक्कारी के सिवा कोई रचनात्मक तर्क नंजर नहीं आता। इसी प्रकार तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष वैंकैया नायडू साहब ने गत संसदीय चुनावों से पूर्व ंफरमाया था कि 'गुजरात जैसा राजनैतिक माहौल पूरे देश में बनाया जाएगा।'

उपरोक्त तथा इस जैसी तमाम बाते ऐसी हैं जिनसे सांफ ंजाहिर होता है कि किसी पार्टी का कोई भी नेता कब क्या बोल रहा है और कब अपनी ही किस बात का खंडन करने लगेगा, उसके सिद्धांत आज क्या हैं और कल के आदर्श क्या होंगे किसी को इस बारे में कुछ पता नहीं रहता। यही वजह है कि नेताओं व राजनैतिक दलों के साथ-साथ चुनाव प्रक्रिया से भी लोगों का मोह भंग होता जा रहा है। जनता का विश्वास दिन-प्रतिदिन इस बात पर पक्का होता जा रहा है कि नेताओं की कथनी और करनी में कांफी अन्तर है तथा इनकी बातों व इनके द्वारा उठाए गए किसी भी राजनैतिक कदम का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता।


0निर्मल रानी
1630/11, महावीर नगर
अम्बाला शहर, हरियाणा

अमेरिकन रेडियो से मानस का सीधा प्रसारण




भारत के चौंथे साहित्यकार बने जयप्रकाश



रायपुर । 18 जून । छत्तीसगढ़ के युवा साहित्यकार और हिंदी इंटरनेट में सक्रिय शिक्षाविद् जयप्रकाश मानस को आज अमेरिका की सुप्रसिद्ध आकाशवाणी चैनल ‘रेडियो सलाम नमस्ते’ ने प्रसारित किया । डेलास शहर से संचालित और 24 घंटे निरंतर प्रसारण के लिए विख्यात इस अंतरराष्ट्रीय चैनल से सीधा प्रसारित होने वाले श्री मानस चौंथें साहित्यकार हैं । अब तक केवल 3 साहित्यकार एवं हिंदी सेवियों का सीधा प्रसारण चर्चित और अमेरिका में लोकप्रिय कार्यक्रम ‘काव्यांजलि ’में हुआ है । श्री मानस चौंथे साहित्यकार हैं जिनसे रेडियो सलाम नमस्ते ने हिदीं के वर्तमान, वैश्वीकरण के प्रभाव, हिंदी शिक्षा, इंटरनेट और हिंदी का बढ़ता प्रभाव, विदेशों में विशेष रूप से चर्चित वेब पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम व ऑनलाइन एवं इंटरनेट प्रौद्योगिकी पर विस्तृत चर्चा की और इसका सीधा प्रसारण किया।

ज्ञातव्य हो कि यह ऑनलाइन प्रसारण आज भारतीय समय अनुसार प्रातः 7.30 बजे से 8.00 बजे तक किया गया । रेडियो सलाम नमस्ते अंग्रेजी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में प्रसारित होता है । यह रेडियो 104.9 एफ.एम पर प्रसारित होता है जिसे इंटरनेट पर भी http://www.radiasalaamnamste.com/ पर भी नियमित रूप से ऑनलाइन प्रसारित किया जाता है । रेडियो स्टूडियो में श्री मानस से साक्षात्कार हेतु अमेरिका के जाने-माने हिंदी विशेषज्ञ श्री आदित्य प्रताप सिंह व तकनीक विशेषज्ञ डॉ. नंदलाल सिंह विशेष रूप से उपस्थित थे । इस महत्वपूर्ण प्रसारण को संबंधित वेबसाइट पर यथासमय दोबारा सुना जा सकता है ।
श्री राम पटवा ने अपनी विज्ञप्ति में बताया है कि हिंदी साहित्य एवं भाषा तता छत्तीसगढ़ की साहित्यिक और सांस्कृतिक वैभव को अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठित करने के उद्यम में लगे श्री मानस की इस उपलब्धि पर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, मीडिया कांग्रेस, सृजन-सम्मान, वैभव प्रकाशन, लोकमान्य सद्भावना समिति मिनी माता फाउंडेशन, गुरुघासी दास साहित्य अकादमी आदि के सभी सदस्यों ने उन्हें बधाई दी है ।


0राम पटवा
प्रकाशन अधिकारी
संस्कृति विभाग छत्तीसगढ़ शासन
रायपुर, छत्तीसगढ़

मीडिया विमर्श नेटस्केप द्वारा उत्तम वेबसाइट घोषित

छत्तीसगढ़ की वेबपत्रकारिता बढ़ा सम्मान

रायपुर । 18 जून । अंतरजाल एवं प्रिंट माध्यम दोनों से प्रकाशित ऑनलाइन पत्रिका मीडिया विमर्श डॉट कॉम को अमेरिकन वेबब्राउजर कंपनी नेटस्केप ने उत्तम वेबसाइट घोषित करते हुए प्रशस्ति पत्र दिया गया है । यह प्रशस्ति पत्र सामग्री चयन व प्रकाशन की विषवस्‍तु व वेब पब्लिशिंग तकनीक के आधार पर डी मोज निर्देशिका द्वारा उत्‍तम प्रकाशन के लिए दिया गया है ।
नेटस्केप द्वारा मीडिया विमर्श को मीडिया के सभी प्रकल्पों पर पड़ताल करने वाली एक मात्र त्रैमासिक पत्रिका का माना गया है ।

नेटस्केप द्वारा खुली वेब डायरेक्टरी प्रोजेक्ट के अंतर्गत डीमोज (dmoz.com) द्वारा विश्व के सभी भाषाओं को पंजीबद्ध और उनका रेंक प्रदान किया जाता है । इसके तहत मीडिया विमर्श डॉट कॉम के दो अंकों से ही उसे यह उपलब्धि हासिल हुई है । नेटस्केप खुली निर्दिशिका में सामग्री एवं साइट की तकनीकी उत्कृष्टता, एवं विश्व मानक नियमों के तहत परीक्षण कर विश्व की समाचार प्रधान हिंदी वेबसाइट में अब तक केवल चार वेबसाइटों को यह गौरव मिल चुका है । पाँचवी उत्तम वेबसाइट होने की लिखित सूचना परियोजना संपादक द्वारा विगत दिनों मीडिया विमर्श के संपादक को प्राप्त हुई है । इससे पहले विश्व हिंदी/कला/साहित्य वर्ग में छत्तीसगढ़ की प्रथम वेबसाइट सृजनगाथा डॉट कॉम को प्रमुख स्थान दिया गया है । ज्ञातव्य हो कि ये दोनों साइटें छत्तीसगढ़ से संचालित की जा रही हैं जिसका तकनीकी पक्ष किशोर छात्र प्रशांत रथ द्वारा नियंत्रित एवं संचालित किया जाता है । मीडिया विमर्श को विश्व की महत्वपूर्ण वेब ब्राउजर कंपनी द्वारा इस सम्मान पर मीडिया विमर्श के संपादक श्रीकांत सिह, प्रकाशक भूमिका द्विवेदी, संजय द्विवेदी सहित संपादकीय परिवार को सृजन-सम्मान, राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, वैभव प्रकाशन, लोकमान्य सद्भावना समिति मिनीमाता फाउंडेशन के सदस्यों आदि ने बधाई दी है ।

राम पटवा

6/17/2007

अंतरराष्ट्रीय बाजा़र की हिन्दी

विश्व हिंदी सम्मेलन पर विशेष


पिछले चार दशकों से विश्व एक बाजा़र की तरह दिखाई दे रहा है । विश्व का इंसान अब ग्राहक की परिशक्ल में तब्दील हो चुका है । वैश्वीकरण अर्थात् ग्लोबलाइजेशन की लहर ने पूंजीवाद के चेहरे पर नया नकाब गढ़ा है । वैश्वीकरण की इस आँधी से संस्कृति, भाषा, राजनीति और विविध क्रिया-क्षेत्र प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभावित हुए हैं । विश्व की नज़र में भारत एक बहुत बड़ा बाजा़र है और भारतीय सबसे भोले-भाले ग्राहक ।

भारतीय ग्राहक की सबसे बड़ी कमजोरी उस की मातृभाषा है । उस के सहारे उन के दिलों पर राज किया जा सकता है । ऐसा हो भी रहा है । वैश्वीकरण के इस दौर में प्रचलित नियम-कायदे और परंपराएँ तेज़ी से बदल रही हैं । हिन्दी इस से कैसे अछूती रह सकती है ? बाजा़र ने विज्ञापन और विविध प्रयोजनों के माध्यम से हिन्दी को ग्लोबल-उपकरणों से आभूषित किया है । साहित्य, पाठ्यक्रम, ग्राम-बोलचाल की सौम्य एवं अनुशासित भाषा से हिन्दी एक अलग ही तेवर में प्रयुक्त होने लगी है । प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस में अहम भूमिका निभाई है ।

भारतीय बाजा़र में आज हिन्दी विज्ञापनों के माध्यम से भारतीय ग्राहकों की क्रयशक्ति में भीतर-ही-भीतर वृद्धि कर रही है । वह किसी वस्तु के लिए अनावश्यक माँग पैदा करने में प्रेरक का कार्य कर रही है । आज विज्ञापन का मूल धर्म कुछ और ही है । व्यक्ति के दोहरेपन को उभार कर उस के तर्कहीन पक्ष पर किसी बात, वस्तु या कर्म की छाप अंकित करना ही विज्ञापन का धर्म है । रेर्मेड विलियंस कहते हैं- “विज्ञापन केवल वस्तुओं को बेचने को ही कहा नहीं है, यह एक दिग्भ्रिमित समाज की संस्कृति का सच्चा अंग है ।”

वैश्वीकरण और नई बाजा़र-व्वस्था का आधार नई टेक्नालॉजी है । इस नई टेक्नालॉजी ने हिन्दी को भी नई टेक्नालॉजी दी है । वह इन क्षेत्रों में तेजी से अँग्रेज़ी का विकल्प बनते जा रही है । कंप्यूटर, टेलीविज़न, इंटरनेट, चैनल, इत्यादि क्षेत्रों में हिन्दी का प्रयोग तेज़ी से बढ़ रहा है । यह इन क्षेत्रों की विवशता है कि बिना हिंदी की प्रभुसत्ता को आत्मसात् किए वे अपना विस्तृत फैलाव नहीं कर सकते । संचार-क्रांति के इस युग में संचार माध्यम वैश्वीकरण और बाजा़रवाद के प्रमुख साधन हैं। हिन्दी चूँकि भारत की नस-नस में बसी है इसलिए इस क्रांति के तार उन नसों तक होकर के जाना एक मज़बूरी है ।

