4/05/2006

दोपहर में गाँव


दोपहर में गाँव : लोक जीवन की हरीतिमा

गिरीश पंकज


भाषा का खिलंदड़ापन अगर देखना हो तो सुधी पाठकों को ललित निबंधों के उपवन में विचरना पड़ेगा । ललित निबंध की भाषा दरअसल हमारे भीतर के लालित्य को शब्दों में रूपान्तरित करने की रचनात्मक कोशिश है । ललित निबंध की विषय-वस्तु भी निपट देसी होती है जो कहीं न कहीं हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से ही निबद्ध होती है । लोक जीवन के विविध रंग ललित निबंधों में देखने को मिल जाते हैं । ललित निबंध दरअसल सुदीर्घ कविता है । गद्य कविता । जिस गद्य में काव्य-रस की निष्पत्ति होती है, वह ललित निबंध है । ललित निबंध बहुत कम लिखे गए हैं । कुबेरनाथ राय, विद्यानिवास मिश्रा, विवेकीराय आदि मुट्ठीभर नाम ही हैं जिन्होंने ललित निबंध को अपनी लेखनी का हिस्सा बनाया है । परवर्ती पीढ़ी में कुछेक रचनाकारों ने ललित निबंध की परम्परा को गति दी है । इसी परम्परा में अब जयप्रकाश मानस एक उभरता हुआ नाम है । मानस की सद्य: प्रकाशित कृति ‘दोपहर में गाँव’ उनके निबंधों का संग्रह है ।

ललित निबंध परिमार्जित एवं अंतरंग भाषा विन्यास में गढ़े गए ठेठ भारतीय चिंतन-मनन की विधा है । इस लिहाज से मानस ने भी संग्रह के अपने अठारहों निबंधों में अपने अंतरंग लेखक एवं अतीत की मधुर स्मृतियों में विचरते हुए जीवन के विविध रंगों का अवलोकन करते हैं । राम से लेकर ग्राम की यात्रा करते मानस के निबंधों में गंगा है, घर है, पगडंडियां हैं, कविता और चिड़िया है, किसान हैं तो छत्तीसगढ़ी अस्मिता को प्रदर्शित करने वाला लोकानुरागी मन भी है । ललित निबंध की भाषा गहराई में डूबकर कोमल अनुभूतियों को रूपायित करने की अंतरंग कोशिश होती है । तथ्य को अपने कथा में सजी-सँवरी भाषा के सहारे प्रस्तुत करना ललित निबंध की पहली शर्त है । जयप्रकाश इस सत्य को समझते हैं । वह एक जगह कहते भी हैं कि ''जो सरल होगा, वही तरल होगा, तरल वही होगा जिसके लिए समूची पृथ्वी एक घर हो ।'' इस लिहाज में मानस के निबंधों में यह वैश्विकता भी दीखती है । यह वैश्विकता लोक जीवन की हरीतिमा से ही मानो फूट पड़ती है ।

संग्रह का पहला निबंध 'गंगा की उपस्थिति' है । पिता के अस्थि-प्रवाह हेतु लेखक कभी गंगा के तट पर पहुँचा । और लौटा तो गंगा की पुण्य छवियाँ लेकर । गंगा की भयावता को देखना, उसे अपने भीतर महसूसना निसंदेह अलौकिक अनुभव है । गंगा मुक्तिदात्री है । लाख प्रदूषित हो जाए गंगा लेकिन वह हरदम विमल रहती है । मानस भी गंगा को इसी तरह की अनेक अनुभूतियों के साथ याद करते हैं । वह गंगा का स्तुति गान भी करते हुए हैं- ''गंगा भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है । गंगा भारतीय संस्कारों का अक्षुण्ण मिथक है । गंगा भारतीय मन का अनन्य बिम्ब है । ...यह पतितपावनी गंगा है । गंगा पावनता की श्रेष्ठतम धार है । यह लोक मानस की सतत पावन बने रहने की चेष्टा है ।'' मानस का पूरा निबंध जगन्माता गंगा के भावुक गुणानुवाद से आप्लावित है मानस ने गंगा पर गहन अध्ययन करके कुछ श्लोकों का उल्लेख भी किया है । गंगा से एकाकार होकर लेखक को महसूस होता है कि गंगा भारतीय संवेदना का उच्चतम एवं पवित्र विश्वास है । घर में धन-धान्य हो न हो, गंगाजल होगा ही । मानस ने बिल्कुल ठीक कहा कि गंगा जीवन की अंतिम अभिलाषा है । गंगा पर भावुकता भरे इस निबंध को हिन्दू मन नहीं, भारतीय एवं सांस्कृतिक मूल्यानुरागी की अभिव्यक्ति की नज़र से देखना चाहिए ।

