8/31/2006

नई परम्परा के कवि भवभूति (ललित निबंध )


वाल्मीकि के पश्चात करुण रस को मानवीय करुणा को साहित्य और समाज के सोच के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर देने वाले संभवतः भवभूति हैं। उनका कथन है कि एक करुणरस ही है जो विभिन्न राग मुद्रा के संयोग से अनेक रूपों में परिभाषित होता रहता है – पानी के बुलबुले की तरह, तरंग की तरह, भँवर की भाँति, फेन के माफिक –

एको रसः करुण एव निमित्तभेदा
द्भिन्न पृथक पृथगिव श्रयते विवर्तान्।
आवर्त बुदबुदतरङमयान्विकारान्
नम्मो यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्।।
- उत्तर चरित 3/47

कवि की इस प्रस्थापना की तह में जाकर विचार करें तो बड़बोलापन या नई बात कहकर साहित्य जगत को चौंका देने की मंशा नहीं है, अपितु श्रीराम के उत्तर चरित से उपजी संवेदना है – करुणा है। उसी का आवर्त है। परम्परा से रसराज की पदवी श्रृंगार को प्राप्त है। इस परम्परा के आगे बिना प्रश्न चिन्ह लगाये कवि ने करुणा को उसके आगे कर दिया। एक नई सोच दी। रस सोच के ही औरस पुत्र हैं। तरह-तरह की मानवीय चिन्ता – संवेदना साहित्य संसार में रस-राग के आकार-प्रकार में छवि धारणकर प्रकट होते रहते हैं – जलधर की भाँति भिगोने के लिए, तर करने के लिए, मानव होने के लिए। क्रौंचवध से उपजी पीड़ा – सोच ने आदि कवि को तरह-तरह के रस से युक्त आदि महाकाव्य रामायण रचने की प्रेरणा दी। मानों वही करुणा विविध रसों की भंगिमा में काव्यान बन गई। इसी परम्परा को मानों बढ़ाते हुए घनीभूत पीड़ा को भवभूति ने स्मृति से उतारकर ‘उत्तर रामचरितम्’ नाटक में करुण रस वाली नई अवधारणा की है। जैसे घनीभूत वाष्प कभी धारासार वर्षा में तो कभी बादल के फट पड़ने की और उसमें पर्वतों के धसक जाने की स्थिति निर्मित होती है, वैसे ही ‘उत्तररामचरित’ की करुणा - सीता-राम की पीड़ा ने पत्थर तक को अपने संग रोने के लिए – फट पड़ने के लिए विवश-सा कर दिया है – जो शेक्सपियर की त्रासदी नहीं कर सकी। सीता के वियोग से विकल जनस्थान के रोते हुए पत्थर और फटते हुए वज्रहृदय की गहराई को पश्चिमी त्रासदी कदाचित नहीं छू सकी है –

जनस्थाने शून्ये विकलकरणैरार्य चरितै
रपिग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्।। 1/28

वास्तव में करुणा यद्यपि दुखात्मक प्रकृति वाली है, परन्तु अन्य मौलिक प्रवृत्तियों की अपेक्षा यह त्वरित प्रतिक्रिया वाली है। यह अन्य प्रवृत्तियों को प्रतिक्रिया के लिए उकसाती है – कभी उत्साह को तो कभी क्रोध को, कभी घृणा को तो कभी शाँति-प्रेम को। करुणा की इसी व्यापक और सुखदुखात्मक प्रकृति को पहचानकर भवभूति ने अपनी प्रतिभा की भूति का प्रमाण दिया है। इसी से प्रभावित होकर उन्होंने आँचल में दूध और आँखों में आँसू समेटे स्त्री समजा के प्रति अपनी सहानुभूति विशेष रूप से अभिव्यक्त की है। सीता के विरह में राम को बार-बार रुलाया है। मूर्च्छित होने दिया है। करुण रस की भट्ठी में तपस्या है – (“पुटपाक प्रतिकाशो रामस्य करुणो रसः”) और उन्हें जन अदालत के कठघरे में खड़ा किया है – अपराध स्वीकारने के लिए। न्यायाधीश के द्वारा अपराधी करार दिये जाने पर अपराधबोध में वह प्रायश्चित का भाव नहीं रहता जो व्यक्ति के द्वारा स्वयं सबके सामने बिना किसी बाहरी दबाव के स्वीकारे जाने पर। राम ने स्वीकारा है कि एक तो रावण वध के बाद अग्नि परीक्षा लेना अन्याय था और उस पर से यह लोकापवाद के भय से निर्वासन दंड दिया जाना तो ‘अपूर्व चाण्डाल कर्म’ है। प्रेम से पाली गई चिड़िया को छल से बहेलिये के हाथ सौंप देना है –

“अपूर्वकर्मचाण्डालमयि मुग्धे विमु़ञ्चमाम्।
श्रितासि चन्दनभ्रान्त्या दुर्विपाकं विषद्रुमम्।।”
– उत्तर चरित 1/46

‘अपूर्वकर्मचाण्डाल’ राम को कहने का साहस या तो स्वयं राम ही कर सकते थे या भवभूति की कलम ही कर सकती थी। उनकी कलम स्त्री विषयक अनेक भ्रान्त धारणाओं और रुढ़ियों पर प्रहार करती है। मालतीमाधव नाटक में परम्परा से हटकर मालती और माधव के प्रेम परिणय के बाधक समाज को एक प्रकार से कालापिक करार दिया गया है। कापालिक अघोरघंट यदि मालती को बलि देने के लिए उद्यत है तो पिता भी मंत्री होकर भी राजा के बूढ़े नर्मसचिव नंदन से उसका ब्याह कर देने की स्वीकृति देकर कापालिक कर तरह बलि देने का ही मानो उपक्रम करते हैं – “निर्व्यूढ़ च निष्करुणतया तातस्य कापालिकत्वम्।” प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी ने ठीक ही कहा है कि “सामंतीय समाज में स्त्री को एक उपभोग की वस्तु बना दिये जाने के विरुद्ध प्रतिक्रिया कालिदास और भवभूति दोनों ने बड़े प्रखर रूप में दी है।... कवि के मन में स्त्री की छवि और समाज में उसकी चिन्त्य स्थिति दोनों को एक साथ विडंबना की शैली में भवभूति ने राम के मुख से व्यक्त किया है”
(दूसरी परम्परा के नाटककार भवभूति पृष्ठ 9) –
“त्यवा जगन्ति पुण्यानि त्वययपुण्या जनोक्तयः
नाथवन्त स्त्वया लोकास्त्वमनाथा विपत्स्यते।।”
– उत्तर चरित 1/43

रचनाकार चाहे जिस वर्ग या संस्कार को लेकर सरस्वती के मंदिर में आये, वह मानवता, समता, समस्त के प्रति प्रेम और सदभाव संजोये रहता है – संतों की तरह। खासकर दबे, दलित, शोषित, पीड़ित के प्रति प्रार्थना, निवेदन लेकर आता है। उसके निवेदन में आक्रोश-आकांक्षा, रीझ-खीझ होते हैं – समष्टि के कल्याण के लिए भवभूति का स्वर जरा ज्यादा ही ऊँचा-तीखा है – कबीर की भाँति। कालिदास तुलसीदास की सामाजिक राजनीतिक नजरिये में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं तो भवभूति कबीर की तरह। सड़े-गले मुल्यों एवं समयातीत सोच, परम्पराओं पर दोनों प्रहार करते हैं। स्त्री के लिए राज-समाज को प्रेरित करते हैं। वे व्यक्ति के सम्मान की योग्यता गुण को मानते हैं – जाति, लिंग, वय आदि को नहीं –

“न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्षते” – कालिदास कुमारसंभव
“गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङग न च वयः।”
– भवभूति उत्तर चरित 251

ब्याहता स्त्री के परित्याग व प्रसंग शाकुन्तलम् नाटक में भी है और उत्तर रामचरित में भी। दोनों नाटकों में दोनों नाटककारों ने राज-समाज की ओछी मनोवृत्तियों पर टिप्पणी की है, किंतु कालिदास की टिप्पणी उतनी तीखी नहीं है जितनी भवभूति की है। निर्वासन के अनौचित्य पर जनक कहते हैं कि यह तो सीता और मेरा भी अपमान है, तो कुरूपत्नी अरुंधती अग्निपरीक्षा को ही अनुचित ठहराती है। वे सीता को वंदनीय चरित्र मानकर उसे अग्नि से ज्यादा पवित्र मानती हैं।

तरह-तरह से कवि ने रुढ़ियों को तोड़ने की कोशिश की है। जोखिम उठाया है। अपने को घर के भीतर और बाहर भी अवज्ञा का पात्र बनाया है। स्त्री और शूद्र वेद पढ़ने के अधिकारी हैं। आत्रेयी नाम की तापसी वेद पढ़ने के लिए वाल्मीकि आश्रम में अतिथियों के कारण स्वाध्याय में बाधा पड़ते देख अगस्त्य ऋषि के आश्रम में जाती है। ‘मालतीमाधव’ की कामंदकी देवरात के साथ न्याय विद्या पढ़ती थी। देवरात बाद में अपने पुत्र माधव को उसके पास विद्या अध्ययन के लिए भेजता है। इसी तरह जनक जी के वाल्मीकि आश्रम में आगमन पर मधुपर्क कराया जाता है और वशिष्ठ ऋषि के आने पर बेचारी बछिया मारी जाती है। आतिथ्य का यह विधान वहाँ के आश्रमवासी छात्रों को उचित नहीं लगता।
मालती-माधव के प्रेम की मान्यता, धर्म की विकृति के प्रतीक कापालिक अघोरघंट का वध, शम्बूकवध हृदयहीन रूढ़ व्यवस्था के प्रति जनक माता कौसल्या आदि के आक्रोश की अभिव्यंजना भवभूति को क्रांतिकारी कवि प्रमाणित करने के पर्याप्त प्रमाण हैं। उन्होंने रामायणी कथा में बहुत कुछ परिवर्तन करते हुए साहस का परिचय दिया है यह साहस चमत्कार या नवता के व्यामोह में पड़कर नहीं किया गया है, अपितु उनके मन के अंदर उमड़-घुमड़ रही वह विचार वाष्प है जो मानवीय संवेदना के विविध रूपो में नाटकीयता के अनुरूप बरस पड़ती है, फूट पड़ती है – ज्वालामुखी की तरह। अन्तर्दाह से दग्ध होता राम मन भवभूति का पीड़ा तापित मन लगता है, जो श्लोक में परिणत हो गया है, जो अपने राम को न जीने देता है न मरने –

