4/02/2006

ऋग्वेद में झिलमिलाता सामीजिक जीवन


विजय शंकर शुक्ल

ॠग्वेद आर्यों का धर्म ग्रन्थ है और यह स्तुतियों का एक संग्रह है । अत: स्वाभाविक रुप से इस ग्रन्थ को किसी सभ्यता विशेष के सामाजिक परिवेश का एकाकी स्रोत नहीं माना जाना चाहिए किन्तु ॠग्वेद ऐसा प्रथम ग्रन्थ है जो विश्व को ईश्वरीय ज्ञान के रुप में प्राप्त हुआ है । अपनी सहज उद्भूत भावनाओं को व्यक्त करते हुए ॠषियों ने उन स्तुतियों को सरल एवं सौष्ठवपूर्ण भाषा, विविध छन्दों एवं निश्चित लयों से आबद्ध कर उन्हें काव्य का रुप प्रदान किया है । प्रकृति अपना नित्य नूतन रुप सजाकर उनके अन्तर्मन में समाहित होती रही और ॠषियों की मन: पूत वाणी उसे सहजता से नित्य नवीन अभिव्यक्ति प्रदान करती रही । मनरुपी गुफाओं में समाविष्ट वाणी पवित्र होकर ॠचाओं के रुप में बाहर नि:सृत हुई । जिसके सम्बन्ध में आङ्गिरस का कथन है -

सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।
अत्रा सखाय: सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीनिर्हिताधिवाचि ।।

(ॠ० १०.७१.२)

[ धीर पुरुष वाणी को चलनी में छने हुए सत्तू के समान मन: पूत कर उच्चारित करते हैं। उनकी वाणी में उनका सख्य भाव ज्ञात होता है । उनकी वाणी में लक्ष्मी (पवित्र गुण) प्रतिष्ठित होती है। )]

यह ग्रन्थ जिस युग में मानव वाणी से व्यक्त हुआ था उस युग का परिचय देने वाला कोई भी अन्य साधन उपलब्ध नहीं होता। यह ग्रन्थ जिस समाज का रिक्थ है उसे इस ग्रन्थ के ही माध्यम से ही पहचानना सम्भव हो सकता है।

19 वीं शताब्दी में इतिहास के अध्ययन की पाश्चात्य शैली प्रभावी रीति से परिचित हुई। ॠग्वेद कालीन आर्यों का विचित्र चित्रण हुआ जिस पर विश्वास करना सम्भव नहीं था। वैदिक जनों के परम उदात्त मानसिकता का समुचित मूल्यांकन किए बिना आर्य संस्कृति से सम्बन्धित ग्रन्थों की बाढ़ सी आ गई।
अत: यह आवश्यक हो गया था कि स्वयं ॠग्वेद के शब्दों का मूलरुप से अध्ययन किया जाय एवं मूल ग्रन्थ के आधार पर तत्कालीन समाज की छवि बने उसको यथावत् विद्वत् समुदाय को परीक्षणार्थ एवं विचाराणार्थ समर्पित कर दिया जाय । इस प्रेरणा से शोक-प्रबन्ध का प्रणयन हुआ ।

ॠग्वेद में वर्तमान अर्थ में समाज शब्द का प्रयोग नहीं है। किन्तु प्राचीन आर्य भाषा में समाज शब्द जन सम्पर्द के उल्लासपूर्ण वातावरण का वाचक था । इसी के समानार्थ ॠग्वेद का लोक शब्द है। लोक के समाज बनने के कारण समाज का प्रयोग अधिक संप्रेषक मानकर प्रबन्ध के शीर्षक में प्रयुक्त हुआ ।
गृह्यसूत्रों में जिस वर्णाश्रम के विस्तृत नियम प्राप्त होते हैं उनका मूल ॠग्वेद का सामाजिक संघटन था । मन्त्रों में देवताओं तक के वर्ण अनुशासन दृष्टिगत होते हैं । अग्नि पुरोहित हैं, इन्द्र क्षत्र है, मरुत् विश है, त्वष्टा को उनके पराभौतिक प्रकृति के कारण शूद्र कहा जा सकता है । मन्त्रों में उपमान, रुपक के माध्यम से अथवा साक्षात रुप में जिस सामाजिक संरचना का प्रतिबिम्ब है तथा व्यष्टित: नागरिकों में योग्यताओं का जिस विधि से आधान किया जाता था उसका विवरण प्रस्तुत किया गया है, जिसे संस्कार कहा गया है

