3/30/2006

कुछ गीत कुछ कविताएँ

गीत

प्राण हो तुम

अधर पर तुमने
हिमालय धर लिया
और सब कुछ जानकर अनजान हो तुम

दिवस बीता और बीती कितनी सदियाँ
अश्रुओं से बही जाने कितनी नदियाँ
पीर का सागर समाया हृदय मेरे
आँधियाँ तूफान आई हैं घनेरे
पर हृदय पाषाण तेरा नहीं पिघला
फिर भी मेरी हो, मेरी पहचान हो तुम

भावनाओं का समुंदर कितना गहरा
और मावस लगाती दिन रात पहरा
क्यों रूला जातीं बसंती ये हवायें
हर तरफ ख़ामोश-सी लगती फ़िजायें
इक अज़ब तूफान साँसों में समाया
डोलती रहती है पातों-सी ये काया
भूलना मुमकिन नहीं है इस जनम में
तुम ही मेरी हो, मेरी ही प्राण हो तुम

जब तेरे नयनों की भाषा तौल लाया
मेरे मन का गीत कुछ ना बोल पाया
तब ग़ज़ल इक शे’र बनकर रह गई
और मेरा कवि ये सब सह गई
दिल की हर तनहाइयों में तेरी छाया
श्वास में निःश्वास में बस तुझे पाया
तू भले माने न माने ये अलग है
तुम ही मेरी उदय औ अवसान हो तुम

क्या पता ये जीव कब तक जी सकेगा
विरह का ये घूँट कब तक पी सकेगा
मिलन की घड़ियाँ पुनः आये ना आये
और दिल ये बात सुन पाये न पाये
घर घड़ी तूफान भी सहता रहूँगा
सौ समुन्दर पार हो बहता रहूँगा
पर किनारा मिलेगा, यह ध्रुव अटल है
तुम ही मेरी नाव हो, जलयान हो तुम

डॉ. नथमल झँवर
झँवर निवास
मेन रोड, सिमगा
जिला-रायपुर, छत्तीसगढ़
लघु कविताएँ
एक

पिंजडे का शेर
मजबूर है
कमजोर नहीं

दो

मुफ़लिस है
आशिक तेरा
बेईमान नहीं

तीन

दोस्ती का हाथ
बढ़ाता है भी
आतंक फैलाता भी

पी. अशोक शर्मा
एन-4, दौलत एस्टेट, डंगनिया
रायपुर, छत्तीसगढ़

गीत
कठपुतलियो

कठपुतलियो
नाचती हो
जाने कब नाचती हुई
गिर पडती हो
कठपुतलियो, हँसती हो
हँसती-हँसती हो
लड़ पड़ती हो
दुश्मन बन जाती हो
होती हुई भी दोस्त

कठपुतलियों
रोती हुई भी
निःशब्द हो जाती हो
मचाती कोलाहल
कहाँ खो जाती हो
अधरों की हँसी
अपनी आवाज
परदे के पीछे किसे दे आती हो
नहीं करके कुछ भी
सब कुछ करती हो
करके भी सब कुछ
श्रेय किसी और को दे आती हो
सदा आतंकित रहतीं
परदे के पीछे क्या-क्या सहती हो
कुछ क्षण दिखतीं
अदृश्य हो जाती हो

परदे के पीछे अपनी डोर
किसे सौंप आतीं हो
तुम्हारे न होने पर भी
तुम बच रहतीं
हँसती-रुलाती
फुसलातीं-डराती हो

तुम्हारे चेहरों पर हावी
चेहरों को
सामने क्यों नहीं लातीं हो
कठपुतलियो

बस्तर की बालाएँ

एक

दिन भर चुनतीं
चार और महुआ
सिर का आँचल
बचातीं दांतो तले
खिलखिलाती बेपरवाह
जंगल से सांझ ढले
बेख़ौफ
घर लौट रही हैं

दो

सुबह-सुबह
बढ़ रहीं शहर की ओर
सिकुड़ती मुस्कान
चेहरे हलाकान
छा रहा आतंक
किसी अनजाने हिंस्त्र का
जाती हुई शहर भरी दोपहर
डर रही हैं
डॉ. मृणालिका ओझा
चंगोरा भाठा, रायपुर

राजेश गनोदवाले की कविताएँ

रचने का अलग से कोई समय नहीं होगा

अगर कोई समय होगा रचने का
तो वह हमेशा होगा
अलग से रचने का कोई समय नहीं होगा
हर समय रचने का बन सकता है
समय रचनात्मक नहीं होगा
रचने और बचने के बीच भी एक ऐसा समय होगा
जो रचने में शामिल होगा

रचने के समय में आप कुछ भी
कर सकते हैं

जो रचने लायक नहीं है, या नहीं था
उसे आप रच सकते हैं

आप इस तरह रचें
कि
रचा हुआ हमेशा बचे

समय इस तरह ख़र्च हो
कि रचना हमेशा फर्ज़ हो

*******


जो उदाहरण होने से बचा है

जो उदाहरण होने से बचा है
वह नया कहलाएगा
बिलकुल नया-एकदम नया
इतना
जितना नया कहते हैं
साथ में वहाँ तक
जहाँ तक उसे नया कहा जा सकता है
कोई वस्तु बनते-बनते बिगड़ जाए
तो बिगड़ना नया है
एकदम नया, जो उदाहरण नहीं है
धुएं का आकार हरदम नया है
धरती जहाँ तक भीगती है लहर से
वह लहर हर बार नई होगी
स्कूल से लौटना बच्चों का
हर बार नया है
किसी राग का सम की ओर बढ़ना
हर बार नया हो सकता है
नया, हर बार नया होगा
अनगिनत बार नया हो सकता है
जो उदाहररण नहीं है
जो पुराना नहीं है
******
यह समय बहुत टूटता है


बहुत कम होने को होता
यह समय अलग है
कि पूरा नहीं है
बहुत जितना था
बहुत अधिक लेता है यह समय
कुछ समय के लिए
जितने में वह
बहुत अधिक समय दे सकता है
उतने में वह बहुत कम दे पाता है
एक बोरा चावल के लिए
ढ़ाई बोरा धान चला जाता है
यह समय बहुत टूटता है
उतने में
*******

संगतकार

प्रायः मुखड़े पर
जब सुन्दर-सी तिहाई ले ‘सम’ पर पहुँचता है संगतकार
तब हमें वह नज़र आता है

जब अपने वादन से
बंदिश की खूबसूरती बढा रहा होता है
‘डग्गे’ की गमक और ‘चॉटी’ की मिठास
कानों में जब रस घोर रही हो

हम संगतकार को तब-तब याद करते हैं
जब सुनना हो कोई पसंद का गीत
या फिर बात हो लग्गी-लड़ियों की

हमें संगतकार तब नही दिखता
जब उसकी बूढ़ी और काँपती उंगलियाँ
मंच पर गायक को संभाले रहती हैं

हम संगतकार को तब भी भूल जाते हैं
जब वह युवा गायकों के घर
घण्टों बैठकर उन्हें अपना अनुभव बाँटते रहता है

हमें संगतकार तब भी याद नहीं आता
जब गायक का तानपूरा पकड़
उसे मंच पर आना पड़ जाता है

हम संगतकार को तब भी कहाँ याद करते हैं
जब गायक भीड़ के मध्य
अपनी प्रशंसा में खोया रहता है
तब तो और भी नहीं
जब उम्र उसे थकाकर चूर कर देती है
*******

आने का सपना

मैं हर काम करूँगा
हर जरूरतमंदो के काम मैं आउँगा
‘मै आऊँगा’
इस तरह नहीं आऊँगा
‘आ गया हूँ’
उस तरह आऊँगा
आने से पहले
और जाने के बाद भी आना चाहूँगा
आने का यह सपना में
इस तरह देखता हूँ
कि उसे हर कोई देख ले
*******

राजेश गनोदवाले
कला समीक्षक, दैनिक नवभारत
रायपुर, छत्तीसगढ

समकालीन हाइकु

1. डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव

बजती कहीं
छिपी पंख बाँसुरी
गूँजे अरण्य ।

साँकल
पथ के पग रुके
लक्ष्य विफल ।

चाँदनी स्नात
विजन में डोलता
मन्द सुवात ।

फूलो जो खिले
बहार सज गयी
दुल्हन जैसी ।

2 डॉ. राजेन्द्र बहादुर सिंह

पवन संग
नाचते गाते पौधे
उर उमंग ।

स्वार्थ की नदी
अपने में समेटे
सदी की सदी ।
लू के थपेड़े
लगते तन में ज्यों
गरम कोड़े ।

मंगलामुखी
ऊपर से प्रसन्न
मन से दुखी ।

3. सत्यप्रकाश त्रिवेदी

जीवन जीना
विसंगतियों में है
गरल पीना ।

हुआ बेदर्द
जमाने ने दिया है
अनेखा दर्द ।

विवश नारी
जीवन की डगर
खोजती फिरी ।

बेटे का लोभ
छीन लिया बेटी को
जन्म से पूर्व ।

4. डॉ. राजेन जयपुरिया

कारी बदरी
बरसी, बह गई
कोरी-गगरी ।

उड़े तीतर
खड़-खड़ संगीत
डूबा पीपर ।

कनखियों से
हेर गये साजन
झरे सावन ।

द्वार का नीम
बन गया हकीम
रोग ना झाँके ।

5. डॉ. रामनारायण पटेल

शिला कंधों से
ढो रहा दिनकर
थका, लुढ़का ।

अदृश्यलय
भीतर सुनता हूँ
मैं न मेरा हूँ ।

मेघ की पाती
चातक चोंच छुए
प्रेम-अर्पण ।

काश ! मिटता
दरार पड़े हिम
राम-रहीम ।

6. मुकेश रावल

खुली खिड़की
प्रकृतिका सौन्दर्य
चमका सूर्य ।

आँखों के मोती
देखकर पाया था
अपनापन ।

अकेला घड़ा
पनघट की याद
निभाती साथ

तुम नहीं तो
चूड़ियों की खनक
संगीत चुप ।

7. डॉ. भगवतशरण अग्रवाल

टूटे अक्षर
गहराये सन्नाटे
काँपते हाथ ।

पंख बिना भी
उड़ती रही आयु
धरती पै ही ।

देखा औ सुना
पढ़, भोगा और गुना
काम न आया ।

स्वार्ध के लिए
रिश्ते बाँधते हम
पत्थरों से भी ।

8. मनोज सोनकर

यादें विपक्ष
सुने नहीं दलील
शोर में दक्ष ।

बाज न आए
मदमस्त बाजरा
सूँड हिलाये ।

राजा तो हटे
ससके कुरसियाँ
वंश आ उठे ।

टूटन बड़ी
सफर बड़ा लंबा
सामने अड़ी ।

9. प्रो. आदित्य प्रताप सिंह

हँसता जन्मा
रोता सानंद जिया
हँसता गया ।

यह वजूद
पकड़ते रहिए
पारे की बूँद ।

मौन घाटियाँ
उल्टी सीधी पल्थियाँ
निकट... दूर...।

हिम में कूक...
कहाँ ? प्रिया कंठ में...
गर्म हवा रे ।

10. नरेन्द्र सिंह सिसोदिया

प्रजातंत्र ही
लूटतंत्र बना है
बोले कौन है ।

सत्य-असत्य
झंझावात मन के
परेशान क्यों ?

कौन मानता
कुरान का आयतें
इस्लाम में ।

उलझन में
बेचैन रहती है
मानस बुद्धि ।


11. पूनम भारद्वाज

शीतन छाँव
है क्षणिक सुखों सी
मिलती कहाँ ।

नभ के तारे
असंख्य होकर भी
तम से हारे ।

ओढ़ निलका
सतरंगी दुशाला
इन्द्रधनुष ।

ग़ज़ल बन
सजते होंठों पर
कितने गम ।

12. वाई. वेदप्रकाश

चलते हुए
मैं भी नहीं था यहाँ
कोई है कहाँ ?

आर या पार
लड़ाई का मैदान
जीत या हार ।

मिलेगा तुझे
सपनों में आता जो
मन का मीत ।

हँसते हुए
गाता रहा हूँ मैं
जीवन गीत ।


13. भूपेन्द्र कुमार सिंह

तन पतंगा
मिटने को तत्पर
देख दीपक ।

मन दर्पण
टूटा फिर कैसे हो
कुछ अर्पण ।

होते बिछोह
रुलाता है बहुत
किसी का मोह ।

कारण हठ
हुआ न फिर मन
कभी निकट ।

14. रामनरेश वर्मा


सत्य की बात
अटपटी हो तो भी
लाए मिठास ।

कहे विद्वान
हिन्तस्तान की जान
हिन्दी महान ।

दुष्ट गुर्राया
कुछ बड़बड़या
शान्ति भगाया ।

निर्भय बनो
अन्याय के विरुद्ध
संघर्ष करो ।

15. बद्रीप्रसाद पुरोहित

नेता समझें
देश को चारागाह
चरें जी भर ।

आधि व्याधि से
घिरी दुनिया सारी
बचा ही कौन ?