दलति हृदयं गाढोद्वेगं द्विधा तु न मिद्यते
वहर्ति विकलः कायो मोहं न मुञ्जति चेतनाम् ।।
ज्वलयति तनुमन्तर्दाहः करोति न भस्मसात्।
प्रहरति विधिर्मर्मच्छेदी न कृन्तति जीवितम्।।
- उत्तर रामचरित

अर्थात सीता विरह में राम कहते हैं कि गाढ़ोद्वेग हृदय को दल-सा रहा है, तथापि वह दो भागों में फट नहीं रहा है। विकल काया बार-बार मूर्च्छित होकर भी चेतना छोड़ नहीं रही है, अर्थात मूर्च्छा की अवस्था में भी पीड़ा का अहसास चैन नहीं लेने देता। अन्तर्दाह शरीर को जलाकर भस्म नहीं बना रहा है, ताकि दाह से मुक्ति मिले। दैव ने मेरे मर्म पर प्रहार किया है, परन्तु जीवन को समाप्त नहीं किया है, ताकि वह भोगता रहे। त्रासदी के नाटककार शेक्सपियर से तुलना करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है – “प्रसार-यथार्थ की विविधता मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ, चरित्र निर्माण की वास्तविकता – में यद्यपि शेक्सपियर आगे हैं, तथा गहराई – शोकानुभूति की तीव्रता, करुण रस ही नहीं, वात्सल्य आदि सुकुमार भावों की पराकाष्ठा – में भवभूति आगे हैं।”

– परम्परा का मूल्यांकन पृष्ठ 43

जैसे यथार्थ से साक्षात्कार प्रसाद भी करते हैं और निराला भी, परन्तु प्रसाद या प्रेमचन्द उस यथार्थ को प्रायः आदर्शोन्मुख बना देते हैं,जबकि निराला करुणोन्मुख वैसे ही कालिदास और भवभूति की काव्यानुभूति है। कालिदास दण्डकारण्य की सीताहरण घटना की स्मृति को रघुवंश में (14/25) सुखात्मक अनुभूति बना देते हैं तो भवभूति उत्तर रामचरित में चित्रदर्शन से उपजी स्मृति को दुखद। यह स्मृति लक्ष्मण को भी कचोटती है, तो राम को भी टीसती है। यह टीस “ते हि नो दिवसा गताः” - के रूप में राम मुख से प्रकट होती है। राम उसे भुला नहीं पाते। यह यथार्थ एक मुहावरा-सा बनकर संस्कृत में प्रचलित हो गया है।

सार्ववर्णिक वेद नाटक को भवभूति सर्वसंवेदना सहानुभूति से करुण बनाते हुए भावात्मक एवं शिल्प शैली के स्तर पर भी नई पम्परा का प्रवर्तन करते हैं। उनके तीनों नाटक विदूषकविहीन हैं। हास्यव्यंग्य पात्रहीन इन नाटकों में धार्मिक सामाजिक विडम्बना और विसंगति पर प्रहार या व्यंग्य संस्कृत का रूढ़ पात्र विदूषक राजा या नायक का मुँहलगा बनकर करता रहा है, हास्य के बहाने करता रहा है, किन्तु भवभूति के नाटकों में यह कार्य बच्चों और छात्रों से कराया गया है। लव और चन्द्रकेतु के बीच अश्वमेघ के घोड़े को रोक लेने के कारण जो संवाद हैं, वह सामंती व्यवस्था पर कड़ा प्रहार है। वासंती का सीधा-सीधा राग विषयक उपालम्भ भी इसके उदाहरण हैं। संभवतः भवभूति की करुणा ने गंभीरता के बीच विदूषकीय हल्कापन को टालने के लिए ऐसा किया हो।

भाषा और भाव दोनों स्तर पर भवभूति नाटकीय द्वन्द्व सृजन में निपुण हैं। एक ही श्लोक में अनेक विरोधी अनुरोधी भावों की व्यंजना जगह-जगह छूती है – बिहारी के दोहे की तरह। नाटकीय द्वन्द्व विधान के लिए कहीं रामायण की कथा में, कहीं भाषा में, रंगमंच की शैली में परिवर्तन किया गया है। डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी का मन्तव्य है कि “सामाजिक शक्तियों की द्वन्द्वात्मकता भवभूति के तीनों नाटकों की अन्तर्वस्तु कही जा सकती है।... महावीर चरित में राम कथा के क्षेत्रों में एक प्रवर्तक नाटक है। भवभूति ने साहस करके राम कथा के रंगमंचीय रूप का जो पैमाना बना दिया, उसका प्रतिरूप लेकर राजशेखर (बालरामायण), मुरारि (अनर्घराघव), जयदेव (प्रसन्नराघव) आदि ने रामायण की विषयवस्तु पर नाटक लिखे।”
– दूसरी पम्परा के नाटककार भवभूति पृष्ठ 13

भवभूति की तरह से अपनी प्रतिभा विभूति के द्वारा परम्परा की रेखाओं को मिटा मिटाये, उनके आगे नई परम्परा की रेखा खींचते हैं। “उन्होंने अपने शास्त्र ज्ञान और पाण्डित्य का खाद की तरह उपयोग करते हुए कविता की अपनी धरती पर उसके अपने दर्शन का पौधा रोपा और खड़ा किया।” (राधावल्लभ त्रिपाठी) कालिदास जो संस्कृत के कृतकृत्यता समृद्ध नाटककार हैं, अपने नाटकों में विवाहेतर प्रेम संबंध को प्रेम के आदर्श से, उसकी सामाजिकता से जोड़ा तो भवभूति ने वैवाहिक जीवन के प्रेम को आदर्श स्थिति का दर्शन रचा है। समन्वित जीवन का दर्शन। अद्वैत का दर्शन। अनन्यता का राग। तारामैत्रकम या चक्षुराग का गाढानुबंध कालिदास का तारामैत्रकम् शकुन्तला दुष्यन्त के प्रेम के रूप में उतनी ऊँचाई पर नहीं पहुँच पाता, जितनी ऊँचाई पर भवभूति के मालती-माधव का। एक के रम्यवीक्षण-श्रवण स्मृतिपटल को ही कुरेदकर चुक जाते हैं तो दूसरे के जोड़ते हैं, राग सूत्र में बाँधते हैं –

रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्
पर्युत्स्की भवति यत्सुखितोsपि जन्तुः।
तच्चनसा स्मरति नूनमबोधपूर्वं
भावस्थिराणि जननान्तर सौहृदानि।।
- कालिदास, शाकुन्तलम

व्यतिषजति पदार्थान्तरः कोsपि हेतु
ने खलु बहुरुपाधीन पर्तयः संश्रयन्ते।
विकसति हि पातङगस्योदये पुण्डरीकं
द्रवति य हिमरश्मावदगते चन्द्रकान्तः।।
- उत्तर रामचरित 6/12

“वेदान्त के ब्रह्म, बौद्धों के शून्य तथा मीमांसकों के अदृष्ट को भवभूति ने अपनी कविता में अन्ततः प्रेम तत्व के द्वारा विस्थापित कर दिया है। प्रेम का एक सर्वव्यापी सत्ता के रूप में उसकी अपार और अप्रत्याशित संभावनाओं के अनुभव के साथ वे जो निर्वचन देते हैं, वह किसी दर्शन के प्रस्थान में परम सत्ता का ही निर्वचन हो सकता है।”

प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, दूसरी परम्परा के नाटककार भवभूति पृष्ठ 25

‘उत्तररामचरितम्’ नाटक भवभूति के विलक्षण प्रतिभा वैभव का विलक्षण प्रसाद है। उनके वेद, उपनिषद, साँख्य आदि दर्शन, ज्ञान, लोक-लगाव और नाटक धर्म से सीधे जुड़ावों का मधु मिश्रण है। उनकी प्रतिभा प्रयोगधर्मी है। वह दर्शन-वर्णन, परम्परा और प्रयोग को नाटकीय अनुरोध की शर्त पर दूध-पानी की तरह घुलाती हैं। परम्परा के आगे नई रेखा खींचती है। पूर्व रंग, नान्दी, रस, भाषा, मंच विधान, कथा-विन्यास, प्रकृति चित्रण प्रेम अभिव्यंजना सभी स्तर पर कवि ने लीक से हटकर नई लीक बनाई है। वाल्मीकि की करुणा को परिपूर्णता दी है। राम भगवान से उतारकर महावीर रूप में अवतरित कराया है। प्रकृति के कोमल-कठोर, सुखद और त्रासद रूपों का एकत्र दर्शन कराकर जीवन के तिक्त, अम्ल-मधुर भावों का रस चरवाया है। लोकजीवन की सच्ची अनुभूति से नाटक को केवल मनोरंजन का माध्यम न बनाकर जागरण का हेतु भी बनाया है। संवेदनाशून्य शास्त्र और नपुंसक परिणामरहित करुणा – ‘आह-ओह’ को नकारा है। इस नकार का प्रतिफलन रामायण कथा के नव साक्षात्कार नाट्य रंग के विधान तथा भाव-भाषा में देखा जा सकता है। निश्चय ही कालिदास के बाद भवभूति संस्कृत की विलक्षण भूति हैं। भारतसावित्री की विभूति हैं। इस स्मरणीय विभूति को बारंबार प्रकट में संजोये रहेगी –