वैदिक संहिताएँ पुरुषार्थ तथा कर्म पर विशेष बल देती हैं अतएव इनमें निवृत्ति मूलक संन्यास आश्रम का विकास नहीं दृष्टिगोचर होता है । ॠग्वेद में यति शब्द का प्रयोग इसी सन्दर्भ में हुआ है-

तत् त्वा यामि सुवीर्यं तद् ब्रह्म पूर्वचित्तये ।
येना यतिभ्यो भृगवे धने हिते येन प्रस्कण्वमाविथ ।।

(ॠ० ८.३.९)

भाष्यकार सायण के अनुसार यहाँ यति का अर्थ कर्म से उपरत व्यक्ति है । इसी से ॠग्वैदिक काल में सन्यास आश्रम की कल्पना की जा सकती है । उस काल के सामाजिक परिवेश में जहाँ एक ओर वर्ण व्यवस्था का विकास हो रहा था वहीं पर दूसरी ओर आश्रम व्यवस्था के द्वारा मानसिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास प्रारम्भ हो गया था ।
भारतीय समाज के शाश्वत रुप का रहस्य ॠग्वैदिक परिवार के संघटन में प्राप्त होता है । परिवार समाज की प्रथम इकाई थी जो गृहपति के अनुशासन में थी । इस इकाई का चरम महत्व द्यौ एवं पृथिवी के पिता एवं माता के रुप में स्तुति में प्राप्य है
ऊजरम् नो द्यौश्च पृथिवी च पिन्वतां पिता माता विश्विदासुंदससा ।
संरराणे रोदसी विश्वशम्भुवा सनिं वाजं रयिमस्मे समिन्वताम् ।।
(ॠ० ६.७०.६)
इस दृष्टि से सम्पूर्ण संसार ही एक परिवार बन जाता है । वैदिक स्तुतियों में परिवार के एक-एक सदस्य के कर्तव्यों, पारस्परिक सम्बन्धों एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों की सूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ प्राप्त होती है । परिवार की स्थिरता एवं उसके माध्यम से सामाजिक विकास के प्रति उन्मुखता को अपनी शिक्षण पद्धति स्री जनों के अधिकार एवं नैतिक गुणों के विकास का संकेत है । साथ ही ज्ञान के संक्रमण के प्रति इतनी सजगता थी कि एक अक्षर के भी अशुद्ध उच्चारण या मि प्रयोग को सहन नहीं किया जाता था । यही कारण था कि विद्यार्थी अपने आदर्श रुप में देवतुल्य माना गया था । आज जिन विद्याओं का विभागश: अध्ययन होता है उनमें से अधिकांश की सत्ता ॠग्वेद के मन्त्रों में दृष्टिगत होती है।

ॠग्वैदिक पारिवारिक व्यवस्था में जहाँ एक ओर माता एवं पुत्र की चर्चा अनेकों बार प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर माता एवं पुत्री सम्बन्धों का ॠग्वेद में नितान्त अभाव है । मात्र तीन सम्बन्ध ऐसे हैं जहाँ माँ के साथ पुत्री की चर्चा है । ॠग्वेद तृतीय मंडल के एक मन्त्र में माता और दुहिता शब्द का प्रयोग गौ के रुप में हुआ है । ॠग्वेद १०.१५९ में इसकी चर्चा शची देवता के रुप में हुई है । वह अपने सम्बन्ध में कहती है कि वे शत्रुओं का हनन करने वाले हैं और उसकी दुहिता विराट् रुप है ।

