8/18/2006

अजय पाठक के सरस गीत

माया

माया !
अद्भूत रूप द्खाए,
ज्यों बादल में बिजली चमके
और पुनः छिप जाए ।

कभी नेह का रंग चढ़ाकर,
भरमाए आँखों को ।
रुचिर-सरस नवगंध सनाए,
महकाए साँसों को ।
जितनी बार निहारें उसको,
उतनी और सुहाए ।
माय अद्भुत रूप दिखाए !

मन के पोकर में लहराए,
भोली प्राण पछरिया,
उसके चारों ओर फिराए,
माया एक रसरिया,
उसके चारों ओर फिराए,
माया एक रसिरया ।
मधुर फांस के फंदे डाले,
बैठी जाल बिछाए ।
माया अद्भुत रूप दिखाए !

सुनेपन का लाभ उठाकर,
आए शांत भुवन में ।
मंथर पदचापों को धरते,
पहुँचे सीधे मन में ।
दिन भर उन्मत करे ठिठोली,
सांझ हुए सकुचाए ।

माया !
अद्भुत रूप दिखाए,
ज्यों बादल में बिजली चमके
और पुनः छिप जाए ।
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पहली किरण

हिल गए निर्णाण सारे,
नींव ढहती जा रही है ।
प्राण के नेपथ्य से फिर,
आज कोयल गा रही है ।

काँपते तन को लिए मैं,
आज बेसुध-सा खड़ा हूँ ।
अण्डहर के बीत कोई,
एक पत्थर-सा पड़ा हूँ ।
और ऊपर से प्रलय की,
धार बहती जा रही है ।

आज सुधियों में उभरती,
एक भूली-सी कहानी ।
और नयनों से उमड़कर,
बह गया दो बूँद पानी ।
बंधनों की फिर सरकती,
डोर छूटी जा रही है ।

भोर ही पहली किरण है,
लुप्त हैं नभ के सितारे ।
शून्य मन की चेतना है,
मौन हैं आंगन-दुआरे ।
भोर लंबी वेदना की,
बात कहती जा रही है ।
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गहरे पानी में

गहरे पानी में पत्थर मत फेंको,
ऐसा करने से हलचल हो जाती है ।
झिलमिल पानी में लहरें उठती हैं,
ये लहरें चलकर दूर तलक जाती हैं ।

पत्थर तो आखिर पत्थर होता है,
क्या रिश्ता उसका जल से या दर्ऱण से ।
निर्मोही जिससे टकराता है,
उसके अंतर से आह निकल जाती है ।

ठहरे पानी में कंपन की पीड़ा,
उसके भीतर का मौन समझ सकता है ।
सागर से गहरे-गहरे अंतर में,
भीतर ही भीतर और उतर जाती है ।

पर, लहरों का तो जीवन होता है,
जो अपनी बीती आप कहा करती है ।
इनकी भाषाएए आदिम भाषाएँ
हर बोली इनकी अनहद कहलाती है ।

ये लहरें जो कुछ बोला करती हैं,
मैं उन शब्दों पर ग़ौर किया करता हूँ ।
कुछ व्यक्त हुई उन्मत्त हिलोरों में...
कुछ बातें उनके भीतर रह जाती हैं ।
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मर्यादा

अपनी मर्यादाएँ फूहड़,
उनकी...शोख अदाएँ चंचल ।
उनकी बातें ब्रह्म-वाक्य है,
अपनी बोली बात अनर्गल ।

आँखों में लाली विलास की,
दिखती है, खाली गिलास की ।
ए, सी, कमरा मुर्ग-मसल्लम्,
होठों पर बातें विकास की ।
उनकी आमद भाग्य जगाए,
अपना दर्शन.. महा अमंगल ।

देश-प्रेम की बात करे हैं
भीतर में उन्माद भरे हैं ।
उनके षडयंत्रों के चलते,
जाने कितने लोग मरे हैं ।
उनके आँसू गंगाजल हैं ।
उनके आँसू गंगाजल हैं,
अपनी.. बहते नाली का जल