बहरहाल हम हिन्दी को प्रयोजनमूलकता के उस बेहतर पक्ष पर विमर्श करना चाहते हैं जिस से हिन्दी के प्रयोग-क्षेत्र में विस्तार हुआ है । अनेक उदाहरणों से पुष्ट किया जा सकता है कि बिना भाषा के कोई बाजा़र खड़ा नहीं हो सकता । व्यापार के लिए हिन्दी की अनिवार्यता का एहसास बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चार-पाँच वर्ष पूर्व ही हुआ है । शहरों में जब वस्तु-विशेष के ग्राहक कम होने लगे तब ऐसी कंपनियों ने विस्तार चाहा, भारतीय गाँव इस विस्तार के कारक बने । इसी विस्तार ने हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय बाजा़र की भाषा बनाने विवश किया है ।

डॉ. सुधीर शर्मा
पी.एच.डी (भाषा विज्ञान)
संपादक, साहित्य-वैभव
रायपुर, छत्तीसगढ़
ई.डब्ल्यू.एस-280, सेक्टर-4,
दीनदयाल नगर, डंगनिया,
रायपुर,छत्तीसगढ

वैश्विक हिन्दी कविता की दिशा

विश्व हिंदी सम्मेलन पर विशेष


जिस तरह हिन्दी भाषा ने अंतरराष्ट्रीय क्षितिज का स्पर्श किया उसी तरह हिन्दी कविता ने भी अपनी वैश्विक चेतना के साथ विश्व रंगमंच पर अपनी अस्मिता को एक विशिष्ट पहचान दी है । न केवल भारवंशियों वरन् विदेशी मूल के हिन्दी प्रेमियों हिन्दी और हिन्दी कविता के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शायी है । फिर वह चाहे चेकोस्लोवाकिया के ओदोलेन स्मेकल हों या फिर ब्रिटेन के रूपर्ट स्लैन । बुल्गारिया के डॉ. फादर कामिल बुल्के हों या फिर हंगरी का मारिया न्येंजेशी । इनके जैसे अस्ख्य विदेशी महानुभाव हैं “जिनको हिन्दी भाषा ने अपनी ओर आकर्षित किया और आज इनके कारण हिन्दी ने वैशअविक हिन्दी स्वरुप ग्रहण कर लिया है । कविताओं में हम वैश्विक चैतना के साथ भारतीय संस्कृति का ‘नास्टेल्जिया’ देख सकते हैं । भारत के गाँव, लोग एवं परम्पराओं की स्मृतियाँ सती कुमार की कविताओं के केंद्रीय विषय बन जाते हैं । गाय जैसे प्रतीकों के माध्यम से वह शोषण पर कविता लिखते हैं ।

वैश्विक हिन्दी कविता के उन्नयन में आज अनेक भारतीय कवि पूरी दुनिया में सक्रिय हैं । ये लोग परदेस में रहते हुए भी अपने देश से, अपनी स्मृतियों से, अपनी परम्परा- संस्कृति से दूर नहीं हो सके हैं । इनके अंतम में माटी के प्रति गहरी रागात्मक अनुभूतियाँ विद्यमान हैं, जो समय-समय पर रचना के माध्यम से प्रकट होती रहती हैं। अनुवाद के माध्यम से विदेशी मूल के हिन्दी सेवियों ने भी भारतीय साहित्य को वैश्विक रूप प्रदान करके हिन्दी के प्रति आदर भाव ही प्रकट किया है। रामचरित मानस हो या श्रीमद् भागवत गीता, इन सब का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में किया गया। हम कह सकते हैं कि इन कालजयी रचनाओं ने भी वैश्विक हिन्दी कविता की विदेश में नींव रखी। डॉ. ओदोलेन की सशक्त हिन्दी कविताएँ किसी भी हिन्दी कवि के समकक्ष रखी जा सकती हैं। जापान के साईजी माकीतो ने वर्षों तक शांति निकेतन में रहकर हिन्दी में अनेक महत्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं। हंगरी के प्रो. टुमरै बैघा ने महाकवि धनानंद पर केंद्रित ग्रंथ “सनेह को मारग” के माध्यम से हिन्दी कविता को विश्वजनीन बना दिया । लंदन के रूपर्ट स्नैल के ब्रजभाषा में लिखे गए छंदों को पढ़ने का सौभाग्य मुझे भी मिला है। उन्होंने नई कविता के दौर में भी ब्रजभाषा में छंदिक कविताएं रचकर हिन्दी कविता की छंद परम्परा को वैश्विक ऊँचाई देकर इतिहास बना दिया है। प्रो. रुपर्ट की हिन्दी कविता और उस पर छंदानुराग हिन्दी को तथाकथित आधुनिक कवियों के लिए आत्म-मंथन का कारण बनना चाहिए। रूस के प्रो. वर्रान्निकोव की अनेक कविताएँ, ग्रन्थ भी हिन्दी के साहित्यकारों के लिए प्रेरणा का काम कर सकती हैं।

नेपाल के साहित्यकार धूस्वां सायमि के बारे में सुनना-पढ़ना भी अच्छा लगता है। उन्होंने तीन हजार से ज्यादा हिन्दी कविताएँ लिखी हैं। केदारनाथ मान के भी तीन-चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. ओदोलेन ने ‘गोदान’ का चेक भाषा में अनुवाद तो किया ही था, “हमारा हरित नीम” नामक काव्य संग्रह भी प्रकाशित करवाया था जिसमें भारतीय अस्मिता की झलक देखी जा सकती है। भारतवंशियों ने त्रिनिडाड, सूरीनाम, अमरीका, ब्रिटेन, मारीशस आदि देशों में न केवल हिन्दी की अलख जगाया वरन साहित्यक सर्जना में उस देश के मूल निवासियों को भी प्रवृत्त किया।
आज अगर हम वैश्विक हिन्दी कविता पर विमर्श करें तो यह जानकर सुखद लगेगा कि विश्व के लगभग एक सौ तिरपन (153 विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्यापन हो रहा है, तो यह जानकर भी खुशी होगी कि भारतवंशियों का एक बड़ा कुनबा पूरी दुनिया में हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में लगा हुआ है। जिसे पढ़ने, सराहने और भारत में सम्मानित करने की जरूरत है।

गिरीश पंकज
संपादक, सद्भावना दर्पण,
संपर्कः जी-31, नया पंचशील नगर,
रायपुर-492001,



कितना उचित है उपजाऊ भूमि पर उद्योग लगाना



भारतवर्ष को 2020 तक विकसित राष्ट्र बनाए जाने की दिशा में राजकीय स्तर पर प्रयास जारी हैं। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए देश में तमाम नए उद्योग स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। देश में लागू हुई आर्थिक उदारीकरण की नीति के बाद विश्व के अनेक देशों के प्रमुख उद्योगों से जुड़े तमाम लोग भारत का दौरा कर चुके हैं तथा दुनिया के इस विशाल बांजार में अपने-अपने उद्योग स्थापित करने तथा उनके उज्जवल भविष्य की संभावनाएं तलाश चुके हैं। जाहिर है इन उद्योगपति महमानों को बिजली, पानी व सड़क जैसी आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराने से पूर्व इन्हें उद्योग लगाने हेतु ज़मीन उपलब्ध कराने की सबसे बड़ी चुनौती सरकार के समक्ष नज़र आ रही है। हमारे देश में कुछ राज्य ऐसे हैं जोकि निवेशकों के लिए अपने प्रवेश द्वार खोले हुए बैठे हैं। जबकि कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहाँ विशेष आर्थिक जोन (सेंज) हेतु ज़मीनों का अधिग्रहण तो ज़रूर किया गया है परन्तु इस विषय पर गहरी राजनीति होती हुई भी देखी जा रही है। पश्चिम बंगाल का नंदीग्राम तो पूरे देश के सेंज विरोधियों के लिए गोया एक प्रतीक सा बन गया है।

गत् दिनों हरियाणा के प्रसिद्ध औद्योगिक नगर गुड़गांव में विशेष आर्थिक ज़ोन हेतु अधिगृहित की गई ज़मीन के किसान मालिकों द्वारा एक महापंचायत बुलाकर सांफतौर पर सरकार को यह चेतावनी दी गई कि यदि उनकी बेशंकीमती ज़मीनों के अधिग्रहण का प्रयास किया गया तो हरियाणा में भी दूसरे नंदीग्राम की पुनरावृत्ति हो सकती है। प्रश्न यह है कि क्या कृषि योग्य भूमि को समाप्त करने की शर्त पर उद्योग स्थापित किए जाएंगे? और इन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सरकार के पास उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण के अतिरिक्त उद्योग लगाने हेतु कोई दूसरा विकल्प ही नहीं रह गया है? आखिर विशेष आर्थिक ज़ोन है क्या तथा भारत में इसकी स्थापना हेतु सरकारों द्वारा क्या किया जा रहा है तथा वास्तव में किया क्या जाना चाहिए?
आर्थिक विशेषज्ञ प्राय: इस बात की चर्चा करते हैं कि चीन व भारत को मिली आंजादी में कोई विशेष समय अन्तराल नहीं है। इसके बावजूद आखिर चीन इतना विकसित कैसे हो गया। जबकि भारत अभी अपने विकास का खाका मात्र ही तैयार कर रहा है। भारत के विकास की योजना बनाने वाले रणनीतिकारों ने जब चीन का दौरा किया तथा उनकी औद्योगिक, वाणिज्यिक तथा आर्थिक नीतियों को न सिर्फ़ कागजों व फाईलों में बल्कि धरातलीय स्तर पर भी उसे गौर से देखा तो उनके कान खड़े हो गए। दरअसल चीन में बने तमाम विशेष औद्योगिक क्षेत्र की तर्ज़ पर ही भारत में विशेष आर्थिक ज़ोन अथवा सेंज स्थापित किए जा रहे हैं। परन्तु बड़े अंफसोस के साथ यह कहना पड़ता है कि चीन की नंकल करने में अक्ल का इस्तेमाल भारतीय नीति निर्धारकों द्वारा सम्भवत: नहीं किया गया।

