4/18/2006

भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा का सवाल

आलेख
भारतीय भाषा प्रतिष्ठापनार्थ संयुक्त कार्य योजना
(निर्धारण एवं क्रियान्वयन)


इतिहास साक्षी है कि किसी भी ताकत से लड़ने के लिए संगठित होना आवश्यक है। अंग्रेजों की ताकत से लड़ने के लिए गाँधी जी ने सबको संगठित किया था। स्वतंत्रता का बिगुल बजाने वाले मंगल पांडे की आहुति भी तब ही सार्थक हुई जब तत्कालीन राजा महराजाओं ने संगठित होकर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई आज की अंग्रेजी वर्चस्व की ताकत अंग्रेजों के शासन की ताकत से कहीं अधिक शक्तिशाली है और अंग्रेजी माध्यम की स्कूली शिक्षा से यह ताकत घर घर में बढ़ती जा रही है।

स्वतंत्रता के बाद स्वार्थवश अंग्रेजी के पक्षधरों द्वारा अंग्रेजी के प्रयोग की दी गई छूट के कारण आज की स्थिति पैदा हुई है और उनकी कथनी और करनी में अंतर के कारण स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। दिखाने के लिए भारतीय सत्ताधारी राजनेताओं ने भारतीय भाषाओं भाषाओं को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया है और हिन्दी दिवस पर वे एवं सत्ताधारी बुध्दिजीवी हिन्दी के गुणगान करते नहीं थकते और उसके प्रचार के लिए करोडों रुपयों का अनुदान देते हैं, पर स्वयं उसका प्रयोग नहीं करते। इसी कारण हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाएँ भी अंग्रेजी के आगे बौनी पड़ गई हौ। परिणाम स्वरूप आज आधी सदी के बाद भी राष्ट्र गूँगा है और उसकी कोई पहचान नहीं है, कोई भी भाषा राष्ट्र की सम्पर्क भाषा घोषित नहीं हुई है। हिन्दी जब अपने ही प्रदेश में प्रतिष्ठापित नहीं हुई है तो उसे राष्ट्र की संपर्क राष्ट्रभाषा बनाने का सपना भी पूरा नहीं हो सकता। प्रश्न उठता है कि अंग्रेजी के वर्चस्व से कौन पीड़ित या व्यथित है- व्यक्ति या राष्ट्र या कोई नहीं; यदि नहीं तो चिंतन व्यर्थ है। इसलिए अब समय आ गया है कि इस विषय पर गंभीरता से चिंतन करें अब तक के प्रयासों एवं अनुभवों के आधार पर संयुक्त कार्य योजना तैयार करें और क्रियान्वयन की समयबद्ध रूप रेखा निर्धारित करें।

संयुक्त प्रयास पर चिंतन करने के लिए 1995 में लगभग 10 संस्थाओं ने मिल कर नागदा में भारतीय भाषा प्रतिष्ठापन राष्ट्रीय परिषद का गठन किया था। इसका लक्ष्य एक अलग संस्था का गठन करना नहीं वरन् सभी संबद्ध संस्थाओं की एक कार्यकारिणी परिषद के रूप में कार्य करना था। अप्रैल सन् 2003 में ठाणे महाराष्ट्र में इसका पंजीकरण कराया गया। मुंबई,दिल्ली, भोपाल,सतना,चैन्नई एवं चित्रकूट में चिंतन रैली, एवं संगोष्ठियों का आयोजन किया गया। इस परिषद के माध्यम से जगह जगह से राष्ट्रपति जी को गणतंत्र दिवस पर संदेश स्वभाषा या हिन्दी में देने के लिए पत्र भिजवाए । 2 अक्टूबर 2003 को गाँधी के विचारों पर आधारित भाषा नीति के महत्व को समझाने के लिए जगह जगह जन चेतना अभियान किया गया। इन प्रयासों के दौरान निम्नलिखित अनुभव हुएः-

जनता की उदासीनता स्पष्ट महसूस हुई, अंग्रेजी बिना वे अपने को हीन महसूस करते हैं
लोग कहते हैं कि हिन्दी है तो सही पर वे नहीं समझते कि बोलने वाली भाषा का कोई महत्व नहीं है
संगोष्ठियों में सब मानते हैं कि शिक्षा का माध्यम स्वभाषा हो पर क्रियान्वयन पर अटक जाते हैं।
मुंबई में एक जनमत सर्वेक्षण में अधिकतर ने हिन्दी को सम्पर्क राष्ट्रभाषा माना पर सत्ताधारी लोगों का कहना है कि यदि हिन्दी पहले ही राष्ट्रभाषा बन जाती तो ठीक रहता पर, अब संभव नहीं है, अब अंग्र्रेजी के वर्चस्व को हटाना कठिन है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर का मानना है कि सबकी स्कूली शिक्षा स्वभाषा से हो और उच्च शिक्षा अंग्रेजी से हो, पर पूछने पर कि इसको क्रियान्वित कैसे करेंगे, उनके पास कोई उत्तर नहीं था।
गैर हिन्दी भाषी क्या हमारे सत्ताधारी हिन्दी भाषी भी अंग्रेजी को 'कॉमन भाषा 'मानते हैं और हिन्दी का अपमान हो रहा है इस पर कोई चिंतन नहीं करते।

भारतीय भाषाओं का विकास बोलने की दिशा में हुआ है और हम केवल उपभोक्ता बनते जा रहे हैं।
दक्षिण भारत में हिन्दी के लिए निजी तौर पर हिन्दी अध्यापन का कार्य किया जा रहा है क्योंकि अन्य राज्यों में आवागमन के लिए यह जरूरी है, सम्पर्क राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी उन्हें स्वीकार नहीं।
वोट माँगने, धनोपार्जन, विज्ञापन,मनोरंजन के लिए स्वभाषा स्वीकृत है, पर लिखने पढ़ने के लिए नहीं।
संसद में भारतीय भाषाओं में बोलने का प्रावधान होते हुए भी राजनेता अंग्रेजी में बोलते हैं।
स्वदेशी की आवाज उठाने वाले भी स्वभाषा की आवाज नहीं उठाते।

दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे सत्ताधारी प्रशासनिक, वैज्ञानिक एवं राजनेता इस तथ्य को या तो समझ नहीं रहे हैं या समझ कर भी अनदेखा कर रहे हैं। यही कारण है कि पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी सत्ता पाने के बाद बदल गए। हमारे आध्यात्मिक गुरु भी इस तथ्य को न समझने के कारण अपने प्रवचनों में इसका चिंतन नहीं फैलाते।
विभिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित संगोष्ठियों /सम्मेलनों/हिन्दी दिवस पर हिन्दी की गुणवत्ता पर पर्याप्त चिंतन और राष्ट्रीय स्तर पर उसे स्वीकार कराने के लिए देवनागरी लिपि में सुधार करने पर चर्चा हुई है, परन्तु हकीकत में राजभाषा या राष्ट्रभाषा बनने में होने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए कोई जमीनी कार्यक्रम निर्धारित नहीं किया गया। इस विषय पर भी चर्चा नहीं हुई कि भारतीय भाषाओं का प्रतिष्ठापन क्यों आवश्यक है और कैसे सुनिश्चित किया जाए।
स्वभाषा के महत्व को समझने वालों में कुछ करने की उमंग उठती है पर फिर निराशा से समाप्त होजाती है जैसे पानी में बबूले उठते हैं और खत्म हो जाते हैं, चिंगारी उठती हैं और बुझ जाती हैं।
अंग्रेजी की मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा यह है कि मिशनरी के स्कूलों में हिन्दी बोलने पर सजा को अभिवावक केवल अनदेखा ही नहीं कर रहे हैं वरन् स्कूल प्रशासन से इस बार में सहमत होते हैं।
विश्व में स्वभाषा का स्वाभिमान रखने वाला हर व्यकित अपने परिचय पत्र में स्वभाषा को अवश्य स्थान देता है, पर हमारे देश की युवा पीय्ढी ऐसा नहीं मानती। उसके शब्दकोष में पहचान शब्द नहीं है। यह बात यह दर्शाती है कि हम गुलाम हैं क्योंकि गुलाम की ही कोई पहचान नहीं होती।

उपर्युक्त अनुभवों के आधार पर एक निश्चित दिशा में जाने के लिए 'भारतीय भाषाओं का प्रतिष्ठापन क्यों और कैसे' विषय पर पिछले वर्ष गाजियाबाद में संगोष्ठी का आयोजन किया गया था और विभिन्न दृष्टिकोणों यथा भावनात्मक, सांस्कृतिक, राष्ट्र एवं जन हित, तथा व्यक्तिगत स्वार्थ एवं रोजी रोटी की दृष्टि से चर्चा की गई। अब आगरा में 23 अप्रैल को केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा में भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठापनार्थ संयुक्त कार्य योजना का निर्धारण एवं क्रियान्वयन की समयबद्ध रूप रेखा तैयार की जाएगी। विभिन्न दृष्टिकोण में विचारणीय बिन्दु इस प्रकार हैं:-

भावनात्मकः- इसमें विचारणीय है स्वभाषा का मान-सम्मान। हमें स्वभाषा के सम्मान के लिए कार्य करना चाहिए और अपमान से बचाना चाहिए। कोई भाषा सम्मानित तब होती है जब वह ज्ञान विज्ञान की वाहक हो और अपमानित तब होती है जब उसका प्रयोग उस प्रयोजन के लिए नहीं किया जाए जिसके लिए उसको निर्धारित किया गया है। अंग्रेजों के शासनकाल में हमारी भाषाएँ न सम्मानित थीं और न हीं अपमानित होती थीं पर अब अपमानित भी हो रही हैं। आज हमारी भारतीय भाषाएँ राज्यभाषाएँ एवं राजभाषा बनी हुई हैं पर हकीकत में उनको यह दर्जा प्राप्त नहीं है, अतः वे अपमानित हो रही हैं। सबसे अधिक अपमानित हिन्दी है। इसका कारण स्वभाषा के स्वाभिमान का विलुप्त हो जाना है। अतः स्वभाषा को सम्मान दिलाना या उन्हें अपमान से बचाने के लिए स्वभाषा के प्रति खोए स्वाभिमान को जगाना होगा।

सांस्कृतिकः-
विचारणीय है कि संस्कृति क्या है और स्वभाषा व संस्कृति का क्या संबंध है? क्या यह अध्यात्मवाद एवं अपनापन है या हमारे ग्रंथ रामायण, गीता या पूजा पाठ ? प्रतिष्ठित पत्रकार डॉ झुनझुनवाले का कहना है कि अपने ग्रंथों का अंग्रेजीकरण कर दिया जाए तो हमारी संस्कृति बरकरार रहेगी। हाल में कल्याण के एक प्रकाशक ने हनुमान चालीसा को रोमन में निकालने का निर्णय लिया है।अंग्रेजी के किस स्तर के प्रयोग से संस्कृति नष्ट हो रही है ? अंग्रेजों के शासन काल में जब अंग्रेजी राजभाषा थी तब संस्कृति को इतना खतरा क्यों नहीं था ? हमारी भारतीय भाषाओं की मूल प्रवृति अध्यात्मवाद एवं अपनापन है जब कि अंग्रेजी की मूल भावना भौतिकवाद एवं औपचारिकता है। अंग्रेजों के समय में हमारी स्कूली शिक्षा स्वभाषा के माध्यम से होती थी और निजी व्यवहार, जैसे विवाह इत्यादि के निमन्त्रण पत्र, में स्वभाषा का प्रयोग होता था, पर आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में दिन प्रतिदिन बढोत्तरी हो रही है और निजी व्यवहार में भी उसका प्रयोग बय्ढ रहा है। निजी व्यवहार को रोकने के लिए अंग्रेजी का प्रयोग करने वाले के साथ असहयोग करना होगा, जैसे अंग्रेजी में आए निमन्त्रणों को स्वीकार नहीं करना और स्वभाषा के प्रति स्वाभिमान को जगाना होगा। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को रोकने के लिए आगे विचार प्रस्तुत करेंगे।

राष्ट्र एवं जन हितः- किसी भी राष्ट्र एवं उसके जन हित का अर्थ है जन जन की खुशहाली,आर्थिक सम्पन्नता,आत्मनिर्भरता एवं स्वाभिमान से जीना। विश्व में विकसित राष्ट्रों में ऐसा पाया जाता है। विचारणीय है कि विकसित राष्ट्र बनने में स्वभाषा / जनभाषा की क्या भूमिका है? यह देखा जा सकता है कि विश्व में विकसित राष्ट्र वही है जिसकी जनभाषा, शिक्षा का माध्यम व कार्यभाषा एक हो। वैज्ञानिक तर्क पर यह सही प्रतीत होता है। किसी भी देश का विकास मौलिक शोध एवं उस देश की धरती के संसाधनों से जुय्डे प्रौद्यौगिकी विकास के लिए अनुप्रयोगिक शोध पर निर्भर करता है।

वैज्ञानिक शोध दो प्रकार के होते हैं मौलिक जिसमें प्राकृतिक नियमों की मूलभूत खोज होती है और अनुप्रयोगिक जो देश विशेष के संसाधनों,पर्यावरण,जलवायु इत्यादि पर आधारित होते हैं। अनुप्रयोगिक शोध से ही देश विशेष की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी का विकास होता है। जहाँ मौलिक शोध से देश की आर्थिक सम्पन्नता व उसकी प्रतिभा बय्ढती है वहीं अनुप्रयोगिक शोध से आत्मनिर्भरता बय्ढती है। मौलिक शोध का ताजा उदाहरण बिल ग्रेट्स द्वारा व्यक्तिगत कम्प्यूटर सिध्दन्त का विकास है इससे अमरीका की सम्पन्नता बढ़ी। स्वभाषा के कम्प्यूटरों का विकास अनुप्रयोगिक शोध का उदाहरण है।

देश विशेष की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी के विकास से ही जन-जन के लिए उपयोगी व्यवसाय विकसित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए घरेलू उद्योग धंधे यथा कुम्हार का मिट्टी का कुल्लड़, कृषि का विकास। कुल्लड़ का कचरा प्रदूषण पैदा नहीं करता क्योंकि टूटने पर मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है। हमारे देश में किसान गोबर की खाद का प्रयोग करते थे, जो धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट नहीं करती। रासायनिक खाद का उपयोग करके हम अपनी धरती की उर्वरा शक्ति को खो रहे हैं। यदि इस क्षेत्र में शोध किया जाता तो कुम्हार के कुल्लड़ को मजबूत किया जाता । कचरा आदि से रसायन रहित खाद का प्रयोग बढ़ाया जाता, तो गॉव-गाँव में व्यवसाय विकसित होते और शहर की ओर दौड़ कम होती। इसी प्रकार परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में धरती से जुड़े शोध का उदाहरण है थोरियम आधारित परमाणु बिजली घर का विकास क्योंकि हमारे देश में थोरियम का अथाह भंडार है, यूरेनियम का नहीं। अतः थोरियम के परमाणु बिजली घर का विकास हमें आत्मनिर्भर बनाएँगे जब कि यूरेनियम के परमाणु बिजली घरों से हम पश्चिम के विशेषकर अमरीका पर निर्भर रहेंगे। इसी परनिर्भरता के कारण शायद हम परमाणु संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश हुए हैं।

मौलिक और अनुप्रयोगिक दोनों प्रकार के शोध देश की प्रतिभाओं द्वारा होते हैं। दोनों शोध के लिए पहली आवश्यकता है मौलिक/रचनात्मक चिंतन व लेखन एवं ज्ञान का आत्मसात करना, दूसरी आवश्यकता है भाषा पर अधिकार व तीसरी है अपने देश की आवश्यकताओं को समझना। प्रश्न उठता है कि क्या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाली प्रतिभाएँ इस दिशा में कार्य कर सकेंगी?

मौलिक चिंतन एवं लेखनः- इसमें विचारणीय है कि क्या
(1) स्कूली विशेषकर प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या जनभाषा से अलग भाषा होने पर मौलिक चिंतन समाप्त हो जाता है क्योंकि उस भाषा को सीखने के लिए रटना पय्डता है और बौध्दिक विकास के प्रारम्भिक वर्ष दूसरी भाषा के सीखने में ही व्यतीत हो जाते हैं। जब कि स्वभाषा या जनभाषा से सहजता से ज्ञान अर्जित करने के कारण मानसिक विकास होता है, दूसरे विचारों की उड़ान सपनों में होती है और सपने स्वभाषा में ही देखे जाते हैं । मौलिक चिंतन के विकास के लिए सपनों की भाषा एवं शिक्षण भाषा का एक होना आवश्यक है।

(2) ज्ञान का आत्मसात स्वभाषा/जनभाषा से ही संभव है क्योंकि वह जनम से हमारी रग रग में बस जाती है।

(3) दूसरे की भाषा से हम ज्ञान प्राप्त तो कर सकते हैं पर ज्ञान का सृजन नहीं कर सकते।

(4) मौलिक लेखन के लिए विचारों को लिपिबद्ध करने के लिए आवश्यक इच्छा तब ही होगी जब मौलिक लेखन स्वभाषा या जनभाषा में हो।

भाषा पर अधिकारः- व्यक्ति चाहे जितना भी चिंतन करले यदि उसका भाषा पर अधिकार नहीं है तो न तो वह सत्साहित्य को ग्राह्य कर सकता है और न स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है। अपने शोध को समझाने के लिए भाषा पर अधिकार की आवश्यकता होती है। विचारणीय है कि क्या शिक्षा का माध्यम और बोलचाल की भाषा अलग होने से अभिव्यक्ति प्रभावी होगी या हम आधे अधूरे रहेंगे। सत्य तो यह है कि न तो हम उन लोगो में प्रभावी होंगे जिनकी मातृभाषा हमारी स्कूली शिक्षा का माध्यम है और नही अपने लोगों में ।

देश की आवश्यकताओं को समझनाः- अनुप्रयोगिक शोध के लिए आवश्यक है उस देश की मूलभूत आवश्यकताओं को समझना, उसके संसाधनों, उसकी जलवायु एवं उसके परिवेश से परिचित होना। भारत का परिवेश गाँवों से है अतः गाँवों से जुड़ना आवश्यक है। विचारणीय है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले लोग हमारे गाँवों की स्थिषत दर्शाने वाले समाचार पत्रों एवं स्वभाषा में लिखे साहित्य को न पढ़ने के कारण हमारे गाँवों के परिवेश से न जुय्ड कर विदेशी परिवेश से जुड़ रहे हैं।

उपर्युक्त तथ्यों के पक्ष में यह सिद्ध है कि स्वचतंत्रता पूर्व जितने भी वैज्ञानिक हुए उन्होनें स्कूली शिक्षा स्वभाषा या जनभाषा से प्राप्त की। आज भी सर्वेक्षण करके देखा जा सकता है कि वैज्ञानिक संस्थानों में कार्यरत अधिकांश वैज्ञानिकों ने स्कूली शिक्षा स्वभाषा से प्राप्त की है। फिर भी आगे अंग्रेजी माध्यम के कारण अधिकतर शोध विदेशों की नकल हैं या उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इतिहास साक्षी है कि ज्ञान-विज्ञान जनभाषा से अलग होने के कारण शोध कार्य करने में समय अधिक व्यतीत होता है। एक उदाहरण उस वैज्ञानिक का है जिसने आधुनिक शल्य चिकित्सा (वैसे शल्य चिकित्सा का विकास वैदिक काल में शु द्वारा हुआ था) का विकास किया हज्जाम था। उस समय उच्च ज्ञान विज्ञान ग्रीक भाषा में ही उपलब्ध था, इसलिए उसे अपने कार्य में अधिक समय लगा। इसी प्रकार प्रो. सत्येन्द्र बोस ने जब एम. एससी किया तब उस स्तर की पुस्तकें प्रैंच्च में उपलब्ध थी। अतः उन्हें प्रैंच्च सीखने के कारण समय लगाना पड़ा। इसके अलावा यदि जनभाषा में वैज्ञानिक साहित्य उपलब्ध है तो जिस प्रतिभा ने उच्च शिक्षण नहीं पाया वह भी स्वभाषा में उपलब्ध ज्ञान विज्ञान को पढ़ कर वैज्ञानिक शोध कर सकता है। वैज्ञानिक माइकल फैराडे की जिल्दसाजी की दुकान थी। वह उच्च शिक्षा के लिए महाविद्यालय नहीं गया दुकान पर जिल्द के लिए आने वाली वैज्ञानिक पुस्तकें जो उसकी स्वभाषा में थी पढ़कर वैज्ञानिक बन गया।