पारिवारिक संरचना के अन्तर्गत पति-पत्नी के सम्बन्धों तथा इनके विभिन्न पर्याय ॠग्वेद में प्राप्त होते हैं। मिथुनीकरण की कल्पना का प्रारम्भ ॠग्वेद में मुख्यत: माता और पिता तथा पति-पत्नी के विचारधारा से उद्भूत है । ये सृष्टि के विकास के प्रथम सोपान के रुप में हैं । सृष्टि सम्बन्धी विचारधारा के अन्तर्गत जैसे ही प्रजापति अथवा मनरुपी पुरुष की सृष्टि हुई वैसे ही उसकी कामना ने नारी का रुप धारण कर अपनी सूक्ष्म अवस्थाओं के द्वारा एक सर्वथा विरोधी तथा पूरक तत्व को जन्म दिया । यही पूरक तत्व प्रकृति, वाक्, श्रद्धा, कामना आदि अनेक नामों से नारी रुपों में प्रतिष्ठित हुआ जिससे पुरुष और प्रकृति, मन और वाक्, हृदय और श्रद्धा, कर्म और कामना आदि जैसे पारस्परिक युग्मों पर मिथुन की कल्पना उद्भूत हुई । इसी को आजकल युग्मवादी विचारधारा के रुप में माना जाता है । ॠग्वेद में अनेक देवताओं का युग्म या अहोरात्र की कल्पना इसी युग्म भाव का प्रतीक है । इनके अन्योन्याश्रम सम्बन्ध से परस्पर एकत्व की भावना भी उद्भूत होती है जिससे परस्पर पालनभाव अथवा रक्षकत्त्व की सृष्टि होती है । धीरे-धीरे यह भाव स्वामित्व की ओर विकसित होता है । जब ॠग्वेद में अग्नि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि "गृहपतिश्च नो दमे" (ॠ० २.१.२) तो वहाँ अग्नि मात्र हमारे गृहपालक के रुप में ही नहीं वरन् स्वामी के रुप में भी है । इसी प्रकार जब यह कामना की जाती है - "गृहान् गच्छ गृहपत्नी यथासो" (ॠ० १०.८५.२६) कि वधू गृह की पत्नी हो तो वहाँ गृहस्वामिनी होने का भाव भी निहित है ।

ॠग्वेद में पति शब्द का प्रयोग विभिन्न सन्दर्भों में अनेक रुप एवं अर्थों में किया गया है । देवताओं सम्बन्धित सन्धर्भों के साथ पारस्परिक सम्बन्धों के योग में पति शब्द का प्रयोग किया गया है । जैसे जब इन्द्र को 'राधानाम पते' (ॠ० १.३०.५ एवं ३.५१.१०) के रुप में सम्बोधित किया जाता है तो वहाँ पर वह मात्र हवियों का स्वामी है और जब वह "वाजानां पते" (८.९२.३०) के रुप में सम्बोधित किया जाता है तो वहाँ वह अनेक शक्तियों का स्वामी है । इसी प्रकार उसे 'पयस: पते' 'क्षेत्रस्य पते' इत्यादि रुप में व्यक्त किया गया है । इसके साथ ही पति शब्द का प्रयोग कुछ शब्दों के साथ विशिष्ट नाम बनकर रह गया है । जैसे- अग्नि के लिए "इलस्पति" या 'ब्रह्मणस्पति' शब्दों का प्रयोग । विशिष्ट देवता का आविर्भाव हुआ जो समस्त ज्ञान विज्ञान या वाणी के स्वामी के रुप में प्रतिष्ठित हुआ । हिरण्यगर्भ पुरुष के साथ 'भूतस्य पति:' का प्रयोग इसी अर्थ में है जो धीरे-धीरे प्रजापति के रुप में परिवर्तित हुआ और उसी से समस्त सृष्टि का विकास माना जाने लगा और इस प्रकार सृष्टि के विकासक्रम में स्वामी अथवा पालक की भूमिका ही सर्वोपरि रही है । नारी पुरुष के सम्बन्धों में भी यही दृष्टि रही है ।

प्रजापति की अवधारणा समस्त सृष्टि के पालक या उत्पादक के रुप में है तो दूसरी ओर अदिति, भूमि, वाग् देवी की अवधारणा उन्हे पत्नी, पालिका या मात्रिका के रुप में उपस्थित करती है । इस प्रकार सृष्टि के बीजों के वर्णन में पति-पत्नी की अवधारणा की प्रतीति होती है । ॠग्वेद में हमें पुरुष देवताओं की प्रधानता ही मिलती है यद्यपि वे प्रकृति के विभिन्न शक्तियों के प्रतीक रुप हैं । जहाँ उन्हें शक्ति के प्रतिनिधि होने के कारण नारीत्व के गुणों से मण्डित होना चाहिए था किन्तु ऐसा ना होकर पुरुष प्रधान प्रकृति ही मुख्यता प्राप्त करती है । ऐसी स्थिति में पुरुष और नारी का तुलनात्मक स्वरुप हमें पुरुष प्रधान परिवार की ओर आकृष्ट करता है । ॠग्वेद में यद्यपि वधू, श्वसुर, श्वश्रू, ननन्दृ एवं देवर के लिए सम्राज्ञी के रुप में है लेकिन कहीं भी वह पति की सम्राज्ञी नहीं कही जाती है । गृह का समस्त साम्राज्य उसके आधिपत्य के अन्तर्गत है उस साम्राज्य का अधिपति पति होता है जिसकी सेवा भावना में रत रहना पत्नी के लिए आवश्यक है ।