चीन में स्थापित इस प्रकार के अधिकांश विशेष औद्योगिक क्षेत्र समुद्र के किनारे स्थापित किए गए हैं। या फिर इसके लिए बंजर भूमि का इस्तेमाल किया गया है। समुद्र के किनारे स्थापित होने वाले विशेष औद्योगिक क्षेत्रों हेतु अलग बन्दरगाहों की व्यवस्था है। यह औद्योगिक क्षेत्र समुद्र के किनारे होने के कारण शहरों को प्रदूषण से मुक्त रखते हैं। चूंकि इन क्षेत्रों में अधिकांश कच्चे माल की आपूर्ति भी जलमार्ग के द्वारा हो जाती है तथा इनके द्वारा निर्मित माल का निर्यात भी जलमार्ग से ही हो जाता है। इसलिए इन औद्योगिक क्षेत्रों में प्रयोग में आने वाले ट्रांसपोर्ट का बोझ भी शहरों पर नहीं पड़ता। अत: न सिर्फ़ यातायात व्यवस्था प्रभावित होने से बचती है बल्कि शहरों में पर्यावरण पर भी इस औद्योगिकरण का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता।

हमारे देश में विशेष औद्योगिक क्षेत्र स्थापित करने का फैसला तो ज़रूर किया गया। परन्तु कृषि रूपी पारंपरिक उद्योग को उजाड़कर अन्य उद्योग स्थापित किए जाने का फैसला हरगिज़ सही नहीं कहा जा सकता। हमारे देश में भी समुद्री किनारों पर लाखों एकड़ ज़मीन उद्योग स्थापित करने हेतु अधिगृहीत की जा सकती है। यदि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से नए औद्योगिक ज़ोन समुद्र के किनारे स्थापित नहीं भी होना चाहते तो भारत जैसे विशाल देश में बंजर व बेकार भूमि की भी कोई कमी नहीं है। इन पर बड़े से बड़े औद्योगिक क्षेत्र बनाए जा सकते हैं। बल्कि ऐसा करने से तो नए औद्योगिक शहर बसने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। फिर आखिर कृषि योग्य भूमि पर ही क्योंकर नज़र रखी जाती है? कहीं यह सब किसानों के विरुद्ध रची जा रही एक बड़ी साज़िश का हिस्सा तो नहीं? या फिर देश के विकास के नाम पर सत्ता में बैठे मुट्ठी भर दलालों के द्वारा इसी भूमि अधिग्रहण के नाम पर धनवान बनने की यह कोशिश तो नहीं?

यदि वास्तव में भारत सरकार व देश के औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उसका साथ देने वाली राज्य सरकारें देश के औद्योगिक विकास के लिए गंभीर हैं तो उन्हें किसानों से उनकी ज़मीनों का अधिग्रहण करने के बजाए इसी कृषि उद्योग को ही आधुनिक एवं उन्नत स्वरूप दिए जाने की कोशिश करनी चाहिए। किसानों से उनकी ज़मीनें छीनकर उसपर उद्योग लगाने के बजाए उन्हें नई तकनीक पर आधारित उन्नत खेती करने के उपाय सुझाने चाहिए तथा इसके लिए उनकी सहायता करनी चाहिए। हमें यह हरगिज़ नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की 60 से लेकर 70 प्रतिशत तक की आबादी गांवों में रहती है तथा उसके जीविकोपार्जन का साधन भी मात्र खेती ही है। लिहाज़ा यदि चन्द पैसे देकर किसानों से उसकी ज़मीन छीन ली गई तो नि:सन्देह यह उस किसान परिवार के बच्चों के भविष्य के लिए बेहतर नहीं होगा।

इसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जिसे हम नज़र अंदांज नहीं कर सकते। निश्चित रूप से देश का औद्योगिक विकास हमारी इस समय की सबसे बड़ी ज़रूर त है (कृषि उद्योग को समाप्त करने की शर्त पर नहीं)। हमारे देश में पश्चिम बंगाल में सिंगूर, जहाँ कि टाटा द्वारा देश की सबसे सस्ती कार निर्मित किए जाने का प्रस्ताव था तथा उत्तर प्रदेश में नोएडा, जहाँ कि अनिल अंबानी द्वारा विशेष आर्थिक ज़ोन प्रस्तावित था, इन योजनाओं पर जो प्रश्न चिन्ह लगा है वह भी कम चिन्ता का विषय नहीं है। ज़ाहिर है इसमें साफतौर पर राजनैतिक लोगों, रणनीतिकारों तथा इस प्रकार के मुद्दों को राजनैतिक रूप देने वालों की स्पष्ट साज़िश नज़र आ रही है। नि:सन्देह एक उद्योगपति अथवा निवेशक के समक्ष उसका सबसे पहला लक्ष्य मुनाफा अर्जित करना ही होता है। निश्चित रूप से उसके इसी लक्ष्य में ही न सिर्फ़ उसका निजी बल्कि उस उद्योग से जुड़े कर्मचारियों व देश तक का कल्याण निहित होता है। परन्तु यदि सिंगूर तथा नोएडा जैसे नकारात्मक हालात का सामना भारतीय उद्योगपतियों को करना पड़ा तो विदेशी निवेशकों को इन घटनाओं से क्या संदेश मिलेगा, इस बात का भी अन्दांजा अपने आप ही लगाया जा सकता है।

लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार अथवा देश को औद्योगिक विकास की राह पर ले जाने वाले विशेष रणनीतिकार। सभी को देश के किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए ऐसा कोई भी फैसला लेना चाहिए। किसी भी भूमि के अधिग्रहण से पूर्व तुंगलकी फरमान जारी करने के बजाए राजनैतिक तथा ज़मीनी स्तर पर आपसी सहमति बनने के बाद ही किसी उद्योग को आमंत्रित किया जाना चाहिए। भारत में लागू भूमि अधिनियम की पुर्नसमीक्षा का जानी चाहिए तथा इसमें किसानों के हितों को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए। और इन सबसे बड़ी बात यह है कि यदि वास्तव में सरकार देश में बड़े उद्योग आमंत्रित व स्थपित करना चाहती है तो उसे उपजाऊ भूमि की ओर देखना बन्द कर देना चहिए तथा केवल समुद्री तटों की अथवा दूरदराज की बंजर ज़मीनों का इस्तेमाल करना चहिए। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि जैसी अन्नपूर्ण व्यवस्था को उजाड़कर उद्योग के नाम पर आग एवं धुआँ उगलती हुई चिमनियाँ स्थापित कर देना हरगिज़ मुनासिब नहीं है।

0निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा

कलाम: आम भारतीयों की पहली पसंद


भारत को विकसित राष्ट्र बनाए जाने जैसे महान एवं अभूतपूर्व दर्शन से रूबरू करवाने वाले भारत के अब तक के सबसे अधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति भारत रत्न डा. ए पी जे अब्दुल कलाम का कार्यालय 24 जुलाई 2007 को समाप्त हो रहा है। भारत में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर सरगर्मियाँ अपने पूरे चरम पर हैं। इस संबंध में कई सर्वेक्षण एजेन्सियों द्वारा अनेक स्तरों पर जो सर्वेक्षण कराए गए हैं तथा उनके जो परिणाम सामने आए हैं, उन्हें देखकर सांफतौर पर यही लगता है कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए डा. कलाम अब भी देश के आम नागरिकों, विशेषकर युवाओं व छात्रों की पहली पसंद हैं। परन्तु इस प्रकार के सर्वेक्षण मात्र सर्वेक्षण ही हुआ करते हैं। इनके आधार पर राष्ट्रपति का चुनाव नहीं हो सकता।

भारत में सत्तारूढ़ रही पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन डी ए) की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कलाम के नाम को राष्ट्रपति के रूप में प्रस्तावित किया गया था जिसका नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी कर रही थी। 2002 में गुजरात में हुए देश में अब तक के सबसे बड़े मुस्लिम विरोधी दंगों से आहत व भयभीत भारतीय मुसलमानों के आँसू पोंछने के लिए तथा दुनिया को अपना धर्म निरपेक्ष स्वरूप दिखाने के लिए भारतीय जनता पार्टी द्वारा कलाम जैसे सन्तरूपी महान ब्रह्मचारी एवं वैज्ञानिक व्यक्ति को राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया गया था। यह कैसी विडम्बना है कि कल राजनैतिक स्वार्थ की जिस पराकाष्ठा ने कलाम के नाम को राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित किया था आज राजनैतिक स्वार्थ की वही पराकाष्ठा कलाम को राष्ट्रपति पद का पुन: उम्मीदवार बनाए जाने में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रही है।

24 जुलाई को अपना कार्यकाल पूरा करने जा रहे राष्ट्रपति कलाम ने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान न सिंर्फ अपने आपको देश का अब तक का सबसे लोकप्रिय, हर दिल अजीज, स्पष्टवादी, निष्पक्ष, तथा दूरदर्शी राष्ट्रपति साबित किया बल्कि वे अपने महान दर्शन के चलते देश का भविष्य समझे जाने वाले युवाओं एवं छात्रों के लिए एक महान आदर्श व्यक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित कर पाने में भी पूरी तरह सफल रहे। अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उनकी चिंताएं मुख्य रूप से इन्हीं प्रमुख मुद्दों पर केंद्रित रहीं कि भारत को 2020 तक किस प्रकार विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया जाए। कलाम ने अपने कार्यकाल के दौरान राजनीति में व्याप्त अनैतिकता तथा इसके निरंतर गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त की। वे हमेशा सुदृढ़ एवं आत्मनिर्भर राष्ट्र के पक्षधर रहे। वे सदैव आतंकवाद व गरीबी जैसे दानव के विरुद्ध खुली जंग का आह्वान करते रहे। उन्होंने हमेशा देश की आर्थिक, कृषि तथा सामरिक आत्मनिर्भरता की जबरदस्त वकालत की तथा इसके लिए हमेशा प्रयासरत भी रहे। बच्चों को देश का भविष्य मानने वाले भारतरत्न कलाम ने भारत में बच्चों पर बढ़ रहे अत्याचारों पर हमेशा अपनी गहन चिंता व्यक्त की। तथा इन सबसे बढ़कर देश का नासूर साबित होने वाली रिश्वतख़ोरी, भ्रष्टाचार, राजनैतिक अनैतिकता तथा साम्प्रदायिकता व जातिवाद जैसी बातों के वे हमेशा प्रबल विरोधी रहे।