लोकप्रिय वैज्ञानिक लेखन की आवश्यकता :- यह भी विचारणीय है कि जनसाधारण को अंधविश्वास से बचाने एवं राष्ट्र की वैज्ञानिक प्रगति का एहसास दिलाने के लिए लोकप्रिय वैज्ञानिक पुस्तकें व पत्र पत्रिकाएँ स्वभाषा में होना आवश्यक है। जनसाधारण को अनुवाद करके वैज्ञानिक जानकारी पहुँचाई जा सकती है पर लोकप्रिय पुस्तक या पत्रिका के लिए अनुवाद मौलिक जैसा होना चाहिए या लेखन ही मौलिक होना चाहिए। मौलिक जैसे अनुवाद के लिए अनुवादको हिन्दी व अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं पर अधिकार एवं विषय का ज्ञान होना आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति बहुत कम हैं। यह निर्विवाद है कि साहित्यकार द्वारा लिखा लेख रोचक होगा। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयन्त नार्लीकर ने एक लेख में कहा है- ‘विज्ञान के प्रसार में साहित्यकारों को भी आगे आना चाहिए। वैज्ञानिकों की अपेक्षा साहित्यकारों की लेखनी में अधिक ताकत होती है। मैं हिन्दी में विज्ञान लिख सकता हूँ पर एक साहित्यकार जैसी नहीं होगी ।‘ यह सत्य है एक वैज्ञानिक की सहायता से साहित्यकार द्वारा अच्छे लोकप्रिय वैज्ञानिक लेख लिखे जा सकते हैं। वैज्ञानिक की सहायता का अर्थ है हिन्दी में वैज्ञानिक सामग्री की उपलब्धता। इसका सका उदाहरण है कि परमाणु ऊर्जा से संबंधित वैज्ञानिक साहित्य उपलब्ध कराने पर मेरी साहित्यकार पत्नी डॉ प्रेम भार्गव ने रोचक ढ़ंग से परमाणु की आत्मकथा लिखी जो रक्षा मंत्रालय द्वारा पुरस्कृत हुई और हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को पसंद आई।

विचारणीय है कि आज स्कूली शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से पाने वाली प्रतिभा मौलिक चिंतन खोने एवं गाँवों से न जुड़ने के कारण देश के विकास के काम न आकर विदेशियों के काम आ रही हैं। साथ ही स्वभाषा माध्यम से पढ़ने से मौलिक चिंतन प्राप्त करने वाली और गाँवों से जुड़ी प्रतिभाएँ भी उच्च शिक्षा अंग्रेजी में होने के कारण समान अवसर नहीं मिलने और स्वभाषा में उच्च ज्ञान विज्ञान उपलब्ध न होने के कारण देश के काम नहीं आ रही हैं। दोनों प्रकार की प्रतिभाएँ देश के विकास में काम न आकर विदेशियों के उपयोगी सिद्ध हो रही हैं और परिणाम स्वरूप वे आज हमारे अन्नदाता बन गए हैं और हम केवल उपभोक्ता बनते जा रहे हैं और बने हुए हैं।

स्वभाषा प्रतिष्ठापन के महत्व पर निर्णायक चिंतन के लिए-

(क) गोष्ठी का आयोजन किया जाए जिसमें हमारे राष्ट्रपति समेत सत्ताधारी वैज्ञानिक चिंतन करें कि राष्ट्र के विकास के लिए मौलिक चिंतन एवं मौलिक लेखन स्वभाषा में होना आवश्यक है। उसके लिए वैज्ञानिकों की क्षमता का मूल्यांकन स्वभाषा में लिखे शोध के आधार पर भी किया जाना चाहिए।

(ख) स्वभाषा के माध्यम से शिक्षा एवं धरती से जुड़े और गाँवो के विकास के लिए शोध का संस्थान स्थापित करके स्वभाषा के महत्व को सिद्ध करना होगा ।

(ग) गॉवों और स्वभाषा के विद्यालयों में पुस्तकालय खोलना एवं वहाँ तक स्वभाषा की पत्र पत्रिकाएँ तथा पुस्तकों को पहँचाना होगा ।

(घ) इस तथ्य को समझने वालों को एकजुट होकर वैज्ञानिक साहित्य तैयार करना होगा और इस तथ्य को समझने वालों से वार्षिक आय की कुछ प्रतिशत धनराशि एकत्रित करनी होगी।

व्यक्तिगत स्वार्थः- व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण न तो जन हित के बारे में सोचा जाता है और न हीं राष्ट्र हित के बारे में। व्यक्ति को जिस रास्ते आर्थिक लाभ होता है वही करता है। इसी दृष्टि से विचारणीय है कि बिना किसी प्रयास के अंग्रेजी के प्रयोग का प्रसार हो रहा है व प्रयास के बाबजूद हिन्दी या भारतीय भाषाओं के प्रयोग में गिरावट। हाँ बोलने वाली भाषा के रूप में अवश्य विस्तार है। व्यापारी हो या राजनेता या अभिनेता या उद्योगपति उसे किसी भाषा से मतलब नहीं। वह तो उसी भाषा का स्तेमाल करेगा जिससे उसका काम चलता है। हम देख सकते हैं-

राजनेताओं के लिए स्वभाषा 'वोट' के लिए, अंग्रेजी कामकाज के लिए
अभिनेताओं के लिए स्वभाषा से धनोपार्जन, अंग्रेजी फिल्म समारोह में अंग्रेजी का प्रयोग
उद्योगपतियों के लिए स्वभाषा से 'विज्ञापन', अंग्रेजी से नौकरी देना व कामकाज करना
व्यापारियों के लिए स्वभाषा से 'माल' बेचना, अंग्रेजी से नामपट,कैशमीमो लिखना व कामकाज करना
विवाह व अन्य समारोह में बोलचाल की भाषा स्वभाषा, पर निमन्त्रण पत्र व लिखने की भाषा अंग्रेजी


दक्षिण भारत में हिन्दी शिक्षण का कारोबार चल रहा है क्योंकि अधिकतर बाजार की भाषा हिन्दी है अतः उद्योग व व्यापार के क्षेत्र में जहाँ कार्यभाषा अंग्रेजी है बाजार के कारण हिन्दी का ज्ञान भी आवश्यक है। उत्पादों पर अंग्रेजी छाई हुई होती है। लोगों के द्वारा स्वभाषा का प्रयोग करवाने के लिए असहयोग आन्दोलन द्वारा स्वभाषा की आवश्यकता बढ़ाई जा सकती है।

रोजी रोटीः-
मानव रोजी रोटी के लिए ही जीता है। अतः येन केन प्रकारेण रोजी रोटी के लिए जो भी आवश्यक है उसे करने पर वह मजबूर होता है। हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के लिए संघर्षरत भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलवाते हैं। इसी विषय पर अदालत में हिन्दी के प्रयोग के लिए संघर्षरत एक सेवानिवृत न्याय मूर्ति ने कहा कि उनके बच्चे एवं पोता-पोती स्कूली शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से इसलिए पाते हैं जिससे उनका भविष्य सुधर जाए। उन्होंने यह नहीं कहा कि मजबूरी में भेजते हैं। विचारणीय है कि यदि अंग्रेजी माध्यम पैसे वालों के बच्चों का भविष्य सुधार सकता है तो गरीब तबके के बच्चों का भविष्य क्यों नहीं? स्वभाषा को रोजी रोटी से जोय्डने पर ही समस्या का समाधान संभव है। अतः पुरस्कार दी जाने वाली राशि को पहले लघु उद्योगों में लगाया जाए, फिर उनसे प्राप्त धन से बड़े उद्योग खोले जा सकते हैं ।

भाषा का कम्प्यूट्रीकरणः-आज कम्प्यूट्रीकरण का युग है अतः विचारणीय है कि क्या स्वभाषा के मानक कुजी पटल बिना और प्रत्येक कार्य के लिए सॉटवेयर विकसित हुए बिना हमारी भाषाओं में कार्य करना संभव है?
योजना तैयार करने के लिए यह भी विचारणीय है कि अब तक के प्रयास प्रभावी क्यों नहीं रहे। इनमें प्रमुख हैं-
(1) विभिन्न संस्थाओं द्वारा हिन्दी के प्रचार व प्रसार का अर्थ केवल हिन्दी की शिक्षा देना है, तो क्या इससे वह राजभाषा पद पर हकीकत में प्रतिष्ठापित हो सकेगी।

(2) इस अभियान में लगे व्यक्तियों के बच्चों का अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जाना या विदेश में बसना।

(3) साल में एक बार सम्मेलन करना और हिन्दी या भारतीय भाषाओं का गुण बखान करना और बाकी वर्ष चुप रहना

(4) हिन्दी दिवस पर ऐसे हिन्दी साहित्यकार को पुरस्कृत करना जो कामकाज हिन्दी में नहीं करते (यह देखा गया कि हिन्दी दिवस पर सम्मानित साहित्यकार का पहचान पत्र पर केवल अंग्रेजी में था)।

(5) जब तक विभिन्न प्रदेश अंग्रेजी को अपने प्रदेश के जन जन के लिए खतरा नहीं समझते क्या तब तक अंग्रेजी की दासता से मुक्ति मिल सकती है?

(6) 40 प्रतिशत जनता अब भी अनपय्ढ है। अनपढ़ के लिए तो हिन्दी या अंग्रेजी समान है (7) जन जागरण द्वारा चुनावी मुद्दा बनाने के प्रयास नहीं, क्योंकि राजनेता तो केवल वोट की भाषा समझते हैं ।

हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठापित कराने के लिए संयुक्त प्रयास की अत्यंत आवश्यकतता है। इस प्रयास से पहले महामहिम राष्ट्रपति सहित सत्ता धारी वैज्ञानिकों एवं राजनेताओं के साथ निर्णायक चर्चा एवं जनसमुदाय के विचारों का सर्वेक्षण करना आवश्यक है कि अंग्रेजी का प्रयोग किस रूप, यथा माध्यम या विषय, में राष्ट्र एवं जन हित में है जिससे राष्ट्र में सबको समान अवसर मिल सकें और राष्ट्र आत्मनिर्भर होकर सवाभिमान से जी सके। यह भी विचारणीय है कि वर्तमान स्थिति से हम केवल उपभोक्ता बन रहे हैं और हम आधे अधूरे हो रहे हैं अर्थात न तो स्वभाषा पर हमारा अधिकार है और न ही अंग्रेजी पर।इस कार्य के लिए हमें लगातार लगे रहना होगा। गाजियाबाद संगोष्ठी में विभिन्न विचारों की समीक्षा करके कार्य योजना को पाँच वर्गों में बाँटने का प्रस्ताव रखा गया था। ये प्रस्ताव हैं सांसद एवं जन -जागरण, न्यायायिक प्रक्रिया, वैज्ञानिक-प्रौद्यौगिक-शिक्षा संबंधी प्रयास, साहित्य द्वारा जनजागरण, प्रतियोगिताओं द्वारा विचार मंथन,एवं जन आंदोलन। यह भी प्रस्ताव रखा गया कि निम्नलिखित भाषा नीति को लागू करवाने के प्रयास किए जाएं -

· संविधान के अनुसार देवनागरी लिपि में लिखी गई हिन्दी को भारत संघ की राजभाषा घोषित किया गया है। राजभाषा हिन्दी को ही देश की सम्पर्क राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए।

· स्कूली शिक्षा का माध्यम मातृभाषा / प्रदेश की राज्यभाषा या जनभाषा हो। उच्च शिक्षा का माध्यम मातृभाषा / प्रदेश की राज्यभाषा या जनभाषा या सम्पर्क राष्ट्रभाषा हो। तकनीकी शब्दावली पूरे देश की एक हो। हर भारतीय को अष्टम सूची में मान्य भाषाओं में से दो भाषाएँ अनिवार्य रूप से पढ़ाई जानी चाहिए उनमें से एक सम्पर्क राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि हिन्दी सम्पर्क राष्ट्रभाषा है तो हिन्दी भाषियों को हिन्दी एवं संविधान में दी गई कोई भी प्रान्तीय एक भाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जानी चाहिए।


· राज्यों के सरकारी व राज्यस्तर के निजी संस्थाओं की कार्यभाषा अनिवार्य रूप से संविधान की अष्टम सूची में से कोई भी एक भाषा होनी चाहिए।

· किसी भी राज्य में राष्ट्रीय स्तर की निजी संस्थाओं तथा केन्द्र सरकार के हर राज्य में स्थित विभागों के कार्यालयों की कार्यभाषा अनिवार्य रूप से राष्ट्र की सम्पर्क भाषा एवं राज्य की राज्यभाषा हो।

· केन्द्र के ऐसे विभागों के कार्यालयों में,जो हर राज्य में स्थापित नहीं हैं, जैसे परमाणु ऊर्जा विभाग, संवाद की भाषा राष्ट्र की सम्पर्क भाषा हो व कर्मचारी अपना मूल लेखन अपनी राज्यभाषा/मातृभाषा में कर सकें और उसका अनुवाद सम्पर्क राष्ट्रभाषा में किया जाए।

हर राज्य में जन सेवा संबंधी सभी साधनों जैसे बस, रेल, टैक्सी, ऑटो इत्यादि तथा बैंकों, कार्यालयों, डाकघरों, दुकानों, फर्मों, संस्थानों आदि के सार्वजनिक सूचना बोर्र्डों पर स्थानीय लिपि के साथ देवनागरी लिपि का प्रयोग अनिवार्य रूप से होना चाहिए। इसी प्रकार दवाइयों का नाम, घटक तथा प्रयोग विधि भी देवनागरी लिपि में हो। निर्यात किए जाने वाले उत्पादों पर 'भारत में निर्मित' लिखा होना चाहिए, न कि made in India।
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(डॉ विजय कुमार भार्गव
राष्ट्रीय अध्यक्ष
भारतीय भाषा प्रतिष्ठापन राष्ट्रीय परिषद
एच 6/1 सेक्टर 7 वाशी नई मुंबई 400703)

4/16/2006

राजीव सारस्वत की दो रचनाएँ


जूझने का हौसला

हारिए अपनी मर्जी से
जीतिए आदत हो जैसे
ऐसा होता है कई बार
कोशिश करके भी बहुत हम नहीं हो पाते सफल
हमारा योग्‍य प्रतिद्वंद्वी प्रयास से पाता है मंजिल

हममें से अधिकांश नहीं होते तैय्यार
धैर्यपूर्वक पराजय को कर सकें स्‍वीकार
सीख लें यदि हम पराजय को सहज स्‍वीकारना
परिपक्‍व व्‍यक्तित्‍वों में तब होगी हमारी गणना

जीत हो या हार, जीवन में हर बार,
होती परिपक्‍ता की दरकार

अंत:शक्ति का विशाल स्रोत हमको दिलाता
असफलता को सहज स्‍वीकारने की क्षमता
फिर से जूझने का हौसला बढ़ाता
और अगली बार हमें विजेता बनाता




आदमी या मशीन : मशीन कि आदमी


आदमी बन गया है चलती फिरती मशीन
अपने ही बनाए यंत्रों के हो गया अधीन

आदमी अपने परिजनों मित्रों संबंधियों को
अब पत्र नहीं लिखता है
कभी कभार फोन करता है
ई-संदेश भेज देता है
या ससस का सहारा लेता है
आदमी हो गया है वक्‍त के अधीन
आदमी बन गया है चलती फिरती मशीन ।

आदमी गाना गुनगुनाना भूल गया है
अब वाद्य नहीं बजाता है
मोबाइल म्‍यूजिक, रिंगटोन सुनाता है
सीडी, कैसेट खरीद लेता है
या संगीत में करतब देखता है
आदमी हो गया है कुछ ज्‍यादा रंगीन
आदमी बन गया है चलती फिरती मशीन ।।
आदमी मिलना-जुलना छोड़ चुका है
ज्‍यादा बोलता – बतियाता नहीं है
खबरें, धारावाहिक देख लेता है
पत्र-पत्रिकाएं पलट लेता है
या खुद में रहता है मस्‍त-व्‍यस्‍त
आदमी हो गया है टीवी का शौकीन
आदमी बन गया है चलती फिरती मशीन ।।

आदमी हंसना–हंसाना भूल रहा है
ठहाके लगाता मुस्‍काता नहीं है
लाफ्टर चैलेंज को देखता है
और बनावटी हँसी हँसता है
क्‍या आदमी हो चला है ज्‍यादा गमगीन
सोचता हूँ मशीनों ने बनाया आदमी या आदमी ने बनाईं मशीन ।।

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(श्री राजीव सारस्वत मुंबई में रहते हैं । केन्द्रीय शासन में कर्मरत हैं । हिन्दी लघुपत्रिका आंदोलन से जुड़े हुए हैं । पिछले दिनों इन्हें सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़ द्वारा राज्यपाल के हाथों लघुपत्रिका के संपादन कर्म के लिए संपादक श्री से अलंकृत किया गया । संपादक)

4/13/2006

प्रजातंत्रः राजनीतिक शत्रुता-पर्याय तथा सीमाएं

।। विचार-वीथी ।।

सत्यनारायण शर्मा
(पूर्व शिक्षामंत्री एवं विधायक, मंदिरहसौद)