मानस राम की अनंत छवियों को भी निहारते हैं । राम के वे रूप भी जानने वाले जानते हैं जिनके चलते उनकी आलोचनाएँ भी होती हैं, लेकिन असली छवि तो लोकवादी छवि है । मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि है । ''मैं न जीवों बिन राम'' में जयप्रकाश कहते हैं- ''राम में रमने का मतलब राम में लीन होकर थिर हो जाना नहीं है, अपितु, राम के साथ निरंतर यात्रा में बने रहना है । राम यात्री ही तो हैं जिनके रास्ते में काँटे हैं, कुश हैं, खोह हैं, वन प्रांत हैं, पर्वत हैं, दुर्लंघ्य समुद्र हैं । यह यात्रा सत्य की यात्रा है ।'' राम को देखने की यह दृष्टि यथार्थवादी दृष्टि है । भावुकता में राम भगवान लगते हैं तो विवेक दृष्टि से देखें तो मर्यादा पुरुषोत्तम तो कहीं-कहीं नितांत मनुष्य । जयप्रकाश ने राम के लोकानुरागी रूप का ही वर्णन किया है ।

'घर में संसार' में जयप्रकाश ने घर और मकान के अंतर को समझाने की कोशिश की है । समाजशास्त्रियों के हवाले से जयप्रकाश ने बहुश्रुत कथन को उद्यत किया है कि घर पहली पाठषाला है । जयप्रकाश इस सत्य को भी दुहराते हैं कि ''घर ईंट-पत्थर, लकड़ी-लोहे से निर्मित दीवार-कमरों का मकान नहीं, वह गहरे सुनहरे रिश्तों का भाव है ।'' लेकिन जयप्रकाश वर्तमान परिदृश्य के इस सच को कहने से नहीं चूकते कि ''शहर मकानधर्मी है ।... शहरी इंसान सीमेंटेड हो गया है । ऐसे हृदय में कैसा स्पंदन, कैसा संवेदन ?''

रंग बोलते हैं, कोडावय ताल सगुरिया मैं किसान हूँ, काग के भाग, जामुन का पेड़, गाँव की पगडंडियाँ, कविता और चिड़िया, दोपहर में गाँव, आदि निबंधों में जयप्रकाश विविध रंगों में डूबते उतराते हैं । जयप्रकाश की जड़ गाँव में है इसलिए वह वहाँ के अनेक उपादानों का स्मरण करते हैं । गाँव से बिछुड़ा मन रह-रहकर गाँव की ओर लौटता है । जयप्रकाश के अधिकांश निबंध गाँवों की ओर लौटने की उत्कट अभिलाषा से भरे हुए हैं । नागर जीवन के का मोह में फँसे लेखक गाँवों को भूल बैठे हैं लेकिन जयप्रकाश 'नास्टेल्जिक' की हद तक जाकर गाँव को याद करते हैं ।

जयप्रकाश ने 'पान के रंग' पर निबंध लिखा है । पान का आस्वादन करने वाले जयप्रकाश की इस बात से सहमत होंगे कि ''पान खाने-चबाने की चीज़ नहीं, रस लेने की चीज़ है । रस वही शख्स ले सकता है जो रसिक हो, रस में भींगने की कला जानता हो ।'' फिर जयप्रकाश भावुकता में बहकर रस का वर्णन करने लग जाते हैं । दरअसल पान हमारे मन को रसमय बना देता है । रसमयता भाव विह्वलता से भर देती है । इसलिए कथा के मूल-सूत्र में हाथ से फिसलने लगते हैं । पान के साथ जयप्रकाश पनवाड़ी (तंबोली) को भी नहीं भूलते। तंबोली से बहुत सी खबरों नि:शुल्क पता चल जाती है ।