कलाम के इसी उपरोक्त दर्शन ने आज उन्हें पुन: राष्ट्रपति पद हेतु देश का सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार बना दिया है। कोई सर्वेक्षण एजेन्सी उन्हें 60 प्रतिशत लोकप्रियता के आधार पर प्रथम स्थान दे रही है तो कोई अन्य सर्वेक्षण एजेन्सी 54 प्रतिशत लोकप्रियता के आधार पर उन्हें प्रथम श्रेणी में रखे हुए है। इतना ही नहीं बल्कि एक सर्वेक्षण एजेन्सी का तो यह भी दावा है कि 60 प्रतिशत प्रभावशाली सांसद भी व्यक्तिगत रूप से कलाम को ही राष्ट्रपति पद के लिए अपनी पहली पसंद बता रहे हैं। प्रश्न यह है कि फिर आंखिर कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी जैसे देश के बड़े राजनैतिक दल कलाम को अपना उम्मीदवार बनाने से क्यों हिचकिचा रहे हैं? यदि सर्वेक्षण के आधार पर कलाम ही देश की आम जनता की पहली पसंद हैं तो वे समस्त राजनैतिक दलों की पहली पसंद क्यों नहीं? यह कितना महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जब डा. कलाम ने अपने वर्तमान कार्यकाल के दौरान न सिर्फ देशवासियों के मध्य गहन लोकप्रियता अर्जित की, राष्ट्रपति पद की गरिमा को बनाए रखा तथा दुनिया में भी अपने महान आदर्शों के चलते देश का गौरव बढ़ाया, फिर आखिर कलाम को पुन: उम्मीदवार बनाए जाने हेतु बड़े राजनैतिक दलों में आपसी सहमति का वातावरण क्यों नहीं बन पा रहा है? यहां यह बात याद रखनी चाहिए कि कलाम के राष्ट्रपति पद पर चुने जाने के बाद तीसरे दर्जे की सोच रखने वाले कुछ सत्तालोभी पेशेवर राजनैतिक लोगों ने कलाम के राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होने के पश्चात अपनी प्रतिक्रिया में यह कहा था कि भारत के राष्ट्रपति के पद पर किसी वैज्ञानिक के बजाए किसी पेशेवर राजनीतिज्ञ को ही निर्वाचित होना चाहिए था।

दरअसल ऐसे ही पेशेवर स्वार्थी राजनीतिज्ञों की नकारात्मक सोच कलाम को पुन: राष्ट्रपति बनने से रोकना चाह रही है। अपने कार्यकाल के दौरान कई विवादित विधेयकों को लेकर कलाम ने भारतीय संसद को 'आईना' दिखाने का प्रयास किया है। एक से अधिक बार राष्ट्रपति महोदय ऐसे विवादित विधेयक संसद में पुनर्विचार हेतु वापिस भी भेज चुके हैं। जाहिर है भारत सरकार की 'रबर स्टेम्प' के रूप में प्रसिद्ध हो चुके राष्ट्रपति के इस पद पर कलाम जैसा स्पष्टवादी, दूरदर्शी एवं बेबाक व्यक्ति भारतीय राजनीति के गले के नीचे कैसे उतर सकता है। देश के विकास के लिए भले ही कलाम ने कितने ही सपने क्यों न संजो रखे हों तथा भारतीय युवाओं के समक्ष कलाम कितने ही बड़े स्वप्दर्शी आदर्श पुरुष क्यों न हों परन्तु भारत के सफेदपोश राजनीतिज्ञों को कलाम जैसा व्यक्ति संभवत: अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते नहीं भाता।

यहां कलाम के विषय में कुछ और बातें बताना न्यायसंगत हैं। अपने कार्यकाल के दौरान कलाम ने राष्ट्रपति भवन की पिछली सभी परम्पराओं व सीमाओं को तोड़ते हुए राष्ट्रपति भवन के प्रवेश द्वार को आम लोगों, जिज्ञासु व्यक्तियों, बच्चों, विशेषकर छात्रों तथा अपनी फरियाद लेकर आने वाले आम लोगों के लिए खोल दिया था। जबकि यही राष्ट्रपति द्वार उनके अपने सगे संबंधियों व रिश्तेदारों के लिए बन्द हो गया था। कलाम ने राष्ट्रपति पद के अपने प्रथम चुनाव से पूर्व भी अपनी उम्मीदवारी हेतु सिंफारिश ढूँढने (लॉबिंग) का न तो काम किया था और इस बार भी वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। बल्कि कलाम साहब तो राष्ट्रपति पद के दूसरे कार्यकाल की उम्मीदवारी हेतु अपनी अनिच्छा भी जाहिर कर चुके हैं। कलाम अपने कार्यकाल को पूरा करने के बाद अपने सबसे लोकप्रिय, सार्थक एवं रचनात्मक पेशे अर्थात् अध्यापन की ओर वापस जाना चाहते हैं। हालांकि भारतीय राजनीति पर निष्पक्ष रूप से अपनी गहरी नंजर रखने वाले लोगों का भी यही मानना है कि कलाम जैसे महान वैज्ञानिक एवं दूरदर्शी व्यक्ति ने राष्ट्रपति जैसे देश के सर्वोच्च पद पर बैठकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की गरिमा को निश्चित रूप से बढ़ाया है। परन्तु रचनात्मक रूप से वे देश को उतना कुछ नहीं दे सके जितना कि वे इस सर्वोच्च पद पर बैठे बिना दे सकते थे। इसका कारण एकमात्र भारतीय संविधान में निहित राष्ट्रपति के सीमित अधिकार ही हैं। अर्थात् जब संसद ही सर्वोच्च है तो राष्ट्रपति अपने आप ही असहाय बन जाता है। ऐसे में चाहे कलाम जैसा व्यक्ति ही राष्ट्रपति क्यों न हो परन्तु उसे करना तो उतना ही है जितना कि उसके अधिकार क्षेत्र में शामिल है।

लिहाज़ा आम भारतीय नागरिक तो इसी उम्मीद में बैठा है कि ईश्वर सभी राजनैतिक दलों को सद्बुद्धि दे कि वे अपनी पारम्परिक राजनैतिक कलाबाजियों से बाज आकर तथा अपनी सीमित व स्वार्थी सोच का त्याग कर कलाम जैसे महान व्यक्ति को पुन: राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुने जाने में अपनी सहमति बनाएं। अन्यथा आंखिरकार मजबूरीवश कलाम के प्रशंसकों को तो यही सोचना पड़ेगा कि न तो कलाम को भारतीय राजनीति रास आई न ही भारतीय राजनीतिज्ञों को कलाम जैसा स्पष्टवादी एवं आदर्शवादी महान वैज्ञानिक रास आया। अब इसे देश के भविष्य के लिए शुभ लक्षण माना जाए या अशुभ कि भारत को 2020 तक विकसित राष्ट्र का स्वप् दिखाने वाले इस महान पुरुष की उम्मीदवारी के नाम पर राजनैतिक दलों की सहमति ही नहीं बन पा रही है। और यदि ऐसा होता है तो निश्चित रूप से देश के लिए इससे बड़ा शुभ लक्षण और क्या होगा। मेरे जैसे अति दूरदर्शी व्यक्ति का तो यहाँ तक मानना है कि भारतीय संसद को एकमत होकर कलाम साहब को 2020 तक के लिए भारत के राष्ट्रपति पद पर बने रहने दिया जाना चहिए। भले ही देश हित के लिए इस विषय पर संविधान में संशोधन ही क्यों न करना पड़े।


तनवीर जांफरी
सदस्य हरियाणा साहित्य अकादमी
2240/2, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर, हरियाणा

चिट्ठे : वेब पत्रकारिता के आधुनिक स्वरुप




इक्कीसवीं सदी की दुनिया बदल चुकी है. आज के व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं में रोटी कपड़ा और मकान के साथ-साथ इंटरनेट भी सम्मिलित हो चुका है. मोबाइल उपकरणों पर इंटरनेट की उपलब्धता और प्रयोक्ताओं की इंटरनेट पर निर्भरता ने इस विचार की सत्यता पर मुहर-सी लगा दी है. ऐसे में, इंटरनेट पर विविध रूपों में वेब पत्रकारिता भी उभर रही है. चिट्ठा यानी ब्लॉग को भी वेब पत्रकारिता का आधुनिक स्वरूप माना जा सकता है.

चिट्ठे – हर संभव विषय पर

यूं तो चिट्ठों का जन्म ऑनलाइन डायरी लेखन के रूप में हुआ और इसकी इस्तेमाल में सरलता, सर्वसुलभता और विषयों के फैलाव ने इसे लोकप्रियता की उच्चतम मंजिल पर चढ़ा दिया. आज इंटरनेट पर व्यक्तिगत स्तर पर लिखे जा रहे कुछ चिट्ठों की पाठक संख्या लाखों में है जो कि बहुत से स्थापित और प्रचलित पारंपरिक पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या से भी ज्यादा है. चिट्ठों में इनपुट नगण्य-सा है और आउटपुट अकल्पनीय. चिट्ठों में एक ओर आप किसी चिट्ठे पर लेखक के - सुबह किए गए नाश्ते का विवरण या फिर वो चाय किस तरह, किस बर्तन में बनाता है - जैसा बहुत ही साधारण और व्यक्तिगत विवरण पढ़ सकते हैं तो दूसरी ओर किसी अन्य चिट्ठे पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की असामयिक-रहस्यमय मृत्यु पर शोघ परक आलेख भी. इंटरनेट पर तकनीकी व विज्ञान से संबंधित आलेखों की उपलब्धता का एकमात्र सर्वश्रेष्ठ साधन (हिन्दी में अभी नहीं, परंतु अंग्रेज़ी में) आज के समय में ब्लॉग ही हैं.

इंडिया ब्लॉग्स (http://www.labnol.org/india-blogs.html) में कुछ बेहद सफल भारतीय ब्लॉगरों की विषय-वार सूची दी गई है जिसमें व्यक्तिगत, साहित्य, हास्य-व्यंग्य, समीक्षा, फ़ोटोग्राफ़ी, फ़ाइनेंस, प्रबंधन, टीवी, बॉलीवुड, तकनॉलाज़ी, मीडिया, यात्रा, जीवन-शैली, भोजन, कुकिंग, तथा गीत-संगीत जैसे तमाम संभावित विषयों के ब्लॉग सम्मिलित हैं. यानी हर विषय पर हर रंग के लेख-आलेख और रचनाएँ ब्लॉगों में आपको मिल सकती हैं. सामग्री भी अंतहीन होती है. ब्लॉग की सामग्री किसी पृष्ठ संख्या की मोहताज नहीं है. यह अनंत और अंतहीन हो सकती है, और चार शब्दों की भी. यह बहुआयामी और बहुस्तरीय हो सकती है. फिर, यहाँ किसी मालिकाना-प्रबंधन की संपादकीय कैंची जैसी किसी चीज का अस्तित्व भी नहीं है – इसीलिए चिट्ठों में अकसर भाषा बोली के बंधन से अलग, एक कच्चे आम की अमिया का सा ‘रॉ’ स्वाद होता है.