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरुपेण संस्थिता
नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमोनमः।।
- दुर्गा सप्तशती
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0शोभाकांत झा
(लेखक हिंदी के ख्यात ललित निबंधकार हैं )

8/28/2006

यश मालवीय के पाँच गीत

.......................................
कोई चिनगारी तो उछले
.................................................
अपने भीतर आग भरो कुछ
जिस से यह मुद्रा तो बदले ।

इतने ऊँचे तापमान पर
शब्द ठुठुरते हैं तो कैसे,
शायद तुमने बाँध लिया है
ख़ुद को छायाओं के भय से,

इस स्याही पीते जंगल में
कोई चिनगारी तो उछले ।

तुम भूले संगीत स्वयं का
मिमियाते स्वर क्या कर पाते,
जिस सुरंग से गुजर रहे हो
उसमें चमगादड़ बतियाते,

ऐसी राम भैरवी छेड़ो
आ ही जायँ सबेरे उजले ।

तुमने चित्र उकेरे भी तो
सिर्फ़ लकीरें ही रह पायीं,
कोई अर्थ भला क्या देतीं
मन की बात नहीं कह पायीं,
रंग बिखेरो कोई रेखा
अर्थों से बच कर क्यों निकले ?
...............................................
गाँव से घर निकलना है
..............................................
कुछ न होगा तैश से
या सिर्फ़ तेवर से,
चल रही है, प्यास की
बातें समन्दर से ।

रोशनी के काफ़िले भी
भ्रम सिरजते हैं,
स्वर आगर ख़ामोश हो तो
और बजते हैं,

अब निकलना ही पड़ेगा,
गाँव से- घर से

एक सी शुभचिंतकों की
शक्ल लगती है,
रात सोती है
हमारी नींद जगती है,

जानिए तो सत्य
भीतर और बाहर से ।

जोहती है बाट आँखें
घाव बहता है,
हर कथानक आदमी की
बात कहता है,
किसलिए सिर भाटिए
दिन- रात पत्थर से ।
...............................................
फूल हैं हम हाशियों के
...............................................

चित्र हमने हैं उकेरे
आँधियों में भी दियों के,
हमें अनदेखा करो मत
फूल हैं हम हाशियों के ।

करो तो महसूस,
भीनी गंध है फैली हमारी,
हैं हमी में छुपे,
तुलसी – जायसी, मीरा – बिहारी,

हमें चेहरे छल न सकते
धर्म के या जातियों के ।

मंच का अस्तित्व हम से
हम भले नेपथ्य में हैं,
माथे की सलवटों सजते
ज़िंदगी के कथ्य में हैं,

धूप हैं मन की, हमीं हैं,
मेघ नीली बिजलियों के ।

सभ्यता के शिल्प में हैं
सरोकारों से सधे हैं,
कोख में कल की पलें हैं
डोर से सच की बँधे हैं,

इन्द्रधनु के रंग हैं,
हम रंग उड़ती तितलियों के ।

वर्णमाला में सजे हैं
क्षर न होंगे अग्नि-अक्षर,
एक हरियाली लिये हम
बोलते हैं मौन जल पर,

है सरोवर आँख में,
हम स्वप्न तिरती मछलियों के ।

.........................................
ऐसी हवा चले
...........................................

काश तुम्हारी टोपी उछले
ऐसी हवा चले,
धूल नहाएँ कपड़े उजले
ऐसी हवा चले ।

चाल हंस की क्या होगी
जब सब कुछ काला है,
अपने भीतर तुमने
काला कौवा पाला है,

कोई उस कौवे को कुचले
ऐसी हवा चले ।

सिंहासन बत्तीसी वाले
तेवर झूठे हैं,
नींद हुई चिथड़ा, आँखों से
सपने रुठे हैं,

सिंहासन- दुःशासन बदले
ऐसी हवा चले ।

राम भरोसे रह कर तुमने
यह क्या कर डाला,
शब्द उगाये सब के मुँह पर
लटका कर ताला,

चुप्पी भी शब्दों को उगले
ऐसी हवा चले ।

रोटी नहीं पेट में लेकिन
मुँह पर गाली है,
घर में सेंध लगाने की
आई दीवाली है,

रोटी मिले, रोशनी मचले
ऐसी हवा चले ।
.................................
उजियारे के कतरे

......................... ........

लोग कि अपने सिमटेपन में
बिखरे-बिखरे हैं,
राजमार्ग भी, पगडंडी से
ज्यादा संकरे हैं ।

हर उपसर्ग हाथ मलता है
प्रत्यय झूठे हैं,
पता नहीं हैं, औषधियों को
दर्द अनूठे हैं,

आँखें मलते हुए सबेरे
केवल अखरे हैं ।

पेड़ धुएं का लहराता है
अँधियारों जैसा,
है भविष्य भी बीते दिन के
गलियारों जैसा

आँखों निचुड़ रहे से
उजियारों के कतरे हैं ।

उन्हें उठाते
जो जग से उठ जाया करते हैं,
देख मज़ारों को हम
शीश झुकाया करते हैं,

सही बात कहने के सुख के
अपने ख़तरे हैं ।


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परिचय

जन्म- 18 जुलाई 1962 (कानपुर)
शिक्षा- स्नातक (इलाहाबाद से)
प्रकाशित संकलन-
गीत संग्रहः कहो सदाशिव, उड़ान से पहले, राग-बोध के 2 भाग
बाल काव्यः ताक-धिना-धिन
दोहा संग्रहः चिनगारी के बीज
पुरस्कारः
निराला सम्मान (उ.प्र.हिन्दी संस्थान)
बाल साहित्य पुरस्कार (उ.प्र. हिन्दी संस्थान)
अ.भा.युवा श्रेष्ठ कवि (मोदी कला भारती)

उमाकांत साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचते रहते हैं । युवा गीतकारों में से एक अच्छे गीतकार के रूप में स्थान बनाते जा रहे हैं । आकाशवाणी व दूरदर्शन से निरंतर प्रसारित हो रहे हैं । स्व. श्री उमाकांत मालवीय के सुपुत्र होने का सौभाग्य ।

यश मालवीय
ए-111, मेंहदौरी कालोनी
इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश

8/27/2006

उमाकांत मालवीय के लोकप्रिय गीत

यह अँजोरे पाख की एकादशी


यह अँजोरे पाख की एकादशी

दूध की धोयी, विलोयी-सी हँसी ।

गंधमाती हवा झुरुकी चैत की,

अलस रसभीनी युवा मद की थकी

लतर तरु की बाँह में,

चाँदनी की छाँह में

एक छवि मन में कहीं तिरछी फँसी

गोल लहरें, जुन्हाई अँगिया कसी ।



हर बटोही को टिकोरे टोंकते,

और टेसू, पथ अगोरे रोकते

कमल खिलते ताल में,

बसा कोई ख्याल में

चंद्रमा, श्रृंगार का ज्यों आरसी,

रात, जैसे प्यार के त्यौहार-सी ।



गुनगुनाती पाँत भँवरों की चली,

लाज से दुहरी हुई जाती कली

धना बैठी सोहती,

बाट प्रिय की जोहती

द्वार पर ज्यों सगुन बन्दनवार-सी

रस भिंगोयी सुघर द्वारा चार-सी ।

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झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,


झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,

इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।



जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,

रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।

ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,

रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।



शायद कल मानव की हों न सूरतें

शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।

आदम के शकलों की यादगार हम,

इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।



पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,

हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।

प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,

पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?

~*~*~*~*~*~*~*~



गुजर गया एक और दिन

गुजर गया एक और दिन

रोज की तरह ।



चुगली औ’ कोरी तारीफ़,

बस यही किया ।

जोड़े हैं काफिये-रदीफ़

कुछ नहीं किया ।

तौबा कर आज फिर हुई,

झूठ से सुलह ।



याद रहा महज नून-तेल,

और कुछ नहीं

अफसर के सामने दलेल,

नित्य क्रम यही

शब्द बचे, अर्थ खो गये,

ज्यों मिलन-विरह ।



रह गया न कोई अहसास

क्या बुरा-भला

छाँछ पर न कोई विश्वास

दूध का जला


कोल्हू की परिधि फाइलें

मेज की सतह ।



‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,

यहाँ यह मजा ।

मुँहदेखी, यदि न करो बात

तो मिले सजा ।

सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों –

के लिए जगह ।



डरा नहीं, आये तूफान,

उमस क्या करुँ ?