मुझे आज “प्रजातंत्रः राजनीतिक शत्रुता-तात्पर्य तथा सीमाएं” विषय पर कुछ कहना है । प्रजातंत्र और राजनीतिक शत्रुता एक दूसरे के संपूर्ण विरोधी अवधारणायें हैं । इन दोनों को एक साथ रखने के आग्रह का मतलब, न केवल राजनीति से उसकी आत्मा का अपहरण सोचना है बल्कि मानवीय मूल्य के विपरीत ध्रुव पर जा खडा होना भी है । प्रजातंत्र राज्य के नागरिकों के सम्यक विकास की सर्वोच्च राजनैतिक व्यवस्था का नाम है जबकी राजनीतिक शत्रुता सत्ता में अपने स्थायीकरण के लिए अमानवीय हरकतों की सीमा का स्पर्श । यह प्रकारांतर से उस कुटिल मनोदशा की उपज है जहाँ नागरिकता बोध और गरिमा के प्रति लापरवाही का घना कोहरा छाया होता है ।
प्रजातंत्र का संचालन राजनीतिक दलों द्वारा होता है । जाहिर है कि प्रजातंत्र राजनीतिक दलों के कंधों पर टिका हुआ एक पहाड है । यह एक ऐसा पहाड है जो जनता के स्वप्नों और उसकी अभिलाषाओं को साकार करने के उत्तरदायित्वों के भारी चट्टानों से बना है । प्रजातंत्र की अवधारणा को समझते हुए हम अक्सर भूल जाते हैं कि सरकार या व्यवस्था का सूत्र सत्ताधारी दल के हाथों होता है और वहाँ विपक्ष या अन्य राजनीतिक दलों की उपस्थिति का कोई औचित्य नहीं होता । दरअसल यहीं से पनपती है राजनीतिक शत्रुता की विषैली बेलें । यह सोच अपने अति पर राजनीतिक मूढता का प्रश्न भी बन जाती है । और इस अर्थ में यह प्रजातंत्र विरोधी कृत्य भी है ।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था की निरंतरता के लिए वैचारिक धरातल पर भिन्न चरित्र वाले राजनीतिक दलों को राजनैतिक, सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है । वस्तुतः प्रजातंत्र की सफलता, विशेषकर भारतीय प्रजातंत्र की, एक से अधिक दलों की उपस्थिति, सक्रियता और सार्थक हस्तक्षेप पर निर्भर करता है । सत्ताधारी दल तथा विपक्षी दल । इसमें हम विरोधी विचारधारा के संपोषक अन्य दलों को भी सम्मिलित कर सकते हैं । भारतीय प्रजातंत्र की सुदृढता के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुदलीय व्यवस्था और प्रतिपक्षीय प्रावधानों का चयन किया । शायद इसीलिए कि देश का संचालन पर्याप्त आलोचना के उपरांत निर्मित निष्कर्षों के आलोक में हो । बहुसंख्यक जनता द्वारा चयनित दल शासन करे तथा शेष जनता के प्रिय दल विपक्ष के गलियारों रहकर शासन को चूकने से रोकता रहे । यानी कि वह भी जनता के हितों के लिए अपनी क्रियाशीलता को सतत् बनाये रखे । प्रतिपक्ष में रहने वाले राजनीतिक दलों या उनके प्रतिनिधियों को खासा तबज्जो देने की मंशा भी यही सिद्ध करती है कि वह वहाँ उँघे नहीं अपितु सचेत रहे । सजग रहे । वह सशक्त विपक्ष के रूप में अपने दले के आदर्शों के अनुरूप जनता के हितों की रखवाली करता रहे । सीधे-सीधे कहें तो जनता द्वारा विपक्ष में धकेल दिया गया राजनीतिक दल भी प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सत्ताधारी दल ।
जनविरोधी नीति, नियत और नियति के विरूद्ध संघर्ष की जिम्मेवारी विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं के हाथों सौपने का मतलब यह भी है कि हर हालत में जनता और उसके कल्याण के लिए स्वीकृत व्यवस्था तंत्र अर्थात् प्रजातंत्र की जमीन सदैव ठोस बनी रहे । दलों के बावजूद वहाँ दलदल न बन पडे । स्वस्थ आलोचना के साथ प्रजा के हितों के संरक्षण अर्थात् देश का सम्यक विकास । संपूर्ण अर्थों में प्रजातंत्र का संवर्धन । सत्ताधारी दल के अलावा अन्य राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति या समूल समाप्ति का सीधा मतलब तानाशाही को आमंत्रण होता है । तानाशाही को किसी भी व्यवस्था में जनता के विरुद्ध ही कहा गया है ।
कल्पना करें-एक ऐसे देश की जहाँ एक दलीय संचालन तंत्र हो । आप सोच सकते हैं- वहाँ कैसी-कैसी विषम परिस्थितियाँ निर्मित होंगी ? वहाँ सारे निर्णय वैसे ही होंगे जैसे सत्ताधारी दल चाहेगी । वहाँ जनता उसी मुकाम तक पहुँचेगी जहाँ तक सत्ताधीश चाहेंगे । उस तंत्र का सच और झूठ वही होगा जो सिर्फ शासक के श्रीमुख से निकलेगा । हम साफ-साफ कह सकते हैं कि ऐसे में वहाँ सिर्फ शासक ही रह जायेंगे । हम यह भी कह सकते हैं कि वहाँ सत्ताधारियों के मध्य आपसी वैचारिक मतभेद के बाद असहमति के स्वर मुखरित न हो सकेगें । ऐसी व्यवस्था वाले देश में अनुनय, विनय के अलावा ऐसा कोई प्रयास संभव नहीं हो सकेगा जो अपने ही दल के शीर्षस्थ निर्णायकों के जन विरोधी कदमों पर रोक लगा सके । सच तो यह भी है कि वहाँ सत्ता-संचालकों से असहमति के बाद जनहितैषियों के समक्ष ऐसा कोई सशक्त फोरम नहीं होगा जहाँ वे प्रतिगामी शक्तियों के विरूद्द अपनी आवाज बुलंद कर सकें । कुल मिलाकर देंखे तो यह या ऐसी स्थिति प्रजातंत्र की निरंतरता में खतरे की घंटी है । यहाँ सबसे बडी दिक्कत तो जनता के समक्ष उपस्थित होगी जहाँ वह अपने पहरूए चयन के समय विकल्पहीनता से जूझेगा ।
मैं जब ऐसी स्थिति की कल्पना करता हूँ तो सिहर उठता हूँ । जानते हैं क्यों ? वह इसलिए कि वहाँ सिर्फ सत्तावाद का जंगल ही होगा । वहाँ केवल सत्ता के भूखे भेडिये ही रह जायेंगे । सत्ता जनता के शोषण एवं दमन का पर्याय बन जायेगी । वहाँ राजनीति तो जरूर होगी पर राजनीतिक दल या उस दल के भीतर जैसी कोई आंतरिक प्रजातंत्र भी नहीं रह जायेगा । ऐसी व्यवस्था को हम चाहे कोई भी नाम क्यों न दे दें, उसे प्रजातंत्र तो नहीं कह सकते ना ।
इतनी लंबी पृष्ठभूमि गढकर मैं यही विचार संप्रेषित करना चाह रहा हूँ कि प्रजातंत्र के अनिवार्य स्तम्भों में कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, सत्ताधारी राजनीतिक दल के साथ-साथ विपक्ष पर सुशोभित राजनीतिक दल भी महत्वपूर्ण है । यदि उसकी भूमिका प्रजातांत्रिक सुदृढता के लिए महत्वपूर्ण है तो उसका सम्मान भी उतना ही महत्वपूर्ण बन जाता है । और जो प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए कटिबद्ध हो, उससे मित्रभाव बनाये ऱखने में भले ही विपरीत विचारधाराओं के साथ समझौते जैसे कोई कलंक लगता हो, पर वह जनता और प्रकारांतर से प्रजातंत्र की रक्षा की दिशा में स्वस्थ राजनीतिक प्रतिबद्धता भी होगी । आलोचक को मित्र कहा गया है । एक सच्चे आलोचक के हाथों में एक सच्चा दर्पण भी होता है । राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के बहाने दर्पण को कुंठाग्रस्त होकर चकनाचूर तो हम कर सकते हैं पर वास्तविकता यह भी है कि दर्पण के हर टूकडों से दिखने वाली तस्वीर कभी नहीं बदलती है । किसी शायर ने टीक ही कहा हैः

आइने के सौ टूकडे करके हमने देखें है ।
सौ में भी तन्हा थे , एक में भी अकेले हैं ।

प्रतिपक्षी या राजनीतिक दल की महत्ता को प्रतिष्ठित करने के पीछे मेरा मंतव्य स्पष्ट है । और वह है- जनता के हितैषी चुनने के लिए बहुविकल्प की सुनिश्चितता । इसमें जनता की अनसुनी रह गई पुकारों, चीखों का अनुसमर्थन भी है । इसमें जनता को वैचारिक धरातल पर भिन्न-भिन्न आग्रहों के लिए कटिबद्ध जननायकों में से सर्वश्रेष्ठ को अपनाने का अवसर भी सम्मिलित है । जन विरोधी हरकतों पर लगाम पर विश्वास तो है ही इसमें । सबसे बडी उपलब्धि है सत्ता या शासन संचालकों द्वारा स्वयं को आत्ममुग्धता से बचाकर आत्मंथन के लिए प्रेरणास्पद वातावरण को प्रश्रय देना । क्या ये सारे कार्य अन्य राजनीतिक दल या दलों से रहित व्यवस्था में सभव है ? कतई नहीं । इसे मैं निष्कर्ष के रूप में इस तरह गिनाना चाहूँगाः-
1. प्रजातंत्र की जडों के सुदृढीकरण में विपक्ष की राजनीति और राजनीतिक दलों की सक्रियता सर्वोपरि है ।
2. सत्ताधारी दल के उत्कर्ष के लिए अन्य राजनीतिक दल की उपस्थिति और उस उपस्थिति को पडोसी भाव से देखना अपरिहार्य है ।
3. भिन्न-भिन्न विचारधारा वाले राजनीतिक दलों का अंतिम लक्ष्य जनता का हित होता है । इस रूप में दो राजनीतिक दल सहधर्मा भी होते हैं ।
अब यह स्वयं में साबित है कि प्रजातंत्र रूपी एक्सप्रेस ट्रेन की गति और परिचालन सत्ताधारी दल के हाथों सुनिश्चित होता है पर उस ट्रेन के ड्रायवर और गार्ड को कतई नहीं भूलना चाहिए गलत ट्रेक और खतरे की ओर ले जाने वाली ट्रेन को लालझंडी दिखाने वाले स्टेशन मास्टर और वैरियर पोस्ट के चौकीदार भी उसके गंतव्य तक पहुचने में सहायक हैं । दोनों का धर्म तो यहाँ एक ही है । कर्म की प्रकृति, स्थल और अवसर बदल जाने से मित्रता नहीं टूट जाती । मैं निजी तौर पर भी राजनीतिक दृष्टि से स्वस्थ दलों में परस्पर मित्रभाव की स्थापना को उचित मानता हूँ ।
प्रत्यक्ष रूप से अपनी बात रखने से पहले मैं एक प्रसंग रखना चाहता हूँ- यह प्रसंग प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी जी और प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये से जुडी हुआ है । मधुलिमये और श्रीमती गाँधी के बीच राजनीतिक विरोध की बात सभी जानते हैं । तब भी देखिये मधुलिमये के विचार-
“ इंदिरा जी के साथ हमारा विरोध रहा किन्तु 31 अक्टूबर 1984 को रात के सन्नाटे में मैं उनके अंगरक्षकों के विश्वासघात पर (जिन पर उनकी रक्षा की जिम्मेदारी थी) बडी देर सोचता रहा, और इंदिरा गाँधी के हश्र पर शोक में डूबा रहा । उस वक्त मैने धरती माँ से प्रार्थना की, हे उदार मुक्तहस्त माँ, तेरे सपूतों ने इन महान सभ्यताओं को जन्म देने के लिए कठिन परिश्रम किया । उन्होने आश्चर्यजनक वस्तुशिल्प स्मारक बनाए, मूर्तिकला की अद्भुत कृतियाँ दी, अद्विताय शक्ति और सौंदर्य से युक्त महान साहित्य दियता और सबसे ऊपर, सारी मानवता के कष्टों को झेलने वाले महान संत दिये । ओ माँ, तुम हिंसा और घृणा की बुराई को खत्म करके मानव-जाति के बीच सभ्य संवाद कब स्थापित करोगी । हमे इस शुभ परिणति के लिए कितनी लंबी प्रतीक्षा करनी पडेगी । ”

इंदिरा गाँधीः जैसा मैने उन्हें देखा(मधुलिमये)

ऐसे न जाने कितने राजनीतिक प्रसंग हैं जो साबित करते हैं कि राजनीतिक दलों के मध्य मतभेद जरूर होता है पर मनभेद नहीं होता । भारतीय प्रजातंत्र की यात्रा को खासकर जब हम राजीव जी के बाद के समय को परखते हैं तो राजनीतिक शत्रुता की गंध तीव्रतर होती जान पडती है । केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस के अलावा अन्य दलों के उदय के साथ-साथ उनमें राजनीतिक दुश्मनी की कुंठा लगातार बढती चली गई है । इसका सबसे बडा नुकसान जनता, समाज, देश एवं समग्र विकास या भारतीय प्रजातंत्र को उठाना पडा है ।
यह सर्वविदित है कि भारतीय आजादी के पश्चात वाले दलों का जन्म ही सत्ता हथियाने के निहित संकल्पों के साथ हुआ है । राजनीतिक दृष्टि में धवलता के अभाव के कारण परस्पर विरोधी दलों के नेताओं के निजी जीवन पर मात्र कीचड उछालने की गलत परंपरा को प्रश्रय मिलता रहा है । बोफोर्स जैसे झूठे और भ्रामक मुद्दे, इंदिरा गाँधी के पीछे हाथ धोकर पड जाने, सोनिया जी को परदेशी कहने आदि को हम इसी श्रृंखला में पाते हैं । ऐसे वक्त हम यह भूल बैठते हैं कि जनता कुछ नहीं समझती । शायद यही वह कारण रहा है कि 1977 वाली जनता पार्टी की राजनीतिक दुर्भावना समझते जनता को देर न लगी और परिणाम स्वरूप वह दल सत्ता के गलियारे से लंबे अंतराल के लिए दूर हो गई । भारतीय शासन व्यवस्था पर गौर करें तो अधिकांश समय केन्द्र और राज्यों में दो अलग-अलग दलों का आधिपत्य रहा है । वैचारिक मतभिन्नता, फलस्वरूप राजनीतिक दुश्मनी के कारण ही केन्द्र और राज्य शासन के मध्य बेहत्तरीन तालमेल नहीं स्थापित हो पाता और वैकासिक कार्य लगातार पिछडते चले जाते हैं ।
प्रजातंत्र में राजनीतिक शत्रुता जैसे शब्दावली को पनपने देने की सभी संभावना, परिस्थितियों एवं कारणों पर विचार करें तो पता चलता है कि शत्रुता शब्द ही आपत्तिजनक है । अग्राह्य है । मानवीय उद्दात्तता के विरूद्द है । यह दोबारा कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों की सक्रियता एवं स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए परस्पर विश्वास अत्यावश्यक है । दो या विभिन्न दलों के मध्य विद्यमान वैचारिक अंतर और जनता के प्रति निष्ठा के माध्यमों के मुख्य कारणों अर्थात् विचारधाराओं, योजना निर्धारण, क्रियान्वयन की तकनीक या शैलियों पर स्वस्थ मानसिकता से की गई टिप्पणी को नहीं नकारा जा सकता है । जाहिर है दलों का चरित्र मतभिन्नता पर ही निर्भर करता है । वहाँ समानता तो कतई सम्भव नहीं । परस्पर विरोधी प्रवृतियों के विरूद्ध प्रजातांत्रिक मार्गों एवं मूल्य आधारित प्रतिरोध को ही राजनीतिक शत्रुता के तात्पर्य में देखा जाना चाहिए । वस्तुतः “राजनीतिक शत्रुता” शब्द ही कुंठित मनोवृति की देन है । होना तो यह चाहिए कि इस भाव के लिए हम राजनीतिक द्वंद्व जैसा कोई शब्द ईजाद करें । इस शब्दावली में अमानवीय पदचाप सुनाई देती है जो समाज को प्रजातांत्रिक मूल्यों के विपरीत दिशा की ओर धकेलती चली जाती है ।
“राजनीतिक शत्रुता” को राजनीतिक मतभेद जैसे अर्थों में या आशयों में समझना समय की मांग है । मतभेद की हर बात जनता तक पहुँचाने के लिए विरोध की सभी गाँधीवादी तरीकों को हमें नही भूलना चाहिए । मतभेद जब मनभेद में तब्दील हो जाता है तो वह मार्ग गाँधी जी द्वारा बताये गये मार्ग के विरूद्ध हो जाता है । मतभेद प्रर्दशित करने के सभी अहिंसक तरीकों और कार्यक्रमों के अलावा जो भी होता है वह सत्ता प्राप्ति की दृष्टि से भले ही उचित हो किन्तु अक्सर ये खतरनाक एवं मूलतः अप्रजातांत्रिक ही सिद्ध होते हैं । नेहरू जी की बात मैं यहाँ उल्लेखित करना प्रासंगिक समझता हूँ । उन्होंने कहा था कि-
“ कभी-कभी यह कहा जाता है कि शांतिपूर्ण और लोकतंत्रीय तरीकों से प्रगति नहीं हो सकती । मैं इस बात को नहीं मानता । वास्तव में, भारत में आज यदि लोकतंत्रीय तरीकों को हटाने का कोई प्रयत्न किया गया, तो इससे सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा- और निकट भविष्य में तरक्की की सब सम्भावनाएं खत्म हो जाएंगी । ”

नेहरू के भाषण (प्रथम खंड, पृष्ठ-53)

यह आज स्मरण करने का समय है कि गाँधी ने मात्र शांतिपूर्वक राजनीतिक विरोध के उपायों को अपनाकर अंग्रजी सत्ता को ध्वस्त कर दिया । उन्होंने वे सारे रास्ते नहीं अपनाये जो आज की समकालीन भारतीय राजनीति में सघन हो चुकी है । आज हम तटस्थ मति से परीक्षण करें तो हमें राजनीतिक शत्रुता के नाना रूप नजर आते हैं । इसमें कुतर्क आधारित प्रेस विज्ञप्ति, अभद्र एवं अश्लील पर्चा वितरण, अपशब्दों से पगीं एवं मानवीय गरिमा को छिन्न-भिन्न करने वाले लच्छेदार भाषण, पूतला दहन, घृणित आलेख, पुस्तिका प्रकाशन व वितरण, निजी जीवन की गोपनीयता भंग करती टेलीफोन रिकार्डिंग तथा वीडियो निर्माण, अश्लील सीडी, कैसेट एवं एस.एम.एस का प्रयोग, षडयंत्र, पुलिस प्रताडना, फर्जी प्रकरण, बलात्कार, अपहरण, हत्या आदि शामिल हैं । 5वें-6वें दशक वाला विभिन्न दलों के मध्य स्थापित राजनीतिक सोहार्द अब कहीं नहीं दिखाई देता । राजनीतिक शत्रुता अव दिन-प्रतिदिन नया-नया और कुत्सित रूप धारण करती जा रही है । यह राजनीतिज्ञों के लिए सबसे बडी चिंता का विषय होना चाहिए । कम से कम राजनीतिक दलों के मध्य तो इस पर मीमांसा होनी ही चाहिए ।
वैसे इस समय का सबसे बडा संकट राजनीति में आदर्शों का लोप है । राजनीतिक शत्रुता को आज परिभाषित करने का सही समय है । ऐसे समय में जब हम समूचे विश्व में भारत को एक ताकतवर प्रजातंत्र के रूप में उभरना शेष है, राजनीतिक शत्रुता की सीमाओं को भी अंदरूनी और बाह्य संबंधों को आधार पर नये सिरे से तय किया जाना चाहिए । मेरा इशारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की ओर भी है । इसमें आप पूर्वी एशियायी देशों के साथ संबंधों को भी देख सकते हैं ।
अंत में सहज भाव से यह भी जोडना चाहूँगा कि राजनीतिक शत्रुता विपक्षी दलों के मध्य ही नहीं एक दल के अंतःपुरों से भी मिटना चाहिए जिसके कारण कोई भी राजनीतिक दल अपनी संपूर्ण सामूहिक दक्षता एवं कौशल के बावजूद कुछ ही समय में सिमट कर हाशिए में धकेल दी जा सकती है । प्रजातंत्र दलों के मध्य भी जरूरी है और दल के मध्य में ।

बांसटाल, रायपुर
छत्तीसगढ़
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बदनाम फ़रिश्ते

कहानी/ अक्षय मिश्र

समाचार-पत्र-पढ़ते अचानक मेरी नजर निधन कॉलम पर चली गई। वहाँ जिस व्यक्ति का चित्र सहित शोक समाचार प्रकाशित हुआ था उसे पढ़ने के बाद में एकदम भाव-विह्वल हो गया। हालांकि मृतात्मा से मेरा कोई विशेष परिचय नहीं था। न ही वह कोई रिश्तेदार था। वह नगर का एक बदनाम मगर सह्दय व्यक्ति था, जिससे सालों पहले औपचारिक भेंट हुई थी ।