चिट्ठे – द्वि-स्तरीय, तत्क्षण संवाद

पारंपरिक पत्रकारिता की शैली में संवाद प्रायः एक तरफा होता है, और विलम्ब से होता है. कोई भी रपट, पाठक के पास, तैयार होकर, संपादकीय टेबल से सरक कर सिस्टम से गुजर कर आती है. प्रिंट मीडिया में – जैसे कि अख़बार में - किसी कहानी के पाठक तक आने में न्यूनतम बारह घंटे तक लग जाते हैं. फिर, रपट को पढ़कर, सुनकर या देखकर पाठक के मन में कई प्रश्न और उत्तर अवतरित होते हैं. वह उत्तर देने को कुलबुलाता है, प्रश्न पूछने को आतुर होता है. मगर उसके पास कोई जरिया नहीं होता. उसके प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं और वह एक तरह से भूखा रह जाता है. चिट्ठों में ऐसा नहीं है. चिट्ठों में रपट तत्काल प्रकाशित की जा सकती है. उदाहरण के लिए, मोबाइल ब्लॉगिंग के जरिए आप किसी जाम में फंसकर वहाँ का हाल सीधे वहीं से प्रकाशित कर सकते हैं. ऊपर से यहाँ संवाद दो-तरफ़ा होता है. आप कोई रचना या कोई रपट या कोई अदना सा खयाल किसी चिट्ठे में पढ़ते हैं और तत्काल अपनी टिप्पणी के माध्यम से तमाम प्रश्न दाग सकते हैं. चिट्ठे पर लिखी सामग्री की बखिया उधेड़ कर रख सकते हैं. वह भी सार्वजनिक-सर्वसुलभ, और तत्क्षण. चिट्ठा मालिक आपके प्रश्नों का जवाब देता है तो दूसरे पाठक भी आपके प्रश्नों के बारे में अपने प्रति-विचारों को वहीं लिखते हैं. विचारों को प्रकट करने का इससे बेहतरीन माध्यम आज और कोई दूसरा नहीं हो सकता.

चिट्ठे – विविधता युक्त, लचीला माध्यम

पारंपरिक पत्रकारिता में लचीलापन प्राय: नहीं ही होता. माध्यम अकसर एक ही होता है. यदि पत्र-पत्रिका का माध्यम है तो उसमें चलचित्र व दृश्य श्रव्य माध्यम का अभाव होता है. रेडियो में सिर्फ श्रव्य माध्यम होता है व क्षणिक होता है तो टीवी में दृश्य श्रव्य माध्यम होता है परंतु पठन सामग्री नहीं होती और यह भी क्षणभंगुर होता है. किसी खबर का कोई एपिसोड उस खबर के चलते तक ही जिंदा रहता है उसके बाद वह दफ़न हो जाता है. दर्शक के मन से उतर जाता है. चिट्ठों में ये सारे माध्यम अलग-अलग व एक साथ रह सकते हैं. किसी घटना की विस्तृत रपट आलेख के साथ, चित्रों व आडियो-वीडियो युक्त हो सकते हैं, और दूसरे अन्य कड़ियों के साथ हो सकते हैं जहाँ से और अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है. और ये इंटरनेट पर हर हमेशा, पाठक के इंटरनेट युक्त कम्प्यूटर से सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध रहते हैं.

चिट्ठे – व्यावसायिक पत्रकारिता के नए पैमाने

गूगल के एडसेंस जैसे विचारों ने चिट्ठों में व्यावसायिक पत्रकारिता के नए पैमाने संभावित कर दिए हैं. पत्रकार के पास यदि विषय का ज्ञान है, वह गंभीर है, अपने लेखन के प्रति समर्पित है, तो उसे अपनी व्यावसायिक सफलता के लिए कहीं मुँह देखने की आवश्यकता ही नहीं है. चिट्ठों के रूप में उसे अपनी पत्रकारिता को परिमार्जित करने का अवसर तो मिलता ही है, उसका अपना चिट्ठा उसकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम होता है. और, इसके एक नहीं अनेकानेक, सैकड़ों उदाहरण हैं.

निकट भविष्य में चिट्ठे पारंपरिक पत्रकारिता को भले ही अप्रासंगिक न बना पाएँ, परंतु यह तो तय है कि आने वाला भविष्य वेब-पत्रकारिता का ही होगा और उसमें चिट्ठे प्रमुख भूमिका निभाएंगे.
- रविशंकर श्रीवास्तव

आप क्या चाहते हैं विश्वजाल से ?


रवि रतलामी जी तकनीकी क्षेत्र में बडी उपयोगी जानकारी लिये "ब्लोग" लिखते है -- हिन्दी के जाल घर आज विश्व को जोडने का बहुउपयोगी व रोमांचक कार्य कर रहा है -- यहाँ नित नये जाल घर खुलते जा रहे हैं नारद, चिठ्ठा चर्चा जैसी सामूहिक गतिविधियोँ पर पैनी नजर रखे "वेब पोर्टल" कई सारी नई प्रविष्टीयोँ के बारे मैं रोजाना , हो रही गतिविधियोँ से अवगत करवाते रहते हैं -

नारद मैं सबसे लोकप्रिय चिठ्ठोँ के लिये भी व्यवस्था है-

हिन्दी और विश्वव्यापी संपर्क क्षेत्र को आगे जरूरत रहेगी कि किस प्रकार, आपसी विद्वेष भूला कर, संगठित होना सीखें -

उसका उपक्रम सही दिशा में पहला कदम होगा -- और उसके लिये, सूचना इकत्रित कर के, एक जगह, सार्वजनिक माहिती देती हुई सूची बनाना भी आवश्यक हो जायेगा - जिस तरह टेलीफोन हैं तब आपके पास डाइरेक्टरी भी होनी जरूरी है -- अमेरीका में सुफेद पन्नों वाली सूचिका मैं आम जनता, घरोँ मैं लिये गये टेलीफोन लाइनों के नंबर होते हैं और पीले पन्नों वाली सूचिका मैं, क्यापार तथा विविध प्रकार की सेवा ती संस्थाओं के टेलीफोन नंबर पाये जाते हैं -- कई सौ पन्नों की यह डाइरेक्टरी मुफ्त मैं हर घर तक और संस्था तक पहुँचाई जाती है ।

अब समय आ गया है कि, इसी प्रकार की वेब - डाइरेक्टरी भी तैयार की जाये । अन्तर्जाल चूँकि पूरे विश्व मैं फैला हुआ है, इसलिये, किसी एक देश या राज्य की सीमा से वह परे है । देखा जाये तो विश्वाकाश मैं व्याप्त यह एक स्वतंत्र, व्यापक व दीर्घ अनुभवों के अस्तित्व मैं ला सकने की आश्चर्यजनक क्षमता रखती एक जीवँत इकाई " एन्टीटी" बन गई है जो तेजी से फैलने के साथ साथ नित नये स्वरुपों मैं विकसित भी होती जा रही है ।

एक व्यक्ति दूसरे से किसी भी समय, किसी भी विषय पर, कितनी भी दूरी पर क्षण भर मैं बात कर सकता है -- किसी भी विषय की जानकारी हासिल कर सकता है, उसे, अपने निजी उपयोग के लिये, बचा कर "सेव" करके दुबारा लौट सकता है और भी कई सारी सुविधा, अन्तर्जाल से पा सकता है -- सूझबूझ से इसका उपयोग आनेवाले कल को सँवारने मैं मदद करेगा -

मेरे सुधी पाठक मित्रों, आप सोच रहे होंगे कि मैं कोई तकनीकी विशेषज्ञ हूँ ! परंतु नहीं -- मैं एक साधारण, गृहस्थ, महिला हूँ - भारतीय मूल की, आज अमरीका मैं रहते हुए, कई वर्ष बीत गये हैं और हिन्दी के प्रति मेरे अदम्य आकर्षण ने मुझे सारी बाधाओं को पार करने की प्रेरणा दी और मेरे युवा पुत्र सोपान की मदद से मैं भी आखिरकार अन्तर्जाल के महा समुद्र मैं तैरना सीख पाई ! मेरे पति दीपकजी के प्रोत्साहन से मुझे नित्यप्रतिदिन कुछ नया सीखने को और उसे व्यवहार मैं लाने के लिये प्रेरित किया है फलस्वरुप आज मेरे विचार, इस आलेख द्वारा, आप तक लाने मैं खुशी हो रही है --

श्री जयप्रकाश मानस जी, छत्तीसगढ क्षेत्र से न सिर्फ हिन्दी सेवा मैं संलग्न हैं परंतु, वैश्विक, अंतर्जालीय गतिविधियोँ पर भी उनकी पकड़ है और नजर दीर्घ दृष्टि लिये, छानबीन करती रहती है और वे अन्य पाठकों के साथ, अपनी जानकारी को सहर्ष बाँट भी रहे हैं - उनके सृजन गाथा परिवार के हर माह प्रकाशित होते सशक्त स्वर के जरीये -- देखियेगा यह लिंक --http://www.srijangatha.com/मेरा जाल घर भी है -- अवश्य देखियेगा -- http://antarman-antarman.blogspot.com/ ( आपकी टिप्पणी के लिये अग्रिम आभार ! )

अब प्रतीक्षा रहेगा, सुनने की आप सब के विचार, आप क्या चाहते हैं विश्वजाल से ?
कृपया यह अवश्य देखें : http://narad.akshargram.com/popular/

अब एक नजर डालते हैं कुछ हिन्दी जाल घरों पर-किसी व्यक्ति विशेष या क्रम पर आधारित न होकर यह नाम सिर्फ उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत हैं - जिन किसी का भी नाम इस सूची मैं छूट गया है, उनसे क्षमा चाहती हूँ -- परंतु जानती हूँ कि, वे सभी "ब्लोगर बंधु, चिठ्ठाकार, " बहुत अच्छा, मनसे, अनुभव से अपने अपने जीवन का यथार्थ, या तो विश्व मैं जो भी हो रहा उस के बारे में हमें कुछ कहना चाहते हैं - अपने अपने प्रयास मैं सभी खरे हैं - सभी व्यस्त हैं -



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तो चलिये, देर किस बात की ? आप भी अपना ब्लोग खोल कर दुनिया से, या अपने आप से ही ;-) बातेण करना शुरु करें जनाब और साहिबा -- और कुछ नहीं तो इससे बढिया साएको थेरिपी नहीं मिलेगी ...कहीं न कहीं, दुनिया के किसी कोने मैं आखिर आपसे मुलाकात हो ही जायेगी ..तब तक के लिये, अलविदा दोस्तों ..शब्बा खैर...