बंधक हैं अहं स्वाभिमान,

घुटूँ औ’ मरूँ

चर्चाएँ नित अभाव की –

शाम औ’ सुबह।



केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,

और बेबसी ।

अपनी सीमाओं का बोध

खोखली हँसी

झिड़क दिया बेवा माँ को

उफ्, बिलावजह ।

~*~*~*~*~*~*~*~



पल्लू की कोर दाब दाँत के तले


पल्लू की कोर दाब दाँत के तले

कनखी ने किये बहुत वायदे भले ।



कंगना की खनक

पड़ी हाथ हथकड़ी ।

पाँवों में रिमझिम की बेडियाँ पड़ी ।



सन्नाटे में बैरी बोल ये खले,

हर आहट पहरु बन गीत मन छले ।



नाजों में पले छैल सलोने पिया,

यूँ न हो अधीर,

तनिक धीर धर पिया ।



बँसवारी झुरमुट में साँझ दिन ढले,

आऊँगी मिलने में पिय दिया जले ।

~*~*~*~*~*~*~*~


एक चाय की चुस्की



एक चाय की चुस्की

एक कहकहा

अपना तो इतना सामान ही रहा ।



चुभन और दंशन

पैने यथार्थ के

पग-पग पर घेर रहे

प्रेत स्वार्थ के ।

भीतर ही भीतर

मैं बहुत ही दहा

किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।



एक अदद गंध

एक टेक गीत की

बतरस भीगी संध्या

बातचीत की ।

इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा

छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा ।



एक कसम जीने की

ढेर उलझने

दोनों गर नहीं रहे

बात क्या बने ।

देखता रहा सब कुछ सामने ढहा

मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा ।

~*~*~*~*~*~*~*~


टहनी पर फूल जब खिला



टहनी पर फूल जब खिला

हमसे देखा नहीं गया ।



एक फूल निवेदित किया

गुलदस्ते के हिसाब में

पुस्तक में एक रख दिया

एक पत्र के जवाब में ।

शोख रंग उठे झिलमिला

हमसे देखा नहीं गया ।

प्रतिमा को

औ समाधि को

छिन भर विश्वास के लिये

एक फूल जूड़े को भी

गुनगुनी उसांस के लिये ।

आलिगुंजन गंध सिलसिला

हमसे देखा नहीं गया ।



एक फूल विसर्जित हुआ

मिथ्या सौंदर्य-बोध को

अचकन की शान के लिये

युग के कापुरुष क्रोध को

व्यंग टीस उठी तिलमिला ।

हमसे देखा नहीं गया ।

.........000.........

8/22/2006

पं. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल नहीं रहे

पं. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल की स्मृतियों की गंध सदियों तक रहेगी

रायपुर, 20 अगस्त ।छत्तीसगढ़ विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष एवं साहित्यकार-चिंतक-समाजसेवी संस्कृति पुरुष पंडित राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल के असामयकि निधन के बाद आज वैभव प्रकाशन परिसर में छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति तथा सृजन-सम्मान संस्था के द्वारा श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया । छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने पंडित शुक्ल को आधुनिक छत्तीसगढ़ का साहित्य-संस्कृति का निर्माता बताया । ज्ञातव्य हो कि श्री शुक्ल का 20 अगस्त को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया ।

प्रारंभ में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सचिव डॉ. सुधीर शर्मा ने पं. शुक्ल का विस्तृत जीवन करिचय दिया । समिति के कार्यकारी अध्यक्ष श्री गिरीश पंकज ने भावविभोर होकर संस्मरण सुनाए और उन्होंने कहा कि ऐसे महापुरुष दुनिया में कम ही पैदा होते हैं । श्री शुक्ल मूलतः कवि थे। कवि बसंत दीवान ने कहा कि धर्म-संस्कृति,आध्यात्म पर वे अधिकारपूर्वक बोलते थे। डॉ. चित्तरंजन कर ने कहा कि पं. शुक्ल में गुणग्राहिता अत्यधिक थी। वे लोगों की प्रतिभा का सम्मान करते थे। साहित्यकार होने के कारण वे राजनीति में खरे उतरे । हाइवे चैनल संपादक प्रभाकर चौबे ने कहा कि संसदीय परंपरा –संस्कृति के वे आधार-स्तंभ ते । उन्होंने उनकी युवावस्था के चित्र प्रस्तुत किए । संगीतविद् प्रो. गुणवंत व्यास ने कहा कि वे कला एवं संगीत के क्षत्र में भी दिलचस्पी रखते थे। प्रो. विनोद शंकर शुक्ल ने रायपुर में उनकी साहित्यिक सक्रियता का स्मरण किया । वे साहित्य को प्रथम प्राथमिकता देते थे।

विधानसभा के पूर्व जनसंपर्क प्रमुख एच.एस.ठाकुर ने कहा कि उनके व्यक्तित्व के आसपास ऐसी संस्था विद्यामान रहती थी जिसके चारों ओर एक आभा मंडल प्रकाश बिखरा रहता था । छत्तीसगढ़ में साहित्यिक –सास्कृतिक वातावरण का निर्माण उन्होंने किया । वरिष्ठ पत्रकार श्री बसंत तिवारी ने बताया कि राजनीति में साहित्य के स्वभाव प्रेरणा उन्हें पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र से मिली । साहित्य-संस्कृति और समाजसेवा में कार्यरत लोगों को ही पीढ़ियां याद करती हैं , इस कार्य को राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल ने समझ लिया था। डॉ. महेशचंद्र शर्मा ने कहा कि रामायण मेरे की सफलता का जिक्र किया । वे तुलसी के उपासक थे। सृजन-सम्मान के महासचिव श्री राम पटवा ने कहा कि आज का दिन अत्यंत दुखद है। श्री शिवकुमार त्रिपाठी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि वे सचमुच में सद्भावना के सिपाही थे। डॉ. शोभाकांत झा ने कहा कि वे लोगों को पहली नज़र में जान जाते थे।

श्रद्धांजलि सभा में रायपुर दूरदर्शन केंद्र निदेशक श्री बैकुण्ठ पाणिग्रही ने कहा कि प्रथम विधानसभा के समय का दृश्य मुझे याद है। उनसे बेझिझक मिला जा सकता था। वे निर्भीक सहज-सरज थे।

श्रद्धांजलि सभा मे हिंदी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष श्री रमेश नैयर ने कहा कि वे पत्रकारिता के मूल्यों को समझते थे। वे राष्ट्रीय मुद्दों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विचार व्यक्त करते थे। उनके मन की व्यथा को वे सूक्तियों में व्यक्त किया करते थे। उनका निवास साहित्य का तीर्थ बन गया था। पं. शुक्ल की स्मृतियों की गंध समूचे छत्तीसगढ़ में सदियों तक फैलता रहेगा। कवि श्री रामेश्वर वैष्णव ने कहा वे प्रखर चिंतक,मुखर वक्ता एवं शिखर राजनीतिज्ञ थे।

श्रद्धांजलि सभा में आसिफ इकबाल, सुरेन्द्रनाथ पाठक, जयप्रकाश मानस ,ऋषिराज पांडेय, पी. अशोक शर्मा, आदेश ठाकुर,राजेश केशरवानी, के.के. सिंह, रामेश्र्वर वैष्णव सहित बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, साहित्यकार एवं पत्रकार उपस्थित थे। समिति के अखिल भारतीय महामंत्री अनंतराम त्रिपाठी, राजेन्द्र जोशी आदि ने दूरभाष पर श्रद्धांजलि दी है।

विज्ञप्ति

।। प्रवासी रचनाकारों से रचना आमंत्रण ।।

इधर अनेक रचनाकारों ने प्रवास की जटिल परिस्थितियों में रहने के बावजूद हिंदी साहित्य को अपना बहुमूल्य योगदान दिया है जबकि इधर प्रवासी हिंदी-लेखन पर अब तक हिंदी के आलोचकों की वह स्नेह दृष्टि नहीं पड़ सकी है। यह किसी दुखद प्रसंग से कमतर नहीं । हमने इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए आने वाले दिनों में लगातार कुछ खास योजनाओं पर कार्य करने का निश्चय किया है । जिससे आप शनैः-शनै विदित होते रहेंगे ।


प्रथम चरण में हमने विगत 3 माह से छत्तीसगढ़ राज्य की महत्वपूर्ण साहित्यिक संगठन सृजन-सम्मान के सौजन्य से www.srijangatha.com बेबपत्रिका का प्रांरभ किया है । इस पत्रिका के मूल उद्देश्यों में प्रवासी लेखन और और भारत में हिंदी लेखन के मध्य सेतु स्थापन भी है । यह प्रिंट माध्यम से भी प्रकाशित हो रही है ।


“प्रवासी कवि” सृजनगाथा का एक मुख्य स्तम्भ है, जिसके बहाने हम हिंदी-साहित्य के प्रवासी-साधकों पर एक मूल्याँकनात्मक टिप्पणी (समीक्षा) प्रकाशित कर रहे हैं। हमने इसकी शुरूआत अगस्त अंक में ब्रिटेन के प्रवासी युवा कवि श्री मोहन राणा से की हैं ।


इस स्तम्भ के लिए इस परिप्रेक्ष्य में आग्रह है कि प्रवासी रचनाकार अपने लेखन की मुख्य विधा में अपनी समग्र या कम से कम 50 रचनाएं (कविताएँ) हमें अपने बायोडेटा, आत्मकथ्य, छायाचित्र के साथ प्रेषित कर दें । आप रचनाओं के प्रकाशन का विवरण भी दे सकते हैं । असुविधा न हो तो आप प्रकाशित कृतियाँ भी हमें भिजवा सकते/ सकती हैं । वैसे यह शर्त नहीं है ।


सृजनगाथा में यह प्राप्ति एवं वरिष्ठता के अनुक्रम में क्रमशः प्रकाशित हो सकेगा । सृजन-सम्मान का प्रयास होगा कि यह भविष्य में समग्रतः एक पुस्तक के रूप में भी आपको यथासमय मिल सके । आप इस संबंध में अपनी राय से अवगत करा सकते हैं ।


आशा है और विश्वास भी कि आपका सहयोग हमें इस दिशा में मिल सकेगा ।

रचना भेजने का पता हैः E-mail- srijangatha at gmail.com
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8/20/2006

कुंवर नारायण की 4 कविताएँ

एकः उत्केंद्रित ?