मेरी आँखों के सामने उससे पहली मुलाकात का दृश्य घूम गया । हम लोग एक साहित्यिक कार्यक्रम के आयोजन के सिलसिले में चंदा एकत्र करते घूम रहे थे। उस व्यक्ति से मिलकर के पहले नगर सेठ से मिलने आए थे। वहाँ जिस तरह दुर्मतिपूर्वक और बे-आबरू होकर निकाले गए थे उससे अन्य किसी से मिलने की हिम्मत तो नहीं थी, फिर भी कार्यक्रम आयोजन का बीड़ा उठाया था, सो पूरा करना ही था।

हम लोग जब उसके दरवाजे पर पहुँचे तो दरबान द्वारा तुरंत एक सजे-सजाए कमरे में ले जाकर बैठा दिए गए। वह व्यक्ति सेठजी को खबर करता हूँ-कहते हुए चला गया। सेठ कुख्यात “सट्टाकिंग” था। मेरे जेहन में उसके अच्छे-खासे डीलडौल और रोबिले व्यक्तित्व की कल्पना थी। मगर जब वह सामने आया तो लुंजपुंज, थुलथुले शरीर का व्यक्ति नजर आया। उसके चेहरे पर चेचक के हलके दाग थे। बह धोती और बनियान पहने हुए एक जबान व्यक्ति के कंधे का सहारा लेकर हमारे सामने रखे दीवार पर आकर बैठ गया। फिर क्षमा-याचना करते हुए अधलेटी मुद्रा में आ गया। इस दौरान हम लोगों की आवभगत पानी-चाय से हो चुकी थी।

मौका देखकर हमारे वरिष्ठ साथी ने उससे सभी का परिचय करते हुए अपने आने का कारण बताया। वह व्यक्ति बोला, “अहो भाग्य मेरे, जो इतने सारे बुध्दिजीवियों के एक साथ दर्शन हुए। मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं। मैं अपने को बीमारियों का एक घरौंदा मानता हूँ। मुझे ब्लड प्रेशर, सुगर, लकवा, गठिया और न जाने क्या-क्या बीमारियाँ हैं। मुझे अब तक चार बार हार्ट अटैक आ चुका है। मैं अधिक पढ़ा-लिखा तो नहीं हूँ। गरीबी से अमीरी तथा अमीरी से फकीरी तक का सफर तय कर चुका हूँ। दूर्भाग्य से आप लोग ऐसे समय में आए हैं कि मैं चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। पुलिस की कड़ाई से धंधा एक तरह से बंद ही है । वैसे आप लोग निराश न हों। चार दिन बाद आप में से कोई भी व्यक्ति मेरे यहाँ आ जाए तो बहुत तो नहीं, मगर जो मुझसे बन पड़ेगा वह जरूर करूँगा।’’

उसके कहे हुए शब्दों ने हमारे जले पर मरहम का ही काम किया। उसके व्यवहार ने हम साहित्यकारों को थोड़ा मुखर बना दिया। हममें से एक व्यक्ति बोला, ‘सेठजी ! आप इतने सहृदय हैं, फिर बदनामी वाला काम ही क्यों करते हैं ।’इतना सुनना था कि वह फफककर रो पड़ा। हम लोग कुछ समझ नहीं पाए कि क्या बात हो गई। हम लोगों ने क्षमा-याचना करते हुए रोने का कारण पूछा।

तब वह बोला, ‘मैं एक गरीब घर का लड़का था। घर में दो जून खाने को भी नहीं हुआ करता था। शायद इसी से अधिक पढ़-लिख भी नहीं पाया, लेकिन मेरे सपने तो सुनहरे और आकाश-कुसुम थे। सपने को साकार करने के लिए पैसों की आवश्यकता होती है, जो मेरे पास नहीं था। मैं हमेशा सोचा करता था कि कोई ऐसा व्यवसाय नहीं होता क्या, जिसमें पूँजी कम लगे और फायदा ज्यादा हो। किशोर अवस्था में आने तक ऐसे व्यवसाय की तलाश मुझे हमेशा रही। अंत में मैंने सट्टे को अपने सपने को साकार करनेवाला व्यवसाय मानकर अपना लिया। इसमें एक चवन्नी से लेकर जितनी भी पूँजी लगा लो। मुझ गरीब के लिए इससे अच्छा व्यवसाय कोई नहीं था। भाग्य ने भी साथ दिया। धीरे-धीरे गरीबी से निजात मिलती गई। ऊपर वाले की मेहरवानी थी। दाल-रोटी से बहुत अधिक चाह कभी नहीं रही। मैंने अपनी बचत से अपने दरवाजे तक आनेवालों की सेवा करना कर्तव्य मान लिया। जहाँ तक संभव हो, किसी को निराश नहीं लौटाता। बहुत अधिक भले न दे सकूँ। कुछ-न-कुछ जरूर देने की कोशिश करता हूँ। उस ऊपर वाले के प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है, जिसने मुझे यहाँ तक पहुँचाया है । अपने माँ-बाप का भी शूक्रगुजार हूँ कि इस दुनिया में लाकर मुझे इस योग्य बना दिया कि उनको याद रख सकूँ। वह लगातार बोले जा रहा था-मुझे बचपन में पढ़ी एक कविता आज भी याद है -
नौ मास गर्भ में रखती माता,
कितने सपने सजाती है।
खुद संकट में चलकर
फूलों की सेज सजाती है।
रुखी-सूखी खाकर भी,
लाडले को दूध पिलाती है।
पूत कपूत सुना सब ने,
वास्तव में दर्द भरी कविता सुनने के बाद हम सब भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे। सेठ अपनी आँखों को पोंछते हुए बोला,‘आप लोगों ने मुझ अनपढ़, जाहिल के यहाँ आकर मेरी बातें सुनीं, यह’ मेरे लिए किसी स्वर्गिक आनंद से कम नहीं है। आज मैं कुछ नहीं दे पाया हूँ, बल्कि आप लोगों का अमूल्य समय ले लिया। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।’
‘इसकी आवश्यकता नहीं है’ कहते हुए हम लोग चार दिन बाद आने को कहकर बाहर आ गए।

दोबारा चार दिन बाद मुझे ही वहीँ जाना पड़ा। सेठजी ने सम्मानित राशि देकर बस इतना ही कहा, ‘इसका उपयोग अपने कार्यक्रम में कर लीजिएगा, मगर मेरा नाम नहीं न आने पाए, इसका खयाल रखिएगा।’
उनके विचार सुनकर मुझे लगा – ‘बद अच्छा, बदनाम बुरा।’ वह व्यक्ति आज नहीं है, जो बड़े-से-बड़ा काम करने के बाद भी नाम नहीं चाहता था। आज का यूग कुछ न करने पर भी नाम की इच्छा रखने का है। खैर, उन बदनाम फरिश्ते के विचारों को मेरा प्रणाम !

अक्षय मिश्रा
रायगढ़, छत्तीसगढ़

सप्ताह के गीतकार- संतोष रंजन

तीन गीत


चाँदनी में डूब जाऊँ

चाँदनी में डूब जाऊँ
चाँद से आँखें लड़ाऊँ
सोचता हूँ आज किसको
याद करके भूल जाऊँ।


दर्द मेरा, मौन मेरा
पत्थरों के सम नहीं है।
चाह मेरी, आह मेरी
घाटियों में गुम कहीं है ।
लौटते उच्छ्वास उतरे ज्वार जैसे
डूबते निश्वास गहरे और गहरे
इन सितारों को सुनाऊँ
इन बहारों को रिझाऊँ।


सोचता हूँ आज किसको
रुठकर फिर मैं मनाऊँ
घाव वृक्षों पर लगे जो
चाव ऋक्षों पर सजे जो ।
भोर होते डूब जाते
स्वप्न रातों में खिले जो ।
पोंछती है अश्रु सबके चाँदनी भी
घाव सबके भर रही है चाँदनी भी
किन हवाओं को बुलाऊँ
किन दिशाओं को सुनाऊँ ।
सोचता मैं आज किसको
दर्द का मोती दिखाऊँ।


कांपती दीपक-शिखा
पर चाँदनी ठहरी हुई है ।
बहकती सारी दिशा
पर रात कुछ गहरी हुई है ।
दर्द पिघलेगा नहीं मैं जानता हूँ
चाँदनी की नजर भी पहचानता हूँ
गीत कैसा गुनगुनाऊँ
किन स्वरों को फिर जगाऊँ।
सोचता मैं आज कैसे
घाव पर मरहम लगाऊँ ।


उठ गया विश्वास मेरा
स्वप्न सौगंधों सभी पर
टूट कर सबसे अलग मैं
हूँ अकेला आज जी भर
हाथ पीड़ा का बड़ा सुकुमार है
साथ उसका, प्रेम का व्यापार है
सोचता अब, सोचता मैं
क्यों किसे अपना बनाऊँ
क्यों किसे अपना बनाऊँ




चंपा के झुरमुट से

चंपा के झुरमुट से छन-छन कर चाँदनी
चंपा के नीचे खड़ी हुई चाँदनी!

मन में है एक लहर
एक लहर मौसम में।
साँसें कुछ जमी हुई
पिघली हैं उपवन में।
देखो तरु शीर्षों पर अटक गई चाँदनी !

कभी पूष्प-गुच्छों पर
कभी नग्न शाखों पर।
कभी नर्म जूही पर
कभी इन गुलाबों पर।
सुधा-दान करने पर तुली हुई चाँदनी !

निर्धन के आंगन में
धनियों के नंदन में।
सरिता की धारा में
खुशियों की कारा में ।
सावन में दूर्वा-सी बिछी हुई चाँदनी !



भूमिका जैसी मिली

भूमिका जैसी मिली करते रहे
कभी हँसकर, कभी रोकर, कभी खामोश रहकर ।
ज़िन्दगी जैसी मिली, जीते रहे
कभी स्वप्निल, कभी बोझिल, कभी मदहोश होकर ।


बीहड़ों में रास्ते चुनते रहें
नाम उस करतार का लेते हुए
कहीं रूककर, कहीं झुककर, कहीं दौड़े ढलानों पर


मंज़िलों पर रास्ते मिलते गये,
फिर अजानी राह पर चलते गये ।
कभी इस भीड़ के, उस मोड के हमराह होकर ।


ख्वाब बिन ताबीर के टूटा किये
हमसफर मिलते रहे छूटा किये
कभी इस मोड़ पर, उस मोड़ पर रूमाल देकर ।


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(श्री संतोष रंजन केन्द्रीय सेवा (गृह मंत्रालय में )के वरिष्ठ अधिकारी हैं । हिन्दी के गीतकार के रूप में पहचाने जाते हैं । इधर ब्रिटिश उपन्यासकार मेरी कोरिली की कृति 'द सोल आफ लिलिथ' का हिन्दी रूपांतरण के कार्य में संलग्न हैं । अब तक दो कविता संग्रह प्रकाशित एवं चर्चित हो चुके हैं 1. जुड़ने और टूटने के बीच 2. वक्त भूगोल फिर हो गया । संपादक )

सप्ताह के कहानीकारः परदेशी राम वर्मा


''रात-रात में''

परदेशीराम वर्मा

तपती दुपहरिया में पुस्तैनी लाठी लेकर ज्योंही वह घर से बाहर निकला कि टप्प से एक चिड़िया पीठ के बल धरती पर गिरकर ऐंठ सी गई।
''बाम्हन चिरई मर गे महराज'' पंडित रामरतन दुबे को उसके नौकर ने दु:खी होकर बताया। घर के आगे मिट्टी की नांदी में पानी भरा हुआ था। नांदी से पानी निकाल कर रामरतन ने चिड़िया पर डाला। चिड़िया के शरीर में हरकत नहीं हुई। उसके दोनों पांव ऊपर की ओर उठ गये। आंखे बंद हो गई।
इस इलाके में गौरैया को बाम्हन चिरई कहा जाता है। नाजुक-सी घरेलू चिड़िया गर्मी नहीं सह पाती। अधिक ठंड भी नहीं। वह घरों में घोसला बनाकर रहती है।
रामरतन दुबे को गौरैया के लिए बाम्हन चिरई संबोधन अच्छा नहीं लगता। एक पराश्रित सी रहने वाली छोटी सी कमजोर चिड़िया का नाम बाम्हन चिरई क्यों रखा गया वह अक्सर खिसिया कर यह प्रश्न अपने बुजुर्गो से पूछते हैं। चील, कौवा, तोता, मयूर, कोयल ये भी तो हैं। इन्हें कोई बाम्हन चिरई नहीं कहता। न ही इन्हें कोई किसी जाति की चिड़िया कहता है। अधिक हुआ तो ''आदमी में नौवा और पक्षी में कौवा'' जैसी कहावत भर सुनाई पड़ती है। और तो और जंगली मैना को इस प्रदेश का पक्षी घोषित किया गया है। मुख्यमंत्री के हेलीकाप्टर का नाम भी मैना है। बाम्हन चिरई अर्थात गौरैया को इस प्रदेश में मान नहीं मिला।
रामरतन दुबे ने सोचा, जब बाम्हन को ही इस प्रदेश क्या देश में ही लोग फूटी आंख देना नहीं चाहते तब बाम्हन चिरई की क्या बिसात।
अपनी पुस्तैनी लाठी को झुलाकर उसने कंधे पर घर लिया। ठीक उसी तरह जिस तरह उसके बाबू मौके बेमौके धर लेते थे। बाबू ने ही बताया है कि यह लाठी इलाहाबादी लाठी है। शुरू-शुरू में जब इस इलाके में ब्राम्हण परिवार सौ डेढ़ सौ बरस पहले आया तब यहां के लोग ठेंगमार बाम्हन कहकर दूर भाग जाते थे। फिर धीरे-धीरे यारी-दोस्ती हुई। चुनावों में इलाके के लहीम शहीम लठैत तो खैर बहुत बाद तक आये। अब कट्टा का जमाना है।
''कट्टा'' को याद करते ही रामरतन को अपने ससुर की याद हो आई। वे रीवाड़ी कट्टा वाले महराज कहलाते हैं। सदैव कट्टा रखकर चलते हैं।
पिछले दिनों वे रामरतन के बाबू से मिलने आये थे। वे सजग ब्राम्हण हैं। दुनिया जहान की खबर रखते हैं। कट्टे से उनके ब्रम्हतेज में बढ़ोत्तरी होती है। वे कहते हैं कि केवल गाल बजाने से काम नहीं चलने वाला। ब्राम्हणों को अगर वशिष्ट पर गर्व है तो उन्हें परशुराम पर अभिमान भी है।
दोनों धाराये जीवित रहेंगी तब जाकर मान की रक्षा होगी। उन्होंने ही बताया था कि बड़े-बड़े शहरों में ब्राम्हणों का जातीय संगठन काम कर रहा है। संगठन वाले जाति के हित के लिए बहुत सारी योजनायें बना रहे हैं। एक-एक आदमी पर नजर रखनी होगी। कोई हमारा लड़का कविता लिख रहा है तो दो प्रोत्साहन। मंच पर बिठाओं। मंच पर जबरदस्ती चढ़ाओं। जगह इसी तरह बनाई जाती है। कोई कहानी लिख रहा है तो उसे रास्ता बताओ। समाज में जो जमे हुए कथाकार हैं वे बडे संपादकों को सिफारिशी चिट्ठी लिखें। दो तीन कहानी किसी की ढंग की पत्रिका में छप गई तो बन गई जगह। कोई प्रवचन कर रहा है तो उसे आगे बढ़ाओ। कोई राजनीति में है तो दो प्रोत्साहन। इस तरह जब भिड़ोगे तब पार पा सकोगे। वर्ना गए कौड़ी के मोल। जो जहां है उसे वहीं स्थापित होने के लिए बल देना होगा। बात-बात में बाबू ने बता दिया कि तुम्हारा दामाद रामरतन भी तो कविता करता है। उसे भी तो आगे बढ़ाओं।
रामरतन के ससुर इस नई जानकारी से ऐसे प्रसन्न हुए जैसे उन्हें कोई गुप्त खजाना मिल गया हो। उन्होंने रामरतन को आवाज देकर पास बुलाया और कहा, ''बेटा, तुम तो छुपे रूस्तम निकले। मुझे गर्व है तुम पर लगे रहो। बुध्दि की छाया ही तो ब्राम्हण को दुनिया भर के आतप से बचाती है।''
रामरतन घर से बाहर निकला तो तमतमाये हुए सूरज से उसका सामना हुआ। उसे ससुर की बात याद आई। उसने सोचा कि सूरज का आतप अपनी जगह और मेरी बुध्दि अपनी जगह।
यह सोचते हुए उसे कवि पदमाकर की मौसम विषयक कवितायें याद हो आई।
तभी नौकर बाम्हन चिरई को पकड़कर बाहर फेंकने के लिए निकला।
''घर से निकलते असगुन होगे साले हा'' रामरतन ने कहा।
वह बाहर निकला तो सहसा लू के बगूले उठने लगे। किरणों की बर्छी का सामना करते हुए रामरतन आगे बढ़ चला। उसे हर हाल में आज दिन भर में सब खेल जमा लेना था।
''रात होय तो छाती जुड़ाय'' बुदबुदाते हुए रामरतन आगे बढ़ा। तालाब के किनारे की सड़क पकड़कर वह थाने की ओर बढ़ा। तालाब में बहुत कम पानी बचा था। तालाब में लगा लकड़ी का खम्बा बीच से टूटकर गिर गया था। टूटे हुए स्तंभ को देखकर रामरतन उदास हो गया।
सामने ही मंदिर था। मंदिर का कलश पिछले दिनों कोई चुरा ले गया। शाम तक तो कलश मंदिर में लकलका रहा था, रात को गायब हो गया।
''सभी रात को ही करिश्मा दिखाते हैं'' यह सोचकर रामरतन दुबे को हंसी आ गई

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गर्मियों में वैसे भी दिन लंबे होते हैं। अपने समय पर ही दिन जाता है और समय पर ही रात घिरती है। शाम होते ही बच्चे छुप्पा-छुप्पी खेलने लगे। रामरतन थाने से चुपचाप घर लौटा। रात धीरे-धीरे उतर रही थी। अंजोरी पाख का चांद ऊपर चढ़ रहा था। गांव की गली में चांद की रोशनी छिटक रही थी। लोग बियारी करने के बाद धीरे-धीरे निर्धारित स्थल पर बैठकी में शामिल होने के लिए निकल रहे थे।
सब आ गये तो रामरतन दुबे ने नारा लगाया -
''बोल राजा रामचन्द्र की जय''
बीड़ी तमाखू के शौकीनों पर जयकारे का असर कभी नहीं हुआ। वे उसी तरह मगन रहते हैं। हालांकि पंडित हर बैठक में यह निवेदन भी नाटकीय अंदाज में करना नहीं भूलते .......
''बीड़ी तमाखू यहां न पीना, पीना तो बाहर जाकर,
गारी गल्ला यहां न देना, देना तो बाहर जाकर.''
मगर सब कुछ वहीं उसी तरह होता चलता है। कोई बाहर नहीं जाता। हां, इतना जरूर होता कि नीम पेड़ के ऊपर अंधेरे में चुपचाप पांख दाबे बैठी कोई चिड़िया आवाज सुनकर घुरघुरा उठती है। एक चिड़िया, फिर दो चिड़िया फिर तीन, इस तरह कुछ देर के लिए चिड़ियों का कोलाहल बजने लगता है। कभी ऐसी नहीं हुआ कि गांव में दिन को कोई बैठका हो जाय। रात के भोजन के बाद ही बैठकें अधरतिया तक चलती है। चाहे वह बैठका जाति बिरादरी की समस्या को लेकर हो या फिर दशहरे के दिन रावण मारने की तैयारी के लिए।
आज की बैठक में आसपास के गांवों के कुछ जातीय नेता भी आये हैं। पंडित दो दिन तक गांव में घूम-घूम कर यही खुशी जाहिर कर रहे थे कि ''कुत्ते'' बैठका करेंगे। गांव वाले पंडित की बात का मजा लेते। वे जानते थे कि ''कुत्ते'' शब्द जो है वह बहुत अर्थपूर्ण है।