नाम सेवा का
काम है कसाई सा
खाली कमाई ।

आनंद पाना
हर कोई चाहता
पाता विरला ।

16. कु. नीलम शर्मा

शब्द श्रृंगार
कविता है दुल्हन
कागज शेज ।

जीवन डोर
बहुत कमजोर
हम पतंग ।

आँसू कहते
आँखों से बहकर
मन की व्यथा ।

माँ का आँचल
स्नेह से सराबोर
देता है छाँव ।

17. डॉ. राजकुमारी शर्मा

देवी-गरीबी
सदियों से जवान
होगी न बूढ़ी ।

क्षुब्ध हो बढ़ा
पूर्णिमा का रीत को
सागर-जल ।

ईश्वर सच
बाईबिल, कुरान
गीता भी सच ।

सर्वनाम ही
साजिशें रचते हैं
संज्ञा के लिए ।

18. डॉ. शरद जैन

लोग दोगले
आदर्श खोखले हैं
स्वर तोतले ।

बरसे मेघ
कूक उठी कोयल
मन घायल ।

ये प्रजातंत्र
बंदर की लंगोटी
एक कसौटी ।

शस्त्रों की होड़
बमों में है शायद
शांति की खोज ।

19. नलिनीकान्त

बुझेगा दीप
अंचरा न उघारो
पूरबा मीत ।

धूप का कोट
पहनकर खड़ा
होरी का बेटा ।

सिन्धु से सीखा
गरजना मेघों ने
यही संस्कार ।

सराय नहीं
आसमान में कहीं
बादल लौटो ।

20. अशेष बाजपेयी

गम इसका
नश्वर संसार में
कौन किसका ?

सूर्य ढला है
अंधेरे ने छला है
दुखा पला है ।

फूल जो खिला
घर के आंगन में
भाग्य से मिला ।

यह जीवन
है कठिन प्रमेय
रेखा अज्ञेय ।

21. सूर्यदेव पाठक पराग

यश की ज्योति
अनन्त काल तक
चमक देती ।

ओ प्यारे बीज !
अगर जमना है
मिट्टी से जुड़ो ।

गीता की वाणी
कर्म की संजीवनी
जग-कल्याणी ।

उषा सहेली
हौले से गुदगुदाती
कली मुसकाती ।

22. ओ.पी. गुप्ता

जुड़ना अच्छा
रिश्ते देते सहारा
समीप – आओ ।

दाग लगता
हर बदन पर
पग धरते ।

नून तेल का
भाव बता नहीं है
मौज करेंगे ।

चढ़ोगे यदि
उतरना भी होगा
जीना-मरना ।

23. सदाशिव कौशिक

भोले सूर्य को
निकलते ही फांसे
बबूल झाड़ी ।

पानी बरसें
टपरे वाले लोग
भूखे कड़के ।

उड़ने लगे
पहाड़ हवा संग
राई बन के ।

फूल महके
पौधे बेखबर थे
हवा ले गई ।

24. डॉ. सुधा गुप्ता

दाना चुग के
उड़ते गए पाखी
आँगन सूना ।

कौन पानी पी
बोलती री चिड़िया
इतना मीठा ।

हँसा तमाल
श्याम का स्पर्श हुआ
बजी बाँसुरी ।

पहाड़ी मैना
टेरती रुक-रुक
जगाती हूक ।

25. मनोहर शर्मा

साँप दूध पी
उगले न जहर
संभव नहीं ।

जिंदगी जीना
आसान काम नहीं
वेदना पीना ।
संवेदनायें
हो रहीं अवधूत
हुए हैं भूत ।

आधी गागर
छलकत जाये रे
गधा गाये रे ।

26. शैल रस्तोगी

सोई है धूप
तलहटी जागती
थकी लड़की ।

फूले कनेर
महकी यादें, मन
टीसती पीर ।

लिखती धूप
फूल आखर
भागती नदी ।

आँखें पनीली
धुँधलाया आकाश
दिखे ना चांद ।

27. रमेश कुमार सोनी

मौत तो आयी
जिंदा कोई न मिला
वापस लौटी ।

याद रखना
भीड़ पैमाना नहीं
कद माप का ।

अकेला चाँद
साथ मेरे चलता
रात में डरे ।

पत्थर पूजा
ईश्वर मानकर
कुछ न मिला ।

28. कमलेश भट्ट

गर्मी बढ़ी तो
बढ़ा ली पीपल ने
हरियाली भी ।

आग के सिवा
और क्या दे पाएगा
दानी सूरज ।

खुद भी जले
धरा को जलाने में
ईर्ष्यालु सूर्य ।

टंगे रहेंगे
आसमान में मेघ
कितनी देर ?

29. डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

पत्थर भी क्या
सज सकते कभी
डालियों पर ।

हाथ से गिरे
मोती कूदते हुए
दूर हो गये ।

रेत समेटे
गिलहरियाँ घूमे
राम न चूमे ।

नदी थी
अब नाला हो गई
पाप धो गई ।

30. रमेशचन्द्र शर्मा

धँसा सो फँसा
दलों का दलदल
मुक्ति कठिन ।

लीला वैचित्र्य
पल-पल प्रसन्न
प्रभु के भक्त ।

वर्जित शब्द
गूढ़ रहस्य मृत्यु
अस्तित्वहीन ।

आतंकवाद
बेटा ही बाप बना
गले की फाँस ।

31. डॉ. मिथिलेश दीक्षित

चाँद शिशु है
चाँदनी में है खिली
उसकी हँसी ।

बुझ न जाएँ
टिमटिमाते दीप
जागो जिन्दगी ।

पानी की कमी
आँसू टपका रही
पानी की टंकी ।

मानव तन
क्षित, जल, पावक
वायु, गगन ।

32. उर्मिला कौल

शीशा वो शीशा
टूटता आदमी भी
कण चुगूँ मैं ।

बीज अंकुरा
पात-पात पुलका
आया पावस ।

यादों के मोती
चली पिरोती सुई
हार किसे दूँ ?

कुहासा भरा
मन, कहाँ झुकूँ मैं
मंदिर गुम ।

33. कमलाशंकर त्रिपाठी

माँ की छवि मैं
क्या कुछ अन्तर है
कोई कवि में ।

पावस घन
उतरे नीलाम्बर
हरषे मन ।

आ गये कंत
पावस के संग ज्यों
आया बसंत ।

कामना वट
आश्रय पाते आये
तृष्णा के खग ।

34. डॉ. इन्दिरा अग्रवाल

भारत ! राम
विजय सुनिश्चित
पाक ! रावण ।

गीता का स्वर
तरंग जल स्वर
स्निग्ध मधुर ।

मेरा जीवन
ज्वालामुखी का फूल
आग ही आग ।

मन भटके
यत्र-तत्र-सर्वत्र
तृषा न बुझे ।

35. जवाहर इन्दु

महुआ बाग
रस पीती कोयल
पंचम राग ।

तृषा अधूरी
कब होती है पूरी
हमेशा दूरी ।

मौसम गाये
गली-गली महकी
पाहुन आये ।

नदी बहेगी
आँसू नहीं अमृत
दर्द सहेगी ।
(इन हाइकुओं का संकलन सृजन-सम्मान के सरिया विकासखंड (रायगढ़ जिला) के अध्यक्ष श्री प्रदीप कुमार शर्मा ने अपनी पत्रिका 'हाइकु मंजूषा' में किया है । वे छत्तीसगढ़ के युवा हाइकुकार हैं । )

3/28/2006

बार के जंगल बुला रहे हैं......




यात्रा संस्मरण

एस. अहमद



मीलों लम्बा फैला जंगल, शाम के लहराते साये हैं । साल के ऊँचे पेड़ो पर उतरती शाम की रोशनी खिलखिलाकर हँस रही थी । खुली जिप्सी में कैमरों से लदे-फदे पाँच प्रकृति प्रेमी जंगल को बहुत नज़दीक से निहारने निकले थे । जिप्सी जंगली सड़क पर जंगल के भीतर उतरती चली जा रही थी।
गाईड बता रहा था थोड़े और पहले आ गए होते तो आपके कैमरों के पेट भी भर जाते, और आपका मन भी। चलिए देखते हैं क्या-क्या मिल सकता है... यह तो आपके समय और चांस पर निर्भर करता है... हाँ, आप चुप रहें, शोर बिल्कुल न करें... हम लोग जो थोड़ी देर पहले बतिया रहे थे, एकदम चुप्पी साध गए । जंगल की खामोशी जिप्सी की धीमी आवाज ही तोड़ रही थी।
अचानक ड्राईवर ने रफ्तार धीमी कर दी । गाईड इशारा कर रहा था । एक जंगली दंतैल सुअर तेजी से मैदान को पार कर रहा था। जब तक कैमरों के शटर खुलकर बन्द होते सुअर घनी झाड़ियों में गुम हो गया। गाड़ी फिर से चल पड़ी शटर पर रखी ऊँगलियाँ उदास हो गईं । शाम की रोशनी की लकीरें मध्यम पड़ने लगी थीं। ऊँचे पेड़ों पर काले मुँह के लंगूर उछल-कूद कर रहे थे.
जंगल में खुश्बू तैर रही थी। यह महुए फलने के दिन हैं। जंगल के भी नियम कायदे होते हैं। जैसे-जैसे शाम रात में बदलने लगती है, वहाँ के रहवासी अपने-अपने काम-धन्धों में लग जाते हैं। शाकाहारी जानवर जैसे बाईसन, हिरण, बारहसिंगा, चीतल, खरगोश, नीलगाय आदि पानी पीने के लिए ठिकानों की तरफ चल पड़ते हैं और यह समय होता है मांसाहारी हिंसक जानवरों के शिकार का.........।
शाम अभी उतरी नहीं थी, जंगल में सन्नाटा तैर रहा था। हम लोग जंगल की भीतरी तहों की तरफ बढ़ते जा रहे थे। मोरों की आवाजों से पूरा जंगल गूँज रहा था। बीच-बीच में टिटहरी की आवाजें भी उनमें शामिल हो जाती थी। हम सब चौंकन्ने थे। अभी रोशनी बची हुई थी। कैमरों के पेट भर सकते थे । जरूरत थी कि कोई सामने आए...।
तभी गाईड ने गाड़ी रोकने का इशारा किया। गाड़ी चरमरा कर रूक गई । घने पेड़ों के बीच में घास के मैदान में चीतलों का एक बड़ा झुंड घास चर रहा था। चौंकन्ना होकर हमारी गाड़ी की तरफ देखने लगा..........। गाईड ने खामोश रहने को कहा...........। हम कहाँ रूकने वाले थे । कैमरों के शटर तेजी से चलने लगे..........। कुछ ही पलों में चीतलों का झुंड तेजी से घनी झाड़ियों में समा गया..........और हम मुँह ताकते रह गए।
आगे का रास्ता ऊबड़-खाबड़ था। गाड़ी हिचकोले ले रही थी। हम सब कभी अपने आप को सम्हालते तो कभी कैमरों को, सूखी लकड़ियों के चक्कों के नीचे आने से हो रही आवाजों से खूब शोर हो रहा था । तभी एक मादा सुअर सामने से आती दिखी। ड्राईवर ने गाड़ी रोकी ही थी कि मादा सुअर भागकर चट्टानों के पीछे चली गई। गाईड ने ड्राईवर को दूसरे पॉइंट पर चलने के लिए कहा, उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
अब जंगल में हलका-हल्का अंधेरा उतरने लगा था। सूरज कभी का पहाड़ियों के पीछे जा छिपा था, जंगल की हवा में महुए की गंध के साथ-साथ अन्य गंध भी घुल-मिल गई थी। हम बाईसन पॉइंट की ओर बढ़ रहे थे। चढ़ाई खत्म हो कर ढलान में बदल गई थी। आगे मैदानी इलाका है, वहाँ पानी का सोर्स है। वहाँ कई तरह के जानवर हो सकते हैं गाईड बता रहा था।
आगे मोड़ था । जैसे ही हमने मोड़ पार किया, सामने बाईसनों का एक बड़ा झुंड बाँसों के झुरमुट के पास खड़ा था । जिप्सी रुक गई । बाईसन चौंकन्ने हो गए थे । लेकिन कैमरों की रेंज में थे, लेकिन रोशनी इतनी कम थी कि बिना फ्लैश लाईट के फिल्म उतारना कठिन था । जिप्सी की माथे पर लगी दोनों सर्च लाईट जला दी गई। पूरा झुंड रोशनी के घेरे में आ गया..........। अब हम सब के चेहरे खिले हुए थे........। कुछ अच्छे शॉट मिल गए थे..........। झुंड से एक ऊँचापूरा बाईसन आगे आया और सड़क को लाँघ गया । उसके बाद तो पूरा झुंड हवा की तरह सड़क पार कर घनी झाड़ियों में समा गया.......। गाईड ने बताया कि बाईसनों के हर झुंड का एक मुखिया होता है । उसी पर पूरे झुंड की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है।