मैं ज़िंदगी से भागना नहीं

उससे जुड़ना चाहता हूँ । -

उसे झकझोरना चाहता हूँ

उसके काल्पनिक अक्ष पर

ठीक उस जगह जहाँ वह

सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा ।



उस आच्छादित शक्ति-स्त्रोत को

सधे हुए प्रहारों द्वारा

पहले तो विचलित कर

फिर उसे कीलित कर जाना चाहता हूँ

नियतिबद्ध परिक्रमा से मोड़ कर

पराक्रम की धुरी पर

एक प्रगति-बिन्दु

यांत्रिकता की अपेक्षा

मनुष्यता की ओर ज़्यादा सरका हुआ......


000000

दोः जन्म-कुंडली



फूलों पर पड़े पड़े अकसर मैंने


ओस के बारे में सोचा है –

किरणों की नोकों से ठहराकर

ज्योति-बिन्दु फूलों पर

किस ज्योतिर्विद ने

इस जगमग खगोल की

जटिल जन्म-कुंडली बनायी है ?

फिर क्यों निःश्लेष किया

अलंकरण पर भर में ?

एक से शुन्य तक

किसकी यह ज्यामितिक सनकी जमुहाई है ?



और फिर उनको भी सोचा है –

वृक्षों के तले पड़े

फटे-चिटे पत्ते-----

उनकी अंकगणित में

कैसी यह उधेडबुन ?

हवा कुछ गिनती हैः

गिरे हुए पत्तों को कहीं से उठाती

और कहीं पर रखती है ।

कभी कुछ पत्तों को डालों से तोड़कर

यों ही फेंक देती है मरोड़कर ..........।



कभी-कभी फैलाकर नया पृष्ठ – अंतरिक्ष-

गोदती चली जाती.....वृक्ष......वृक्ष......वृक्ष

00000000000


तीनः अबकी बार लौटा तो



अबकी बार लौटा तो

बृहत्तर लौटूँगा

चेहरे पर लगाये नोकदार मूँछें नहीं

कमर में बाँधें लोहे की पूँछे नहीं

जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को

तरेर कर न देखूँगा उन्हें

भूखी शेर-आँखों से



अबकी बार लौटा तो

मनुष्यतर लौटूँगा

घर से निकलते

सड़को पर चलते

बसों पर चढ़ते

ट्रेनें पकड़ते

जगह बेजगह कुचला पड़ा

पिद्दी-सा जानवर नहीं



अगर बचा रहा तो

कृतज्ञतर लौटूँगा



अबकी बार लौटा तो

हताहत नहीं

सबके हिताहित को सोचता

पूर्णतर लौटूँगा
00000000000


चारः घर पहुँचना



हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर

अपने अपने घर पहुँचना चाहते



हम सब ट्रेनें बदलने की

झंझटों से बचना चाहते



हम सब चाहते एक चरम यात्रा

और एक परम धाम



हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं

और घर उनसे मुक्ति



सचाई यूँ भी हो सकती है

कि यात्रा एक अवसर हो

और घर एक संभावना



ट्रेनें बदलना

विचार बदलने की तरह हो

और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों

वही हो

घर पहुँचना
00000000000




www.srijangatha.com (यानी हिंदी साहित्य का विपुल भंडार)

8/18/2006

अजय पाठक के सरस गीत

माया

माया !
अद्भूत रूप द्खाए,
ज्यों बादल में बिजली चमके
और पुनः छिप जाए ।

कभी नेह का रंग चढ़ाकर,
भरमाए आँखों को ।
रुचिर-सरस नवगंध सनाए,
महकाए साँसों को ।
जितनी बार निहारें उसको,
उतनी और सुहाए ।
माय अद्भुत रूप दिखाए !

मन के पोकर में लहराए,
भोली प्राण पछरिया,
उसके चारों ओर फिराए,
माया एक रसरिया,
उसके चारों ओर फिराए,
माया एक रसिरया ।
मधुर फांस के फंदे डाले,
बैठी जाल बिछाए ।
माया अद्भुत रूप दिखाए !

सुनेपन का लाभ उठाकर,
आए शांत भुवन में ।
मंथर पदचापों को धरते,
पहुँचे सीधे मन में ।
दिन भर उन्मत करे ठिठोली,
सांझ हुए सकुचाए ।

माया !
अद्भुत रूप दिखाए,
ज्यों बादल में बिजली चमके
और पुनः छिप जाए ।
........................
पहली किरण

हिल गए निर्णाण सारे,
नींव ढहती जा रही है ।
प्राण के नेपथ्य से फिर,
आज कोयल गा रही है ।

काँपते तन को लिए मैं,
आज बेसुध-सा खड़ा हूँ ।
अण्डहर के बीत कोई,
एक पत्थर-सा पड़ा हूँ ।
और ऊपर से प्रलय की,
धार बहती जा रही है ।

आज सुधियों में उभरती,
एक भूली-सी कहानी ।
और नयनों से उमड़कर,
बह गया दो बूँद पानी ।
बंधनों की फिर सरकती,
डोर छूटी जा रही है ।

भोर ही पहली किरण है,
लुप्त हैं नभ के सितारे ।
शून्य मन की चेतना है,
मौन हैं आंगन-दुआरे ।
भोर लंबी वेदना की,
बात कहती जा रही है ।
.........................
गहरे पानी में

गहरे पानी में पत्थर मत फेंको,
ऐसा करने से हलचल हो जाती है ।
झिलमिल पानी में लहरें उठती हैं,
ये लहरें चलकर दूर तलक जाती हैं ।

पत्थर तो आखिर पत्थर होता है,
क्या रिश्ता उसका जल से या दर्ऱण से ।
निर्मोही जिससे टकराता है,
उसके अंतर से आह निकल जाती है ।

ठहरे पानी में कंपन की पीड़ा,
उसके भीतर का मौन समझ सकता है ।
सागर से गहरे-गहरे अंतर में,
भीतर ही भीतर और उतर जाती है ।

पर, लहरों का तो जीवन होता है,
जो अपनी बीती आप कहा करती है ।
इनकी भाषाएए आदिम भाषाएँ
हर बोली इनकी अनहद कहलाती है ।

ये लहरें जो कुछ बोला करती हैं,
मैं उन शब्दों पर ग़ौर किया करता हूँ ।
कुछ व्यक्त हुई उन्मत्त हिलोरों में...
कुछ बातें उनके भीतर रह जाती हैं ।
..................
मर्यादा

अपनी मर्यादाएँ फूहड़,
उनकी...शोख अदाएँ चंचल ।
उनकी बातें ब्रह्म-वाक्य है,
अपनी बोली बात अनर्गल ।

आँखों में लाली विलास की,
दिखती है, खाली गिलास की ।
ए, सी, कमरा मुर्ग-मसल्लम्,
होठों पर बातें विकास की ।
उनकी आमद भाग्य जगाए,
अपना दर्शन.. महा अमंगल ।

देश-प्रेम की बात करे हैं
भीतर में उन्माद भरे हैं ।
उनके षडयंत्रों के चलते,
जाने कितने लोग मरे हैं ।
उनके आँसू गंगाजल हैं ।
उनके आँसू गंगाजल हैं,
अपनी.. बहते नाली का जल

नैतिकता के पाठ पढ़ाएँ,
घर को सोने से मढ़वाएँ ।
अपने स्वारथ की वेदी पर,
समरसता को भेंट चढ़ाए ।
उनका भाषण अमर गान हैं,
अपना शब्द-शब्द विश्रृंखल ।
अपनी मर्यादाएँ फूहड़,
उनकी... शोख अदाएँ चंचल
.............................
मधुपान करा दो

जलते वन के इस तरुवर को,
पावस का संज्ञान करा दो ।
आज प्रिये मधुपान करा दो ।

सुख-दुख के ताने-वाने में,
उलझा रहा चिरंतर...दुर्गम पथ पर,
चोटिल पग ले,
चलता रहा निरंतर....
जीलित हूँपर, जीवन क्या है
इसका मुझको भान करा दो,
आज प्रिये मधुपान करा दो ।

थके हुए निर्जल अधरों में,
फिर से प्यास जगी है ।
सुलग रही यह काया भीतर,
जैसे आग लगी है ।
देको मेरी ओर नयन भर,
तृष्णा का अवासान करा दो ।

जैसे दूर हुए जाते हैं,
हम खुद ही अपने से ।
अच्छे दिन जो बीत चुके हैं,
लगते हैं सपने-से ।
मन में श्याम-निशाएँ गहरी,
उसका एक विहान करा दो ।
आज प्रिये मधुपान करा दो ।
........................
सपने सजाऊँ

आँख में सपने सजाऊँ
प्रेम की बाती जलाऊँ,
कौन-सा मैं गीत गाऊँ, यह समझ आता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।
चाँदनी बेचैन होकर,
देखती है राह कब से ।
खुशबुओं से तर हवाएँ,
पूछती हैं बात हमसे ।
लाज के परदे हटाओ,
दूरियाँ अब तो घटाओ,
रूप के लोभी नयन से अब रहा जाता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।
आज खाली है जिगर में,
प्रीत की पीली हवेली ।
बन गई अन्जान सारी,
ज़िन्दगी जैसे पहेली ।
आज मन में नेह भर दो,
प्राण को संतृप्त कर दो,
तन-बदन की इस जलन को अब सहा जाता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।
ज़िदगी एक दूसरा ही,
नाम है जैसे हवन का ।
होम करने को मिला हो,
एक पल जैसे मिलन का ।
ध्येय सारे छोड़ आओ,
बंधनों को तोड़ आओ,
वक्त जालिम है प्रिये, वह लौट कर आता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुमहारे बिन संवर पाता नहीं है ।
......................
उसने देखा

