5/18/2006

मीनाक्षी की लघुकथाएँ


एकः अपाहिज

“अनूप लड़की पसंद आई ?” बिचौलिए ने लड़की वालों के घर से बाहर निगलते हुए लड़के से पूछा ।
“जी... ठीक है...” अनूप ने हकलाते हुए कहा ।

“क्यूं बहन जी आपका क्या विचार है !” बिचैलिए न लड़के की मां से पूछा ।
“विचार... हुंह... पसंद आने लायक है क्या इस लड़की में, न कद-काटी, न रंग-रूप और खानदान देखो...! टटपूंजिए कुछ देने की हैसियत ही नहीं इनकी... और उस पर देखा नहीं... बैसाखियां पकड़े खड़ी थी । अरे यही अपाहिज रह गई है क्या मेरे राजकुमार से लड़के के लिए ।” लड़के की मॉ ने तिलमिलाते हुए कहा।
“अपाहिज ! अरे यही तो सबसे बड़ा गुण है उसका । इसी वजह से सरकारी नौकरी मिली हुई है उसे, पुरे बारह हज़ार रुपए कमाती है हर महीने । और, आपके लड़के के पास है ही क्या, सिवाय डिग्रियों के, बेरोजगार घूमता है... असल में अपाहिज तो यह है न कि वह लड़की ।” बिचैलिए ने तिरछी नज़रों से अनूप की तरफ देखते हुए कहा ।
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दोः त्यौहार
बापू, हम कब मनाएंगे त्यौहार ?
मज़दूर दीनू के बेटे ने ललचाई नज़रों से पड़ोस के अमीर बच्चों को दीवाली के दिन नए कपड़े पहने, मिठाइयां खाते और पटाखे छोड़ते देख मायूस स्वर में पूछा ।
बस्स... बेटा । दो चार दिन की और बात है, फिर चुनाव होने वाले हैं और चुनाव के दिनों में तो नेताजी को हम जैसे गरीबों की याद आती है और वे हमें राशन-पानी, मिठाइयां, कपड़े लत्ते आदि देते हैं ताकि हम खुश होकर उन्हें वोट दें । बस्स... तब ही हम त्यौहार मनाएंगे । दीनू ने उम्मीद भरे स्वर में कहा ।
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मीनाक्षी जिजीविषा
1 ए/29 ए, एनआईटी,
फरीदाबाद, हरियाणा

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