अब हम लोगों का टारगेट टाईगर था। गाईड ने कहा – टाईगर तो चांस की बात है, लेकिन मैं आपको भालू, और तेंदुए को तो दिखा ही दूँगा.........। हम सब आशान्वित हो उठे । कैमरे पैक कर दिये । जंगल पूरा अंधेरे में मिल गया था । अब केवल मन को ही भरमाया जा सकता था........। गाईड चौंकन्ना हो जिप्सी की रॉड पकड़ हुए जंगल की परतों को आँखों से भेद रहा था । अचानक उसने रुकने का इशारा किया । रोशनी के घेरे में भालू था । देर तक निहारने के बाद हम आगे बढ़े........।
न तो बहुत देर हुई थी और न ही बहुत दूर गए थे । गाईड की चौंकन्नी और जंगल से अभ्यस्त नज़र ने एक तेंदुए को घेरे में ले ही लिया। दूरी बहुत थी, रास्ता भी नहीं था, लेकिन उत्साही ड्राईवर ने गाड़ी उस ओर बढ़ा दी । अब तेंदुआ ती-चालीस फीट की दूरी पर था । पर वह अपने आपको छिपा रहा था । और हम सब उसको उघाड़ने में लगे हुएथे । जहाँ तक हमें तेंदुए की आदतों के बारे में जानकारी थी, उसके अनुसार यह जीव बहुत ही खतरनाक और चालाक जानवर माना जाता है। डर भी लग रहा था। खुली जिप्सी में बैठे हैं, अगर वह चार्ज होकर हमला करता है तो हम अब उसकी पहुँच यानी एक छलांग के घेरे में थे। तभी वह पूरा खड़ा हो गया । अच्छा खासा भरापूरा था । रोशनी में चमकती नीली आँखें, खुले मुँह से दिखाई देते नुकीले दाँत.......... जिस्मों में सिहरन पैदा कर रहे थे।
ये बार के जंगल हैं... जहाँ चालीस तेंदुए, आठ शेर, सैकड़ों चीतल, बाईसन, नील गायें, भालू, बन्दर, मोर, सोन-कुत्ते, लकड़बग्घे, सियार लोमड़ी निवास करते हैं। बार के जंगल मिश्रित प्रजाति के जंगल हैं । जब शहर की तनाव भरी ज़िंदगी से ऊब होने लगे तो चले जाइये बार के जंगलों में जहाँ सुकून है, शांति है...। और देखने को इतना कुछ कि कहा नहीं जा सकता। ठहरने के लिए पर्यटन ग्राम के आरामदायक कमरे और खाने को बढ़िया रसोई और वो भी आपकी जेब की पहुँच के भीतर । बार के जंगल के रहवासियों से मिलने का सबसे बढ़िया मौसम है । अप्रैल और मई का, तब जंगल पतझड़ की गिरफ्त में होता है । महुए की गंध से महकता हुआ आपके स्वागत को तैयार......। जा रहे हैं न आप... .....?

(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ फोटोग्राफर एवं कहानीकार हैं । उनके दो कहानी संग्रह कहानीकारों के मध्य चर्चा में रहे हैं । कहानी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं । जनसंपर्क विभाग, छत्तीसगढ़ शासन से सेवानिवृति के उपरांत स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं । फिलहाल रायपुर, छत्तीसगढ़ में डेरा है । संपादक )

छत्तीसगढ़ की लोककथा










चींटी का डर
(मूल स्त्रोत- श्रीमती सिन्धु देवी)

कहते हैं - जब ब्रह्मा ने संसार की रचना की तो उन्होंने पशुओं के लिए जंगल भी बनाया । जंगल में सैकड़ों पशु-पक्षी निर्भय होकर रहते थे किन्तु छोटे-छोटे पशुओं जैसे खरगोश, वनमुर्गी,तीतर को सदैव हाथी के भारी-भरकम पाँवों का शिकार होना पड़ता । चींटियाँ तो चटनी बन जाती थीं । पक्षियों के घोंसले उजड़ जाते थे । कुल मिलाकर हाथी से लगभग सभी जानवर भयभीत थे और हाथी भी सब पर रौब जमाता फिरता था ।

एक बार हाथी जंगल से भूलकर गाँव में जा पहुँचा । उसने गाँव के किनारे देखा कि एक छोटे से बरगद के पेड़ में हरे-भरे नए पत्ते लगे हुए हैं ।

उस बरगद पर प्रतिदिन एक शिवभक्त जल चढ़ाता था और उसकी नियमित देखभाल करता था । पानी और शीतल छाँव के कारण उसकी जड़ में लाखों चींटियाँ सुख से रहती थीं । वे कभी भी शिवभक्त को नहीं काटतीं ।

उधर हाथी को तो जोरों की भूख लगी थी ऊपरसे अपनी ताकत का घमंड । उसने सूँड से लपेटकर पूरे पेड़ को ही उखाड़ लिया और हरी-हरी पत्तियाँ खाने लगा ।

इतने में शिवभक्त बरगद के पेड़ को देखने वहाँ आ पहुँचा । पेड़ की हालत देखकर वह रो पड़ा । उसने वहीं श्राप दिया, “तुझे अपनी शक्ति का घमंड है न । अब से संसार के सबसे छोटे जी- चींटी से तुझे डरना पड़ेगा । टूट पड़ो री चींटियाँ ।‘’

बस क्या था । चींटियाँ लाखों की संख्या में सूँड में घुसकर काटने लगीं । हाथी चीखते-चिल्लाते गिरते-पड़े जंगल की ओर भाग गया।

उसे आज भी सिर्फ चींटियों का भय सताता है । शायद इसीलिए वह धरती पर बिना सूँड से फूँक मारे बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाता ।

(इसके संग्रहकर्ता जयप्रकाश मानस हैं । यह लोककथा 'चींटीं का डर' नामक किताब से चयन किया गया है जिसे देश के प्रख्यात प्रकाशक ''राधाकृष्ण प्रकाशन'', नई दिल्ली से प्रकाशित की है)

3/23/2006

समय, समाज और त्वरित लेखन (समीक्षात्मक लेख)

श्रद्धांजलि

स्व. श्री प्रमोद वर्मा

बिलासपुर-रायपुर सड़क मार्ग पर बिलासपुर से कोई पच्ची किलोमीटर दूर सरल रेखा सी बहती मनियारी नदी के तट पर एक छोटी सी बस्ती है-तालागाँव । खेत-खलिहानों और आसपास बसे झोपड़ों को पार करते आप अचानक ठिठक जाते हैं । आँख मलने लगते हैं । कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहे । सामने आप के सचमुच एक स्वप्न-लोक है । सपनों की ही तरह भग्न और बेतरतीब । सच क्या है इन में से – वह जो था या यह जो है ?

सच दोनों हैं – वर्तमान से रंच मात्र भी कम अतीत नहीं । फिलहाल का भला कौन नहीं होता ?

लेकिन प्राणियों में केवल मनुष्य ही तो उसे फलांगने की इच्छा सहित फिलहाल में होता है । इसलिए खास देश-काल का हो कर भी वह दिक्काल का होता है । इतिहास घटनाओं का नहीं वरन् उन घटनाओं को संभव करते मनुष्य –समूह का नाम है । उससे गुज़रते हुए हम अपने संघर्षरत पुरखों का, एक तरह से अन्य देश-काल में अपना ही, साक्षात् कर रहे होते हैं । बावड़ी के भीतर की सीढ़ियाँ आकाश की ओर ही तो खुलती हैं । भीतर से बाहर और बाहर से भीतर कोई और नहीं हमीं हुआ करते हैं । मनुष्य । बेपर को होकर भी जो उड़ सकता है, तब के बंधन में होकर भी जो मनसे उन्मुक्त रहा चला जाता है, जिसकी कल्पना कल्पना की दूरबीन आगे भी देख सकती है और पीछे भी, जो अनुभव-समृद्ध है इसलिए कृतसंकल्प भी । शायद पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ पाने की अनपी क्षमता के ही बल पर सृष्टि में कबी असहाय सा विचरता द्विपद अजेय बनता गया ।

खंडहरों में प्रवेश कर हम जैसे स्वयं को ही अपने अतीत में हासिल कसिल करते हैं । ताला के भग्न मंदिर का प्रवेश-द्वार वानस्पतिक उपकरणों से सज्जित है । खगोल-भूगोल में विचरते मानवेत्तर प्रवेश प्राणी रूद्रशिव के अंग-प्रतयंग है । देवता के एक ही विग्रह में पेड़-पौधों पंशु –पक्षियों यहां तक कि कीट-पतंगों को भी समाविष्ट करने वाली कला-चेतना हमारी संशिलष्ट संस्कृति के चरित्र के अनुरूप वैश्विक और समावेशी है । मनुष्य समय की पीठ पर सवार है और मूल्य संस्कृति की पीठ पर ।
समुदाय का अंग बनकर द्विपद मनुष्य हुआ । समुदाय ने अपनी ऐतिहासिक ने अपनी ऐतिहासिक सत्ता साहूहिक सहयोग और परिश्रम से उत्पादित करते हुए हासिल की । उत्पादन बटा तो लोभ पैदा हुआ । सामूहिक श्रम से उपार्जित धन का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की इच्छा रखने वाली ताकतें भी समाज से ही पैदा होती हैं । अलग-अलग समुदायों को ऐसी ताक़तें आपस में लड़ाती है । भारी पड़ने वाली ताक़त अपने प्रतिद्वंद्वी को गुलाम बना लेती है ।

भौतिक संपदा के अलावा हर समाज की आध्यात्मिक संपदा भी होती है । इस संस्कृति कहते हैं । इसका भी उत्पादन सदियों के सामूहिक सहयोग और परिश्रम से होता है । संस्कृति जातीय अनुभवों और जीवन-मूल्यों का स्मृति-कोश हैं । ये मूल्य ही किसी समाज की वास्तविक पहचान होते हैं । उपनिवेशवाद की विजय-यात्रा विजित राष्ट्र पर सांस्कतिक प्रभूता के साथ समाप्त होती है ।

उत्तर मध्य- काल भारतीय इतिहास के चरम अधःपतन का समय है । ऐसे समय में यहां आयी विदेशी सत्ता को पैर जमाने में खास दिक्कत नहीं हुई । लेकिन जैसे ही उसने भारत के मन के भी उपनिवेशन की प्रक्रिया शुरू की, बूढ़े भारत का सोया तेज जाग उठा । अपने डेढ़ सौ बरस के राज में हर चंद कोशिशों के बावजूद अंग्रेज इस देश की अस्मिता को न मेट सके न बदल ही सके । पराधीन रहकर भी जो मन से ऐसा अनुभव न करे उसे भला कौन बाँध रख सकता है । भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के पांच ही साल बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा ।

और तब आता है विडंबना का ऐसा दौर जिसकी मिसाल शायद ही कहीं मिले । आज़ाद होत ही हमने उन शस्त्रों को हिंद महासागर में फेंक दिया जिनसे हमने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी । गांधी की हत्या वस्तुतः उन मूलियों की हत्या थी जिनके वे प्रतीक थे । स्वाधीनता-पूर्व और स्वाधीन बारत की राजनीति का चारित्रिक अंतर ध्यान देने थे । स्वाधीनता –पूर्व और स्वादीन भारत की राजनीित का चारित्रिक अंतर ध्यान देने योग्य है । स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान जोर संस्कृति-निःसृत मूल्यों पर था जबकि स्वधीन भारत में उसके पर्याय कीमत पर जिसे बाज़ार तय करता है । बड़े बाज़ार से जुड़ना उसके अधीन होना है । उपनिवेश बन कर भी जो भारत मन से गुलाम नहीं हुआ था नव उपनिवेशनवाद के आरक्षित वन में बंधनरहित होकर भी वस्तुतः अपनी स्वतंत्रता सीमित कर चुका है ।
स्वाधीन होने के बाद हमने समता और न्याय पर आधारित समाज-रचना का संकल्प लिया था । तदनुसार विकास की योजनाएं बनाकर उन्हें अमल में लाने की आधी-अधूरी कोशिश भी हुई लेकिन इनका लाभ कमज़ोर वर्ग के बजाय उपरले वर्ग को अधिक मिला । औपनिवेशिक प्रशासिनक तंत्र के माध्यम से जनकल्याणकारी योजनाओं पर अमल करने का नतीजा इसके सिवा और हो भी क्या सकता है । सदियों से चली आ रही अन्यायी रूढ़िवादी व्यवस्था और उसे मज़बूत करने वाली सामाजिक संस्थाओं की जकड़बंदी आज़ादी हासिल करने के लगभग पाँच दशक बाद भी यथावत् है । वोट बैंक के बने रहने के चक्कर में धर्म के मानले में हज़ारों साल की सहिष्णुता और मेलजोल की विरासत नष्ट होती जा रही है । पढ़े-लिखे वर्ग के लोगों को भी पिछले दिनों दूसरे सम्प्रदाय के उपासना –गृह के नष्ट किये जाने पर खुश होते और एक दूसरे को बधाई देते देखा-सुना गया है । समाज-विरोधी ताकतों के हौसले तो अब इतनी बुलंदी पर हैं कि शक होने लगता है कि वही शान चला रहे हैं । प्रतिगामी जनविरोधी ताकतों पर अंकुश लगाने की न तो शासन में क्षमता दिखाई देती न पर्याप्त इच्छा–शक्ति । राजनीति का अपराधीकरण हो गया है । वर्तामान सरकार द्वारा खुले तौर से विकास की पश्चिमी धारणा को स्वीकार कर लेने के बाद तो देश में उपभोक्ता समाज ही बन सका है । समतामूलक समाज नहीं । सामाजिक न्याय की तोतारटंत भी इसीलिए आजकल कम सुनाई देती है । संसार के सारे विकसित देश विकासशील देशों की कीमत पर ही समृद्ध हुए हैं । विकासशील देशों द्वारा भी वही रास्ता अपनाने की कीमत ज़ाहिर है उन्हीं देशों के इत्यादि जन ही चुकायेंगें ।