0लावण्या शाह
अमेरिका

डांगी के हिंदी सॉफ्टवेयर्स 'डिजिट' ने जारी की

जाने-माने हिंदी सॉफ्टवेयर्स इंजीनियर श्री जगदीप डांगी द्वारा निर्मित हिन्दी सोफ़्टवेयर आई-ब्राउजर++ (हिंदी एक्सप्लोरर) का विन्डोज एक्स-पी आधारित परीक्षण संस्करण को डिजिट पत्रिका ने अपने जून-२००७ संस्करण सी.डी. के साथ जारी कर दिया है।
अनुवादक और शब्दकोश के विन्डोज (९५/९८/एक्स-पी) आधारित परीक्षण संस्करण को डिजिट पत्रिका ने अपने अप्रैल-२००७ संस्करण की सी.डी. के साथ जारी कर दिये थे। ज्ञातव्य हो कि Digit Magazine No. देश की नम्बर 1 पत्रिका है जो आईटी और प्रोद्योगिकी पर केंद्रित पत्रिका है ।

भारतीय ग्रामीण परिवेश में कम्प्यूटर पर कार्य अंग्रेज़ी भाषा में होने की वजह से कई हिंदी भाषी लोग इसके उपयोग से वंचित रह जाते हैं। हमारे देश में हजारों लाखों नागरिक हैं जो सफल व्यापारी, दुकानदार, किसान, कारीगर, शिक्षक आदि हैं। यह सब अपने-अपने क्षेत्र में कुशल एवं विद्वान हैं। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि यह सब अंग्रेज़ी भाषा के जानकार हों। ग्रामीण परिवेश में रहने वाले कृषक जो कि इस देश की उन्नति का आधार हैं, यदि इन्हें और अच्छी तकनीकी की जनकारी अपनी भाषा में ही मिले तो सोने पे सुहागा होगा। कई लोग कम्प्यूटर का उपयोग अपनी स्वयं की भाषा जैसे हिंदी, उर्दू, बंगाली, तेलुगु, तमिल आदि में कर सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में करना चाहते हैं। इस स्थिति में कम्प्यूटर का क्षेत्रीय भाषाओं के सॉफ़्टवेयर के विकास के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा का क्षेत्रीय भाषा मैं अनुवाद परम आवश्यक है। आजकल हमारे देश के कई लोग कम्प्यूटर की शिक्षा व इंटरनेट के उपयोग की ओर अग्रसर हैं क्योंकि यह उनके लिए कई महत्वपूर्ण जानकारियों का अथाह सागर है। पर यह सब अधिकांशतः अंग्रेज़ी भाषा न आने के कारण कई लोग इसको अपने व्यवहार में लाने से हिचकिचाते हैं। और इस तरह की भाषाई समस्या के समाधान के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में कम्प्यूटर सॉफ़्टवेयर का विकास व अनुवाद होना बहुत ही जरूरी है। जब तक हमारे देश में क्षेत्रीय भाषाओं में कम्प्यूटर सॉफ़्टवेयर का विकास नहीं होगा तब तक इस भाषाई समस्या की बाधा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास में रोड़ा बनी रहेगी।

हिंदी एक्सप्लोरर-आई-ब्राउज़र++:(Digit जून-२००७ संस्करण सी.डी. के साथ जारी)
हिंदी एक्सप्लोरर आई-ब्राउज़र यह विंडोज आपरेटिंग सिस्टम पर आधारित सॉफ़्टवेयर प्रोग्राम है, जो कि विंडोज एक्सप्लोरर एवं इंटरनेट एक्सप्लोरर का संयुक्त रूप है। ''हिंदी एक्सप्लोरर'' की विशेषता यह है कि इसका संपूर्ण इंटरफेस हिंदी भाषा में होकर देवनागरी लिपि में है। इसकी सहायता से कोई भी साक्षर हिंदी भाषी व्यक्ति इसका उपयोग बखूबी अपनी भाषा में बिना किसी विशेष प्रशिक्षण के कम्प्यूटर पर विशेष तौर से इंटरनेट पर कार्य कर सकता है।''हिंदी एक्सप्लोरर'' में एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुविधा है और वह है शब्द रूपांतरण (अनुवाद) की, इस बावत् इसमें तीन तरह के ट्रांसलेटर दिए गए हैं: लोकल वर्ड ट्रांसलेटर: यह एक ऐसा प्रोग्राम है जिसकी मदद से वेब-पेज पर उपस्थित अंग्रेज़ी शब्द पर माउस द्वारा क्लिक करने पर उस शब्द का न केवल हिंदी में अर्थ एवं उच्चारण बतला देता है, बल्कि उच्चारण सहित लगभग सभी समानार्थी शब्द भी देवनागरी लिपि में माउस पॉइन्टर के समीप दर्शा देता है। ग्लोबल वर्ड ट्रांसलेटर: यह एक ऐसा प्रोग्राम है जो कि ''हिंदी एक्सप्लोरर'' के अलावा विंडोज के किसी भी सॉफ़्टवेयर के अंदर कार्य करने में सक्षम है, तथा संबंधित अंग्रेज़ी शब्द पर माउस द्वारा क्लिक करते ही हिंदी अनुवाद कर देता है। वेब पृष्ठ पर स्थाई शब्दानुवाद: यह बहुत ही महत्वपूर्ण शब्दानुवाद सुविधा है इस का उपयोग यूजर वेब पृष्ठ पर उपस्थित अंग्रेज़ी के जटिल शब्दों का अनुवाद कर उस पृष्ठ का प्रिन्ट आउट ले सकता है। इस फलन के तहत और भी कई नवीन सुविधाएँ हैं। जो कि एक यूजर के लिए बहुत ही उपयोगी रहेंगी। इसके अलावा ''हिंदी एक्सप्लोरर'' में और भी अन्य खूबियाँ हैं, जैसे कि एक साथ कई फाइल खोलने की (उसी विंडो एवं अन्य विंडो में), एक साथ कई फाइल को सुरक्षित करने की, एक साथ कई फाइल सर्च कर स्वत: एक के बाद एक फाइल खोलने की, ऑटो हिस्ट्री व्यूअर, पॉप-अप ब्लोकिंग, एडिट मोड ऑन ऑफ, 'इंगलिश टू हिंदी' डिजिटल डिक्शनरी, वेब पृष्ठ पर उपस्थित शब्दों को हाइलाइट करने की, हिन्दी यूनिकोड आधारित पाठ लिखने उसे इंटरनेट से सर्च करने हिन्दी ई-मेल लिखने व भेजने आदि की सुविधाएँ प्रमुख हैं। इस सॉफ़्टवेयर में उपयोक्ता को हिंदी शब्द रूपांतरण की सुविधा तो मिलती ही है, लगभग 38,500 शब्दों का शब्दकोश भी इसमें अंतर्निर्मित है, जिसकी सहायता से उपयोक्ता को अंग्रेज़ी भाषा के जालपृष्ठों (वेब-पेजेस्) को हिंदी में समझने में सहायता मिलती है। यही नहीं इसका शब्दकोश परिवर्तनीय, परिवर्धनीय भी है जिसे उपयोक्ता अपने अतिरिक्त शब्दों को सम्मिलित कर और भी समृध्द बना सकता है। इस बाबत यदि उपयोक्ता को हिंदी टाइप करने में दिक्कत आती है तो इसमें ऑन स्क्रीन हिंदी कुंजीपटल की सुविधा भी दी गई है जिसे माउस द्वारा चलाया जा सकता है।


अंग्रेज़ी<->हिन्दी शब्दकोश(Digit अप्रैल-२००७ संस्करण की सी.डी. के साथ जारी)
'शब्दकोश' : यह विंडोज आपरेटिंग सिस्टम पर आधारित सॉफ़्टवेयर प्रोग्राम है। इसकी विशेषता यह है कि ये दोनों अवस्थाओं (हिंदी से अंग्रेज़ी, अंग्रेज़ी से हिंदी) में कार्य करने में सक्षम है तथा खोजे जा रहे अंग्रेज़ी या हिंदी शब्द के अर्थ के अलावा अन्य समानार्थी शब्द भी उच्चारण सहित तुरन्त दिखाता है व एक समान्तर कोश यानी 'थिसारस' की तरह भी उपयोगी है। इसमें शब्दों के अर्थ के साथ-साथ मुहावरे व वाक्य-खण्डों का भी संग्रह है। इस सॉफ़्टवेयर से उपयोक्ता अपने किसी भी शब्द के कई पर्यायवाची शब्दों को खोज सकता है इस बाबत इस में कई प्रकार से शब्दों को फिल्टर करने के लिये विशेष फलन दिये गये हैं। इन फलनों की सहायता से उपसर्ग या प्रत्यय के आधार पर भी शब्दों को अपने अनुसार खोज निकालने की सुविधा है। यह सॉफ़्टवेयर हिंदी के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा को सीखने में बहुत ही उपयोगी है। इस सॉफ़्टवेयर में एक द्वि-भाषी ऑन स्क्रीन कुंजीपटल की विशेष सुविधा भी दी गई है, जिसे माउस द्वारा कमांड किया जा सकता है। वर्तमान में लगभग 38,500 शब्दों का शब्दकोश इसमें अंतर्निर्मित है और इसका शब्दकोश परिवर्तनीय, परिवर्धनीय भी है जिसे उपयोक्ता अपने अतिरिक्त शब्दों को सम्मिलित कर और भी समृद्ध बना सकता है।


ग्लोबल वर्ड ट्रांसलेटर औजार-‘अनुवादक' ::(Digit अप्रैल-२००७ संस्करण के साथ जारी)
ऑनलाइन व ऑफ़लाइन दोनों ही अवस्था में कर सकता है इसके संचालन के लिये इंटरनेट कनेक्शन की कतई जरूरत नहीं है। यह एक ऐसा सॉफ़्टवेयर है जो कि विंडोज के किसी भी सॉफ़्टवेयर के अंदर कार्य करने में सक्षम है, तथा संबंधित अंग्रेज़ी शब्द पर माउस द्वारा क्लिक करते ही उसका हिंदी अनुवाद विभिन्न समानार्थी शब्दों के साथ-साथ उच्चारण सहित कर देता है। इस सॉफ़्टवेयर का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है की यह विंडोज के किसी एक विशेष अनुप्रयोग पर निर्भर नहीं है बल्कि इसको विंडोज के किसी भी एप्लीकेशन सॉफ़्टवेयर जैसे कि एमएस वर्ड, वर्डपैड, नोटपैड, एमएसआइई, फायरफोक्स ब्राउज़र आदि के अन्दर संयोजन कर अनुवाद की सुविधा का उपयोग किया जा सकता है। विंडोज के अंतर्गत इसका किसी भी सॉफ़्टवेयर के अन्दर कार्य कर सकने की क्षमता के कारण ही इसका नाम 'ग्लोबल' वर्ड ट्राँसलेटर रखा। यह विंडोज की मेमोरी में एक घोस्ट एप्लीकेशन की तरह संचालित रहता है और जैसे कि उपयोक्ता को किसी भी अंग्रेज़ी शब्द के अनुवाद की जरूरत होने पर उस शब्द पर माउस क्लिक करते ही माउस पांटर के समीप एवं विंडोज के टाइटल बार के समीप उपस्थित पट्टी पर उच्चारण सहित अनुवाद पलक झपकते ही प्राप्त कर सकता है। वर्तमान में लगभग 38,500 शब्दों का शब्दकोश इसमें अंतर्निर्मित है और इसका शब्दकोश परिवर्तनीय, परिवर्धनीय भी है जिसे उपयोक्ता अपने अतिरिक्त शब्दों को सम्मिलित कर और भी समृद्ध बना सकता है।
ढेर सारी शुभकामनायें

6/04/2007

स्वतःस्फूर्त सत्याग्रह का विरोध क्यों .....?