उसने देखा आज हमारी आँखों में,
जैसे बिजली चमकी हो बरसातों में ।

सहारा ने सागर का पानी सोख लिया,
ऐसा ही एहसास हुआ जज़्बातों में ।

तन्हाई में रहना अच्छा लगता है,
खुद ही से बातें करते हैं रातों में ।

आँखों में रंगीन फ़िज़ाओं का मंज़र,
सच्चाई को ढूँढ़ रहा है बातों में ।

रूह तलक महके हैं ऐसा लगता है,
कोई खुशबू घोल गया है साँसों में ।
.................................................
हम प्रणय गीत कैसे गाएँ

जब चारों ओर निराशा हो,
सन्नाटा और निराशा हो ।
मन आकुल हो जब दीन-हीन,
तन बेसुध भूखा-प्यासा हो ।
रोदन की हाहाकारों में,
तुम कहते हो कि मुस्काएँ ।
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

जलता हो भीतर दावानल,
लोहा भी जाता उबल-उबल ।
मथ सागर को मँदरांचल से,
पाते हैं केवल महा गरल ।
इस महाभयंकर पीड़ा को,
हम विषपायी हो सह जाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

अंतर में केवल रहा क्लेश,
अब नहीं यहाँ कुछ बचा शेष ।
पथ निर्जन, बंजर और कठिन,
आँखें हैं श्रम से निर्निमष ।
क्या संभव है कि ऐसे में,
यह अधर भला कुछ कह पाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

घेरे हैं चार दिशाओं से,
जनजीवन की यह आकुलता ।
वह शापित कारक और व्यथा,
वह निर्बलता यह दुर्बलता ।
जब जीवन, ज्वाला में जलता,
क्या गाल बजाते रह जाएं ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

इस परधीन-से जीवन में,
अब हर्ष रहा किसके मन में ?
बस गयी विकलता ठौर-ठौर,
कस गए नियति के बंधन में ।
इस अवसर पर कुछ संभव है,
अवरोधक थोड़े ढह जाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?
..............................
पार्थ के सम्मुख

सृष्टि में सर्जना का,
दौर ऐसा चल रहा है।
पार बैठा है अँधेरा,
और दीपक जल रहा है ।

कौन किसके साथ,
कैसा मीत, क्या रिश्ते यहाँ ।
पूछ मत अपना बनाकर,
कौन किसको छल रहा है

जड़ हुई जाती यहाँ,
संवेदना को देख ले ।
फूल-सा मन किस तरह से,
पत्थरों में ढल रहा है ।

आजकल के देवता को,
क्या भला अर्पित करें हम ।
पाप को वरदान हासिल,
पुण्य ही निष्फल रहा है ।

धर्म तो संघर्ष का ही,
नाम है जैसे यहाँ,
पार्थ के सम्मुख हमेएशा,
कौरवों का दल रहा है ।
....................
गजरा टूटा

गजरा टूटा, कजरा फैला,
अस्त-व्यस्त हो गई बेड़ियाँ ।
बिंदिया सरकी, आँचल ढरका,
धुली महावर लगी एड़ियाँ ।
साँसों की संतूर बजी थी,
पायल की खनखन यारों....
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।

कंगना खनका, संयम बहका,
प्यास-प्यासा मन भीगा ।
चूड़ी टूटी, बिछुआ सरका,
और पाँव तक तन भीगा।
बिखर गई बंधन की डोरी,
निखर गया तन मन यारों....
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।

कुंकुंम फैला,
रोली भीगी,
अक्षत-चंदन गंध धुली।
अलकें बोझिल, निद्रालस में,
लगती हैं अधखुली-खुली,
सांसों की वीणाएँ गूंजी ।
दुर हुआ अनबन यारों ।
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।
........................
वही पखेरू

कई बरस तक, मन के भीतर,
बैठा रहा अबोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-जोर से बोला ।

धीरे-धीरे खामोशी की,
टूटी है तनहाई,
सपने सारे जाग उठे हैं,
ले-ले कर अगड़ाई ।
तेज़ हवाएँ चली,
पेड़ का पत्ता-पत्ता होला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

सर्द हवाएँ सम्मोहित कर,
बाँ गई बंधन में ।
चांदी-जैसी धूप सुबह की,
बैठ गई आँगन में ।
सुधइयों ने चुपचाप कथा का,
पट धीरे से खोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

मधु के दिन कितने बीते हैं ,
कितनी ही पतझारें ।
जितनी चंद्रकलाएँ देखीं,
उतने टूटे तारे।
आँखों पर आ कर के ठहरा,
फूलों वाला डोला।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।
...........................
सपना देखा

भूखे-प्यासों की बस्ती है,
तू भी कोई अपना देख ।
भूख तो बैठ कहीं पर,
दाल-भात का सना देख ।

तुझ पर रहमत है अल्ला की,
अब तक भी तू ज़िंदा है ।
जो भूखा है पाँच दिनों से,
उसका आज तड़पना देख ।

तेरा शक्कर तेरा सीधा,
हलुआ खाते पंडित जी ।
बैठ वहीं चुपचाप जमीं पर
राम नाम का जपना देख ।

तेरे मुंह से लिया निवाला,
वे तुझसे भी भूखे हैं ।
भूखे श्वानों को रोटी पर,
फिर से आज झपटना तेख ।

आज पेट की ज्वाला में जो,
लपटें उठती गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी में जीवन का,
लोहे-जैसा तपना देख ।


(हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका पढिएः www.srijangatha.com)

किस पर हम कुर्बान(मीडिया)

0संजय द्विवेदी

राखी सावंत-मीका प्रकरण ने एक बार फिर मीडिया की नैतिकता और समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए हैं । पिछले डेढ़ माह में घटी तीन धटनाओं; भाजपा नेता प्रमोद महाजन की हत्या, उनके पुत्र राहुल महाजन का ड्रग्स लेना और राखी–मीका चुम्बन प्रसंग ने इलेक्ट्रनिक मीडिया के कई घंटों और प्रिंट के लाखों शब्दों पर जैसा कब्जा जमाया, उसे देखकर दया आती है ।

चुम्बन प्रकरण पर समाचारों, क्लीपिंग्स के साथ-साथ चैनलों पर छिड़े विमर्शों को देखना एक अद्भुत अनुभव है । शायद यह नए मीडिया की पदावली है और उसका विमर्श है । चुम्बन से चमत्कृत मीडिया के लिए आइटम गर्ल रातों-रात स्टार हो गयी और उसे हाथों-हाथ उठा लिया गया । राखी हर चैनल पर मौजूद थीं, अपने मौजू किंतु शहीदाना स्त्री विमर्श के साथ । वे अपनी जंग को नैतिकता का जामा पहनाती हुई छोटे परदे पर विराजमान थीं तो ‘लार’ टपकाता हुआ मीडिया इसके लुत्फ़ उठा रहा था । ऐसे प्रसंगों पर 24 घंटे के ख़बरिया चैनलों की पौ-बारह हो ही जाती है । महाजन परिवार की चिंताओं से मुक्त मीडिया अब राखी पर पिल पड़ा । आत्मविश्वास से भरी राखी, कभी भावुक, कभी रौद्र रूप लेती राखी का स्त्री विमर्श अद्भुत है । चैनलों पर विचारकों के पैनल थे । जनता थी, जो हर बात पर ताली बजाने में सिद्ध है । बहस सरगर्म है । उसे लंबा और लंबा खींचने की होड़ जारी है । मीडिया की चिंताओं के केंद्र में सिर्फ राखी, राखी और राखी । जाहिर है इस घटना को प्रचार पाने का हथकंडा भी बताया गया । अधरों पर चुम्बन कैसे अनैतिक है, गालों पर जाकर यह कैसे नैतिक हो जाता है-इसकी भी मौलिक व्याख्या सामने आई । ‘फ्रेंड’ और ‘गर्ल फ्रेंड’के मायने समझाए गए । यानी सब कुछ बड़ा मनोहारी था, दुर्घटना सुखांत में बदल रही थी । राखी कहती हैं मीका माफी मांगे । मीका माफी मांगने को तैयार नहीं । फिर कोर्ट में हाजिर मीका-यहां भी कैमरे, लाइव शो, मीका के पीछे दौड़ता मीडिया । उनके साहस या बेशर्मी पर फिदा ! मुफ्त की पब्लिसिटी !! महिला आयोग भी जागा, राखी के साथ बार बालाएं भी एकजुट हुईं । मीका भी नहीं चूकता । कहता है-‘बार बालाओं से माफी मांग लूंगा, राखी से नहीं ।’ एक अच्छी बाइट। मीका के इस अंदाज पर कौन न बलिहारी हो जाए? यही वीरोचित भाव है, “यूथ” का हीरो है मीका । उधर ‘भारत की नारी’

के सम्मान के लिए जूझती राखी भी फाइटर हैं । मल्लिका शेरावत, दीपल शाह के बाद एक और ‘टाकेटिव’ चेहरा। मीडिया मुग्ध हैं। उसे तो वैसे भी ‘किसिंग कंट्रोवर्सीज’ की तलाश है ।