नैतिकता के पाठ पढ़ाएँ,
घर को सोने से मढ़वाएँ ।
अपने स्वारथ की वेदी पर,
समरसता को भेंट चढ़ाए ।
उनका भाषण अमर गान हैं,
अपना शब्द-शब्द विश्रृंखल ।
अपनी मर्यादाएँ फूहड़,
उनकी... शोख अदाएँ चंचल
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मधुपान करा दो

जलते वन के इस तरुवर को,
पावस का संज्ञान करा दो ।
आज प्रिये मधुपान करा दो ।

सुख-दुख के ताने-वाने में,
उलझा रहा चिरंतर...दुर्गम पथ पर,
चोटिल पग ले,
चलता रहा निरंतर....
जीलित हूँपर, जीवन क्या है
इसका मुझको भान करा दो,
आज प्रिये मधुपान करा दो ।

थके हुए निर्जल अधरों में,
फिर से प्यास जगी है ।
सुलग रही यह काया भीतर,
जैसे आग लगी है ।
देको मेरी ओर नयन भर,
तृष्णा का अवासान करा दो ।

जैसे दूर हुए जाते हैं,
हम खुद ही अपने से ।
अच्छे दिन जो बीत चुके हैं,
लगते हैं सपने-से ।
मन में श्याम-निशाएँ गहरी,
उसका एक विहान करा दो ।
आज प्रिये मधुपान करा दो ।
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सपने सजाऊँ

आँख में सपने सजाऊँ
प्रेम की बाती जलाऊँ,
कौन-सा मैं गीत गाऊँ, यह समझ आता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।
चाँदनी बेचैन होकर,
देखती है राह कब से ।
खुशबुओं से तर हवाएँ,
पूछती हैं बात हमसे ।
लाज के परदे हटाओ,
दूरियाँ अब तो घटाओ,
रूप के लोभी नयन से अब रहा जाता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।
आज खाली है जिगर में,
प्रीत की पीली हवेली ।
बन गई अन्जान सारी,
ज़िन्दगी जैसे पहेली ।
आज मन में नेह भर दो,
प्राण को संतृप्त कर दो,
तन-बदन की इस जलन को अब सहा जाता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।
ज़िदगी एक दूसरा ही,
नाम है जैसे हवन का ।
होम करने को मिला हो,
एक पल जैसे मिलन का ।
ध्येय सारे छोड़ आओ,
बंधनों को तोड़ आओ,
वक्त जालिम है प्रिये, वह लौट कर आता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुमहारे बिन संवर पाता नहीं है ।
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उसने देखा

उसने देखा आज हमारी आँखों में,
जैसे बिजली चमकी हो बरसातों में ।

सहारा ने सागर का पानी सोख लिया,
ऐसा ही एहसास हुआ जज़्बातों में ।

तन्हाई में रहना अच्छा लगता है,
खुद ही से बातें करते हैं रातों में ।

आँखों में रंगीन फ़िज़ाओं का मंज़र,
सच्चाई को ढूँढ़ रहा है बातों में ।

रूह तलक महके हैं ऐसा लगता है,
कोई खुशबू घोल गया है साँसों में ।
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हम प्रणय गीत कैसे गाएँ

जब चारों ओर निराशा हो,
सन्नाटा और निराशा हो ।
मन आकुल हो जब दीन-हीन,
तन बेसुध भूखा-प्यासा हो ।
रोदन की हाहाकारों में,
तुम कहते हो कि मुस्काएँ ।
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

जलता हो भीतर दावानल,
लोहा भी जाता उबल-उबल ।
मथ सागर को मँदरांचल से,
पाते हैं केवल महा गरल ।
इस महाभयंकर पीड़ा को,
हम विषपायी हो सह जाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

अंतर में केवल रहा क्लेश,
अब नहीं यहाँ कुछ बचा शेष ।
पथ निर्जन, बंजर और कठिन,
आँखें हैं श्रम से निर्निमष ।
क्या संभव है कि ऐसे में,
यह अधर भला कुछ कह पाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