(5 जून 2007-सलवा जुडूम की दूसरी वर्षगांठ पर विशेष आलेख )


- तपेश जैन

यह वहीं छत्तीसगढ़ है जहाँ नालंदा विश्वविद्यालय से भी प्राचीन शिक्षा का कैन्द्र था जहाँ दस हजार से भी ज्यादा बौद्ध भिक्षु शिक्षा प्राप्त करते थे, जहां महाप्रतापी राजा जाजल्यदेव से ले कर महान वैज्ञानिक आयुर्वेद और धर्मगुरु आदि शंकराचार्य ने शिक्षा प्राप्त की। आज इस छत्तीसगढ़ में रहने को कुछ विश्वविद्यालय हैं और यहाँ की 60 प्रतिशत से भी ज्यादा आवादी अनपढ़ है। बहूमूल्य खनिज संपदा हीरा, अलेक्जेड्राइट, कोरंडम, क्वार्टज, लाइमस्टोन, टीन लौह सयस्क, डोलोमाइट, कोयला की भरपूर खदान होने के बाद भी राज्य पिछड़ा हुआ है और साल-सागौन, तेंदूपत्ता, आम, ईमली और महुआ के अलावा कई वनोपजों की भरपूर पैदावार के बाद भी 75 प्रतिशत वनवासी बेहद गरीब हैं। “अमीर धरती के गरीब लोग” ये उक्ति पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अपने भाषणों में हर बार दुहराते रहे, उन्ही गरीब लोगों के नुमाइंदों ने 5 जून 2005 को एक ऐसे अभियान की शुरुआत की जिसने महात्मा गांधी के सत्याग्रह को याद दिलवा दिया। विश्वप्रसिद्ध बस्तर जहाँ आदिम जाति की परंपराएं आज भी जीवित हैं, के फरसगढ़ थाना क्षेत्र के छोटे से गाँव अंबेली में 5जून 2005 को करीब पाँच हजार आदिवासियों का जुडूम हुआ।

जुडूम गोंडी बोली का शब्द है जिसका अर्थ है जुड़ना, वहीं सलवा का मतलब होता है शांति । ये सभा पिछले 25 बरसों से बस्तर मं आतंक और हिंसा का पर्याय बन चुके नक्सली आंदोलन की प्रतिक्रिया थी। हिंसा का प्रतिकार अहिंसा के साथ । इस आंदोलन ने तेजी से लोकप्रियता हासिल की और देखते –देखते दंतेवाड़ा जिला अब नारायणपुर और बीजापुर के भी 500 से ज्यादा गाँवों में इसकी लहर पहुँच गई है। इसके चलते पहली बार ‘नो मेंस लैण्ड’ जैसे अबूझमाड़ क्षेत्र के ग्राम चेरपाल में दस हजार से भी ज्यादा आदिवासी जुड़े । अब तक सौ से भी ज्यादा ग्राम सभाओं से ये शांति अभियान तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद रुकने का नाम नहीं ले रहा है।

गौरतलब है कि सलवा जुडूम अभियान इस बार फिर चर्चा में है, जोर-शोर से देश भर के कथित जनवादी नक्सली समर्थक नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में इस आंदोलन को मानव अधिकार से जोड़ कर जोर-शोर से हल्ला बोल दिए हैं। देश भर के तमाम आंदोलनकारियों का जमावड़ा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जुट रहा है और एक ऐसे अभियान पर निशाना साधा जा रहा है जो हिंसा के खिलाफ़ स्वस्फूर्त खड़ा हुआ है। यहाँ यह याद दिलाना लाजिमी होगा कि देश-दुनिया से दूर बस्तर के आदिवासियों ने सन 1948 में हैदराबाद निजाम द्वारा बस्तर को अपने राज्य में मिलाने के लिए की गई सैनिक कार्यवाही का डर कर मुकाबला किया था और अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखी थी। ये इतिहास ये बताता है कि वनवासियों में ये कूवत है कि वे अगर ठान लें तो हजारों बलिदान के बाद भी हिम्मत नहीं हारते। इसकी याद इसलिए आई कि नक्सलवादी सलवा जुडूम अभियान से बौखला कर बस्तर अंचल में हिंसा का ताण्डव मचा रहे हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री के बयान के अनुसार देश भर में हुई नक्सली हिंसा में छत्तीसगढ़ अव्वल है और यहाँ कल हुई हत्यों के साठ प्रतिशत हिस्सा इस राज्य का है। राज्य सरकार के मुताबिक भी सलवा जुडूम के बाद बस्तर में जून 2005 से जून 2006 के बीच 272 नागरिकों की हत्याएं हुई, वहीं 28 नक्सली लोग मारे गए । यानी अब तक अनुमानतः दो साल में 600 से भी ज्यादा मौत घाट उतार दिए गए हैं।

सलवा जुडूम के घोर विरोधी मुख्यमंत्री अजीत जोगी की मानें तो बस्तर में सलवा जुडूम के चलते बीते साल 272 नहीं बल्कि एक हजार से भी ज्यादा हत्याएं हुई हैं और हजारों लोग बस्तर छोड़ आंध्र प्रदेश पलायन कर चुके हैं। कांग्रेस नेता श्री जोगी के अलावा कम्युनिस्ट पार्टियां और कथित जनवादी संगठन सलवा जुडूम के खिलाफ हैं। विरोध है कि इस अभियान के चलते नक्सली लगातार हत्या कर रहे हैं। बड़े दुख की बात है कि कथित जनवादी नक्सली हिंसा का विरोध करना छोड़ कर प्रतिकार में चल रहे अहिंसक अभियान के खिलाफ़ हैं। इससे उनका मुखौटा जगजाहिर हो जाता है कि वे सशस्त्र जन आंदोलन नक्सवाद का समर्थन करते हैं और गांधीवादी तरीके से नक्सलपंथ के खिलाफ संघर्ष कर रहे आदिवासियों का विरोध भी ।

सलवा जुडूम अभियान से बौखलाए नक्सलियों द्वारा अधाधुंध गाँवों में हमले के बाद आदिवासियों को अपनी जमीन छोड़ कर जंगल के बाहर निकलना पड़ा है। सड़क के किनारे बसे गाँवों में करीब साठ हजार से भी ज्यादा लोग तंबू तान कर रहे रहे हैं। वजह ये है कि रात में नक्सली लूटपाट कर उनकी झोंपड़ियों जला देते हैं और पशु उठा कर ले जाते हैं। ऐसी ही एक गाँव भैरमगढ़ से करीब दस किलोमीटर दूर चिहका गाँव का दौरा करने पर लेखक चरमपंथियों के आतंक से रुबरू हुआ। सलवा जुडूम के बाद राहत शिविरों में सरकारी सहायता में बेहद कमी है लेकिन क्या करें, कहाँ जाएं और अब तो राहत शिविर जहाँ सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी है वहाँ भी नक्सली दुःसाहस कर हमला कर रहे हैं। 16-17 जुलाई 2006 की दरम्यानी रात एर्राबोर राहत शिविर पर प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी को दण्डकारण्य जोनल कमेटी ने घेर कर आग लगाने के बाद जबर्दस्त गोलीबारी की जिसमें दो बच्चों सहित 33 महिला-पुरुष हलाक हो गए । इस हमले के बाद बड़े शान से मीडिया के सामने जोनल कमेटी के सचिव कोसा और प्रवक्ता गुड़सा उसेंडी ने इसकी जवाबदारी लेते हुए सलवा जुडूम को बंद करने का फरमान जारी किया । लेकिन सलवा जुडूम अभियान कोई भारतीय जनता पार्टी या विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस विधायक महेंद्र कर्मा का छोड़ा हुआ अभियान नहीं है जो बंद हो जाएगा।

गृहमंत्री रामविचार नेताम के अनुसार राहत शिविरों में पहले एक साल 30 जून 2006 तक मात्र पाँच करोड़ आठ लाख 84 हजार 227 रुपए का सालाना बजट में ये राशन ऊंट के मुँह में जीरे के समान ही है। नगम्य राशन के खर्च से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार कहीं ना कहीं दबाव में है और राहत शिविरों में रहने वाले भोले-भाले लोगों के भोलेपन का नाजायज़ फायदा उठा रही है। वहीं आंध्रप्रदेश में नक्सली नेता माधव और महाराष्ट्र में गढ़चिरौली के जोनल कमांडर विकास की बैमौत मारे जाने की घटना के बाद छत्तीसगढ़ में अपना अस्तित्व बचाने में जुटे नक्सलियों पर गृहमंत्री देशद्रोही की उपमा दे कर शब्दबाण चला रहे हैं, जबकि जरूरत ग्राउंड हंट की है । यह सरकार की जवाबदेही है कि वह जैसे को तैसा का जवाब दे। अभी तो बिना राजनैतिक महत्वकांक्षा के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह केवल बयानों से ही सलवा जुडूम की वाहवाही लूट रहे हैं। असल नायक तो संघर्ष कर रहे हैं लेकिन ये लड़ाई परिणाम तक जरूर पहुँचेगी और इसे पहुँचाना भी चाहिए क्योंकि यही इंसाफ का तकाज़ा है। (तपेश जैन स्वतंत्र पत्रकार हैं और टेलिफिल्म निर्माण से संबंद्ध हैं)


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सतनाम पंथ के गुरु बालदास से विशेष बातचीत

साक्षात्कार
जनता जब आक्रमक होगी तब ही परिवर्तन होगा

शिरोमणी बाबा गुरु घासीदास गुरुदास गुरुगद्दी भंड़ारपुरी के गद्दी नशीन धर्म गुरू बालदास साहेब इन दिनों अपने तीखे तेवर और आग उगलते बयानों के लिए चर्चा में है। सतनाम पंप के धाम बोड़सरा गुरूद्वारा की मुक्ति और सतनाम पंथ की संस्कृति और परम्परा को कायम रखने के लिए गुरु बालदास जी के प्रयास ने एक बार फिर करवट ली और समाज में एक नयीं चेतना का संचार हुआ है। राजनैतिक पार्टियों के लिए वोट बैंक माने जाने वाले समाज ने आजादी के बाद भी वह मुकाम हासिल नहीं किया है जिसका ढिढ़ोरा कई सालों से पीरा जा रहा था कि बीस–पच्चीस साल में तस्वीर और तकदीर बदल जायेगी।