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हमारे गांव में रामरतन के पिताजी गोकरण दुबे पटवारी बनकर आये थे। हमारा गांव उन्हें कुछ इस तरह भा गया कि वे यहीं बस गये।
पिछड़े दलितों के इस गांव में पूजा पाठ के लिए बहुत दूर से पंडित आते थे। गोकरण महराज आ गये तो गांव के मंदिर में रोज घंटी-घड़ियाल भी बजने लगा।
गांव वालों ने कहा- बिना कलश का मंदिर और बिना पंडित का गांव बेकार है। अब जाकर गांव की शोभा बनी थी।
पटवारीगिरी करते हुए चार एकड़ जमीन तो वे यहां ले ही चुके थे। दस एकड़ जमीन एक विधवा तेलिन ने मरते समय उन्हें दान में दे दिया। तेलिन निपूती थी। लखन कुर्मी के कहने समझाने पर गयाबती तेलिन ने लिखा पढ़ी कर दी। कुछ दिनों में वह चल बसी। अब पंडित परिवार इस गांव का अच्छा बड़ा किसान हो गया। पटवारीगिरी के साथ महाराज भागवत भी बांचने लगे। शुरूवात गांव के किसान रिखीराम के आंगन में दस लोगों के बीच कथा बाचने से हुई। धीरे-धीरे वे इलाके के प्रसिध्द कथावाचक हो गये। भागवत का सीजन नहीं रहता तो वे हरि कीर्तन करने निकल जाते। हरिकीर्तन करने जाते तो साथ में गाने के लिए राधा रजक को भी ले जाते। राधा रजक बाल विधवा थी। पंडित जी की शुरू से उन पर कृपा थी। वह तो कहती भी थी कि मैं राधा और भजनहा पंडित किसन कन्हैया। जीवन धन्य हो गया जो इनकी सेवा का मुझे अवसर लगा। वर्ना कहां पंडित जी और कहां मैं।
गोकरण दुबे ने भी जीवन भर राधा का साथ दिया। चाहे लाख गांव वाले ताका-पासा करते मगर गोकरण दुबे रात्रि भोजन के बाद दो घंटे के लिए राधा के घर जरूर जाते। गर्मी का दिन हो तो आंगन में खाट डालकर लेट जाते। राधा घर में तब तक भोजन पानी बनाकर पंडित जी की सेवा के लिए एकदम तैयार हो चुकी होती। कटोरी में तेल लेकर वह आंगन में पसरे पंडित जी के पास आती।
राधा के शरीर पर हल्की सी साड़ी भर होती।
गांव में ब्लू फिल्में तो आज भी नहीं पहुंची है मगर हमारे गांव में गोकरण पंडित और राधा का जो लीलाप्रसंग आंगन में होता था, उसे साधकों की मंडली चांदनी रात में पेड़ों पर चढ़कर देखती और कृतार्थ होती थी। एक बार तो गज़ब ही हो गया।
गर्मी के दिन थे। गोंबर से लिपे आंगन में किनारे किनारे मोगरे के खिलखिलाते फूल मार महर-महर महक रहे थे। महक पेड़ों पर चढ़े लड़को के नथूनों तक पहुंच रही थी।
राधा तब थी तकरीबन पैंतीस की। भरी-पूरी दुहरी देंह की। उस रात आई और सीधे उसने पंडित जी की धोती सर्र से खोल दी। पंडित उसी तरह आसमान में तारे गिनते मस्त पड़े रहे। पेड़ों पर चढ़े लड़कों ने देखा, राधा न पांव की ओर झुकी न मुंह की ओर पंडित के कमर के ऊपर झुक गई। झुकी तो बही की तरह चटाचट भी करने लगी। एक लड़के से रहा न गया। मारे उत्तेजना के वह डाल से कूद ही तो गया। उस दिन पंडित जी ''कोन ये बे, साले हइतारा हो।'' कहते हुए राधा के घर से निकल आये।
दूसरे दिन शाम को रामायण बांचते हुए पंडित जी ने व्याख्या के दौरान लगभग रोते हुए कहा-
''सुनहू भरत भावी प्रबल बिलख कहेऊ मुनि नाथ,
हानि लाभ जीवन मरण, जस अपजस विधि हाथ.''
अर्थात यश और अपयश भगवान के हाथ है। मैं देख रहा हूं कि गांव में चेलिन के यहां जाने पर लोग ताका पासा करते हैं। धिक्कार है। मैं इस गांव को छोड़कर कहीं और चला जाऊंगा।
''महिमा घटी समुद्र की, रावण बसा पड़ोस''
एक घर का मैं पंडित, अगल-बगल कुर्मी-तेली। भला क्यों हमारी महिमा बढ़ने लगी।
यह कहकर पंडित जी रोने लगे।
कुर्मियों के नेता समारू मंडल और तेलिया के नेता रामू मंडल में दोस्ती खूब थी। दोनों रिश्ते में पंडित गोकरण दुबे को भांटो अर्थात जीजा मानते थे। असल बात यही थी। गोकरण दुबे की बाई इसी गांव की बेटी थी। इसीलिए गोकरण दुबे कुर्मी-तेली से भरे इस गांव भर के कुर्मियों-तेलियों को उम्र के हिसाब से या तो साला मानते या भतीजा।
गोकरण दुबे ने उस दिन कहा, ''यह सालों की कारस्तानी नहीं है, है यह पूत-भतीजों की बदमाशी, छुप-छुप कर, पेड़ों पर चढ़कर मुझ जैसे सन्यासी पर नजर रखते है। धिक्कार है मुझे। अब मैं यहां का पानी भी नहीं पिऊंगा।'' यह कहकर गोकरण पंडित उठ ही रहे थे कि दोनों समाज के प्रमुखों ने पांव पकड़ लिया। कहा कि महराज, जिस गांव से पंडित रिसा गये उसका विनासा तय है। किरपा करिये। अब गलती नहीं होगी।
बड़ी मुश्किल से गोकरण दुबे उस दिन माने। फिर लड़कों ने उस तरह आंगन में कृष्ण लीला देखने की हिम्मत तो नहीं की लेकिन जहां चाह है वहां राह है। इधर उधर छिपकर नौजवान गर्मी के दिनों में आंगन में छलकते प्रेमरस मदिरा का आनंद ले ही लेते ।
पंडित गोकरण दुबे और राधा के बीच तो कभी ऐसी बाधा नहीं आई कि उन्हें हमारे गांव से फिर जाने का विचार कभी सूझा हो। हां, उनका बेटा अलबत्ता बीच-बीच में गांव वालों से नाराज हो जाते है।

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गोकरण पंडित के सपूत रामरतन पंडित ही अब गांव में खेती बाड़ी देखते है। गोकरण दुबे तो अब लगभग सत्तर वर्ष के हैं। मगर अपने से पन्द्रह बरस छोटी चेली राधा के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ है। वे नियमित रूप से राधा को आशीर्वाद देने उसकी कुटिया में आज भी जाते हैं।
एक बरस पहले कुर्मी-तेली समाज के लड़कों ने राधा के घर की सांकल ही लगा दी। कुछ पढ़े लिखे नौजवान बौरा गये थे। रामरतन को पता लगा कि उनके बाबूजी को राधा के घर में धांध दिया गया है तो वे बरछा अपने नौकरों के साथ हुंकारते हुए आये। लड़के सब किनारे हो गये। रामरतन ने ललकारते हुए कहा -
''हमको मिटा सके, कुत्तों में वह दम नहीं,
कुत्ते खुद हमसे हैं, हम कुत्तों से नहीं.''
अर्थात कुर्मी और तेली यह न समझें कि हममें दम नहीं है। यह ''कुत्ते शब्द'' रामरतन का आविष्कार है। कुर्मी का कु और तेली का ते अर्थात कुते। कु और ते में अपनी ओर से आधा त् मिलाकर उन्होंने यह शब्द बनाया 'कुत्ते'।
उस दिन घर आकर पंडित गोकरण दुबे खाट में जो पसरे तो फिर उठ ही न सके। उन्हें बड़ा गहरा धक्का लगा। गोकरण दुबे ने अपने होनहार सपूत रामरतन को पास बुलाकर कहा, ''बेटा, कुछ बात अब आखिरी समय में मुझसे भी सुन लो। तुम सुनते ही नहीं। बेटा जब रावण युध्द क्षेत्र में श्री राम से मार खाकर गिर पड़ा तब श्रीराम के कहने पर लक्ष्मण राजनीति सीखने उसके सिरहाने जा खड़ा हुआ। सीखना है बेटा तो पैताने बैठ.......'' इतना कहकर पंडित गोकरण चुप हो गये। रामरतन ने खिसियाते हुए कहा - ''बाबू, न आप रावण हैं न मैं लक्ष्मण हूं। मैं जहां बैठा हूं वहीं ठीक हूं। आप कहिए क्या कहना चाहते हैं।''
पंडित गोकरण ने कहा, ''बेटा, अब जो जमाना आ रहा है उसमें तुम्हें बहुत सम्हलकर रहना पड़ेगा। हर कोई पंडित को पायलागी नहीं कहेगा, अब तो 'पांव बड़ लो पंडित' कहने वालों का जमाना आ रहा है।''
रामरतन ने बीच में अपने बाप से टोकते हुए कहा- ''बाबू, इतना मैं भी समझता हूं।''
''तुम नहीं समझते बेटा, तुम कुछ नहीं समझते।''
''क्या नहीं समझता बाबू?''
''यहीं कि हमारी जाति का जोर अब हीं चलेगा।''
''दिमाग का जोर तो चलेगा।''
''वह तो सनातन है।''
''तो समझिए पंडितों का राजसदा रहेगा।''
''ये तो ब्रम्ह सत्य है।''
''तो आप क्यों चिंतित हैं।''
''तुम्हारी बेवकूफी से।''
''कौन सी?''
''कुत्ते वाली''
''ठीक तो है बाबृ। साले आग मूत रहे हैं। बड़ी संख्या में हैं तो किसी को कुछ नहीं समझते। और वो समारू मंडल। जाने कब मरेगा हरामी। पतना ही नहीं चला कि उसकी जान कहां है। जब भी चुनाव आता है, कुर्मी-तेली भाई-भाई का नारा देकर नाक में दम करवा देता है। इन्हें तो बाबू पाठ पढ़ाना ही होगा।''
''तो पढ़ाओं न पाठ तुम्हारा ताकत बेटा लाठी नहीं है। अक्ल है तुम्हारी ताकत। उसे पजाओ।''
''मैं समझा नहीं बाबू''
''मूरख, जानता है इस गांव में एक तेलिन लड़की का पेट एक कुर्मी नौजवान ने भर दिया है।''
''आप भी पिताश्री वैसे के वैसे ही रह गये। इसमें क्या नई बात है? भर दिया तो तो भर दिया है। हमारा तो कोई नुकसान नहीं किया है।''
''धिक्कार है रे तुम्हारे बाम्हन होने में। रहे लंठ के लंठ।''
''गाली देने में बाबू आप तो परसराम के अवतार हो जाते हैं।''
''गाली नहीं दे रहा हूं बेटा, सिर पीट रहा हूं। वे तुम्हारे बाप को कंलकित करना चाहते थे। मजा तो तब है कि तुम उन्हें कलंकित कर दो।''
''कैसे बाबू?''
''तेली का तेली दुश्मन, कुर्मी का कुर्मी। मेरे पास दोनो समाज के लोग आते हैं। दुश्मनी कहां नहीं है बेटा। बस उसे परवान चढ़ाने की कला आनी चाहिए। इस कला में हमसे बड़ा सिध्द कौन हुआ है? मैंने लड़के के बाप और लड़की के बाप को समझाकर कह दिया है कि पेट उतरवा कर आ जाओं नहीं तो धंस जाओगे। वे शहर से उतरवा कर आ भी गये। खलास हो गई है लड़की। तुम आज जाओं थाने में। वहां थानेदार नागेन्द्र पाण्डे को सब बता दो। वह दूर के रिश्ते में तुम्हारा मौसेरा भाई भी तो है। कहां किस अस्पताल में पेट गिरवाया है, वह भी बता दो। बाकी सब मैं देख लूंगा। दिन भर में सब गुंताड़ा जमा लो, रात को देखो फिर क्या गुल खिलता है।''

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थानेदार नागेन्द्र पाण्डे पहले पंडित जी के घर आये। पंडित जी को उन्होने दण्डवत प्रमाण किया। गोकरण पंडित ने कहा- ''बेटा नागेन्द्र, अब बाम्हन की बाम्हन का पांव छुवेगा। दूसरी छोटी जाति के लोग तो बेटा पांव पड़वाने पर उतारू हैं।''
नागेन्द्र पाण्डे ने फुंफकारते हुए कहा - ''मौसाजी, इन मादरचोदों की आई है शामत। मैं सबका ठेका तो नहीं लेता लेकिन यहां के ''कुत्तों'' को तो ठीक हर ही दूंगा, आपके आशीर्वाद से समझिए।''
''बेटा, तुम भी रामरतन की तरह फुंफकारते बहुत हो। थोड़ा बाम्हन-सुत की तरह रहा करो। शांत, धीर, गम्भीर। तुम्हारी ताकत बुध्दि है बेटा। ब्राम्हण, ठाकुर, कायस्त, भूमिहारों पर कैसी फबती कसता है बिहारी लालू। कहता है कि भूरा बाल उखाड़ो। लो अब हम लोग बाल हो गये। और मायावती का नारा है ''इनको मारो जूते चार'' । तो बाबू समय अब खराब आ रहा है। हमारी ताकत है कम। लेकिन दिमाग है जादा। उसे पजाओ।''
नागेन्द्र पाण्डे ने हंसते हुए कहां - ''मौसा जी, आपके गुंताड़े को देखकर वह कहानी याद हो आती है। एक थे लाला। बड़े फितरती। जीवन भर गांव वालों को लड़ाकर आनंद लेते रहे। मरने लगे तो उन्हें लगा कि मरते मरते भी गांव में झंझट क्यों न खड़ा कर जाऊं। उन्होंने गांव के मुखिया को कहा कि भाई मेरी मुक्ति तब होगी जब मुझे श्मशान ले जाते समय मेरी पिछाड़ी में एक डंडा ठोक कर ले जाओगे। बिचारे सीधे लोग डंडा ठोक कर ले जा रहे थे कि मेरी तरह थानेदार आ गया और में लग गई आग।''
नागेन्द्र पाण्डे की बात सुनकर गोकरण पंडित को पहली बार लगा कि उसकी आशा अब जरूर पूरी होगी।

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गांव वालों को भी खबर लग गई थी कि नागेन्द्र पाण्डे पंडित गोकरण दुबे के घर में विराज रहे हैं। गांव में घर-घर मांग कर ''अन्न भण्डार'' बनाने की पुरानी परम्परा है। भण्डार से गांव में ''अन्नपूर्णा भवन'' बना। उसी भवन के सामने खुले मैदान में बैठका चलती है। अंधेरी रात में भवन के भीतर भी लोग बैठ लेते हैं। अंजोरी पाख में, विशेषकर गर्मियों के दिनों में चांदनी के चंदोबे के नीचे बैठक लगती है। बैठक में लोग कुछ कह पाते की नागेन्द्र पाण्डे आ गये।
थानेदार ने आते ही पेट भरने वाले लड़के कमल को पास बुलाया। लड़के को उन्होंने पूछा- ''कब से सो रहे थे छोकरी के साथ?''
लड़की वालों ने हाथ जोड़कर कहा - ''साहेब, शर्म आती है। ऐसा न पूछिये।''
नागेन्द्र पाण्डे भड़क उठे। उन्होंने दहाड़ते हुए कहा - ''बेटी को तो सोने में शरम नहीं आई। अब तुम लोगों को आ रही है।''
घुड़की खाकर सबने सर झुका लिया।
''गर्मी बहुत है'' रामरतन ने ऊपर देखते हुए कहा।
नागेन्द्र पाण्डे ने मूंछों पर ताव देते हुए जवाब दिया- ''हम तो हैं सभी गर्मी का इलाज।''
गांव के सरपंच ने कहा-''सर जी, गांव की इज्जत का सवाल है। आप मालिक हैं। लड़की का बाप उठे, लड़के का बाप चले, मैं उठूं, आप उठें, पंडित रामरतन उठें .......''
रामरतन ने आगे कहा - ''हां भाई, तुम उठो, तुम भी उठो, तुम भी उठो, तुम भी उठो, कोई खिड़की इसी दीवार पे खुल जायेगी।''
गांव वाले वहीं बैठे रहे।
सात-आठ लोग ''अन्न कोठी'' के भीतर गये। वहां बैठकर सबने तय किया कि तेली समाज को लड़के का बाप देगा पचास हजार,
लड़के के बाप ने हाथ जोड़कर कहा - ''मालिक, कुछ कम नहीं हो सकता?''
नागेन्द्र ने घुडका - '' तुम्हारा लड़का भी खाली नुन्नू को चूत में छुला कर छोड़ दिया होता तो हम भी छोड़ देते। भरपूर मजा लिया है तुम्हारा लड़का तो तुम भी शहशाही दिखाओं। तुम्हारे पास तो चालीस एकड़ जमीन है। क्या कमी है भाई ''कुत्ते'' के पास।''
नागेन्द्र पाण्डे के इस कथन पर रामरतन मुच-मुच हंसने लगा।
फिर नागेन्द्र पाण्डे ने कहा-देखों कुर्मी समाज को भी लड़ने का बाप देगा बीस हजार। अरे, कुर्मी समाज के नौजवान ने ऐश किया है तो क्या समाज ऐश नहीं करेगा। दो बीस हजार।''
लड़के के बाप ने कुछ नहीं कहा।
अब नागेन्द्र पाण्डे ने कहा - ''सुनों जी, इस इलाके के एक एकड़ जमीन की कीमत है सत्तर हजार। तो एक एकड़ तो गई ''कुत्ते'' के लिए। अब आता है बाम्हन का नम्बर। बापू लड़की ने जहां पेट गिरवाया उस डाक्टर का कच्चा चिट्ठा लेकर आये है। हत्था का मामला है सालो। 302 का मामल । कहो क्या करूं?''
थानेदार कुछ और कहता कि तभी एक बिल्ली अन्नकोठी से भदाक से कूदी। उसके मुह में एक बड़ा सा चूहा दबा हुआ था। आसपास खून के छींटे छितरा गये।
नागेन्द्र पाण्डे ने कहा - ''केवल कुत्ते'' का मामला नहीं है। यह तो मामला है पुलिस और मंत्री का भी है। केस दबाना है तो दो लाख रूपये नहीं तो अपनी ऐसी तैसी कराओ।''
कुछ देर सोच विचार कर सबने नागेन्द्र पाण्डे की बात मान ली।
अन्न कोठी से गांव का किसान सुखूराम साहू लुट पिटकर बाहर निकला।
थानेदार नागेन्द्र पाण्डे ने बाहर आते हुए कहा - ''जाओ आदरणीय पंडित गोकरण दुबे को प्रमाण करो। उन्हें यहां मनाकर लाओ और संकल्प लो कि धर्म को धारण करने वालों का कभी अपमान नहीं होगा।
किसान उठकर जाने लगे तब थानेदार ने फुसफुसाते हुए रामरतन के कान में कहा ''भाई, रात-रात में सब कर लो, सबेरा हुआ कि संकट खड़ा हुआ।''


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लेखक हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार हैं । इनकी चर्चित कथा संग्रह हैं- दिन प्रतिदिन, संतराबाई की शर्त, बुधिया की तीन रातें, औरत खेत नहीं (अ. भा. सा. परिषद् भोपाल द्वारा मनमोहन मदारिया सम्मान) । उनके उपन्यास -प्रस्थान को महन्त अस्मिता पुरस्कार तथा जीवनी -आरूग फूल को मध्यप्रदेश परिषद् द्वारा माधवराव सप्रे पुरस्कार प्राप्त हो चुका है । देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में समादृत होती रही हैं उनकी कहानियाँ । सेना व भिलाई स्पात से सेवानिवृति पश्चात स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं । एक पत्रिका अकासदिया भी निकालते हैं । पता है उनका - एल. आई. जी.- 18, आमदीनगर, भिलाई, 490009 , छत्तीसगढ़ । संपादक )

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4/09/2006

खोया बचपन लौटा दो


बाल गीत

अक्षय मिश्रा

एक विनती करूं मैं तुमसे भगवन मेरा खोया बचपन लौटा दो
ले लो ये रिमोट और बुद्धू बक्सा खेल-कूद, कथा-कहानी लौटा दो ।

नहीं चाहिए अंगरेज़ी कान्वेंट, सुन्दर-सा शांतिनिकेतन लौटा दो
बोझ बने बस्ता, ढोने के बदले, शीतल पट्टी और खड़िया लौटा दो ।

हरदम पढ़ाई से मन उब गया लंबी छुट्टियों वाले दिन लौटा दो
दिखावे के कैक्टस नहीं चाहिए, कूकती कोयल अमराई लौटा दो ।

सूना-सूना है घर और आँगन, भाई-बहन और मित्र-मंडली लौटा दो
नहीं चाहिए केवल मम्मी-पापा, भरा-पूरा परिवार अब लौटा दो ।।
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(श्री मिश्रा हिन्दी के युवा बालकथाकार एवं गीतकार हैं । अब तक उनकी 5 संग्रह प्रकाशित हो चुकी है । देश की महत्वपूर्ण बाल पत्रिकाओं में लगातार इनकी रचनाएँ छपती रहती हैं । वे वर्तमान में कृषि विभाग रायगढ़ में सहायक सांख्यिकीय अधिकारी हैं । उनसे संपर्क का पता है- गौशाला पारा, रामभांठा रोड़, रायगढ़, छ.ग., 496001 है। संपादक )

हरि ठाकुर के तीन गीत

जब तिमिर घिरे हो कर अछोर

जब तिमिर घिरे हो कर अछोर
ला सके सूर्य भी जब न भोर
तब क्या मुझको दे पाओगे
पथ दिखा सके वह एक किरन ?