इसी के साथ भाई के सम्बन्धों की चर्चा भी आवश्यक है । ॠग्वेद ४.५.५ में कहा गया है बिना भाई की जो नारियाँ हैं उनका वही रुप है जो पति से द्वेष करने वाली नारियों का है । दोनों स्थितियों में वे अनृत की भगिनी बनती है । यह बात जहाँ एक ओर भाई के महत्व को प्रदर्शित करती है वहीं दूसरी ओर पुत्र के महत्व और उसकी आवश्यकता पर बल डालती है । इसीलिए युग युगान्तर से भाई बहन के युग्मों की भव्य कल्पनाएँ ॠग्वेद के प्रसिद्ध यम-यमी (ॠ० १०.१०) सूक्त में तत्कालीन मान्यताओं की अवधारणाओं को व्यक्त करते हुए यमका यह कथन निर्देशन है - "बहन भाई को पति रुप में वरण न करके किसी अन्य का वरण करती है । बिना भाई के बहन की शोभा नहीं होती और बहन भाई को पति के रुप में वरण नहीं कर सकती ।

इस प्रकार इस समस्त सृष्टि में प्रकृति का नर्तन या जो उसका अलंकरण है वह नारी प्रतिमानों के माध्यम से मानवीय जीवन व समाज संरचना के अन्तर्गत अंकुरित होता रहता है । इससे सामाजिक सौन्दर्य की निरन्तर अभिवृद्धि होती रहती है ।

सामाजिक मूल्यों के अन्तर्गत ॠग्वेद में नैतिकता सम्बन्धी अवधारणाओं पर पर्याप्त सामग्री हमें प्राप्त होती है । ॠग्वेद कालीन समाज इन सम्भावनाओं के प्रति सजग रहा है । यही कारण है कि ॠग्वेद में कौटुम्बिक व्यभिचार, परनारीगमन, बहुविवाह, वेश्यावृति आदि की भत्र्सना की गई है तथा असंयम, क्रोध एवं इस प्रकार के अन्य संवेगों को पाप के रुप में माना गया है और इन सबको दूर करने के लिए देवताओं का आह्मवान किया गया है । क्रोध का सहचर दूसरा पाप धूर्तता है जिससे दूर रहने की कामना की गई है । चौर कर्म, हत्या तथा कच्चा मांस भक्षण को अनैतिकता के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है । प्रमाद, नशा, द्यूतक्रीड़ा आदि इसी श्रेणी में कहे गए हैं ।

अतिथि सत्कार, दान, दया, उदारता आदि नैतिक मूल्यों के अन्तर्गत अभिहित हैं । इसलिए कहा गया है -

न स सखा यो न ददाति सख्यें सचाभुवे सचमानाय पित्व: ।
अपास्मात् प्रेयान्न तदोको अस्ति पृणन्तमन्यमरणं चिदिच्छेत् ।।

(ॠ० १०.११७.४)

ॠग्वेद में उदारता एवं दान की चर्चा बार-बार की गई है । दानशील व्यक्ति दीर्ध जीवन एवं अमृतत्व को प्राप्त करता है और मृत्यु के पश्चात देवताओं के उत्तम लोक में गमन करता है । ॠग्वेद के अनुशीलन से हम देखते हैं दशम मण्डल में नैतिकता की अधिक विकसित विचारधारायें हैं । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समाज में नैतिक मान्यतायें धीरे-धीरे विकसित हो रही थी और नैतिक मूल्य परिवर्धन और परिवर्तन की गति में थे ।

ॠग्वैदिक समाज के लोग इस तथ्य को अच्छी तरह जानते थे जिसके कारण इन्होने सर्वजन हिताय ही समस्त नियम की व्यवस्था की । इसलिए ॠषियों ने सबके सह अस्तित्व की कामना की

समानी व आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।

(ॠ० १०.१९१.४)

विभिन्न सन्दर्भों के आधार ॠग्वैदिक परिधानों के विषय में यह कहा जा सकता है कि आर्य जन सामुदायिक रुप से धर्मनिष्ठ एवं प्रवृति से नैतिक होते हुये भी व्यक्तिगत जीवन में सौन्दर्य के प्रति सजग रहते थे । केश सज्जा से लेकर चरण तक की सुन्दरता को विभिन्न सजावटों के माध्यम से शारीरिक सौन्दर्य में वृद्धि करते थे । आर्यों का जीवन पूर्णत: कृषि एवं पशुपालन पर आधारित था ।