स्वतंत्रता के 60 साल बाद भी समाज में ऊंच-नीच की मानसिकता आजाद नहीं हुई है। अभी भी गांव और शहरों में भी कहीं न कहीं भेदभाव की भावनाएं मौजूद है। गंदी राजीति और भ्रष्टाचार के ज़माने में सरकार से ये उम्मीद करना कि वह दबे-कुचले लोगों का सही में विकास करेगी बेमानी ही है। अब आशाएं न तो राजनेताओं से है और ना ही भष्ट अधिकारीयों से। फिर किस पर भरोसा करें, आखिर कड़ी जनता ही बचती है और यहीं वह आखरी उम्मीद है कि किरण है। श्री बालदास गुरु का कहना है परिवर्तन तव ही होगा जब जनता आक्रामक होगी और वे इस दिशा में ही आगे बढ़ रहे है। सरकारों को चेत जाना चाहिए कि अब सत्ता के दांवपेंच से आंदोलन के स्वर को बदल नहीं पायेंगे। प्रस्तुत है। गुरू बालदास से संपादक तपेश जैन की लंबी बातचीत के प्रमुख अंश

- संत शिरोमणी गुरु घासीदास जी ने सतनाम पंथ का जो संदेश दिया वह कितना प्रासंगिक है ?

0 परमपूज्य बाबा जी ने जो संदेश अहिंसा भाईचारा और समरसता का दिया वह आज ज्यादा प्रासंगिक है। उस समय और जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बांट दिया गया तब “मनखे-मनखे मन एक है।” और एक ही रास्ते से मानव इस धरती पर आया है और एक ही रास्ते से वापस जायेगा इसलिए सभी मनुदप समान है की जो बात उन्होने कही वह सर्वकालिक है। संतों की वाणी सब काल में प्रासंगिक होती है। आज भी लोग धर्म और जाति के नाम पर अलगाव की धारा में बह रहे हैं। इस कारण से सभी समाज का विकास अवरूदृ हो रहा है। खान-पान जिस तरह से दूषित हो गए है परम पूज्य बाबा जी ने जो संकेत दिए उस मार्ग पर महात्मा गांधी चले। इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को होगी कि महात्मा गांधी जी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान छत्तीसगढ़ के भंड़ारपुरी भी आए और वहां तीन बंढऐ की मूर्ति देखी और फिर संदेश दिया कि बरा मत कहो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनों ।

- परम पूज्य गुरु घासीदास जी ने भी क्या ये संदेश दिया था ?

0 बाबा जी का संदेश कुछ भिन्न था कि सत्य बोलें, सत्य सुने और सत्य देखें । सब जानते हैं कि बाबा जी ने जो सत्य का रास्ता दिखाया वह व्यक्ति को जीवन जीने का पाठ सिखाता है ।

- समाज के लोग इतने साल बाद भी विकास की धारा में शामिल नहीं हो सके है क्या वजह है ?

00 शिक्षा का जितना प्रसार होना चाहिए वह नहीं हुआ । वोट बैंक की राजनीति ने समाज का बहुत नुकसान किया है । भेदभाव की वज़ह से समाज विरोधी ताकतों ने न केवल शिक्षा का प्रसार रोका बल्कि राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्र में भी विकास अवरुद्ध किया । सरकारों को भी जो प्रयास करना चाहिए था वह गंभीरता से नहीं किए । एक मुद्दे को लेकर विकास को आगे बढ़ाने की जगह धार्मिक आधार पर वोट बैंक की राजनीति करती कहीं सरकारें ।

- योजनाएं तो बहुत सारी बनाई है सरकार ने उत्थान के लिए ?

00 क्या योजनाएं बनी है ? कागजों में होंगी सब, धरातल पर तो कुछ नज़र नहीं आता अगर योजनाएं है तो सरकार के आला मंत्री उसकी समीक्षा करें कि क्या हो रहा उन योजनाओं का । उच्च शिक्षा के लिए सरकार के पास क्या योजनाएं हैं बताएं हमें ?

- अगर ऐसा है तो समाज आवाज़ क्यों नहीं उठता ?

00 समाज में एकजूटता की कमी है । अब लोग जागरुक हो रहे हैं । अपने हक और अधिकार के लिए स्वाभिमान के साथ आवाज़ उठेगी । अधिकारों के लिए संघर्ष होगा । छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बात बहुत उम्मीदें जागी थी सरकारों से । पहले कांग्रेस सरकार और अब भाजपा सरकार का कामकाज जनता देख चुकी है । आज गांव-गांव में बेरोजगारी है, विकास के तमाम दावे कसौटी पर कितनी खरी उतरती हैं सरकार वो तो जनता चुनाव में बता ही देती है ।

- आपके मन में क्या है, किस तरह की योजनाएं बननी चाहिए ?

00 हमारे मन में है कि समाज के लोग उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ें । अभी इस दिशा में आगे बढ़ नहीं पाए हैं । सरकार उच्च शिक्षा के लिए अच्छी व्यवस्था करें वहीं रोजगार के लिए स्थानीय उद्योगों में आरक्षण के साथ ही रोजगार के लिए नए विकल्प तलाशे जाएं । वन राज्य छत्तीसगढ़ में वनोपज पर आधारित उद्योगों की बहुत संभावनाएं हैं, इस दिशा में काम हो । खनिज आधारित उद्योगों ने तो छत्तीसगढ़ के निवासियो को प्रदूषण के साथ छलावा ही दिया है ।

- छत्तीसगढ़ में करीब़ 12 फीसदी आबादी सतनाम पंथियों की है फिर भी राजनैतिक ताकत क्यों नहीं बन पाई ?

00 सतनाम पंथी आज की गंदी राजनीति को नहीं समझ पा रहे हैं । आज भ्रष्टाचार का ज़माना चल रहा है । चोर-लुटेरे राजनीति में है, पालिटिक्स रह कहां गई है ? अब तो लोग पैसा कमाने के लिए आते हैं या फिर क्रिमनल रिकार्ड को खत्म करने ।

- ऐसे समय में परिवर्तन कैसे हो सकता है ? आपके क्या विचार है ?

00 जनता से ही परिवर्तन आ सकता है ?

- पैसे से टिकट खरीदने वालों को अब जनता देख रही है और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा रही है । समाज का भी दायित्व बनता है कि वह अच्छे लोगों को समर्थन देकर आगे लेकर । जनता जब जागरुक होगी तो भ्रष्ट अफसरों को भी सबक सिखायेगी और दलबदलु और भ्रष्ट नेताओं को भी । सामाजिक रुप से आप इस दिशा में क्या प्रयास कर रहे हैं ?

0समाज के जो संगठन है और उनके प्रमुख लोगों से चर्चा होती है कि बदलाव लाना है । परिवर्तन तो होगा वह समय का सिद्धांत है, बस देर हो सकती है ।

- परम पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी के संदेश के आधार पर समाज को क्या कहना चाहेंगे ?

0 सतनाम पंथियों को जो सत्य बोलना चाहिए वहीं वाणी भी मीठी होना चाहिए । अपराध और अप्रिय वचनों से दूर रहें । मांस भक्षण नहीं करना चाहिए और मदिरा पान का त्याग कर दें । जीव हिंसा न करें वहीं व्याभिचार से दूर रहकर संयम का पालन करें ।

- भंडारपुरी के विकास को लेकर क्या कहना है ?

00 भंडारपुरी परमपूज्य गुरु घासीदास बाबा जी की कर्मभूमि है । इसलिए इसकी बड़ी महत्ता है । पूर्व कांग्रेस शासनकाल में सरकार ने आधे अधूरे मन से कार्य शुरु किया जो अभी तक अधूरा है । मध्यप्रदेश के समय में मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने 25 लाख रुपए दिए थे फिर छत्तीसगढ़ बना तो अजीत जोगी ने 25 लाख रुपए दिए । वर्तमान भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री ड़ॉ. रमन सिंह ने कहा था कि वे बिना राजनैतिक द्वेषभाव के इसे पूरा करवा चाहते हैं लेकिन अभी तक हो कोई प्रयास नजर नहीं आ रहा है । इन तीन सालों में जो घोषणांए की गई हैं वह धरातल में तो नहीं दिखती इसलिए चुनाव परिणाम वैसे ही दिखे । इनसे सबक लेना चाहिए कि आखिर जनता ने सरकार क्यों बनाई । समाज के लिए जैसा करना चाहिए वैसा क्यों नहीं हो पा रहा है ?

- इस सरकार में समाज के भी प्रतिनिधि मंत्री मण्डल में शामिल है, वो क्यों नहीं उठाते ये सब बातें ?

00 हो सकता है कि मंत्री की कोई राजनैतिक मजबूरी रहे कि इससे उन पर एक समाज के होने का आरोप लग जायेगा और वे आगे नहीं बढ़ पायेगें पर उन्हें ये जान लेना चाहिए कि समाज की वज़ह से ही उनकी बखत है । पांच साल बाद अपने लोगों के बीच ही जाना है । समय-समय पर समाज ने ऐसे लोगों को निपटा दिया है । वर्तमान में जो दूर की सोचेगा वहीं टिकेगा । भटकने वाले लोगों को बाहर का रास्ता जनता दिखा ही देती है । सत्ता-सरकार चार दिन की बात है उसके बाद क्या होगा ? इस मामले में हम तो फिर कहेंगे कि सत्ता प्रमुख को इस बात की समीक्षा करना चाहिए कि सरकार में शामिल प्रतिनिधि अपने समाज के लिए क्या कर रहा है और समाज के लोग उससे संतुष्ट है या नहीं । अगर पार्टी प्रमुख इसकी समीक्षा नहीं करेंगे और इन प्रतिनिधियों के भरोसे रहेगें तो नैय्या डूबेगा ही जैसे कि अभी उपचुनाव के नतीजे दिखे । वक्त है कि सत्ताधीश आंख खोल लें नहीं तो जनता का असली राज आने वाला ही है । अभी तो नकली लोग जनता के पहरेदार बने बैठे हैं । (तपेश जैन स्वतंत्र पत्रकार और छत्तीसगढ़ के प्रख्यात टेलीफिल्म निर्माता-निर्देशक हैं -संपादक)
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