कुछ ही बरस पहले तर तंत्र और उस पर काबिज़ ताकतों के जन-विरोधी तेवरों को लेकर चिंता करते अपने प्रश्नाकुल छात्रों को मैं दिलासा देता कि आदमी की ज़िन्दगी में तीस-चालीस बरस बेशक बहुत होते हैं लेकिन देश की ज़िन्दगी में तो यह बूंद भर समय ही है । वह दिन ज़रूर आयेगा, मैं उनसे कहता ,जब न यह जनविरोधी तंत्र रहेगा न उस पर काबिज़ दिख रही ये काली ताक़तें ही । लेकिन जिस दौर से हम इन दिनों गुज़र रहे हैं और देश की मूल प्रकृति और व्यापक हितों के विरुद्ध जैसे निर्णय लगातार लिए जा रहे हैं, लोभ संदेह और नफ़रत के माहौल को सियासी ताकतें जिस तरह हवा देती चल रही हैं, माफ़िया और सत्ता के दलाल जिस तरह दिनोदिन मजबूत होते जा रहे हैं उन्हें देख कर मेरे जैसा सुधारातीत आशावादी भी अब बुरी तरह संशकित होने लगा है । अभी उसी दिन बम्बई में हुए बस विस्फोटों की खबर देख रही हमारी ग्यारह साल की बेटी झुंझला कर अपनी माँ से कह उठी, “ बंद करो मां बकवास कर रहे इस डिब्बे को । भौगोलिक कारणों से तो इस देश को अतिरेकों का उपमहाद्वीप कहा ही जाता है लिकिन यह राजनैतिक कारणों से भी यही है । अवकाश के घंटे में जानती हो हम सहेलियां प्रायः क्या गाती हैं –नफ़रत की गंगा बहे देश में झगड़ा रहे ।‘’

बात इसलिए बेहद चौकाने वाली है क्योंकि भय हत्या झूठ फ़रेब अन्याय और दमन की राजनीति अपना कुप्रभाव समाज के सबसे कोमल और पवित्र मन पर भी डालने लगी है । प्यार को नफ़रत, एकता को झगड़ा और देश को न कुछ का नाम देते बच्चों को कौन सा संसार दे रहे हैं हम । जब हम बच्चे थे तो जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी उचारते विह्वल हो-हो उठते थे । देश का एक साफ़ विचार था हमारे अंदर । भूगोल और राजनीति से भी परे वह एक सांस्कृतिक सच्चाई था । देश और समाज की भला कौन सी धारणा दूँ मैं अपनी इस बड़ी हो रही बच्ची को ? राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए अनुसूचित जाति, जनजाति के आयुक्त कहते हैं कि इस देश में तिहरी अर्थव्यवस्था लागी है क्योंकि इसके भीतर दो और देश हैं इंडिया के अलावा भारत और हिंदुस्तान । कौन से मुँह से उपदेश दे कोई पिता अपने बच्चे को कि अपने देश को प्यार करो क्योंकि तब वह फट्ट से पूछ बैठेगा, किस देश को पिता और पिता को कोई जवाब नहीं सूझेगा ।

समय के एसे दौर में पत्रकार की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है । पत्रकारों में मैं लेखक को भी शामिल मानता हूँ- सिर्फ़ इसलिए नहीं कि पत्रकारिता त्वरित लेखन है, बल्कि इसलिए खासतौर से कि हमारे यहाँ पत्रकार लेखकों और लेखक-पत्रकारों की सुदीर्घ और समृद्ध सरंपरा रही है जो आज तक चली आ रही है । सबसे ज़रूरी काम आज मुझे नवजागरण और स्वतंत्रता संग्राम के दौर की स्पिरिट का पुनर्वास लगता है क्योंकि मन के हारे हार मन के जीते जीत । सिर्फ़ साठ- सत्तर साल पहले तक जो जाति आत्मगौरव और देशाभिमान से रहित नर को नर-पशु और मृतकतुल्य कहती थी और जिसके स्वाधीनता-संघर्ष से एशिया-अफ्रीका के तमान मुल्क़ो ने अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा पायी थी उसी को अपने स्वाभिमान को ताक पर रख अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवाद के चरण चांपते देखना बेहद लज्जाजनक अनुभव है ।
तालागांव के रुद्रशिव की प्रतिमा जिस चेतना से उपजी है उस के पीछे सदियों का सोच और विवेक है । हर दर्पण अपने ही इतिहास और संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है । अपने दर्पण को तज देने से हमारे पुरखे कहां प्रतिबिम्बत होंगे ? और वही नहीं रहे तो हम भला कितने रह जाएंगे ? औपनिवेशिक ताकतों की मानसिक गुलामी से छुटकारा पाना मेरे विचार से जाति के तौर पर सम्मानजनक ढंग से हमारे बने रहने की अहम शर्त है ।

तहसनहस के इस दौर में हमारे देश की पत्रकारिता पर बड़ी ज़िम्मेदारी है । यह देख कर तसल्ली होती है कि बहुतेरे दबावों के बीच भी उसमें वैदिकी हिंसा को भी हिंसा ही कहने का साहस है, डरावनी से डरावनी सच्चाइयों से मुठभेड़ करने की कूवत है । अयोध्या की टूटी मस्ज़िद का सच, कश्मीर में मंदिरों के सही सलामत होने का सच, दलितों के उत्पीड़न का सच, सियासी साजिशों और आर्थिक घोटालों का सच, लोगों तक पहुंचाने का जोखिम उसने उठाया है । बेशक काली-पीली पत्रकारिता का भी हमारे यहां बड़ा ज़खीरा है । सता के ढिंढोरचियों की भी एक बड़ी जमात है । लेकिन जातीय जीवन के परिप्रेक्ष्य में आम आदमी और उसकी नियति के अहम फ़ैसलों से जुड़े सवाल बेहिचक उठाती पत्रकारिता ही तिलक, गांधी और गणेश शंकर विद्यार्थी की परम्परा है । जिसमें सत्ता के विरुद्ध अपनी इंटीग्रिटी कायम रखने की क्षमता हो वही हमारी पत्रकारिता और लेखन की मुख्य धारा हो सकती है ।
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(स्व.श्री प्रमोद वर्मा अपने समय के जाने-माने आलोचक थे । मार्क्सवादी कला मूल्यों की पड़ताल करने वाली उनकी पुस्तक ‘’हलफनामा’’ 1978 में वर्ष की सर्वश्रेष्ठ समीक्षा कृति के तौर पर समादृत हुई । उनके साहित्यिक अवदान पर म.प्र.साहित्य सम्मेलन ने उन्हें ‘भवभूति अलंकरण’ से सम्मानित किया था । वे संस्कृति विभाग के बख्शी सृजन पीठ, भिलाई के 4 वर्ष तक अध्यक्ष रहे । इनकी समीक्षा की कृतियों में प्रमुख हैं – 1.साहित्य रूप और सृजन प्रक्रिया के संदर्भ 2.अंग्रेजी की स्वच्छंद कविता 3. हलफनामा 4. रोमान की वापसी 5. कालजयी मुक्तिबोध 6. कदाचित । चर्चित कविता हैं- 1. कविता दोस्तों में 2. बुलाने से नहीं आती नदी 3. कल और आज के बीच । संदर्शन और लेख आलेख उनकी दो महत्वपूर्ण निबंध संग्रह हैं । उन्होंने नाटक भी लिखे जिनमें ‘’लम्बा मारग दूरि घर’’ व ‘’पूर्व रंग’’ की विशेष चर्चा होती है । 31 मार्च 2000 को 72 वर्ष की आयु में हिन्दी संसार को छोडकर चल बसे ।- संपादक)

3/15/2006

सप्ताह का व्यंग्य


प्रेस क्लब में रावण

।।विनोदशंकर शुक्ल।।

पत्रकारों में सूंघने की असाधारण क्षमता होती है। उनके पास जितने हॉर्सपॉवर की घ्राणशक्ति होती है, उसका मुकाबला श्वान की घ्राणशक्ति भी नहीं कर सकती। नर हो, नारी हो या नेता हो – पत्रकार दूर से ही उसकी गंध सूँघ लेते हैं। कौन नर है और कौन नर के लेबल में वानर, उन्हें भांपते देर नरीं लगती। इसी तरह कौन नेता है, कौन चमचा और कौन उपचमचा – शक्ल देखते ही वे पहचान लेते हैं।
किस मंत्री ने पूरा-पूरा बाँध गटक लिया, किस अफसर ने कौन सी सड़क पचा ली और सरकारी योजनाओं की मलाई, कौन-कौन चींटे और चींटियाँ चाट रहे हैं- हर हेराफेरी की खबर उनके पास रहती है।

कुछ माह पहले पत्रकारों ने रावण की गंध सूँघ ली। वह साधू का वेष धारण कर कुछ राजनीतिक दलों के दफ्तरों के आस-पास चक्कर लगा रहा था। पत्रकारों ने अचानक उसे सूँघ लिया। कहा – अरे ! आप तो असली लंकेश हैं। आपके चाल की अकड़ और स्वर्ण कमण्डल पर आपकी पकड़ बता रही है।
साधूरूपधारी रावण चकित रह गया। बोला – कमाल है, रामायण युग को बीते शताब्दियाँ हो गई; फिर भी आपने पहचान लिया।