अद्भत है कि मीका-राखी का यह अंतरंग प्रसंग जो प्रिंट पर भी उतने ही उत्साह से पसरा था। शायद ही कोई भाषाई अखबार हो जिसने इस मुद्दे को पहले पेज पर जगह न दी हों । फिर फालोअप के लिए भी पूरी मुस्तैदी । यह मामला तो खैर खबरिया चैनलों के माध्यम से बाहर आया । लेकिन इसके कुछ महीने पहले की चर्चित ‘किसिंग कट्रोंवर्सीं’ तो मुम्बई से निकलने वाले एक शाम के अखबार ने ही उजागर की थी । मुंबई की एक पार्टी के दौरान ली गई करीना कपूर और शाहिद कपूर की तस्वीर छाप कर इस अखबार ने हंगामा मचा दिया । शाहिद से अपने प्रेम प्रसंगों के लिए मशहूर कपूर इस मामले पर अखबार पर बरस पड़ीं । अखबार में छपी फोटो पर इन दोनों ने कहा कि यह उनकी तस्वीर नहीं है । अखबार पहले तो अड़ा पर कानूनी कार्रवाई की धमकी के बाद अखबार ने कई दिनों तक माहौल बनाए रहा और अंततः माफी मांग ली । लेकिन इससे दोनों पक्षों जो को फायदा मिलना था – वह मिल चुका था। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी इस दौर में काफी टीआरपी बढ़ाई, कई दिनों तक दर्शक बटोरे । चुंबन पर चटखारेदार चर्चाओं ने मीडिया का उत्साह बनाए रखा ।

ऐसा नहीं कि ऐसे विवाद पहली बार सामने आए हैं । लेकिन इन दिनों 24 घंटे के खबरिया चैनल जिस तरह सामान्य प्रसंगों पर हल्लाबोल की शैली में जुट जाते हैं वह मीडिया की दयनीयता ही दर्शाता है । जनमाध्यमों पर ‘जनता का एजेंडा’ गायब है और नाहक मुद्दों पर लाखों शब्द तथा कई घंटे बरबाद करने पर मीडिया आमादा है । हमारे देश में इस तरह का पहला मामला 1980 में चर्चा में आया, जब प्रिंस चार्ल्स के भारत आगमन पर उनकी अगवानी करते हुए फिल्म अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरी ने सार्वजनिक रूप से उनका चुम्बन ले लिया था । उस समय यह प्रसंग काफी सुर्खियों में रहा । इसके बाद फिर यह कहानी जनवरी 1999 में दोहराई गई । इस बार पात्र थे-शबाना आजमी और नेल्सन मंडेला । विवाद इस बार भी उठा । कईयों ने इसे भारतीय संस्कृति पर खतरे के रूप में निरूपित किया । इसी दौर में पत्रकार खुशवंत सिंह ने एक कार्यक्रम में पाकिस्तानी उच्चायुक्त की बेटी का चुम्बन ले लिया । हालांकि यह मामला एक स्नेहिल चुम्बन का था क्योंकि खुशवंत सिंह की आयु 90 साल थी और लड़की सोलह साल की थी । इसी तरह सोनी राजदान ने गतवर्ष ‘नजर’ नाम की एक फिल्म बनाई जिसमें पाकिस्तानी अभिनेत्री मीरा और नायक अश्मिता पटेल के चुम्बन दृश्यों पर हंगामा मचा । पाकिस्तानी सरकार ने मीरा पर जुर्माना और प्रतिबंध लगा दिए । हालांकि फिल्मों में मल्लिका शेरावत, इरफान हाशमी जैसे कलाकारो के प्रवेश के बाद ये चीजें बहुत स्वीकार्य और सहज लगने लगी है, बावजूद इसके भारतीय समाज अभी ऐसे दृश्यों को सहजता से नहीं पचा पाता खासकर जब ऐसा सार्वजनिक जगहों पर हो । फिल्मी पर्दे और असली जिंदगी की दूरी अभी भी बनी हुई है ।

राखी ने भी अपने चुम्बन विवाद पर जो बातें कहीं हैं, उसमें भी वे गालों पर लिए गए चुम्बन को जायज ठहराती हैं और अधरों पर लिए गए चुम्बन को विशेषाधिकार । जाहिर है ऐसे ढोंग और मनमानी परिभाषाएं भारतीय समाज में जगह पाती हैं, क्योंकि जिंदगी का दोहरापन सब दूर विद्यमान है। हमारे समाज की इसी दोहरी मानसिकता का मीडिया व फिल्में इस्तेमाल कर रही हैं । चुम्बन की यह ताकत इसीलिए आज सोशलाइट तबकों की जरूरत बन गयी है और पब्लिसिटी पाने का हथियार भी । टीवी प्रोग्राम्स, पेज-थ्री पार्टियां इस ‘नई चुम्बन परंपरा’ का एक बड़ा स्पेस बनाती हैं । अपने परिचितों के साथ इस तरह का व्यबहार परदे पर और एक खास स्तर का जीवन जी रहे लोगों को बड़ा सहज लगता है । लेकिन यह चलन अभी अपर मिडिल क्लास तक ही पहुंचा है । बहुत बड़े भारतीय समाज में ये चीजें पहुंचनी अभी शेष हैं । शायद इसी द्वंद्व के मद्देनजर ये चीजें हमारे समाज में इतना स्पेस पा जाती हैं । मीडिया भी असल मुद्दों भटक कर ऐसे सवालों को प्रमुखता देता नजर आ रहा है । हमारे इसी दोहरेपने के मद्देनजर कभी पामेला बोर्डस ने कहा था –‘यह समाज मिट्टी-गारे से बनी झोपड़ी में रहता है ।’ आज यही बात राखी सावंत भी कह रही हैं । इसी विमर्श में शामिल दीपल शाह, मल्लिका शेरावत भी ऐसी ही बातें कहती हैं । आप इन अभिनेत्रियों की बातों को पव्लिसिटी पाने का कौशल मान कर माप कर सकते हैं । किंतु ऐसी खबरों के पीछे भागते मीडिया को उसकी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं किया जा सकता । प्रमोद महाजन, राहुल महाजन, राखी सावंत के डेढ़ माह में घटे तीन प्रकरण और उसे कवर करने का मीडिया का तरीका विचारणीय ही नहीं, चिंतनीय भी है। मीडिया को यह सोचना होगा कि वह किस को अपनी प्राथमिक बनाए क्योंकि किस के लिए मीडिया है, यह उसे ही तय करना है । अपनी प्राथमिकताओं पर दोबा विचार दरअसल आज के मीडिया के लिए सबसे बड़ी
चुनौती है, वरना यह दौड़ हमें कहां ले जाएगी कुछ कहा नहीं जा सकता ।

(लेखक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं)

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विष्णुनागर की पाँच लघुकथाएँ

एक/ घाव

एक मजदूर एक दिन पेड़ से गिर गया । वह चोट खाकर उस पेड़ नीचे बैठा कराह रहा था । उसके घुटनों तथा कुहनियों से खून बह रहा था ।
उधर से एक क्लर्क गुजरा । आज उसने पहली बार सौ रुपये की रिश्वत खाई थी । वह घर लौट रहा था । उस दिन उसकी आत्मा से लगातार खून बह रहा था ।
पेड़ से गिरे, उस मजदूर को देखकर उस क्लर्क के मन में सहानुभूमि पैदा हुई । उसे लगा कि यह मुझसे अच्छा है । यह तो पेड़ से ही गिरा है । मैं तो अपनी नजरों से गिर गया हूँ । उसकी चोट से मेरी चोट ज्यादा गहरी है ।
क्लर्क ने बहुत आग्रह करके उसे अपना भाई कहकर वे रुपये उस मजदूर को दिए ताकि वह अस्पताल जाकर इलाज करा आए ।
पेड़ से गिरे मजदूर के लिए मरहम-पट्टी कराना जरूरी नहीं था । जरूरी था आटा दाल लाना, उसने सौ रुपये आटा-दाल में खर्च कर दिए ।
उसकी चोट ठीक हो गई । वह फिर से पेड़ पर चढ़ने लगा ।
क्लर्क ने मगर उस रास्ते से गुजरना बन्द कर दिया था ।

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दो/ खूनी कार

मेरे पास एक कार थी । उसकी खूबी यह थी कि वह पेट्रोल की बजाय आदमी के ताजे खून से चलती थी । वह हवाई जहाज की गति से चलती थी और मैं जहाँ चाहूँ, वहाँ पहुँचाती थी, इसलिए में उसे पसंद भी खूब करता था । उसे छोड़ने का इरादा नहीं रखता था ।
सवाल यह था कि उसके लिए रोज-रोज आदमी का खून कहाँ से लाऊँ ? एक ही तरीका था कि रोज दुर्घटना में लोगों मारूँ और उनके खून से कार की टंकी भरूँ ।
मैंने सरकार को अपनी कार की विशेषताएं बताते हुए एक प्रार्थनापत्र दिया और और निवेदन किया कि मुझे प्रतिदिन सड़क दुर्घटना में एक आदमी को मारने की इजाजत दी जाए ।
सरकार की ओर से पत्र प्राप्त हुआ कि उसे मेरी प्रार्थना इस शर्त के साथ स्वीकार है कि कार को विदेशी सहयोग से देश में बनाने पर मुझे आपत्ति नहीं होगी ।

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तीन/ फाइल और कीड़े

उन्हें फाइलें चलाने का बहुत शौक था । जब तक फाइल का वज़न उनके बज़न से ज्यादा नहीं हो जाता था, वे फाइल चलाते ही रहते थे ।
एक दिन दफ़्तर में एक कीड़े ने उन्हें काट लिया । उन्होंने कीड़े का तो कुछ नहीं बिगाड़ा मगर उसके बारे में फाइल चला दी । वह फाइल चलती रही, कीड़े की तीस-चालीस पीढ़ियाँ इस बीच निबट गई । धीरे-धीरे उस फाइल ने एक कीड़े का रूप धारण कर लिया और उन्हें ऐसा काटा कि वे फाइल चलाना भूलकर उस कीड़े को मारने दौड़े, मगर वह कीड़ा तो अजर-अमर था !
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चार/ जीवनगाथा