पथ का हर सम्बल छूट जाय
विश्वास, आस सब टूट जाय
अक्षय अपयश ही रहे शेष
तब दे पाओगे अपनापन ?

मैं नहीं माँगता अभय शरण
मैं नहीं माँगता कृपा-सुमन
सारा जग ठुकरा दे तब क्या
दे पाओगे आशीर्वचन ?

जब तिमिर घिर हो कर अछोर
ला सके सूर्य भी जब न भोर
तब क्या मुझको दे पाओगे
पथ दिखा सके वह एक किरन ?

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इन फूलों ने अधर न खोले

शंख मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले ।

होते रहे समर्पित प्रति दिन
हँसते-हँसते खिलकर, झरकर ।
बसते रहे सुरभि ले कर वे
साँसों के पथ, हृदय उतर कर ।।

कोई ऐसा फूल नहीं जो
नयनों में कुछ रंग न घोले ।
शंख मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले ।।

कर्कश ध्वनि के सिवा शंख के
अन्तर से कुछ कभी न निकला ।
रंग, रूप, रस, गंधहीन वह
जीवन भर ही रहा खोखला ।।

आत्म प्रशंसालीन शंख ये
रहे जन्म से ही बड़बोले ।
शंख मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले ।।
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किरन मंत्र

बादलों ने हाथ मेरा
पकड़ कर मुझसे कहा
खोल अपने पंख
सागर पार तक आओ चलें ।

मैं अपाहिज-सा पड़ा था
देवता के पाँव पर
भाग्य ने मुझको लगाया
सांस के हर दाँव पर

किरन मंत्रों से जगा कर
सूर्य ने मुझसे कहा
छोड़ यह चौखट
सुबह के द्वार तक आओ चलें ।

प्रार्थना का स्वर लबालब
आँसुओं से भर गया
पत्थरों पर फूल का
सौरभ असर कुछ कर गया
हृदय की ज्वाला बुझा कर
आंसुओं ने तब कहा
छोड़ यह पनघट
मनुज के प्यार तक आओ चलें ।
*******
(स्व. श्री हरि ठाकुर हिन्दी के वरिष्ठतम गीतकारों में एक सम्मानित नाम हैं । इनकी 30 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित और चर्चित रही हैं । छत्तीसगढ के महत्वपूर्ण इतिहासविद्, स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी । छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण में इनकी महती भूमिका रही है । सृजन-सम्मान की स्थापना श्री हरि ठाकुर ने आज से 10 वर्ष पूर्व की थी । संपादक)

4/08/2006

कला प्रसंग


।। बस्तर की धड़वा कला ।।

- डॉ. श्रीमती रेखा श्रीवास्तव

हिन्दुस्तान के हृदय में स्थित छत्तीसगढ़ (पूर्व म.प्र.) का पूर्वांचल भाग बस्तर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सदियों से महत्वपूर्ण रहा है । आदिमानव के प्रारंभिक विकास से लेकर अर्वाचीन काल तक बस्तर अनेक राजवंशों के उत्थान और पतन से संबंधित घटनाक्रम को आत्मसात किया है । पीढ़ी दर पीढ़ी विकास के साथ बहते हुए घड़वा कला वर्तमान कला के स्तर पर अपनी अभिव्यक्ति पा सकी है । उसका श्रेय घड़वा कला से संबंधित उन शिल्पियों को है जिन्होंने अपने अथक परिश्रम से इसे आकार प्रदान किया है ।

घड़वा शिल्प कला को ढोकरा ढलाई की कला के नाम से भी जाना जाता है । घड़वा कला की शैली न्यूनाधिक वैसी ही है जैसी लास्ट वैक्स प्रोसेस से शिल्प निर्माण की होती है । जो बंगाल उड़ीसा आंध्र अथवा मध्य प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में प्रचलित है । अंतर केवल इतना है कि इस क्षेत्र के लोग ढलाई के समय धातु को गलाने के लिए अथवा मोम की तैयारी के लिए कुछ कार्यों को क्षेत्रीय सुविधा के अनुसार करते है । यहां केवल मधुमक्खी के मोम का प्रयोग किया जाता है । इसी तरह धातु की गंदगी दूर करने के लिए या ढलाई में रुकावट न आने के लिए नमक का प्रयोग करते हैं । यह सब शिल्पियों का स्वयं का प्रयोग है । आश्चर्य की बात तो यह है कि घड़वा कला सम्पूर्णतः शिल्पियों के सिघ्द हस्त तथा उनकी दक्षता, कौशलता और सृजनात्मकता पर निर्भर करती है।
बस्तर के घड़वा जाति का शिल्पी अपनी परम्परागत इस शैली से शिल्प निर्माण में आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल बहुत कम करता है । जहां कहीं हमें इस प्रकार के उदाहरण मिले है सिर्फ धौकनी के स्थान पर ब्लोअर का उपयोग करते पाये गये. ये शिल्पी ढलाई की प्रक्रिया के समय धातु का पिघलना और भट्टी के तापमान का अंदाजा किसी आधुनिक उपकरण से नहीं लगाता बल्कि धातु पात्र के पास से आग की लपटों के बदलते रंग से लगा लेता है । यह सम्पूर्ण प्रक्रिया शिल्पी की दक्षता और कुशलता पर निर्भर करती है ।

तकनीक की दृष्टि से विश्लेषण किया जाय तो यह अनुभव होता है कि यह प्रक्रिया न सिर्फ अत्यंत श्रमसाध्य है, बल्कि समय साध्य भी है। एक शिल्प के निर्माण में कम से कम 15 दिनों की आवश्यकता होती है, साथ ही इस कार्य हेतु कम से कम दो व्यक्तियों की आवश्यकता होती है । घड़वा शिल्पियों के मतानुसार शिल्प निर्माण का कार्य स्त्रियों के लिए वर्जित माना गया है । स्त्रियां इस कार्य की पूर्व तैयारी एवं अन्य आवश्यक कार्यो में सहयोग अवश्य देती हैं, जैसे जंगल से लकडी लाना, शिल्प निर्माण हेतु मिट्टी तैयार करना, मोम छानना इत्यादि ।

बस्तर के ये घड़वा शिल्पी अपनी सहज सरल और स्वाभाविक अभिव्यक्तियों को मूर्त रूप में अपने शिल्पों में आकार प्रदान करते हैं । इन शिल्पों की रचना प्रक्रिया , अभिव्यक्ति के प्रतिमानों को रचने गढ़ने अथवा निर्धारण में सांस्कृतिक , सामाजिक, रचनात्मक, और कलात्मक परिस्थितियां प्रभावित करती हैं । अत: ढोकरा शिल्पों पर क्षेत्रीय रहन सहन, रीति रिवाज और अलंकरणों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है । इन शिल्पों के विषय भी दैनिक जीवन की घटनाओं , धार्मिक आस्थाओं , रीतिरिवाज और परम्पराओं से उठाए जाते हैं । ढोकरा शिल्प, कला समाज के सामयिक परिवर्तनों के साथ-साथ बदलती एवं विकसित होती गई जिससे यह आज भी जीवंत है और अपनी अलग पहचान बनाए हुए है ।
ढोकरा शिल्पों में मानवाकृतियां तुलनात्मक दृष्टिकोण से कम मिलती हैं, जो शिल्प मानवाकृतियों के रूप में प्राप्त हैं उनमें अधिकांश स्थानीय देवी देवताओं के शिल्प है । इसके अतिरिक्त मारिया मुरिया के मूर्ति शीर्ष मिलते है जो कि सिर पर भैसों के सींग पहने हुए बनाए जाते हैं । इनके बनाए सभी आकृतियों में बस्तर का लोकस्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है । अमूर्त भावनाओं के मूर्त अभिव्यक्ति के प्रतीक स्वरूप चेचक माता, राक्षस, बूढादेव, आदि आकारों के निर्माण में भी ये शिल्पी उतने ही सफल रहें हैं जितने अन्य शिल्पों में ।

बस्तर के ये घड़वा शिल्पी अपने परिसर के जानवरों शेर , हाथी, घोडे, हिरण, मोर , चिडिया, कछुआ, बैल आदि को मानवाकृतियों की तुलना में अधिक बनातें हैं। जानवरों की आकृतियों का अंकन दो स्वरूपों में मिलता है - पहला, स्वतंत्र जानवरों के शिल्पों के रूप में और दूसरा, वे मूर्तियां जिन पर किसी देवी-देवता या सवार को आरूढ़ बनाया जाता है । ऐसी दूसरे प्रकार की मूर्तियां देवी-देवता अथवा राजाओं की नैसर्गिक भव्यता लिए हुए होती हैं । इस प्रक्रार के शिल्पों में जानवरों की आकृति को सर्वाधिक अलंकृत बनाया जाता है. जबकि इस पर आरूढ मानवाकृति को स्थूल रूप में बनाया जाता है। जानवरों की आकृतियों को मानवाकृतियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक व संतुलित बनाई जाती है ।

प्राचीन समय में जानवरों और मानवाकृतियों के अतिरिक्त धातु के पात्रों का निर्माण होता था लेकिन अब केवल आनुष्ठानिक पात्र मांग के आधार पर ही बनाए जाते हैं. इस तरह के शिल्पों में कंघियां और दीपक रचनात्मक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं. इनमें शिल्पी की कलात्मक एवं सृजनात्मकता का अद्भुत परिचय मिलता है । ये लोक शिल्पी अनपढ़ अथवा आर्थिक रूप से पिछडे भले ही हों किन्तु मौलिक सृजन की कसौटी पर अपना स्थान निश्चय ही बना चुके हैं । कुशल शिल्पियों में - जयदेव बघेल , सुखचंद घडवा , मानिक , संग्राम हलाल, नान्हेराम जैसे अनुभवी एवं दक्ष शिल्पी प्रथम पंक्ति में आते हैं । लोक एवं आदिम प्रभावों को लिए हुए ढोकरा शिल्प के उत्कृष्ट नमूने बस्तर के नारायणपुर एवं गढबेंगाल से प्राप्त होते हैं ।

घडवा शिल्पी जैसे-जैसे समकालीन शिल्पियों के साथ प्रदर्शिनियों में भाग लेने लगे हैं , वैसे वैसे वे अपने परम्परागत शिल्प कला शैली में नये-नये प्रयोग करने लगे हैं. कला से संबंधित प्रबुध्द वर्ग इन्हें नये-नये प्रयोग करने को प्रेरित एवं उत्साहित करते हैं. फिर भी यहां की धातु शिल्प कला ने इस क्षेत्र विशेष की कला को अक्षुण्ण बनाए रखा है. घडवा कला लोक कला का प्रतिरूप व प्रतीकात्मक रूप है. जो समयांतर के साथ परिवर्तित शिल्पों में भी दिखाई देता है. प्राचीन समय में निर्मित शिल्पों और वर्तमान के शिल्पों में अलंकरण में विशेष अंतर नही हैं केवल आकारों में परिवर्तन अवश्य हुआ है। तुलनात्मक दृष्टि से अब शिल्प बडे आकारों में बनने लगे हैं ।

घड़वा कला अपने सीमित साधनों , अभावों के बावजूद सतत गतिशील व जीवंत बनी हुई है , इसका मूल कारण लोक जीवन के धार्मिक विश्वास , जादू-टोना , सामाजिक एवं आर्थिक आधार हैं । अपने छोटे आकार , अलंकरण और लोक प्रतीकों से युक्त घड़वा शिल्प बस्तर से बाहर निकल कर राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय कला जगत में अपना स्थान निश्चय ही बना चुका है । घड़वा कला को उत्थान की ओर अग्रसर करने में सहायक प्रबुध्द वर्ग का एवं शासन सहयोग का जिक्र करना भी समीचीन होगा । इसमें जगदलपुर के श्री गुहा जी का उल्लेखनीय योगदान है, जिन्होनें 1962 से इस कला कर्म से संबंधित शिल्पियों को न केवल प्रोत्साहित किया वरन् उन्हें प्रशिक्षण प्रदान करने व उनके द्वारा निर्मित मूर्तियों के क्रय-विक्रय की समुचित व्यवस्था की. इसके साथ ही जगदलपुर में मृगनयनी एम्पोरियम की स्थापना भी की. श्री जगदीश तिवारी जिन्हें यहां के शिल्पी अपना सर्वदाता समझते हैं ने इनकी हर क्षेत्र से सहायता की और शासन का घ्यान इनकी ओर आकृष्ट किया. श्री निरंजन महावर ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण कर इनकी समस्याओं से, शिल्पों से और शिल्पियों से समकालीन कला से जुडी मुख्य संस्थाओं, परिषदों से परिचित करवाने का महत्वपूर्ण कार्य किया. जगदलपूर हस्तशिल्प विकास निगम भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. वह आदिवासियों को इस कला का प्रशिक्षण देता है, एवं शिल्पियों को कच्चा माल उपलब्ध करवाता है और तैयार शिल्पों को शासन द्वारा निर्धारित उचित मूल्य पर क्रय भी करता है । जो इन घडवा शिलिपयों के उत्थान में सहायक सिध्द हो रहा है. श्री जयदेव बघेल का इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा । वे स्वयं की मेहनत लगन और परिश्रम से आज अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके थे और इस शिल्प कर्म से संबंधित शिल्पियों के उत्थान में प्रयासरत रहे थे. इन्होंने पारम्परिक बस्तर शिल्पी परिवार की स्थापना भी की थी जिसे बाबा साहेब अम्बेडकर पुरस्कार प्राप्त हो चुका है ।

उपरोक्त सफलताओं के अतिरिक्त शासन को इनके प्रति और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है । कुछ व्यक्ति विशेषों ने व्यक्तिगत लाभ हेतु इन भोले भाले शिल्पियों को व्यवसायिकता की ओर प्रेरित किया है जिनसे ये शिल्पी अपनी शैली में विक्रय की दृष्टि से परिवर्तन करने लगे हैं । वे अपनी परम्परागत आकारों, अलंकरणों को भूलते जा रहें हैं । जो भविष्य में इस कला शैली के लिए खतरनाक सिध्द हो सकता है । वर्तमान में घडवा शिल्प आकार, अलंकरण और लोक प्रतीकों से युक्त बस्तर से बाहर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपनी अभिव्यक्ति पाने में सफल हो चुका है ।

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(लेखिका को बस्तर के लोकधातु शिल्पों पर अध्ययन तथा शोध कार्य के फलस्वरूप डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा जा चुका है । यह महत्वपूर्ण आलेख अंतरजाल में हिन्दी अनुप्रयोग के जाने-माने विशेषज्ञ एवं साहित्यकार श्री रविशंकर श्रीवास्तव जी के सौजन्य से प्राप्त हुआ । हम उनका भी सृजन-सम्मान परिवार की ओर से आभार मानते हैं । संपादक )

4/05/2006

सप्ताह के गीतकार

कबीरा

सबकी अपनी चाह कबीरा,
अपनी –अपनी राह कबीरा ।

ढाई आखर की बीतों की,
किसको है परवाह कबीरा ?

सबकी आँखें भीगी-भीगी,
अधरों पर है आह कबीरा ।

पीर बहुत है भीतर गहरी,
कैसे पाएं थाह कबीरा ?

कुएँ पर गाडर का रेला,
कौन करे आगाह कबीरा !