जयप्रकाश ने कथा लेखिका शिवानी पर भी मार्मिक निबंध लिखा है, ''शिवानी : झरने का पानी'' । हजारों पाठकों की तरह जयप्रकाश भी शिवानी से कभी नहीं मिले लेकिन उनकी अनेक रचनाओं के माध्यम से वे शिवानी से बार-बार मिलते हैं । शिवानी की रचनाएँ गहरी आत्मीयता से भरी हुई हैं । परिवारों के न जाने कितने चरित्र, समाज के कितने ही पात्र उनकी रचनाओं में जीवंत होकर उपस्थित होते हैं। ''घर आंगन के रचयिता'' में लेखक 'गाँड़ा मामा' नामक एक चरित्र का स्मरण करते हैं । गाँड़ा लोग गाँव की मान्यता में बकरी चराने वाले होते हैं । ऐसे ही एक गाँड़ा को लेखक बाल्यकाल में मामा कह कर पुकारता था । मामा-भांजे का यह रिश्ता हमारी 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा का ही मूर्तरूप है कि हम चाकर को भी चाकर नहीं, अपने घर-परिवार का सदस्य मानकर व्यवहार करते हैं । संग्रह के अंत में 'छत्तीसगढ़ी भाषा' पर केंद्रित निबंध 'अस्मिता का सर्वनाम छत्तीसगढ़ी' जयप्रकाश के मिट्टी से अनुराग का ही निदर्शन कराता है । अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने गाँव, अपनी नदी के प्रति गहरी आत्मीयता ही हमें जोड़ने वाली बनाती है । भाषा हमारी अस्मिता है । छत्तीसगढ़ में प्रचलित छत्तीसगढ़ी यहाँ के समाज का दर्पण है । इन पंक्तियों के सहारे छत्तीसगढ़ी को सहजता के साथ समझा जा सकता है कि ''छत्तीसगढ़ देह है, छत्तीसगढ़ी उसकी आत्मा है । इस निबंध से नए पाठकों को पता चलेगा कि छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम 'कोसल' है । इस तरह 'दोपहर में गाँव' के अधिकांश निबंध जयप्रकाश की अंतरंग भाषा और उसके लालित्य से भी परिचित कराते हैं । कुछ निबंधों में पुनरुक्तियाँ भी हैं पर वे शब्दों के मध्य संगीत रचने में कारगर बन पड़ी हैं। छत्तीसगढ़ी की पक्षधरता में किसी भी कवि से हिन्दी का प्रतिराध नहीं है, यह स्पष्ट करना भी जयप्रकाश नहीं भूलते। यह स्पष्टीकरण इसलिए भी जरूरी है कि अक्सर अपनी मातृभाषा पर बात करते हुए लोग ऐसे भावुक हो जाते हैं कि राष्ट्रभाषा की आलोचना पर उतर आते हैं ।

'दोपहर में गाँव' शीर्षक से ही समझ में आ जाता है कि लेखक गाँव की शीतल छाँव के गुणगान करेगा । ''गाँव से लगा अमरैया से। सुरसुरी हवा चली, डालें लहराई नहीं कि पीले-पीले रसीले आम टपकने वाले हों तो आप ही बताइए कोई घर के भीतर कैद रह पाएगा ?'' लेखक नागर संस्कृति से ग्रस्त समय को भी समझता है इसलिए साफ-साफ कहता है कि ''आजकल के पढ़े-लिखों को, अपनी गोरी काया की माया में उलझे रहने वालों को समझ में आए न आए, गाँव आज भी दोपहर का महात्म्य बखूबी समझता है ।''

ललित निबंध की लगभग लुप्त होती परम्परा को आगे बढ़ाने में जयप्रकाश का नया संग्रह सहायक होगा, ऐसा विष्वास है । पुस्तक की भूमिका के अंत में डॉ. श्रीराम परिहार भी आश्वस्त हैं कि ''यह ललित निबंध-संग्रह घनघोर रात्रि में तारे की चमक के साथ उदित है। यह निबंध 'पृथ्वी पर दूर्वादल की हरिद्रा संस्कृति' की पुनर्स्थापना में मृगषिरा नक्षत्र के बादलों से घिरकर बरसेंगे'' ।

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कृति - दोपहर में गाँव
लेखक - जयप्रकाश मानस
प्रकाशन - शताक्षी प्रकाशन, चौबे कॉलोनी, रायपुर(छ.ग.)
मूल्य - 200/- (विदेश में 3 डालर)

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(समीक्षक श्री पंकज अनुवाद की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'सद्-भावना दर्पण' के संपादक हैं । वे देश के प्रख्यात व्यंग्यकारों में गिने जाते हैं । संपादक)

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