मैं बहुत खाता था । बहुत खाने से बहुत से रोग हो जाते हैं इसलिए सुबह और शाम दौड़ा करता था । बहुत दौड़ने से बहुत थक जाता था इसलिए बहुत सोता था । बहुत सोने से स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता है इसलिए कमाने का काम में अपने मजदूरों और क्लर्कों पर छोड़ दिया करता था ।
और इस तरह एक दिन मैं मर गया । मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब मरा ।
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पाँच/ एक कौए की मौत

एक कौआ प्यास से बेहाल था । वह उड़ते-उड़ते थक गया मगर कहीँ पानी न मिला । आखिर में उसे एक घड़ा दिखा । उसमें चुल्लू भर पानी था । कौआ खुश हो गया । उसने सोचा कि कंकड़ डालने वाली पुरानी पद्धति अपनाऊँगा, तो पानी ऊपर आ जाएगा, और मै पी लूँगा ।
कौए के दुर्भाग्य से वह महानगर था, वहाँ कंकड़ नहीं थे ।
कौआ मर गया और पानी भाप बनकर उड़ गया ।
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कुछ लघुकथाएँ

मन के सांप

आज रात खाना खाने के बाद उसका मन कैसा-कैसा होने लगा । वह मन ही मन बड़बड़ाया, “ये पत्नी भी अजीब है, मायके गई तो- आज सप्ताह होने को आया । उसे इतना भी ध्यान नहीं कि पति की रातें कैसे कटती होंगी ।” वह आकर अपने बिछावन पर लेट गया । नींद तो जैसे उसकी आंखों से उड़ चुकी थी । आज टी.वी. देखने को भी उसका मन नहीं हो रहा था। उसे ध्यान आया कि आज आँफिस में मिसेज सिन्हा कितनी खूबसूरत लग रही थी । कितनी सुन्दर साड़ी बांध रखी थी । साड़ी बाँधने का अंदाज भी गजब का था । क्या हँस-हँस कर बातें कर रही थीं । इस स्मरण ने उसे और बेचैन-सा कर दिया । उसे अपनी पत्नी पर क्रोध आने लगा, “यह भी कोई तरीका है । शादी के बाद औरत को अपने घर का ध्यान होना चाहिए ।”

वह जैसे-जैसे सोने का प्रयास करता, नींद वैसे-वैसे उसकी आंखों से दूर भागती जाती। इतने में उसकी दृष्टि सामने अलगनी पर जा टिकी, जहां उसकी पत्नी की साड़ी लापरवाही से लटकी हुई थी । उसे लगा जैसे उसकी पत्नी खड़ी मुस्करा रही है । वह उठा और अलगनी से उस साड़ी को उठा लाया और उसे सीने से लगा लिया। फिर एकाएक उसे चूम लिया । उसे लगा कि जैसे वह साड़ी नहीं, उसकी पत्नी है । उसने साड़ी को बहुत प्रेम से सरियाया और तह लगाकर अपने तकिए की बगल में रख लिया।

“मालिक !और कोई काम हो तो बता दीजिए फिर मैं सोने जाऊंगी।” अपनी युवा नौकरानी के स्वर से वह चौंक उठा । उसने चोर –दृष्टि से उसके यौवन को पहली बार भरपूर दृष्टि से देखा, तो वह दंग रह गया । आज वह उसे बहुत सुन्दर लग रही थी । उसे देखकर फिर न जाने उसका मन कैसा-कैसा होने लगा । अभी वह कामुक हो ही रहा था कि नौकरानी ने पुनः पूछा, “मालिक ! बता दीजिए न !”
“ तुम ऐसा करो तुम कहां उधर दूसरे कमरे में सोने जाओगी । यहीं इसी कमरे में सो जाओ । न जाने कोई काम याद ही आ जाए । जरूरत पड़ने पर तुम्हें जगा दूंगा । हां ! पीने के लिए पानी का एक जग और एक गिलास जरूर रख लेना । फिलहाल तो कोई काम याद नहीं आ रहा है ।”
“जी अच्छा ! ”

आज नींद उसकी आंखों से दूर थी । कभी पत्नी का खयाल कभी मिसेज सिन्हा का ध्यान, कभी नौकरानी यौवन का नशा। उसने अपने को बहलाने के विचार से कोई पत्रिका सामने आलमारी से निकाली । उसका पढ़ने में मन तो नहीं लगा । बस यूं ही उलटने-पलटने लगा । पत्रिका के मध्य में उसे किसी सिने-तारिका का ‘ब्लो अप,’ नजर आया । उसकी दृष्टि रुक गई । उसे लगा, वह सिने-तारिका हरकत करने लगी है । वह उसे देखता रहा । उसे लगा, वह मुस्करा रही है । वह भी मुस्कराने लगा । उसने उसे ब्लो अप का स्पर्श किया तो फिर जमीन पर आ गया । उसने पत्रिका बंद करके अक तरफ रख दी ।

वह पानी पीने के विचार से उठा । उसने देखा, उसकी नौकरानी उसकी नीयत से बेखबर गहरी नींद में सोयी हुयी है । उसकी आती-जाती सांसों से उसका हिलता बदन उसे बहुत भला लगने लगा । उसका मासूम चेहरा उसे लगा कि वह उसे चूम ले, किन्तु किसी अज्ञात भय से वह पीछे हट गया । वह सोचने लगा कि वह समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति है । कार्यालय में भी उसको आदर की दृष्टि से देखा जाता है । बाहरी आडम्बरों ने उसके मन को दबाया, किन्तु फिर मन था कि उसी ओर बढ़ा किन्तु एकाएक उसकी पत्नी की आकृति उभरती दिखाई दी । अब उसकी पत्नी के चेहरे पर मुस्कराहट के स्थान पर घृणा के भाव थे । वह सिहर गया । पुनः अपने पलंग पर लौट आया । नौकरानी को आवाज दी और पानी का गिलास देने को कहा ।

उसने पानी पीकर कहा, “देखो ! अब मुझे कोई काम नहीं है । तुम वहीं बगल के कमरे में जाकर सो जाओ । देखो ! अन्दर से कमरा जरूर बन्द कर लेना ।”

यह कहकर वह बाथरूम की ओर बढ़ गया बाथरूम मे लटका पत्नी का गाऊन उसे ऐसा लगा, पत्नी जैसे मुस्करा रही है और वह इस अर्द्धरात्रि में स्नान करने लगा ।


सतीशराज पुष्करणा
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दंडनीय

बाल न्यायालय । बच्चों का सुधारगृह । न्यायालय प्रवेश से एकदम भिन्न वातावरण, घरेलु-सा, परन्तु विधि-सम्मत प्रक्रिया ।

‘डरो नहीं बच्चे ! सच बताओ क्या हुआ था ?’ पितृ-स्नेह से मजिस्ट्रेट साहब ने पत्रावली टटोलते हुए पूछा । मैली नेकर व फटी कमीज में सिकुड़े अपचारी ने घिघियाकर हाथ जोड़ दिए, ‘बापू ने कमाना छोड़ दिया था हजूर ! हम दो दिनों से भूखे थे...... बस्स...... तीन किलो बाजरी लाया था पोटले में अऊर कुछ नहीं किया अन्नदाता !’

मजिस्ट्रेट साहब दंग । पास बैठे पीठ के अन्य सदस्य अंगरेज़ी में बोले, ‘जिस देश के बच्चों को बाजरी चुराने के लिए विवश होना पड़े, वहाँ दंड किसे दें ?’


हसन जमाल
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बॉय-बॉय

इवनिंग वॉक के दौरान एक दिन धर्म और राजनीति की मुलाकात एक सुंदर बाग में हो गई । भेंट के दौरान दोनों ने देश के राजनैतिक पर्यावरण, जलवायु और तापमान पर विशेष चर्चा की ।
इसके बाद बाग में टहलते-घूमते दोनों एक बार में जा पहुंचे । वहां राजनीति ने कॉकटेल तैयार किया और धर्म को आनंदित मुद्रा में आफर किया । धर्म बोला-“मैं स्वयं मैं एक नशा हूँ, मुझे इसकी क्या जरूरत है मुझे तो लोग-बाग आजकल विषैले सर्प की संज्ञा भी देने लगे हैं, फिर भी चलो तुम्हारा साथ दे देता हूँ । दोनों ने जाम से जाम टकराया ।
कुछ देर बाद, बार में ही-ही, बकबक करने के पश्चात मस्ती में झूमते दोनों बाहर निकले । इस बीच हँसी-मजाक के मूड में राजनीति ने धर्म से कहा-“कृपा करके मुझे मत डसना ।” धर्म भी क्यों चूकता, वह बोला-“प्यारे, मैं अगर साँप हूँ तो ये क्यों भूलते हो कि तुम उसका पिटारा हो । तुम तो उस मजमेबाज जादूगर की तरह हो, जो मजमें में अपने नेवले से मुझे लडाते हो और जब मै बेहोश हो जाता हूँ तो मुझे होश में लाकर फिर अपने पिटारे में बंद कर लेते हो ।” इसके बाद दोनों ने जमकर ठहाका लगाया और फिर मिलेंगे, बॉय-बॉय कहते हुए अपने-अपने मुकाम की ओर मस्ती भरी चाल से चल दिए ।


राम पटवा
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