ॠग्वैदिक काल में विभिन्न कलाओं की प्रतिष्ठा हो चुकी थी । आवश्यकतानुसार विभिन्न वर्ग बन रहे थे । अपनी रुचि के अनुसार शिल्प अपनाने की व्यवस्था थी यह किसी के ऊपर थोपा नहीं जाता था और न ही पैतृक व्यवस्था के रुप में ग्रहण किया जाता था । सर्वतन्त्र स्वतन्त्र वह समाज अपनी रुचि के अनुसार ही शिल्प एवं उद्योग के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा था । इस काल में यदि वास्तुकला के कुशल निर्माता थे तो दूसरी ओर रथकारों एवं तक्षन् का भी एक वर्ग था ।
इसी तरह वासोवाय, चर्मन, स्वर्णकार, कर्मार, कुलाल, तथा प्रत्यञ्चाकार इत्यादि का वर्ग भी अपना स्थान बना चुका था । यह समाज एक प्रगतिशील समाज था । ॠचाओं में भौतिक सम्प्रभुता के अत्यन्त केन्द्रण का संकेत नहीं प्राप्त होता । ॠग्वेद काल का प्रत्येक ग्राम अपने आप में पूर्ण इकाई था जहाँ आवश्यकता के अनुरुप वस्तुओं का उत्पादन, समुचित विनिमय एवं प्रत्येक वर्ग का अधिकार सुनिश्चित था ।

ॠग्वैदिक समाज राजनैतिक सत्ता के लिए होने वाले संघर्षों से क्रमश: दूर होता दृष्टिगोचर होता है किन्तु आन्तरिक व्यवस्था शान्तिपूर्ण बनाये रखने के साथ ही बाह्य आर्येतर आक्रमणों का भीषण प्रत्युत्तर देना आर्यों का वैयक्तिक गुण था । ॠग्वेद के मन्त्रों में जहाँ एक ओर हल के फालों का उल्लेख है वहीं दूसरी ओर अनेक प्रकार के अस्र शस्रों का भी उल्लेख है । ॠग्वैदिक इन्द्र दुराचारियों, हिंसकों एवं आक्रमणकारियों का अत्यन्त भीष्णता से मर्दन करते हैं । ॠग्वैदिक योद्धा हेति, प्रहेति, रम्भिणी, आदि अस्रों का आविष्कार कर चुके थे ।

मूल रुप से ॠग्वेद आदि धर्म ग्रन्थ है अत: ॠग्वेद के धार्मिक आचारों, मन्त्र प्रयोग, पौरोहित्य आदि धार्मिक प्रवधियों तथा कर्म एवं पुनर्जन्म एवं पितरों की सत्ता, शुद्ध एवं अशुद्ध कृत्य, शुभ एवं अशुभ, स्वर्ग आदि के विषय में प्राथमिक मान्यताओं का मन्त्रों के आधार पर विश्लेषण करना अपरिहार्य था । अत: प्रबन्ध के दो अध्याय क्रमश: धर्म एवं दर्शन को समर्पित हैं ।

ॠग्वेद में सम्पूर्ण सामग्री इतस्तत: विकीर्ण है जिनका अध्ययन मन्त्रों एवं उनके शब्दों के अर्थ करने वाले पारम्परिक भाष्यकर्ताओं तथा पाश्चात्य भाषाविदों के अनुवादों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर प्रस्तुत किया गया है । मेरी वैयक्तिक मान्यता है कि आर्यों का सच्चा चित्रण एवं भारतीय समाज के मूलरुप का वास्तविक ज्ञान ॠग्वेद के शब्दों से सीधे प्राप्त किया जा सकता है । उन शब्दों की काल्पनिक व्याख्याएँ वस्तुगत ज्ञान से दूर कर सकती हैं । (साभार)
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2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

जय प्रकाश भाई,
बहुत सुंदर आलेख है, आपको बहुत बधाई.
समीर लाल'समीर'

बेनामी ने कहा…

ॠग्वेद आदि वेद है, ब्रह्म का शब्द रुप है। मानसजी ने यह लेख प्रकाशित करके हमारे ग्यान की झोली में रिक्तता कुछ्कम की है। बधाई।
प्रेमलता पांडे