भीतर गहरी खामोशी है...
जैसे हो दरगाह कबीरा ।

सबके चेहरों पर आ बैठा,
थका हुआ उत्साह कबीरा ।

निर्धन होती मर्यादाएँ,
कैसे हो निर्वाह कबीरा ।

- 0-


तब की बातें


तब की बातें छोड़ो पाठक जी !
अब नेहों का मनुहार बिका करता है ।
खन-खन करते चांदी के टुकड़ों पर,
अब गोरी का सिंगार बिका करता है ।

हाँ ! गाँव-गाँव में राधा रानी है,
और गली-गली में कृष्ण कन्हाई भी ।
लेकिन पनघट पर रार नहीं होता,
अब कुंज, गली में प्यार बिका करता है ।

यह दुनिया एक बाज़ार-सरीखा है,
हर कोई अपना मोल किए बैठा है ।
अपने घर के ही दुश्मन के हाथों,
विश्वसनीय पहरेदार बिका करता है ।

सड़कों पर जैसे इंद्रधनुष चलता,
सतरंगे परिधानों के बादल-सा ।
वैभव के फूहड़ ताने-बाने में,
लिपटा सारा अभिसार बिका करता है ।

हाँ ! देवालय में देव विराजे हैं,
और भक्तों की भरमार दिखा करती है ।
लेकिन श्रद्धा से मुक्त पुजारी हैं,
अब तो सेवा-सत्कार बिका करता है ।
-0-


गाँव

सबको देता ही रहा,
रोटी, पानी, छाँव ।
आज यही याचक बना,
फटेहाल है गाँव ।

बरगद, पीपल काटकर,
गाड़ दिए कुछ पोल ।
बिजली आकर खा गई,
चिड़ियों का किल्लोल।

गाँधी के आदर्श का,
ऐसा हुआ हिसाब ।
गाँव, गली-चौपाल में,
बिकने लगी शराब ।

संक्रामक होने लगा,
लोकतंत्र का रोग ।
जनता का धन खा गए,
जनता के ही लोग ।

मर्यादा मरने लगी,
निर्लज्ज है परिहास ।
बूढ़े-बच्चे बैठकर,
दिन भर खेलें ताश ।
अब तो अपनी धारणा,
बदले भी श्रीमान ।
ना तो अब वह गाँव हैं,
ना ही सरल किसान ।
-0-
0अजय पाठक
लेन – 3, विनोबा नगर,
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

(अजय पाठक छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी हैं । इन्होंने ललित कलाओं पर पीएच.डी. की है । अब तक चार गीत संग्रह – यादों के सावन, महुए की डाली पर उतरा बसंत, जीवन एक धुंए का बादल और गीत गाना चाहता हूँ, प्रकाशित हो चुके हैं । इन दिनों 'दशमत' नामक उपन्यास के लेखन कार्य में संलग्न हैं । संपादक)

दोपहर में गाँव


दोपहर में गाँव : लोक जीवन की हरीतिमा

गिरीश पंकज


भाषा का खिलंदड़ापन अगर देखना हो तो सुधी पाठकों को ललित निबंधों के उपवन में विचरना पड़ेगा । ललित निबंध की भाषा दरअसल हमारे भीतर के लालित्य को शब्दों में रूपान्तरित करने की रचनात्मक कोशिश है । ललित निबंध की विषय-वस्तु भी निपट देसी होती है जो कहीं न कहीं हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से ही निबद्ध होती है । लोक जीवन के विविध रंग ललित निबंधों में देखने को मिल जाते हैं । ललित निबंध दरअसल सुदीर्घ कविता है । गद्य कविता । जिस गद्य में काव्य-रस की निष्पत्ति होती है, वह ललित निबंध है । ललित निबंध बहुत कम लिखे गए हैं । कुबेरनाथ राय, विद्यानिवास मिश्रा, विवेकीराय आदि मुट्ठीभर नाम ही हैं जिन्होंने ललित निबंध को अपनी लेखनी का हिस्सा बनाया है । परवर्ती पीढ़ी में कुछेक रचनाकारों ने ललित निबंध की परम्परा को गति दी है । इसी परम्परा में अब जयप्रकाश मानस एक उभरता हुआ नाम है । मानस की सद्य: प्रकाशित कृति ‘दोपहर में गाँव’ उनके निबंधों का संग्रह है ।

ललित निबंध परिमार्जित एवं अंतरंग भाषा विन्यास में गढ़े गए ठेठ भारतीय चिंतन-मनन की विधा है । इस लिहाज से मानस ने भी संग्रह के अपने अठारहों निबंधों में अपने अंतरंग लेखक एवं अतीत की मधुर स्मृतियों में विचरते हुए जीवन के विविध रंगों का अवलोकन करते हैं । राम से लेकर ग्राम की यात्रा करते मानस के निबंधों में गंगा है, घर है, पगडंडियां हैं, कविता और चिड़िया है, किसान हैं तो छत्तीसगढ़ी अस्मिता को प्रदर्शित करने वाला लोकानुरागी मन भी है । ललित निबंध की भाषा गहराई में डूबकर कोमल अनुभूतियों को रूपायित करने की अंतरंग कोशिश होती है । तथ्य को अपने कथा में सजी-सँवरी भाषा के सहारे प्रस्तुत करना ललित निबंध की पहली शर्त है । जयप्रकाश इस सत्य को समझते हैं । वह एक जगह कहते भी हैं कि ''जो सरल होगा, वही तरल होगा, तरल वही होगा जिसके लिए समूची पृथ्वी एक घर हो ।'' इस लिहाज में मानस के निबंधों में यह वैश्विकता भी दीखती है । यह वैश्विकता लोक जीवन की हरीतिमा से ही मानो फूट पड़ती है ।

संग्रह का पहला निबंध 'गंगा की उपस्थिति' है । पिता के अस्थि-प्रवाह हेतु लेखक कभी गंगा के तट पर पहुँचा । और लौटा तो गंगा की पुण्य छवियाँ लेकर । गंगा की भयावता को देखना, उसे अपने भीतर महसूसना निसंदेह अलौकिक अनुभव है । गंगा मुक्तिदात्री है । लाख प्रदूषित हो जाए गंगा लेकिन वह हरदम विमल रहती है । मानस भी गंगा को इसी तरह की अनेक अनुभूतियों के साथ याद करते हैं । वह गंगा का स्तुति गान भी करते हुए हैं- ''गंगा भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है । गंगा भारतीय संस्कारों का अक्षुण्ण मिथक है । गंगा भारतीय मन का अनन्य बिम्ब है । ...यह पतितपावनी गंगा है । गंगा पावनता की श्रेष्ठतम धार है । यह लोक मानस की सतत पावन बने रहने की चेष्टा है ।'' मानस का पूरा निबंध जगन्माता गंगा के भावुक गुणानुवाद से आप्लावित है मानस ने गंगा पर गहन अध्ययन करके कुछ श्लोकों का उल्लेख भी किया है । गंगा से एकाकार होकर लेखक को महसूस होता है कि गंगा भारतीय संवेदना का उच्चतम एवं पवित्र विश्वास है । घर में धन-धान्य हो न हो, गंगाजल होगा ही । मानस ने बिल्कुल ठीक कहा कि गंगा जीवन की अंतिम अभिलाषा है । गंगा पर भावुकता भरे इस निबंध को हिन्दू मन नहीं, भारतीय एवं सांस्कृतिक मूल्यानुरागी की अभिव्यक्ति की नज़र से देखना चाहिए ।

मानस राम की अनंत छवियों को भी निहारते हैं । राम के वे रूप भी जानने वाले जानते हैं जिनके चलते उनकी आलोचनाएँ भी होती हैं, लेकिन असली छवि तो लोकवादी छवि है । मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि है । ''मैं न जीवों बिन राम'' में जयप्रकाश कहते हैं- ''राम में रमने का मतलब राम में लीन होकर थिर हो जाना नहीं है, अपितु, राम के साथ निरंतर यात्रा में बने रहना है । राम यात्री ही तो हैं जिनके रास्ते में काँटे हैं, कुश हैं, खोह हैं, वन प्रांत हैं, पर्वत हैं, दुर्लंघ्य समुद्र हैं । यह यात्रा सत्य की यात्रा है ।'' राम को देखने की यह दृष्टि यथार्थवादी दृष्टि है । भावुकता में राम भगवान लगते हैं तो विवेक दृष्टि से देखें तो मर्यादा पुरुषोत्तम तो कहीं-कहीं नितांत मनुष्य । जयप्रकाश ने राम के लोकानुरागी रूप का ही वर्णन किया है ।

'घर में संसार' में जयप्रकाश ने घर और मकान के अंतर को समझाने की कोशिश की है । समाजशास्त्रियों के हवाले से जयप्रकाश ने बहुश्रुत कथन को उद्यत किया है कि घर पहली पाठषाला है । जयप्रकाश इस सत्य को भी दुहराते हैं कि ''घर ईंट-पत्थर, लकड़ी-लोहे से निर्मित दीवार-कमरों का मकान नहीं, वह गहरे सुनहरे रिश्तों का भाव है ।'' लेकिन जयप्रकाश वर्तमान परिदृश्य के इस सच को कहने से नहीं चूकते कि ''शहर मकानधर्मी है ।... शहरी इंसान सीमेंटेड हो गया है । ऐसे हृदय में कैसा स्पंदन, कैसा संवेदन ?''

रंग बोलते हैं, कोडावय ताल सगुरिया मैं किसान हूँ, काग के भाग, जामुन का पेड़, गाँव की पगडंडियाँ, कविता और चिड़िया, दोपहर में गाँव, आदि निबंधों में जयप्रकाश विविध रंगों में डूबते उतराते हैं । जयप्रकाश की जड़ गाँव में है इसलिए वह वहाँ के अनेक उपादानों का स्मरण करते हैं । गाँव से बिछुड़ा मन रह-रहकर गाँव की ओर लौटता है । जयप्रकाश के अधिकांश निबंध गाँवों की ओर लौटने की उत्कट अभिलाषा से भरे हुए हैं । नागर जीवन के का मोह में फँसे लेखक गाँवों को भूल बैठे हैं लेकिन जयप्रकाश 'नास्टेल्जिक' की हद तक जाकर गाँव को याद करते हैं ।

जयप्रकाश ने 'पान के रंग' पर निबंध लिखा है । पान का आस्वादन करने वाले जयप्रकाश की इस बात से सहमत होंगे कि ''पान खाने-चबाने की चीज़ नहीं, रस लेने की चीज़ है । रस वही शख्स ले सकता है जो रसिक हो, रस में भींगने की कला जानता हो ।'' फिर जयप्रकाश भावुकता में बहकर रस का वर्णन करने लग जाते हैं । दरअसल पान हमारे मन को रसमय बना देता है । रसमयता भाव विह्वलता से भर देती है । इसलिए कथा के मूल-सूत्र में हाथ से फिसलने लगते हैं । पान के साथ जयप्रकाश पनवाड़ी (तंबोली) को भी नहीं भूलते। तंबोली से बहुत सी खबरों नि:शुल्क पता चल जाती है ।

जयप्रकाश ने कथा लेखिका शिवानी पर भी मार्मिक निबंध लिखा है, ''शिवानी : झरने का पानी'' । हजारों पाठकों की तरह जयप्रकाश भी शिवानी से कभी नहीं मिले लेकिन उनकी अनेक रचनाओं के माध्यम से वे शिवानी से बार-बार मिलते हैं । शिवानी की रचनाएँ गहरी आत्मीयता से भरी हुई हैं । परिवारों के न जाने कितने चरित्र, समाज के कितने ही पात्र उनकी रचनाओं में जीवंत होकर उपस्थित होते हैं। ''घर आंगन के रचयिता'' में लेखक 'गाँड़ा मामा' नामक एक चरित्र का स्मरण करते हैं । गाँड़ा लोग गाँव की मान्यता में बकरी चराने वाले होते हैं । ऐसे ही एक गाँड़ा को लेखक बाल्यकाल में मामा कह कर पुकारता था । मामा-भांजे का यह रिश्ता हमारी 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा का ही मूर्तरूप है कि हम चाकर को भी चाकर नहीं, अपने घर-परिवार का सदस्य मानकर व्यवहार करते हैं । संग्रह के अंत में 'छत्तीसगढ़ी भाषा' पर केंद्रित निबंध 'अस्मिता का सर्वनाम छत्तीसगढ़ी' जयप्रकाश के मिट्टी से अनुराग का ही निदर्शन कराता है । अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने गाँव, अपनी नदी के प्रति गहरी आत्मीयता ही हमें जोड़ने वाली बनाती है । भाषा हमारी अस्मिता है । छत्तीसगढ़ में प्रचलित छत्तीसगढ़ी यहाँ के समाज का दर्पण है । इन पंक्तियों के सहारे छत्तीसगढ़ी को सहजता के साथ समझा जा सकता है कि ''छत्तीसगढ़ देह है, छत्तीसगढ़ी उसकी आत्मा है । इस निबंध से नए पाठकों को पता चलेगा कि छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम 'कोसल' है । इस तरह 'दोपहर में गाँव' के अधिकांश निबंध जयप्रकाश की अंतरंग भाषा और उसके लालित्य से भी परिचित कराते हैं । कुछ निबंधों में पुनरुक्तियाँ भी हैं पर वे शब्दों के मध्य संगीत रचने में कारगर बन पड़ी हैं। छत्तीसगढ़ी की पक्षधरता में किसी भी कवि से हिन्दी का प्रतिराध नहीं है, यह स्पष्ट करना भी जयप्रकाश नहीं भूलते। यह स्पष्टीकरण इसलिए भी जरूरी है कि अक्सर अपनी मातृभाषा पर बात करते हुए लोग ऐसे भावुक हो जाते हैं कि राष्ट्रभाषा की आलोचना पर उतर आते हैं ।

'दोपहर में गाँव' शीर्षक से ही समझ में आ जाता है कि लेखक गाँव की शीतल छाँव के गुणगान करेगा । ''गाँव से लगा अमरैया से। सुरसुरी हवा चली, डालें लहराई नहीं कि पीले-पीले रसीले आम टपकने वाले हों तो आप ही बताइए कोई घर के भीतर कैद रह पाएगा ?'' लेखक नागर संस्कृति से ग्रस्त समय को भी समझता है इसलिए साफ-साफ कहता है कि ''आजकल के पढ़े-लिखों को, अपनी गोरी काया की माया में उलझे रहने वालों को समझ में आए न आए, गाँव आज भी दोपहर का महात्म्य बखूबी समझता है ।''

ललित निबंध की लगभग लुप्त होती परम्परा को आगे बढ़ाने में जयप्रकाश का नया संग्रह सहायक होगा, ऐसा विष्वास है । पुस्तक की भूमिका के अंत में डॉ. श्रीराम परिहार भी आश्वस्त हैं कि ''यह ललित निबंध-संग्रह घनघोर रात्रि में तारे की चमक के साथ उदित है। यह निबंध 'पृथ्वी पर दूर्वादल की हरिद्रा संस्कृति' की पुनर्स्थापना में मृगषिरा नक्षत्र के बादलों से घिरकर बरसेंगे'' ।

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कृति - दोपहर में गाँव
लेखक - जयप्रकाश मानस
प्रकाशन - शताक्षी प्रकाशन, चौबे कॉलोनी, रायपुर(छ.ग.)
मूल्य - 200/- (विदेश में 3 डालर)

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(समीक्षक श्री पंकज अनुवाद की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'सद्-भावना दर्पण' के संपादक हैं । वे देश के प्रख्यात व्यंग्यकारों में गिने जाते हैं । संपादक)

4/02/2006

पुस्तक समीक्षा (ललित निबंध)


।। लिखने का मतलब होता है समय को रचना ।।

0समीक्षक- जयप्रकाश मानस

शुरु-शरु में ललित निबंध को स्वतंत्र विधा मानने पर काफी कोहराम मचा था। कुछ इसे निबंध का एक प्रकार या शैली मात्र घोषित करने पर तुले हुए थे तो कुछ इसे ‘विधाओं की खिचड़ी’ जैसी उलाहना देकर इसकी सांस्कृतिक सत्ता को ही नकारने के लिए ऐंड़ी-चोटी एक कर रक्खे थे । बाँये चलने वालों को इसकी जातीय प्रकृति पर ही आपत्ति थी। उन्हें यह हिन्दी नहीं बल्कि हिन्दू की विधा दिखाई देती थी। कई नामवरों द्वारा इसे ‘गद्यगीत’ करार देते हुए मुत्युभोज तक परोसने का उपक्रम भी रचा जा रहा था। ‘हंस’ पर सवार सरस्वती-पुत्रों ने ललित निबंधों को ‘नास्टेलजिक लोगों की रचना’ कह कर अपनी छद्म प्रगतिशीलता का परिचय देना शुरू कर दिया था । अब जबकी ललित निबंध की अस्मिता को हिन्दी की दुनिया में पूर्ण स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उसे एक स्वतंत्र विधा के रुप में स्वयं लोकमानस भी मान्यता दे चुका है । इतना ही नहीं स्वयं कभी प्रतिवादी रहे लेखक-समीक्षक भी आत्मसमर्पण करते हुए अपनी रचना को ललित निबंध, रम्य रचना, या व्यक्तिव्यंजक निबंध जैसे शीर्षक से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने में कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं। समग्रत: कहें तो हिन्दी में “ललित निबंध की सात्विक सत्ता’’ प्रतिष्ठित हो चुकी है, ऐसे उत्सवी माहौल में डॉ. शोभाकांत झा को छत्तीसगढ़ का प्रथम पूर्णकालिक ललित निबंधकार कहना अनुचित न होगा ।

कहने को तो बेशक आपत्ति की आँधी खड़ी की जा सकती है कि छत्तीसगढ़ से ही पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे प्रभृति निबंधकारों को यहाँ भुलाने का खेल खेला जा रहा है। हम स्वनामधन्य आलोचकों-इतिहासकारों को याद दिलाना चाहते कि उन्होंने या उनके जैसे अन्य निबंधकारों ने न कभी स्वयं को ललितनिबंधकार की छवि में देखा और न ही अपने निबंधों को ‘ललित निबंध’ कहा। यह दीगर बात है कि उनके यहाँ भी लालित्य की मोतियाँ भाषा, भाव, या शिल्प के स्तर पर यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। पर मात्र लालित्य के दो-चार शेड्स देखकर ही किसी को ललित निबंधकार तो नहीं कहा जा सकता है।वे निबंधकार जरूर हो सकते हैं । वे भावात्मक निबंधों के श्रेष्ठ निबंधकार भी कहा जाना चाहिए।

कम-से-कम शोभाकांत झा जैसी जिद्दी एवं विधागत प्रतिबद्धता पुरानी पीढ़ी के कम लेखकों में दिखता है जो अल्पसंख्यक एवं अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत विधा का भी दामन तीन-चार दशकों तक थामे रखते हैं। अब तक डॉ.शोभाकांत झा के पाँच ललित निबंध संग्रह आ चुके हैं। मेरा उद्देश्य यहाँ ललित निबंधकारों का इतिहास-क्रम रेखांकित करना नहीं है फिर भी ऐसे दौर में, जब हम साहित्यकार पलक झपकते ही चकाचौंध की शीतल छाया में जा बिलमने के लिए सबंधित विधा का इतिहास लेखन प्रायोजित करने के विश्वासी हो चुके हैं या फिर हर विधा में अपना भाग्य आजमा रहें हैं; वह भी परिणामात्मक क्रियाशीलता की उपेक्षा एवं परिमाणात्मक क्रियाशीलता की अपेक्षा भाव लिये, ललित निबंध का प्रतिष्ठा अभियान के विनम्रशील योद्धाओं में एक डॉ.झा के मौन-योगदान को रेखांकित करना प्रासंगिक है । वह भी ठीक उस समय जब स्वयं ललित निबंधकार अपनी पाँचवी किताब पाठकों को सौंपने के समय अपनी सदाशयता को नहीं भूलता –

‘क्या हुआ कि कोई टुटपुँजिया लेखक है, आखिर अपने स्तर पर वह भी तो सारी शिद्दत से उठाता है । अपना भी अनुभव कोई अलग नहीं है । मीठे-खट्टे अहसास विश्वास बढ़ाते रहते हैं ।’

अपनी उम्र के दूसरे दौर से ललित निबंध विधा में अपने को अभिव्यक्त करने की साधना में प्रवेश करने वाले डॉ. झा चौथे दौर में जाकर जब अपने निबंध ‘होने का अर्थ’ में कहते होते हैं कि-

‘अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी होना ही नैतिक होना है, मनुष्य होना है, सृजनात्मकता को संभावनाओं की हद तक ले जाना है’

तो वे एक गंभीर लेखक होने को चरितार्थ करते हुए कदाचित् यह भी संकेतित करते होते हैं कि लेखक को भी अपनी चेतना के अनुकूल माध्यम या विधा के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए । विधा के प्रति निष्ठा का अभाव एक प्रकार से लेखक का पलायन है । सिर्फ भाव या अभिव्यक्ति-कौशल्य ही लेखक की प्रसिद्धि का सबक नहीं होता, विधा भी वह महत्वपूर्ण सांचा है जिसमें लेखक के शब्द अपने सबसे आकर्षक अर्थ के साथ रूपायित होते हैं । जटिल से जटिल भावों को आकार मिल जाता है । कहीं कोने में दुबका बैठा रस अपने सर्जक के हाथों चरम गति तक लोक-आनंद के लिए व्यक्त होने मचल-मचल उठता है । विधा को माध्यम या साधन मात्र समझने वाले आम लेखक ही उसके प्रति मोहभंग का शिकार हो जाया करते हैं । इसे क्या उस तरह का स्वार्थ न कहा जाय, जिस तरह अत्याधुनिक शहरी युवा प्रेमी अपनी प्रेयसी को रिझाने के लिए नित नये-नये वस्त्रों की फिराक में रहता है ।