पत्रकारों के गैंग का सरगना बोला – रावणत्व की गंध मरी कहाँ हैं ? वह कलिकाल के नेताओं में आज भी जीवित है। पहले से ज्यादा प्रखरता के साथ।
रावण ने आश्चर्य से कहा – विश्व के प्रथम पत्रकार नारद ने भी नर्क में मुझे यही सूचना दी थी । कहा था, तुम अपने रावणत्व पर गर्व करना छोड़ दो। पृथ्वी पर इन दिनों तुमसे भी शक्तिशाली रावण पैदा हो गए हैं। हिन्दी में उन्हें नेता और अंग्रेजी में लीडर कहते हैं। मैं अपने इन्हीं उत्तराधिकारियों के दर्शनार्थ पृथ्वी पर आया हूँ।
सरगना ने कहा – राक्षसश्रेष्ठ ! आपने तो केवल सीताहरण किया था। आपके उत्तराधिकारी स्वतंत्रताहरण, सम्पत्तिहरण, शीलहरण आदि नाना हरण-उद्योग में लगे हुए हैं। आपकी हरण परम्परा को विकसित करने में उन्होंने आकाश-पाताल कुछ नहीं छोड़ा।
रावण मोगेम्बो की तरह खुश हो गया। बोला – मुझे भूमण्डलीय स्तर की प्रसन्नता हो रही है। रावणत्व का प्रसार दिन दूना बढ़ता जा रहा है। बेचारा राम मुझे मारकर भी नहीं मार पाया।
भेद खुलने पर रावण अपने असली रूप में आ गया। पत्रकारों के आग्रह पर उसने अपने नौ सिर विदड्रॉ कर लिए। दशानन होने पर अजायबघर में बंद किए जाने का खतरा था।
पत्रकारों ने रावण को प्रेस क्लब में आमंत्रित किया। ताकि कल के अखबारों को चटपटा और मसालेदार बनाया जा सके। आखिर रावण स्टार खलनायक जो था।
प्रेस क्लब में औपचारिक स्वागत के बाद प्रश्नोत्तर का सिलसिला शुरु हुआ।
दैनिक चनाजोरगरम के सवाददाता ने पूछा– रावणजी ! क्या यह सच है कि आपकी लंका सोने की थी ?
रावण ने चिरपरिचित कलफदार ठहाका लगाया। बोला – आपको संदेह क्यों है ? देवलोक पर मेरे सारे आक्रमण सोने के लिए ही थे। वैसे ही जैसे इराक पर अमेरिका का आक्रमण तेल के लिए था। देवराज इंद्र का खजाना मैंने इतनी बार लूटा कि देवताओं के पास छोटी सी अंगूठी बनाने के लिए भी सोना नहीं बचा। देवपत्नियों को नकली आभूषणों से संतोष करना पड़ा।
साप्ताहिक भूकम्प के नगर प्रतिनिधि ने सवाल किया – लंकेश्वर ! लगता है, सोना आपकी सबसे बड़ी कमजोरी है ?
रावण ने फिर ज़ोर का अट्टहास किया। उसके अट्टहास प्रेस क्लब की छत हिल गई और मंच काँपने लगा। प्रेस क्लब के अध्यक्ष ने हाथ जोड़कर दीरे हँसने की विनती की।
इस प्रार्थना पर रावण को जोर से हँसी आई, परंतु उसने उसे बलपूर्वक रोक लिया। बोला – सोना और सुन्दरी किस शासक की कमजोरी नहीं होती ? ये दोनों जिसके पास, जितनी ज्यादा, वह उतना बड़ा शासक ! मेरी लंका में सार्वजनिक नल, नालियाँ और नहरों के किनारे तक सोने के थे।
पाक्षिक गरम मसाला के प्रतिनिधि ने पूछा – आपकी नज़र में अच्छे शासक का प्रधान गुण क्या होना चाहिए ?
रावण बोला – अच्छा शासक आज के अमेरिका की तरह होना चाहिए। अच्छा शासक दूसरों का ऐश्वर्य नहीं देख सकता। हर हालत में वह दूसरों को नीचा दिखाने और अपना झण्डा ऊँचा रखने की कोशिश करता है।
सिने मासिक सेक्सबम की रिपोर्टर देहदर्शनी ने पूछा – आपको स्वर्ग मिला है या नर्क ?
रावण अट्टहास करते-करते रुक गया फिर भी क्लब की दीवारों में थोड़ा कम्पन लक्षित हुआ। संयमित होने के बाद रावण बोला – शिव की अखण्ड भक्ति के कारण मुझे स्वर्ग मिला। परंतु मेरे विरोध में देवताओं ने हड़ताल कर दी। देवराज इन्द्र विरोध में वैसे ही खड़ा हो गया, जैसे कांग्रेस भाजपा के और भाजपा कांग्रेस के विरोध में खड़ी रहती है। अंततः मेरे लिए एक दूसरे स्वर्ग की रचना करनी पड़ी। उसी प्रकार जैसे जब दो प्रतिद्वंद्वियों में प्रधानमंत्री पद का फैसला नहीं हो पाता तो एक को उपप्रधानमंत्री बनाकर हल निकाला जाता है।
दैनिक डमडमडिगा के ब्यूरो चीफ ने प्रश्न किया – आपके कारण स्वर्ग भी दो हो गए। दो नम्बरी स्वर्ग में क्या आपने खलनायकी छोड़ दी ?
रावण मुस्कराया। बोला – हम वो दरिया नहीं, जो चढ़ के उतर जाता है। संसार में मेरा अस्तित्व ही खलनायकी से है। मैं शतप्रतिशत खलनायक हूँ। मेरा व्यक्तित्व पूर्णतः मौलिक है, अनूदित नहीं। नायक मर जाते हैं लेकिन खलनायक कभी नहीं मरता।
साप्ताहिक चलती का नाम गाड़ी के प्रतिनिधि ने पूछा – लंकापति, यह बताएं कि स्वर्ग में रिश्वत चलती है या नहीं ?
रावण ने उत्तर दिया – रिश्वत कहाँ नहीं चलती ? उसका तीनों लोकों में बोलबाला है। एक बार एक जीवात्मा रोती हुई मेरे पास आई। सेना में भर्ती के लिए अधिकारी उससे चारस्वर्ण मद्राएँ मांग रहे थे। मैंने कोषालय अध्यक्ष से मुद्राएं दिलाकर उसका दुख दूर किया। मेरे ख्याल से रिश्वत राजकर्मियों का जन्मसिद्ध अधिकार है।
अंतिम प्रश्न कोरा कागज नामक सांध्य दैनिक के प्रतिनिधि ने पूछा – विश्व का पहला विमान पुष्पक आपके पास था। क्या उसे लंका के किसी वैज्ञानिक ने आविष्कृत किया था?
रावण ने उत्तर दिया – पुष्पक को मैंने देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर से छीना था। महाबली शासक को किसी की कोई चीज पसंद आ जाए तो वह उसे छीने बिना नहीं रहता। लंका विजय के बाद राम ने उसे हथिया लिया। मुझे शक है कि लंका का राज्य पाने के लिए विभीषण ने उसे रिश्वत के रूप में राम को दे दिया होगा।

अभी पत्रवार्ता चल ही रही थी कि रावण विरोधी तख्तियाँ लेकर भाजयुमो के युवक वहाँ पहुँच गए। वे नारे लगा रहे थे – रावण को बाहर निकालो... रावण मुर्दाबाद... रावण हाय-हाय !
रावण को चिंता हुई की भाजपाई नकली की जगह असली रावण को न जला दें। अतः वह वार्ता अधूरी छोड़ फौरन नौ दो ग्यारह हो गया।

संपर्कः-
मेघ मार्केट के सामने
बूढ़ापारा, रायपुर
छत्तीसगढ़

(रचनाकार देश के वरिष्ठतम व्यंग्यकार हैं । देश की तमाम पत्र-पत्रकाओं में छपते हैं । कई व्यंग्य संकलन इनके प्रकाशित और चर्चित हो चुके हैं । हाल ही में इन्हें सृजन-सम्मान द्वारा समरथ गवंईहा (व्यंग्य लेखन के लिए) सम्मान-2004 से छ.ग. के राज्यपाल द्वारा पुरस्कृत किया गया है ।- संपादक)

3/13/2006

एक ग़ज़ल



अभी-अभी
(उदीयमान कवियों का कोना )

यूं ही बेवजह किसी की याद सताए तो कोई क्या करे
याद करते-करते अगर जी भर आए तो कोई क्या करे

दिल को बहलाने के तो कई रास्ते हैं दिन भर में
रात होते ही वो ख्वाबों में चला आए तो कोइ क्या करे

कभी जो सोचता हूँ नहीं टूटुँगा मैं कभी अपने इरादे से
कम्बखत दिल अपने इरादे से मुकर जाए तो कोई क्या करे

समन्दर में तो तैरती हैं लाखों कस्तियाँ ओ मेरे हुज़ूर
अपनी ही कश्ती को किनारा ना मिल पाए तो कोइ क्या करे

मुझको कहते हैं सब गरीब प्यार के नाम पर जाने क्यों
फिर भी दुनियाँ में नाम बदनाम हो जाए तो कोइ क्या करे

राजन (गरीब)
चंड़ीगढ़

रम्य रचना(ललित निबंध)



ज़रा आंख में भर लो पानी

खगेंद्र ठाकुर

जब-जब हमारे देश की सीमा पर संकट दिखायी पड़ता है, तब-तब हमारे देश की आकाशवाणी और दूरदर्शन से दिन में कई-कई बार सुनाई पड़ता है-'ए लोगो, ज़रा आंख में भर लो पानी/जो शहीद हुए हैं उनकी याद करो कुर्बानी।` हमारे देश में ऐसे ही कभी-कभी देश-भक्ति का ज्वार आता है और उस-ज्वार की जानकारी देशवासियों को आकाशवाणी से होती है। दूरदर्शन पर उसके दर्शन सैनिकों को बहादुराना लड़ाई और सैनिकों की शहादत के रूप में, शहीद सैनिकों के खून और लाशों में होते हैं। यह सब कुछ सीमा पर होता है। देश के भीतर भी देश भक्ति दिखायी पड़ती है बढ़ती हुई मंहगाई और बेरोजगारी को बर्दाश्त करने के लिए, युद्ध के नाम पर टैक्स में वृद्धि को सहर्ष स्वीकार कर लेने के लिए तैयार रहने में और सब से अधिक सरकार की आलोचना बन्द करके उसकी प्रशंसा करते रहने में। देशभक्ति के ज्वार के दिनों में भुखमरी, भ्रष्टाचार या ऐसे अन्य दुर्गुणों की चर्चा करना देशद्रोह माना जा सकता है। यदि चुपचाप आकाशवाणी और दूरदर्शन पर बैठे रहे तो यह देशभक्ति में शुमार होगा। ध्यान में रखिए कि देशभक्ति की कोई धरतीवाणी नहीं होती और उसका निकट दर्शन भी नहीं होता। ठीक ही है, भगवद्भक्ति या ईश्वर भक्ति ने आधुनिक युग में जन-कार्रवाइयों के असर से देशभक्ति का रूप ले लिया तो क्या? उसमें जब भक्ति हो, तो उसे ऊपर से ही आना चाहिए। और फिर यह भी है कि भक्ति दर्शन करने की चीज़ नहीं है, दूर से भी नहीं। भक्ति तो प्रकट की जाती है, आत्मसमर्पण के जरिये दर्शन पाने के लिए- आराध्य के दर्शन। भक्ति अनुभव कराने की चीज हैं, देखने-दिखाने की नहीं। दिखाई पड़ जाने पर भक्ति का प्रभाव गायब हो जाने का खतरा रहता है।दूसरों की कुर्बानी को याद करना और अपनी आंखों में पानी भर लेना, दोनों ही अच्छे काम हैं। कुर्बानी दूसरों की और आंख अपनी, इसमें क्या हर्ज है। दूसरों का माल हो और अपना घर, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। ऐसी देशभक्ति के लिए तो लोग हमेशा तैयार रहते हैं। इसी तरह सोचते हुए मैं यह भी सोचता हूं कि जब देश पर हमला होता है और हमारे सैनिक देश की रक्षा के लिए जी-जान लगाकर जूझते रहते हैं, अपनी जान तक उत्सर्ग कर देते हैं, उज्जवल धवल बर्फ की श्रेणियों का अपने लाल-लाल रँत से शृंगार करने लगते हैं, तभी क्यों कुर्बानी को याद करने और आंख में पानी भरने की भावना का प्रसार किया जाता है? अपने महान देश को अंग्रेजी साम्राज्य के खूंखार चंगुल से मुँत करने के लिए हमारी पूर्वज पीढ़ियों के क्रान्तिकारी और देशभक्त स्वतंत्रतासेनानियों ने लगातार अपने को कुर्बान किया। उन दिनों कुर्बानी का एक और रूप था, जिसे एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी ने एकदम छोटी कविता 'पुष्प की अभिलाषा` में व्यक्त किया-

चाह नहीं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं।
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊं।।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊं।
चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूं भाग्य पर इठलाऊं।।
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना फेंक।
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।।

जरा गौर कीजिए माखनलालजी उस देशभक्ति को व्यक्त करते हैं, जिसमें 'कोई चाह नहीं` और यदि चाह है तो यही कि मातृभूमि पर शीश चढ़ाने के लिए जानेवालों की चरण-धूलि मिल जाए। अपनी इच्छाओं को चाहकर मारना कितना कठिन है। मातृभूमि पर शीश चढ़ानेवालों या अपनी चाह को मार देनेवालों के ही प्रताप का फल है, जिसे आज हमारे समय के लोग खा रहे हैं और एकदम बेपानी होकर खा रहे हैं। क्या इसीलिए वे शहीदों की कुर्बानी को याद करने और आंख में पानी भर लेने के गीत का रिकार्ड बजाते रहते हैं? ये जो शहीदों की कुर्बानी का फल खाने वाले लोग हुए, वे कुर्बान होने वालों के संगी-साथी होते थे या हैं, लेकिन वे फल खाने में इस कदर डूबे हुए रहे कि कुर्बानी को याद करना उन्हें विवाह के समय वैराग्य शतक सुनाने जैसा लगता है। कभी-कभी कोई उन्हें भी कुर्बानी याद करने का उपदेश दे देता है, तो वे उस पर उसी तरह गुर्राते हैं, जैसे कुत्ता अपने आगे से आहार छीने जाने पर गुर्राता है। हकीकत तो यह है कि ये फलभक्षी लोग शहीदों पर बहुत प्रसन्न हैं, क्योंकि वे शहीद हो कर चले गये, फल भोगने के लिए नहीं रहे। फलभक्षियों ने जगह-जगह शहीदों की मूर्तियां लगा दी हैं और कहते रहते हैं- वे महान थे, उन्होंने अपना उत्सर्ग कर दिया बलि बेदी पर। वे फल खाने के लिए नहीं रहे, जैसे वृक्ष अपना फल नहीं खाते। वे नदी की तरह महान थे, जो अपना जल नहीं पीती। वे साधु थे 'परमार्थ` के लिए उन्होंने शरीर-धारण किया था। वे पूरा देश हमारे लिए छोड़ गये। वे देवता थे, जो भक्तों और पुजारियों के द्वारा अर्पित किया गया चढ़ौआ नहीं खाते, सब कुछ भक्त और पुजारी भोगते हैं। भाइयो और बहनो। आप उनकी कुर्बानी याद करें, जन्मदिन या शहादत दिवस पर उनकी मूर्तियों मूतयों पर फूल चढ़ाएं। उनकी आत्मा को शान्ति मिलेगी। फर्क पर ध्यान दीजिए, शहीदों की आत्मा को शान्ति मिलती है फूल चढ़ाये जाने से या कुर्बानी याद करने से और इधर इनका पेट भरेगा फल भोगने से, तब इनकी आत्मा को शान्ति मिलेगी।जब लता मंगेशकर की दर्द भरी आवाज़ में सुनता हूं- ज़रा आंख में भर लो पानी, तो मैं सोचने लगता हूं कि जिनकी आंख में पानी भरने को कहा जाता है, उनकी आंख का पानी क्या हो गया? कहां चला गया? उनकी आंख का पानी कहीं गिर गया, तो यह दुर्घटना कैसे हो गयी! मध्यकाल के नामी कवि और अकबरी दरबार के एक नवरत्न रहीम ने हिदायत दी थी-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष चून।।