घेरे हैं चार दिशाओं से,
जनजीवन की यह आकुलता ।
वह शापित कारक और व्यथा,
वह निर्बलता यह दुर्बलता ।
जब जीवन, ज्वाला में जलता,
क्या गाल बजाते रह जाएं ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

इस परधीन-से जीवन में,
अब हर्ष रहा किसके मन में ?
बस गयी विकलता ठौर-ठौर,
कस गए नियति के बंधन में ।
इस अवसर पर कुछ संभव है,
अवरोधक थोड़े ढह जाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?
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पार्थ के सम्मुख

सृष्टि में सर्जना का,
दौर ऐसा चल रहा है।
पार बैठा है अँधेरा,
और दीपक जल रहा है ।

कौन किसके साथ,
कैसा मीत, क्या रिश्ते यहाँ ।
पूछ मत अपना बनाकर,
कौन किसको छल रहा है

जड़ हुई जाती यहाँ,
संवेदना को देख ले ।
फूल-सा मन किस तरह से,
पत्थरों में ढल रहा है ।

आजकल के देवता को,
क्या भला अर्पित करें हम ।
पाप को वरदान हासिल,
पुण्य ही निष्फल रहा है ।

धर्म तो संघर्ष का ही,
नाम है जैसे यहाँ,
पार्थ के सम्मुख हमेएशा,
कौरवों का दल रहा है ।
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गजरा टूटा

गजरा टूटा, कजरा फैला,
अस्त-व्यस्त हो गई बेड़ियाँ ।
बिंदिया सरकी, आँचल ढरका,
धुली महावर लगी एड़ियाँ ।
साँसों की संतूर बजी थी,
पायल की खनखन यारों....
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।

कंगना खनका, संयम बहका,
प्यास-प्यासा मन भीगा ।
चूड़ी टूटी, बिछुआ सरका,
और पाँव तक तन भीगा।
बिखर गई बंधन की डोरी,
निखर गया तन मन यारों....
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।

कुंकुंम फैला,
रोली भीगी,
अक्षत-चंदन गंध धुली।
अलकें बोझिल, निद्रालस में,
लगती हैं अधखुली-खुली,
सांसों की वीणाएँ गूंजी ।
दुर हुआ अनबन यारों ।
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।
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वही पखेरू

कई बरस तक, मन के भीतर,
बैठा रहा अबोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-जोर से बोला ।

धीरे-धीरे खामोशी की,
टूटी है तनहाई,
सपने सारे जाग उठे हैं,
ले-ले कर अगड़ाई ।
तेज़ हवाएँ चली,
पेड़ का पत्ता-पत्ता होला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

सर्द हवाएँ सम्मोहित कर,
बाँ गई बंधन में ।
चांदी-जैसी धूप सुबह की,
बैठ गई आँगन में ।
सुधइयों ने चुपचाप कथा का,
पट धीरे से खोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

मधु के दिन कितने बीते हैं ,
कितनी ही पतझारें ।
जितनी चंद्रकलाएँ देखीं,
उतने टूटे तारे।
आँखों पर आ कर के ठहरा,
फूलों वाला डोला।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।
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सपना देखा

भूखे-प्यासों की बस्ती है,
तू भी कोई अपना देख ।
भूख तो बैठ कहीं पर,
दाल-भात का सना देख ।

तुझ पर रहमत है अल्ला की,
अब तक भी तू ज़िंदा है ।
जो भूखा है पाँच दिनों से,
उसका आज तड़पना देख ।

तेरा शक्कर तेरा सीधा,
हलुआ खाते पंडित जी ।
बैठ वहीं चुपचाप जमीं पर
राम नाम का जपना देख ।

तेरे मुंह से लिया निवाला,
वे तुझसे भी भूखे हैं ।
भूखे श्वानों को रोटी पर,
फिर से आज झपटना तेख ।

आज पेट की ज्वाला में जो,
लपटें उठती गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी में जीवन का,
लोहे-जैसा तपना देख ।


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