यह दुर्भाग्य ही है कि हिन्दी की अनेक विधाओं यथा- रेखाचित्र, यात्रा-संस्मरण, रिपोतार्ज आदि महत्वपूर्ण विधाओं की समृद्धि लेखक की संपूर्ण विधाकेंद्रित आस्था के अभाव के कारण ही बाधित होती रही है। यह सुखद है कि ललित निबंध के प्रसंग में शायद ऐसा नहीं हुआ । जिन्होंने भी ललित निबंध को अपनी रचनात्मकता की प्रतिष्ठा का माध्यम बनाया उन्होंने विधा की रचनात्मकता की प्रतिष्ठा के लिए भी अपने संकल्प को निभाया है । इस निबाह में हजारी प्रसाद द्विवेदी, पं. विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, विवेकी राय, रामवृक्ष बेनीपुरी, अज्ञेय, श्रीकृष्णबिहारी मिश्र, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, धर्मवीर भारती, श्री रमेशचन्द्र शाह, डॉ. रामदरश मिश्र डॉ. युगेश्वर के बाद की परम्परा में डॉ. श्रीराम परिहार, श्री श्यामसुंदर दुबे, अष्टभुजा शुक्ल, महेश अनघ, कन्हैयालाल नंदन, श्रीकृष्णकुमार त्रिवेदी, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के साथ-साथ अपने छत्तीसगढ़ से शोभाकांत सहित की उपस्थिति भी देखी जा सकती है ।

शोभाकांत के निबंध संसार से गुजरना प्रकारांतर से अपनी सांस्कृतिक धरातल से विमुख और वायवी आकाश की ओर उड़ते मनुष्य की एक बार फिर से वापसी की रचनात्मक जद्दोजहद से गुजरना है । मन की जड़ताओँ को धो-पोंछ कर फिर से उस उमंग से जुड़ना है जो सनातन है, जो किसी भी प्रकार के कलुषता से मुक्त है । दरअसल यही ललित निबंध की गति है । इस गति को डॉ. शोभाकांत बखूबी चीन्हते हैं कि इस गति में ही मानवीय गरिमा का बोध है । इस गति में ही मनुष्य के होने का अर्थ है । यह जीवन की सहज गति है । सहजता ही जीवन की गति है । इसी सहजता का छंद आज से 600 वर्ष पूर्व कबीर भी गली-गली गाते-फिरते थे । एक निबंधकार अपने चार-चार संकलनों में चीजों, घटनाओं, परंपराओं, परिस्थितियों, जड़ताओं की पड़ताल तुलसी की दृष्टि से करता रहा है अचानक जब कबीर और कृष्ण के अंदाज के आसपास खड़ा दिखाई देता है तो इसमें उसका अनुभव विस्तार एवं स्पष्टता, वयस् प्रेरित आलोचकीय दृष्टि भी मुखरित होने लगती है ।
पिछले संग्रहों की अपेक्षा आलोच्य संग्रह में वे सांस्कृतिक एवं जीवन मूल्यों को उसके यथार्थ एवं साम्प्रतिक जटिल संघर्षों के बीच तटस्थ मूल्याँकन की भाषा में रखते हैं । यहाँ भारतीयता को उसकी शास्त्रीयता और लोक के मध्य फिर से स्थापित करने का भी तरल आग्रह है । तरल इसलिए कि निबंधकार भावुकता के शिखर पर चढ़कर भी भावी समय को बुद्धि के धरातल से देखना नहीं भूलता । जहाँ वह वर्तमान को एकबारगी नहीं नकारता वहाँ वह उसकी ठोस एवं उज्ज्वल पृष्ठभूमि को भी कहाँ बिसारना चाहता है ।
लोक-मन स्मृति का दूसरा नाम होता है । लोक वर्तमान को पूरी शिद्दत के साथ देखता-समझता है, आत्मसात करता है किन्तु अतीत के आलोक के साथ परखते हुए ही । इसलिए लोक में विद्यमान वैचारिक गत्यात्मकता ही उसकी अविरल यात्रा और चिरंजीविता का रहस्य है । लोक जिसे हम पिछले समय की चीज कह देते हैं । ऐसे वक्त हमारे जेहन में लोक के बासीपन का ही बिम्ब उभरता रहता है। दरअसल यह हमारी दृष्टिहीनता एवं आधुनिकता के प्रति अंधश्रद्धा का परिणाम है। सच तो यह है कि जिसे हम आधुनिक या उत्तरआधुनिक समय कहे जा रहे हैं वह लोक से परे नहीं है । लोक से परे कुछ भी नहीं होता । जो लोक में नहीं होता वह परलोक में होता है । समय या काल की हर इकाई में लोक ही विन्यस्त होता है । लोक हर समय अपने वर्तमान में व्याख्यायित होता है । लोक को अतीत कहना नासमझी है । लोक वर्तमान तो है ही आगत भी है । अब यह दीगर बात है कि आगत के किसी क्षण या इकाई में लोक का हिस्सा कितना होगा पर अंततः वह भी तो एक लोक ही होगा । ललित निबंधकार को जब लोक-आग्रही कहा जाता है तो उसका अर्थ ऐसा या ऐसा कुछ ही होता है । ललित निबंधकार श्री झा इस मायने में भी संपूर्णतः सतर्क हैं । इसलिए कृति ‘लिखने का मतलब’ को निबंधकार की पिछली कृतियों से आगे की कड़ी कह सकते हैं ।

विवेचित किताब में कुल मिलाकर 4-5 गोत्र की रम्य रचनाएँ हैं-
01.जीवनमूल्य आधृत- इस कोटि में अब भी, होने का अर्थ, नेह न बिषय विकार, फिर भी, सेवा धर्म, राजनीति और धर्म, व्यक्ति, झूठ और सच, अंतस संवाद, अपने पर हँसना, और अभाव का भाव को रख सकते हैं ।
02. भारतीय संस्कृति, परंपरा एवं अध्यात्म की विवेचना- क्षण-क्षण जीनेवाले कर्मयोगी कृष्ण, सर्वमंगल्ये मांगल्ये, सावन में कामर, तीरथराज प्रयाग में कुंभ, छत्तीसगढ़ की संस्कृति गंगा, भागवत के प्रश्न, अपवित्रो पवित्रो वा, तन्नो हनुमान प्रचोदयात, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात आदि
03. साहित्यिक कर्म, ग्रंथ और ग्रंथकार केन्द्रित- पश्य देवस्य काव्यम, कालिदास की सौंदर्य सृष्टि और प्रेम दृष्टि, पुनर्मूल्याँकन और विद्यापति
04. प्रकृति सौंदर्य – हरसिंगार और आषाढस्य प्रथम दिवसे

जैसा कि मैं अभी-अभी कह चुका हूँ कि इन ललित निबंधों का मूल स्वर संस्कृति का मूल्यांकन सह स्थापन है । लेकिन इसे अतीत राग जैसे कुछ उदासीन विशेषण देकर हाशिए में नहीं डाला जा सकता है । यदि भूलकर कोई पाठक ऐसा देखना भी चाह ले तो उसे निबंधकार की यह पंक्तियाँ बरबस रोक लेती हैं- ‘कुछ बातों को भूल जाना जरूरी है । आकुल, अशांत, अनपेक्षित और अशुभ परिणामी बातों को भूल जाना न केवल व्यक्ति के लिए बेहत्तर है, अपितु समष्टि के लिए भी । मन यदि कम्प्युटर है, तो उसे कचड़े और काँटे जैसे वायरसधर्मी बातों से बचायें ।’ वे कचड़े और काँटे जैसे जाने-पहचाने बिम्बों के माध्यम से मन को हर अटैक से बचाने ताकीद कराते चलते हैं ।

शोभाकांत जी की अधिकांश रचनाओं में स्थानीयता और स्थानीय बोध से सभी अभिकल्पों को ख़ारिज करने को उद्यत 21 वीं सदी के नये मनुष्य के लिए एक आगाह भी है। एक आग्रह भी कि प्रकृति और शाश्वत का नकार ही आधुनिकता नहीं है । विकास नहीं है । उत्थान तो कतई नहीं । आप भी सुनिए उनकी जुबां से –

‘वैश्वीकरण का असली तात्पर्य ‘स्व’ को विश्व बनाना है न कि विश्व को ‘स्व’ के लिए इस्तेमाल करना है । स्व की सीमा का इतना विस्तार करना है कि अन्य अपना बन जाय । अन्य के होने में अपना होना शामिल हो जाय । प्रत्येक के होने में अपना सहकार भी दर्ज न हो, तो विरोध तो कतई न हो ।’

ललित निबंध विधा का चरम सरोकार ‘भारतीयता की तलाश’ है । ‘भारतीयता’ यानी जड़ों के साथ पल्लवन-पुष्पन । यहाँ भारतीयता का अर्थ उस जातीय जीवन पद्दति से है जहाँ सभी संस्कृतियों के सार का समर्थन भी है । यह संकुचन नहीं हमारा विस्तारण है । यहाँ जब हम ‘भारतीयता’ शब्द पर विशेष जोर देते हैं तो इसे भूगोल के मन से नहीं अपितु मन के संपूर्ण भूगोल तक विचरण करके ही जाना जा सकता है । जो इसकी अर्थच्छवि तक हबर जाता है वह बरबस ही बोल उठता है – पश्चिम में भौतिकी है पर भ्रांतियाँ भी । वहाँ तकनीक है पर तन के लिए । बाजार है पर बजरू, बिजौरी और बटकरा ही गायब है । गति है पर गंतव्य अस्पष्ट है । पश्चिम में सब कुछ है पर मनुष्य लापता है । पूर्वात्य तन नहीं मन का गमगमाता बाग है । यहाँ भले ही भूख और भय है पर भजन भी है। मन प्रकृत है इसलिए वह विकृत नहीं हो पाता । भारतीयता, जिसमें समूची मानव जाति के लिए हर काल में स्पेस रहा है, को तुलनात्मक रूप से विश्लेषित करते हुए शोभाकांत लिखते हैं – ‘वह दर्शन ही क्या जो आचरण का हिस्सा न बन पाये । वह विचार ही क्या जो कमोवेश आचार में शामिल न हो पाये । सर्वेभवन्तु सुखिनः कह देने मात्र से सभी सुखी नहीं हो जाते, जब तक सभी लोग सबके सुख का ख्याल न रखें, वैसा आचरण न करें । तभी तो भारतीय जन ग्रह-नक्षत्र, गगन-पवन, अग्नि-आकाश, पृथ्वी-पानी सबको देव स्वरूप मानकर उन्हें अपने सुख-दुख में शामिल करते हैं ।’ वे आगे भारतीय जीवन दर्शन को स्पष्ट करते हुए यह भी कहते हैं कि पूजा भाव अभारतीय दर्शन-संस्कृति की दृष्टि से पिछड़ापन का सबूत हो सकता है, पर सच्चाई तो यह है कि भारतीय दार्शनिक विचार-धारा से ओतप्रोत अभिव्यक्ति है । इसमें प्रकृति पुरूष के सहभाव से विकसित सृष्टि को उसके मूल भाव में समझा जा सकता है ।

डॉ. शोभाकांत की रम्य रचनाएं उस भारतीय मन की संकुल संस्कृति की सांस्कारिक अभिव्यक्ति हैं जहाँ राम और कृष्ण तथा रामायण और गीता-महाभारत को कभी भी नहीं बिसारा नहीं जाता । बिसारा जा ही नहीं सकता । शायद इसलिए उनकी रचनाओं में इनसे जुड़ी अनुप्रसंगों का एक अंतर्धारा सतत् प्रवहमान है । इस प्रवाह में जकड़ नहीं निष्कर्ष की पकड़ है ।

वैयक्तिक संस्पर्श को लालित्य की ज़मीन कहा गया है और भावों की उन्मुक्त उड़ान को उसका आकाश । झा जी के यहाँ लालित्य की ठोस ज़मीन भी है और अपनी नीलिमा से आकर्षित करता आकाश भी । व्यक्तित्व एवं शैली को इस नजरिए से पर्यायवाची भी मान सकते हैं । आत्मीयता वह तत्व है जिससे ललित निबंध की लोकप्रियता सिर चढ़ कर बोलती है । ललित निबंध की लेखक की चित्तवृत्ति की वह क्रीड़ास्थली है जहाँ वह अपनी आदतों तथा अभिरूचियो का खुलकर हवाला देता है । इससे रोचकता की संभावना तो बढ़ ही जाती है, लेखक का आचार-व्यवहार भी खुलकर अभिव्यक्त होता है जिससे पाठक भी अनुभूति के चरम क्षणों में लेखक से तादात्म्य स्थापित करने लगता है । ऐसे निबंधों के गंभीर पाठकों को इस बात का कदापि आभास नहीं होता कि किस समय निबंधकार की विचारधारा कहाँ और किस ओर मुड़ जाएगी । श्री झा के निबंधों में रस की एक ऐसी जादूई झील निरंतर बह रही है, जहाँ पहुँचते ही पाठक तैरने को उद्यत लगता है । कभी वह विचारों की मोतियों को एकटक निहारने लगता है तो कभी वह व्यंग्य के घोंघों को बटोरने लगता है । इस झील में उसे सर्वत्र आत्मीय एवं रंग-बिरंगी मछलियाँ झिलमिलाती नज़र आती हैं ।

डॉ. झा की रचनाओं की सबसे खास चमक है - शास्त्रीय बतरस । साधारणतः शास्त्र और लोकाभिकेंद्रित अनुरंजन को परस्पर विरोधी ध्रुव मान लिया जाता है । और यह सच भी है कि कभी-कभी शास्त्रीय विवेचन या कथा प्रसंगों में बतरस-सी उमंग चाह कर भी नहीं उमड़ती पर वे अपनी शैली के चमत्कार से यह प्रवीणता भी सिद्ध करते हैं । संग्रह में शायद ही कोई निबंध ऐसा हो जहाँ शास्त्र ओझल हुआ हो । उनके मानस में पैठा पंड़ित कहीं शास्त्रीय कथा बाँचता है, कहीं शास्त्रीय छंद दोहराता है तो कहीं शास्त्रीय उद्धरणों से अपनी बात मनवाते चलता है । पर ऐसा भी नहीं कि वे लोक से बिलकुल परे जाकर किसी मठाधीश या उलेमा के बंधक शागिर्द प्रवचनकार की तरह अपने कथ्य को लादते जाते हैं । सच्चे अर्थों में शास्त्रीयता लोकाभिमुख होती है, क्योंकि वह भी लोक स्वीकृति से ही शास्त्रीय है । पं. विद्यानिवास मिश्र जैसे मनीषी उनकी इस लोकोन्मुख शास्त्रीय वृति से खुश हो उठते हैं-

‘सबसे बड़ी बात जो उनमें (डॉ. शोभाकांत झा) में हैं, वह शास्त्र निष्ठा । निष्ठा का अर्थ केवल स्वीकृति नहीं है, शास्त्र का जो अभिप्राय है, तात्पर्य है, संदेश है, उसकी निरंतर नई-नई व्याख्या करते रहना तथा उसे नव दृष्टि सृष्टि से संवहित करते रहना । मेरी समझ में निष्ठा का यही अभिप्राय है और यही अर्थ ठीक भी है ।’

अक्षत सहजता ललित निबंधों की वह पहचान है, जिसमें रम्यता मुखरित होती है । झा साहब इस मामले में कुछ अंश तक ठिठके हुए जान पड़ते हैं । पर सर्वत्र नहीं । संगह में हम कहीं-कहीं पाते हैं कि पांडित्य प्रदर्शन का व्यामोह भी है । झा जी का बहुभाषिक ज्ञान उन्हें स्थापत्य और कथ्य के स्तर पर कारगर तो बनाता ही है उसे भाषिक लालित्य गढ़ने का सहज और विविध अवसर भी मुहैया कराता चलता है । लोकभाषा मैथिली, राजभाषा हिन्दी और ज्ञानभाषा संस्कृत के शब्द-संस्कार निबंधकार की रचनात्मक विश्वसनीयता को और अधिक संपुष्ट करते चलते हैं । कहा भी गया है कि लोकभाषा में रमें बिना ललितनिबंधकार हो जाना या तो कलाबाजी है या कृत्रिम कलात्मकता । लोकभाषा का प्रयोग मात्र पाठकीय आकर्षण का मंत्र नहीं वह सरसता और कथ्य की सरलता का उत्कर्ष भी है । दरअसल लोकभाषा का मतलब यहाँ भाषा का उसकी संपूर्ण अस्मिता के साथ प्रतिष्ठापन है । यह नहीं कि लोकभाषा में जो भी कह वह ललित ही होगा । ललित भाषा नहीं शैली भी है, दृष्टि भी है, अर्थ भी है, अर्थ के बाद की अनुभूति भी है । ऐसी अनुभूति जो पाठक को ललित भाव-संसार तक ले पहुँचाये । नया कहना मात्र ही ललित नहीं ।

नये का मतलब पुराने का विसर्जन नहीं होता । निबंधकार श्री झा ने भी कुछ पुरातन विषयों को नये सिरे से इस संग्रह में देखने का ललित प्रयास किया है । यह विषय चयन का संकट नहीं, एक तरह से श्रेष्ठ-पुरातन का पुनर्सृजन ही है । माँ तो दुनिया का सबसे पुराना शब्द है तो इसका मतलब नहीं कि हम नये सिरे से उसके लिए कुछ दूसरा शब्द ही ढूंढ़ लें । इस सबके बावजूद जैसा कि हिन्दी के महत्वपूर्ण ललित निबंधकार रमेशचन्द्र शाह और अष्टभुजा शुक्ल ने अपने पत्र में मुझे कभी लिखा था कि ललित निबंध के आकाश में कुछ नये तारों को उगाने का समय हिन्दी में अब आ चुका है । तो मैं भी लगभग सहमत हुआ जाता हूँ कि कहीं न कहीं ताजे और टटके विषयों की ओर हम ललित निबंधकारों का ध्यान जाना ही चाहिए अन्यथा आने वाले 50-100 सालों तक कहीं कोई हजारी प्रसाद द्विवेदी से कुछ ऊधार लेता दिखता रहेगा तो कहीं कोई विद्यानिवास मिश्र से या फिर कुबेरनाथ राय से । तो ऐसे में कैसे ललित निबंध का सफर पूर्ण होगा ? जब मैं ऐसा सोचता रहता हूँ तो कभी-कभी मुझे नर्मदा प्रसाद उपाध्याय याद आ जाते हैं......

उनके बोल गूँजने लगते हैं—
जब आदमी अधूरा, जीवन अधूरा, दुनिया अधूरी तो इन सब पर लिखे जाने वाले निबंध कैसे पूर्ण मान लिये जाएँ ? आधे बखरे खेत, खलिहान में आधी उड़ी और आधी बिन उड़ी फसलें, हरियाते दीखते लेकिन फलहीन वृक्ष, आधे वसंत पार कर यौवन की दहलीज़ पर खड़ी जोगिया परिधान पहने जोगन, बिन पतवार के मँझधार में डोलती अधूरी नाव, अधूरे पाँव, अधूरे गीत, अधूरी तान, अधूरे स्वर, अधूरा सफर, जहाँ देखूँ वहीं अधूरा तो फिर निबंध कैसे पूरा हो ?

(नदी तुम बोलती क्यों हो, पृष्ठ-102)
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समीक्षित कृति- लिखने का अर्थ
ललितनिबंधकार- डॉ. शोभाकांत झा
मूल्य- 350 रुपये
पृष्ठ- 184
प्रकाशक- कला प्रकाशन, बी. एच. यू. , वाराणासी-5
ISBN NO.-81-87566-67-1
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