ठीक से ध्यान दीजिए, रहीम ने पानी भरने की बात नहीं पानी रखने की बात कही है। दोनों में बड़ा फर्क है। पानी नहीं है तो भर लीजिए। पानी है तो बचाये रखिए। लगता है रहीम के समय में पानी का अभाव नहीं हुआ था, आदमी के लिए या मोती के लिए या चूना के लिए। असल समस्या तो आदमी के लिए है। शहीदों की आंखों में पानी और नसों में खून उबलता रहता था। देश आज़ाद हुआ और पानी की किल्लत होने लगी। कहां चला गया पानी? प्रसिद्ध लेखक हरिशंकर परसाई ने इस पर गौर किया था। उन्होंने बताया है कि हमारे मंत्रीगण देश का पानी अमेरिका जाकर बेच आये। अब उनके पास पानी कहां से आएगा! ज़माना तेजी से आगे बढ़ रहा है। अब हमारे मंत्रीगण या अधिकारीगण विदेश जाते हैं, खास करके अमेरिका तो वहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिकों के सामने होते ही, उनका पानी अपने आप गिर जाता है, जैसे पुरइन के पत्तों पर से पानी लु़ढक जाता है। इसलिए अब बेचने की नौबत नहीं आती। उनका पानी अमेरिका या जापान या जर्मनी या फ्रांस के बाज़ार में वैसे ही गिर जाता है, जैसे एक फिल्मी गीत में नायिका का झुमका गिर जाता है, बरेली के बाज़ार में। जो चीज बाज़ार में गिर गयी, वह फिर कहां से मिलेगी? दिक्कत यह है कि देश की रक्षा के लिए हमारे सैनिक और समाज को बदलने के लिए हमारे क्रन्तिकारी आज भी कुर्बानी दे रहे हैं, खून बहा रहे हैं और देशभक्तों एवं क्रांतिकारियों की आंखें नम हो जाती हैं, उनको आंख में पानी भरना नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रसंग में पानी की चर्चा होने लगती है, तो हमारे राजकीय नेतागण या मौसमी कविगण कहने लगते हैं- जरा आंख में भर लो पानी।सोचिए जरा, आंख में कहीं पानी भरा जा सकता है। इस कवि की भावना के साथ मैं पूरे तौर पर हूं, एकदम शतप्रतिशत। लेकिन मैं अपने तार्किक दिमाग का क्या करूं। आंख कोई कटोरा, घड़ा या बाल्टी तो है नहीं कि कोई उसमें पानी भर ले। भरने की क्रिया बाहर से होती है। देखा होगा आपने कि शहरों में नल के पास पानी आने के समय के पहले से लोग बर्तन ले कर पानी भरने के लिए कतार लगाये रहते हैं। इस तरह से आंख में तो पानी भरा नहीं जा सकता। लेकिन, इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि आंख में जो पानी होता है, वह भीतर ही रहता है बाहर कहीं नहीं मिलता, हाट-बाज़ार कहीं नहीं। वह पानी सरे बाज़ार गिर जा सकता है, लेकिन बाज़ार में पाया नहीं जा सकता। कबीर ने कहा था न- 'प्रेम न बाड़ी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।` इस प्रेम का आंख के पानी से आन्तरिक लगाव है। यह भी न बाड़ी में उपजाया जा सकता है और न बाज़ार में खरीदा जा सकता है।आंख में पानी आ जाता है भीतर से, प्रेरणा भले ही बाहर में हो। भीतर में पानी कहां रहता है। कहना बड़ा मुश्किल है। हो सकता है, दिल में रहता है। और यह दिल कहां रहता है? यह बताना तो और मुश्किल है।

आंख के पानी को आंसू कहा जाता है। हमारे अत्यन्त भावुक कवि जयशंकर प्रसाद ने आंसू पर एक पुस्तक ही लिख डाली। आंसू के बारे में वे कहते हैं -

जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आंसू बन करवह आज बरसने आयी।

जीवन की कठिन परिस्थिति ( दुर्दिन) में मस्तिष्क में बसी हुई पीड़ा आंख से बरसने लगती है, जैसे बरसात (दुर्दिन) में बादल। इसके लिए आदमी में आदमीयत चाहिए, दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा बना लेने की भावना चाहिए। आदमी की यह पीड़ा उसकी आंख में यह पानी आप दुनिया भर में कहीं भी देख सकते हैं और इतिहास में झांक सकें तो वहां भी देख सकते हैं। आंख का यह पानी बहुत जमाने से आदिम युग से ही भूमंडलीकृत है। सारी दुनिया में दिल का दर्द और आंख का पानी एक जैसा होता है। आज के पूंजीवादी भूमंडलीकरण और बाज़ारतंत्र से उसका कोई ताल्लुक नहीं है। यही एक प्रसंग है, जहां बाज़ार-तंत्र भी निरुपाय हो जाता है। इसलिए हमें इत्मीनान हैं कि आंख के पानी का पेटेंट भी नहीं किया जा सकता। अपने देश को उनका पेटेंट बनने से रोकने का एक मात्र उपाय यह है कि हम आंख के पानी की रक्षा करें, उसे बाज़ार में गिरने न दें।नेताओं को आंख में पानी बाहर से भरते भी देखा गया है।

हमारे यहां एक बड़े नामी नेता थे। बड़े प्रभावशाली वक्ता भी थे वे। बातों और हाथों के अलावा एक और उपाय करते थे वे लोगों को प्रभावित करने का। जनता के दु:ख-दर्द का बखान करते-करते और जनता के प्रति सहानुभूति उड़ेलते-उड़ेलते व रोने-रोने को हो जाते थे। आवाज़ रुआंसी हो जाती थी, लेकिन आंख में पानी का कहीं पता नहीं। आंख में आंसू नहीं तो दिल में दर्द कैसा! इस बात को नेताजी भी जानते थे। तो वे क्या करते कि रुआंसे स्वर में बोलते-बोलते जेब से रुमाल निकालकर पोंछते और आंख पोंछते-पोंछते आंख से धारा फूट पड़ती थी। लोग उनके प्रति द्रवित हो जाते थे। बहुत बाद में यह भेद खुला कि नेताजी रुमाल में पिपरमिंट की टिकिया रखते थे और पोंछने के बहाने आंख में पिपरमिंट की टिकिया रगड़ देते थे और आंख से निकली आंसू की धारा फूट पड़ती थी। इस तरह वे आंख में पानी भरते थे। लेकिन यह भेद जब प्रचारित हो गया तो उनको सुननेवालों की संख्या लगातार घटती गयी। अत: पिपरमेंट के जोर से आंख में पानी भरना कारगर नहीं होता है। बात यह है कि आंख में पानी रखना या भरना ही मान लें, तो वह भी आसान नहीं होता।

आंख का पानी विलक्षण होता है। यह किसी दूसरे पानी से नहीं मिलता, चाहे कुएं का पानी हो या तालाब का या नदी का। वह बरसात के पानी और झरने के पानी से भी भिन्न होता है। आंख का पानी आंसू कहलाता है न! यह पानी दूसरे के दर्द को अपना दर्द समझने से स्वत: आ जाता है। कवियों ने इस पानी को बहुत महत्व दिया है, बल्कि हिन्दी के एक बड़े कवि सुमित्रानन्दन पंत ने इसे कविता का स्रोत ही मान लिया है। वे कहते हैं-

वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।।


आप देख रहे हैं पंतजी आदि कवि वाल्मीकि को याद कर रहे हैं। आदमी की क्या बात वाल्मीकि तो पक्षी की पीड़ा से द्रवित हो गये और कविता फूट पड़ी। भारत की पहली कविता। फिर वे महान कवि हो गये रामायण लिखकर। जाहिर है आंख में पानी भरा नहीं जाता, दूसरों की आह, दूसरों के दर्द को अपनी आह, अपना दर्द बना लेने से आंख में पानी आ जाता है। यह पानी कहीं से लाया नहीं जाता। उसका बहना बहुत असरदार होता है। मौलाना हसरत मोहानी कहते हैं न-'वो चुपके-चुपके आंसू बहाना, याद है।` चुपके-चुपके आंसू बहाया, फिर भी याद। इसे भुलाया नहीं जा सकता। असल में आंख का पानी बड़ा संक्रामक होता है। इसका असर अनायास फैलता है एक दिल से दूसरों में। इसीलिए समाज के, खासकर के राजनीति प्रभुताशील लोग इस पानी को पसंद नहीं करते, उसका फैलना तो हरगिज नहीं। आंसू में आग से भी ज्यादा जलन होती है। इसलिए प्रभु वर्ग इसे खतरनाक मानता है। ज़माना तो जनतंत्र का है, लेकिन आज जनता शासन करने वाले के अनुसार ही चलती है। शासन करने वाला बड़ा मोहक होता है, वह तरह-तरह से जनता को मोहते रहता है। वह कभी नहीं चाहता है कि आंखों से दर्द उमड़े और वह कविता बन जाए और जनता उसको ले चले। यह सब जनतंत्र और शासक दोनों के लिए अशुभ है। यद्यपि शासन करनेवाला वैज्ञानिक नहीं होता, फिर भी आंसू के प्रति शासन चलाने वाले और एक रसायनशास्त्री का रुख मिलता-जुलता है। बात यह है कि एक रसायनशास्त्री का अपनी पत्नी से एक दिन झगड़ा हो गया। उन्होंने पत्नी को बेतरह डांट दिया। बेचारी रोने लगी। आंख से आंसू बहने लगे और यह तय था कि वे आह के आंसू थे, पिपरमिंट के नहीं। लेकिन रसायनशास्त्री द्रवित क्या होते, उलटे कहने लगे- बस-बस रहने दो यह सब, मैं जानता हूं, तुम्हारी आंख से बहते पानी में क्या है, कुछ हाइड्रोजन, कुछ आक्सीजन, कुछ एसिड और क्या। उन्होंने आह को अपने वैज्ञानिक सूत्र से सुखा दिया। ऐसे वैज्ञानिक शासकों को बहुत पसंद होते हैं। शायद इसीलिए फैज अहमद फैज ने कहा होगा-

ज़िन्दगी को भी मुंह दिखाना है।
रो चुके तेरे अश्क बार बहोत।।


अब बंद करो रोना । ज़िंदगी का मुकाबला रो-रोकर नहीं करना है।समझा जा सकता है कि आज के वैज्ञानिक-तकनीकी क्रन्ति के दौर में आह को असर करने का मौका नहीं देना, उसे सूखा देना बहुत जरूरी है। ऐसा करके ही सरकार जनता को पीट सकती है और सार्वजनिक एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति को अत्यन्त आत्मीयतापूर्वक निजी बना सकती है। दफ्तर में बैठे-बैठे कागज पर सड़के बना सकती है, नहर खुदवा सकती है। कागज पर ही खुशहाली और तरक्की का अम्बार लगा सकती है। कागज पर ही वह एक नया राष्ट्र बनाकर रख दे सकती है। अपनी और जनता की आंखों का पानी सुखाकर ही आज के जमाने में सरकार चलाने वाले चमत्कारी काम कर सकते हैं। उनके अपने चमत्कार होते हैं- जैसे दिन दहाड़े घोटाले करके रकम ऐसी जगह रख देना किसी सी.बी.आई क्या, ईश्वर भी न जान सके? जेल जा कर बाहर निकल आना, जनता भूख की बात बोले तो दूरदर्शन पर सारी दुनिया को अनाज से भरा भंडार दिखा देना, सुखाड़ की शिकायत करने पर पुन: दूरदर्शन पर उमड़ता हुआ पानी दिखा देना, चुनाव हारकर भी जीत जाना आदि-आदि। इसी तरह के चमत्कार सेठ वर्ग भी दिखाता है। जब हमारे सैनिक सीमा पर कुर्बान हो रहे होते हैं, तब हमारे पूंजीपति डालडा में गाय की चर्बी मिलाकर मुनाफा कमाते हैं और गोरक्षा-आन्दोलन को चंदा भी देते हैं। उसी समय वे गाय या भैंस के दूध के नाम पर सिन्थेटिक दूध बेचते हैं। असली दवा के नाम पर नकली दवा बेचते हैं। किरासन तेल बाज़ार से गायब कर के झोंपड़ियों की ढिबरी भी बुझा देते हैं। शहीद सैनिकों की लाश उसके गांव भेजने के लिए अपने देश में पचास हजार रुपये से भी कम में मिलने वाला ताबूत अमेरिका से डेढ़ लाख रुपये से खरीदते हैं और जाने क्या-क्या करते हैं। और आपको बताऊं, वे जब यह सब चमत्कारी काम कर रहे होते हैं, उसी समय आकाशवाणी और दूरदर्शन से यह रिकार्ड भी बजवाते रहते हैं-

ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी।
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी।।

कौन कह सकता है कि वे देशभक्त नहीं हैं। उनके पास धन है तो सब कुछ है। धन से सब मिल जाता है। उनके पास सब कुछ है, एक आदमीयत के सिवा। गोकुल और ब्रज की गोपियों की आंखों में कृष्ण-प्रेम का पानी था, लोकलाज का नहीं। हमारे देश के धनाढ्य नागरिकों की आंखों में धन-प्रेम का पानी है, लोक-लाज का नहीं। लोकलाज का पानी वे अपनी आंख में रखेंगे, तो नकली सोने पर असली का पानी चढ़ाकर कैसे बेचेंगे? नकली जनतंत्र पर असली जनतंत्र का पानी चढ़ाकर कैसे राज करेंगे! यह पानी वे कहां से लाते हैं? जनतंत्र को जनता की नजर में चमकाने के लिए वे जातिवाद और सम्प्रदायवाद का लेप चढ़ाते हैं और जनता उसे देखकर चमत्कृत हो जाती है। चुनाव के समय हर जाति के आदमी की आंख में अपनी जाति का राज कायम करने की अद्भुत चमक दिखायी पड़ती है। सम्प्रदायवादी चमक तो और भी तीव्र होती है। उसी चमक की रोशनी में भारत-उदय का रथ निकल पड़ता है, जैसे कभी-कभी फिल्म में सूर्य का सात घोड़ोंवाला रथ उदित होता दिखायी पड़ता है। कवियों की आंखों में ऐसी रचनात्मक और चमत्कारी चमक नहीं होती। और इधर उपर्युक्त चमत्कारी काम करने वालों की आंखों में आह का पानी नहीं होता। आह से तो न मुनाफा कमाया जा सकता है, न चुनाव जीता जा सकता है। वे बिना पानी के संवेदना और विवेक पर भाषण दे सकते हैं, लेकिन खुद संवेदना और विवेक नहीं अपना सकते। ऐसे लोगों को वे इस दुनिया से गायब भी कर देते हैं और गीत गाने लगते हैं- ऐ मेरे वतन के लोगो...। लेकिन एक बात बताऊं। मैंने देखा है कि वतन के लोगों की आंखों में तो पानी है, आह का पानी है। वे ही लोग शहीदों के मजारों पर मेला लगाते हैं और रिकार्ड बजाने वाले शहीद स्मारक के आस-पास निषेधाज्ञा लगाकर जनता को वहां जाने से रोकते हैं। वे चाहते हैं कि जनता की आंखों में सचमुच पानी न उमड़े। वे चाहते हैं कि सिर्फ रिकार्ड बजता रहे और लोग समझते रहें कि आंख में पानी होना जरूरी है, सचमुच का पानी उनकी आंखों में न आए।


(खगेन्द्र ठाकुर : जन्म-९ सितम्बर १९३७, मालिनी (झारखंड)। हिन्दी के सुपरिचित समीक्षक आलोचक। भागलपुर विश्वविद्यालय के अंतर्गत मुरारका कॉलेज, सुल्तानगंज से यूनिवर्सिटी प्रोफेसर के पद से स्वेच्छा सेवा-निवृत्त। छायावादी काव्य भाषा का विवेचनात्मक अनुशीलन, आलोचना के बहाने, कविता का वर्तमान (आलोचना)। अनेक पुस्तकों और पत्रिकाओं का संपादन।संपर्क : क्षितिज, जनशक्ति कॉलोनी, पथ सं-२४, राजीव नगर, पटना-८०० ०२४। उनकी यह रचना वागर्थ में प्रकाशित हो चुकी है । संपादक)


सप्ताह की कहानी


आखिर क्या मजबूरी थी !

के.पी. सक्सेना “दूसरे”

हालाँकि इस बात को तीस वर्ष बीत चुके होंगे किन्तु याद आते ही सारी बातें टी.वी. सीरियल की भाँति सामने आने लगती हैं। यह जानते हुए भी कि जिस पात्र की मैं आज चर्चा करने जा रहा हूँ शायद इस समय वह अपने नाती-पोतों के पोतड़े धो रही होगी या पता नहीं संसार में है भी या नहीं, पर बात मैं ज्यों की त्यों आपके सामने रखूँगा, केवल नाम काल्पनिक होंगे, ये मेरा वायदा रहा।
आप टोक सकते हैं कि इतने वर्षों बाद ऐसी क्या आन पड़ी जो मैं किसी के कपड़े उतारने के लिए उतावला हो गया (जी हाँ, ठीक ही शब्दो का इस्तेमाल हो गया – इसे कपड़ा उतारना ही तो कहेंगे), तो इसका मुख्य कारण है कि इन तीस वर्षों में अक्सर मुझे यह प्रश्न अक्सर कचोटता रहा कि आखिर उसकी क्या मजबूरी थी जो...। आज चूँकि मेरी ट्रेन उसी स्टेशन से गुजर रही है, जहाँ इस वाकये का जन्म हुआ था, मैं उसे पहली बार आपके समक्ष उदघाटित करने जा रहा हूँ इस आशा के साथ की हो सकता है कि कहीं यह उसके पढ़ने में आ जाय और वह तरस खा कर मेरे प्रश्न का समाधान कर दे ! यकीन मानिए कि अगर खुदा न खास्ता ऐसा हो पाया तो एक कहानी फिर लिखूँगा।
चलिए बात को ज्यादा न खींचकर मैं एक ही एपीसोड में इसे आप तक पहुँचाने का प्रयास करता हूँ। उन दिनों मेरी पोस्टिंग इस कस्बेनुमा तहसील के एकमात्र कॉलेज में हुई, तो मुझे जरा भी नहीं सुहाया था। बस्ती में मनोरंजन के नाम पर केवल एक सिनेमा-घर था, जिसमें पिताजी के जमाने की हीरोइनों की पिक्चर ही अक्सर देखने को मिलतीं। आबादी इतनी कि एक घन्टे में यदि आप एक कोने से दूसरे कोने को पैदल नापें तो बहुत संभव है कि वही चेहरे आपको दुबारा, तिबारा देखने को मिल जाएँ। हाँ, स्टेशन अलबत्ता जंक्शन होने की वजह से गुलज़ार रहता था, जहाँ इस बस्ती के नौजवान प्रायः टाइम-पास करने या आँख सेंकने के लिए दिन में कई बार चक्कर लगाया करते थे।
मैं अकेला होने के कारण एक होटल में कमरा लेकर रहने लगा था, ताकि दुनियाभर की गृहस्थी संबंधी झंझटों से मुक्त रह सकूँ। चूँकि यह इस बस्ती का इकलौता होटल था, जो माहवारी पर कमरे देता था, मेरे जैसे कई नौकरीपेशा लोगों की यह शरणस्थली थी। अतः अच्छी कंपनी बन गई थी। कॉलेज के बाद अक्सर हमारी महफ़िल जम जाती और गपशप करते-करते टाइम कट जाया करता। छुट्टियों के दिन तो यह आलम सुबह से ही शुरू हो जाता, जिसका एक बड़ा फायदा यह था कि लोग परदेश में एकाकी होने की मनहूसियत से बचे रहते और एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँट लिया करते थे।
उस दिन भी अवकाश था। बरसात का मौसम रात से पानी जो शुरू हुआ तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। शायद दो-तीन दिन की लगातार छुट्टियाँ थी इसलिए फोर्स्ड बैचलर घर चले गए थे और होटल सूनसान था। मैंने सुबह नौ बजे बिस्तर छोड़ा। लेकिन करूँगा क्या यह सोचकर मुँह धोकर फिर बिस्तर में घुस गया। पड़े-पड़े दो-तीन चाय पी डाली और दोनों दैनिक पेपर चाट डाले। ‘आवश्यकता है’ से लेकर ‘बवासीर’ के इलाज तक का कालम पढ़ डाला, लेकिन समय अजगर हो गया था, सरक ही नहीं रहा था। हारकर खाना खाया और एक उपन्यास लेकर फिर बिस्तर में घुस गया। जाने कब नींद आ गयी।
जब नींद खुली तो चार बज रहे थे, तभी मनोहर आ गया। उसे देखकर मैंने राहत की साँस ली और चाय मंगाई। बाहर का हाल पूछने पर उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले ही बरसात थमी है। घर में बोर हो रहा था, इसलिए मेरे पास टाइम पास करने चला आया।
मनोहर स्थानीय व्यक्ति था। नौकरी न मिलने के कारण कुछ ही समय पहले ठेकेदारी शुरू की थी। स्वभाव का अच्छा था लेकिन लिखा-पढ़ी में कमजोर था। अक्सर मेरे पास आ जाया करता था, कभी बिल चेक कराने तो कभी कोई लेटर लिखवाने। कोई वैधानिक अड़चन आने पर भी कभी-कभी वह मुझसे सलाह लिया करता था और इसीलिए वह मुझे अक्सर बड़ा भाई कहकर संबोधित किया करता। उसकी एक आदत यह भी थी कि हम जब कहीं खाने-पीने बैठते, वह मुझे कभी खर्च नहीं करने देता था, शायद इसी बहाने मुझे उपकृत करना चाहता हो, उसे समय-समय पर दी गयी सलाहों की एवज में।
चाय पीकर हम लोग बाहर घूमने निकल पड़े। सड़क पर बहुत चिपचिप थी, लेकिन भीनी-भीनी हवा चलने के कारण मौसम बड़ा खुशगवार लग रहा था। रूटीन के अनुसार छु्ट्टी के दिन अगर शाम को हम लोग घूमने निकलते तो लगभग यह तय रहता था कि सिनेमा चौक से होते हुए रेल्वे स्टेशन तक जाएंगे, एक दो मैगजीन खरीदेंगे, ट्रेन का वक्त हुआ तो प्लेटफार्म के एक-दो चक्कर लगाएंगे और चाय-साय पीकर वापस हो लेंगे। कभी-कभी कोई बहाना मिल गया या किसी की जेब ज्यादा उछलती नज़र आई तो पास के ढाबे में जाकर थोड़ा मौज-मस्ती कर ली और खाना खाकर अपने-अपने दड़बे में।
लगभग इसी स्वाभाविक क्रम में हम स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे कि सिनेमा चौक पर एक रिक्शेवाले ने सलाम ठोंका। मैंने सोचा कि सवारी पाने की लालच में वह ऐसा कर रहा है। लेकिन वह तो मनोहर का परिचित निकला। वह मनोहर को एक ओर ले जाकर बात करने लगा। थोड़ी देर तक मैं चुप रहा, लेकिन जब देर होती दिखी तो मैंने उनकी ओर गौर किया। मुझे लगा कि मनोहर किसी बात के लिए मना कर रहा है और बार-बार वह उसका हाथ पकड़कर कुछ मनुहार सा कर रहा है।
“क्यों जिद कर रहा है भाई, कोई और सवारी देख ले।” मैं उसकी ओर देखकर बोला।
“वो बात नहीं है ।” मनोहर बोला।
“फिर क्या बात है ?” मेरे यह पूछने पर वह बात टालने की गरज से उससे बोला, “अच्छा चल स्टेशन तक छोड़ दे।”
मैं कुछ समझा नहीं। स्टेशन तो हम कभी रिक्शे से नहीं आते थे। फिर भी मनोहर की इच्छा देखकर बैठ गया। बस्ती से स्टेशन जाने के दो मार्ग थे। एक शार्टकट, जिससे प्रायः पैदल यात्री आया-जाया करते थे और दूसरा मुख्य मार्ग जो रेल्वे कॉलोनी से होकर गुजरता था। चूँकि हम लोग रिक्शे में थे, स्वाभाविक है कि रिक्शा कॉलोनी से होकर जाएगा। इसलिए मैंने मनोहर की ओर प्रश्नवाचक निगाह उठाई। वह धीरे से कान में फुसफुसाया, “बड़े भाई, दरअसल ये रिक्शेवाला हमें मनोरंजन के लिए एक जगह ले जाना चाहता है।”
“क्या बकवास करते हो।”
“वही तो। मैं भी इससे यही कह रहा था, पर मानता ही नहीं। कहता है बस एक बार मिल लो। कोई ऐसी-वैसी जगह नहीं है, देखकर तबियत खुश हो जाएगी। वह आपको भी जानता हैकि आप कॉलेज में पढ़ाते हैं।” बोलते-बोलते एक क्षण को मनोहर मेरी प्रतिक्रिया देखने को रूका।
“मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता। तुझे जाना है तो जा।” मैंने रिक्शेवाले को रिक्शा किनारे लगाने को कहा।
मनोहर ने मुझे उतरने न दिया। वह रिक्शेवाले से बोला, “अच्छा चलो, स्टेशन तो चलो।” रिक्शा बड़े अनमने ढंग से आगे बढ़ा और स्टेशन के मेन गेट पर लाकर खड़ा कर दिया। मनोहर पैसे देने लगा तो मैं सिगरेट लेने के लिए आगे की ओर बढ़ गया। सिगरेट लेने के बाद पलट कर देखा तो वह अभी भीमनोहर के पीछे लगा हुआ दिखा। जाने क्यों मुझे लगा कि मनोहर की भी थोड़ी इच्छा है, किन्तु मेरे कारण संकोच में है। अब मैं आप लोगों से सच बताऊँ, तो क्यूरोसिटी मेरी भी बढ़ गयी थी। कभी-कभार दोस्तों के संग गाना-वाना सुनने तक का मेरा अनुभव था, लेकिन उसे आगे नहीं। बस इसीलिए दुविधा थी। तभी मनोहर मेरे पास आकर बोला –
“उसका कहना है कि एक बार हम मिल भर लें मिलने में कोई खतरा नहीं – कोई खर्चा नहीं। बात नहीं जमी तो तो वह वापस यहीं छोड़ देगा। हाँ, ये आदमी भरोसे का है और हमसे कोई चाल नहीं चलेगा, इतना मैं जानता हूँ लेकिन मेरी मर्जी के बिना आपके नहीं है ये आप जान लो।”
यह सोचकर कि ऐसा भी एक अनुभव अपने जीवन में जोड़ा जाय, मैंने मनोहर पर मानो एक एहसान करते हुए कहा, मैंने मनोहर पर मानों एक एहसान करते हुए कहा, “चलो, अब तुम्हारा दिल नहीं तोड़ता, लेकिन ज्यादा देर रुकूँगा नहीं। तुम उससे कह दो कि पास ही कहीं खड़ा रहेगा और मुझे तुरंत होटल छोड़ देगा।”
ऐसा लगा कि मेरी बात मनोहर को मनमाफिक लगी। उसने रिक्शावाले को इशारा किया जो शायद अपनी अनुभवी आँखों से ताड़ चुका था कि तीर निशाने में लग चुका है। रिक्शा फिर रेल्वे कॉलोनी की ओर बढ़ने लगा और एक दो चौराहे से घूमता हुआ एक जगह सड़क के किनारे खड़ा हो गया। सड़क के एक ओर रेल्वे अधिकारियों के एवं दूसरी ओर स्टाफ के क्वार्टर्स लाइन से बने हुए थे। आगे चलकर बड़ा सा मैदान था, जिसके पीछे कुछ झुग्गी-झोंपड़ी। मैं समझ गया कि अब यह किसी गली मे घुस कर किसी झोपड़पट्टी में जाएगा। मैं उसे जाता देखता रहा। लेकिन यह क्या, उसने तो सामने वाले बंगले की घन्टी बजा दी। मैं चौंका और मनोहर की ओर प्रश्नवाचक निगाह दौड़ाई।
“तुम पहले कभी इसके साथ आए हो ?”
“बड़े भाई, इशारा तो इसने एक दो बार मुझसे किया था, पर मैने हर हमेशा टाल दिया। आज आपके साथ मैं भी पहली बार ही आ रहा हूँ। वैसे डर की कोई बात नहीं है। साले ने बदमाशी की तो कल रिक्शा चलाने लायक नहीं रह जायेगा।” मनोहर ने मुझे आश्वस्त किया।
अब तक मैंने मार्क किया था कि रिक्शे वाले ने मुझसे डायरेक्ट, कोई बात नहीं की अतः मैं उसे आता देखकर एक ओर हो गया। उसने मनोहर से कुछ बात की और रिक्शा लेकर जाने लगा तो मैं सकपकाया। तभी मनोहर पास आकर बोला, “चलो बड़े भाई, अब देख ही लेते हैं। टेंशन छोड़ो और मूड में आओ। अपनी बस्ती है, कुछ नहीं होने वाला।”
हमने फेन्स के साथ लगा लोहे का छोटा गेट पार किया। खूबसूरत लॉन के साथ बगीचा, मौसमी फूलों की सुगंध बिखेर रहा था। दस-बारह फीट आगे लकड़ी के जंगले के साथ एक दरवाजा था जो धक्का देते ही खुल गया। यह एक बरामदा था, जिसमें कुछ कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं। यहाँ एक दरवाजा सामने और एक दाहिनी तरफ था। दोनों दरवाजे उढ़के हुए थे। मनोहर आगे था। इस तरह आगे अंदर जाना ठीक न होगा, यह सोचकर मैंने मनोहर को वहीं बैठने का इशारा किया ही था कि दाहिनी तरफ का दरवाजा खुला और एक महिला ने नमस्ते करके अंदर की ओर आने का इशारा किया।
ब्रिटिश पीरियड के आम बँगलों की तरह ही यह बँगला भी था। बड़े से हाल में 1925 का सीलिंग फैन हवा कम आवाज ज्यादा कर रहा था। बीचों-बीच एक सोफा सेट लगा हुआ था। एक कोने में स्टडी टेबल के साथ चेयर पड़ी थी और दूसरे कोने में बड़ा सा रेडियोग्राम ढँका रखा था। कमरा व्यवस्थित एवं साफ-सुथरा देखकर अच्छा लगा।
“बैठिये” कह कर वह महिला अंदर चली गयी।
बगल में बैठा मनोहर कुछ कहने के लिए मेरी ओर झुका ही था कि वही महिला एक ट्रे में पानी लेकर आ गई। हमें चुपचाप बैठा देखकर बोली, “आप लोग आराम से बैठें, यहाँ किसी प्रकार का डर नहीं है।”
अब मैंने उसे जरा गौर से देखा। औसत कद, खुलता हुआ रंग, बदन में हल्की सी चर्बी की शुरूआत, मेकअप से सँवारा हुआ चेहरा, उम्र कोई पैंतीस-छत्तीस के आसपास। साधारण नाक नक्श के बावजूद वह प्रथमदृष्टया किसी का भी ध्यान खींचने में सक्षम लगी।
हम लोग धीरे-धीरे सहज होने लगे थे। मनोहर स्थानीय होने के कारण उसके बारे में शायद थोड़ा बहुत जानता था। अतः बातचीत उसी ने आरंभ की,
“गार्ड साहब नहीं हैं क्या ?”
“वो रहते ही कब हैं ! जब देखो तब, लाइन पर।”
“आपकी तो अब आदत पड़ चुकी होगी।”
“हाँ... ना भी पड़ी हो तो क्या !”
“अकेली बोर हो जाती होंगी।”
“कभी-कभी तो बहुत बोर होती हूँ और कभी-कभी आप जैसा कोई भला मानस आ जाता है तो थोड़ा टाइम पास हो जाता है।” वह मुसकरायी।
“आप इतने चुप क्यों हैं ?”
“जरा संकोची हैं और कोई बात नहीं।” मनोहर ने मेरा पक्ष लिया।
“साहब कब तक लौटेंगे ?” मैंने अपना मौन तोड़ा।
“अभी चार बजे की मेल लेकर गये हैं, रात को लौटने से रहे।” वह फिर मुसकरायी।
मैं कुछ चुटीली बात कहने को था कि बाहर कोई आहट सुनाई दी। मेरी सकपकाहट भाँपकर मनोहर ने धीरे से मेरा हाथ दबाया। वह मैं देखती हूँ कहकर उठ गई। लौटी तो मनोहर से बोली, “वो आया है।” और एक पैकेट लेकर अंदर की ओर चली गयी।
मनोहर बाहर की ओर गया और थोड़ी देर में वापस आ गया।
“एक हरा पत्ता मांगा है।” मनोहर फुसफुसाया। सौ के नोट को उधर हरा पत्ता कहने का चलन था।
“चल उठ।” मैंने उसका हाथ पकड़ा।
“चले चलेंगे बड़े भाई, अब आ ही गये हैं तो थोड़ा, कलर तो देख लें।” यह उसका तकिया कलाम था। जब भी मूड में आता, एक-दो बार अवश्य दोहराता।
इस बार वह जब आई तो उसकी ट्रे में काजू, नमकीन, गिलास और जग के अलावा एक व्हिस्की की बाटल भी थी। उसने सब टेबल पर लगाया और “आप लोग शुरु करें” कह कर अंदर चली गयी। मनोहर व्हिस्की की बाटल उठाते हुए बोला – “चलो बड़े भाई, पहले थोड़ा नारमल होते हैं, फिर कलर देखेंगे।”
मैंने उसे रोकते हुए अंदर की ओर इशारा किया। मनोहर समझ कर रुक गया। थोड़ी देर बाद वो आई और हमें यूँ ही बैठा देखकर बोली, “अरे आपने अभी तक शुरू नहीं किया ! भई सोडा तो घर में नहीं है।”
“बात सोडे की नहीं, दरअसल हम आपका इंतजार कर रहे थे।”
“नहीं-नहीं, आप दोनों लीजिए।” वह बोली।
मुझे लगा कि उसकी इंकार में ज्यादा दम नहीं है, इसलिए मनुहार से बोला, “कोई बात नहीं, बैठिए तो सही। वैसे दो-चार बूँद से कोई प्राब्लम नहीं होगी। आपके गिलास में बस कंपनी के ही सही, थोड़ा सा डाल लें।” जवाब में जब वह चुप रही तो मनोहर ने तीनों गिलास में पैग बना दिये, जिसे अनदेखा किये रही। लेकिन जब चीयर्स के लिए गिलास उठाए गये तो उसने टकराने के लिए यह कहकर मना कर दिया कि “नहीं, नहीं हमें यह अच्छा नहीं लगता।” हमने भी ज़िद नहीं की।
हल्की-फुल्की बातें चल निकलीं। बस्ती, बस्ती के लोग वगैरह-वगैरह। अब हम लोग सामान्य मित्रों जैसी बातें करने लगे थे। थोड़ी देर में सुरूर आने लगा तो मनोहर अचानक बोला, “और सब तो ठीक है मैडम, पर आपने कुछ जादइ मांग रही हो।”
“देखिये, अब इस मूड में ऐसी बातें मत करिए। कुछ ज्यादा नहीं है।”
“ज्यादा तो है। वो तो देवे के बारे को समझ में आत है। अब देखो, तुमाओ आदमी हमें इते ले लाओ। हम आ भी गए, कच्छू तो खयाल करो।” ऐसा लगा मनोहर सौदेबाजी पर उतर आया है। उसका तीसरा पैग समाप्ति पर था, मेरा दूसरा और उन्होंने पहला खत्म कर गिलास हटा दिया था।
“आपने ठीक कहा कि हमारा आदमी ही आपको ले के आया है। उसे ऐसा ही निर्देश है कोई ऐसा-वैसा आदमी इस दरवाजे तक नहीं आना चाहिए।” उसने बड़ी चतुराई से हमें चने में चढ़ा कर अपनी वाणिज्यिक बुद्धि का परिचय दिया।
मनोहर को शायद तलब लगी हो अतः वह सिगरेट लेकर आता हूँ कहकर बाहर निकल गया। अब वह मनोहर की जगह में बैठ गयी। मनोहर और मैं एक ही सोफे में बैठे थे। इसलिए अब मेरे और उसके बीच न के बराबर दूरी थी। अलकोहल अपना असर दिखा रही थी, लेकिन जाने क्यों मेरे दिमाग में भी रह-हकर यह बात आ रही थी कि वास्तव में सौ रुपये बहुत होते हैं। मैं कुछ कहने की सोच ही रहा था कि उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से दबाया और बोली, “इतना क्या सोच रहे हैं ?”
“नहीं कुछ खास नहीं।” मैं सकपका या।
“जानती हूँ, आपको पैसे ज्यादा लग रहे हैं। लेकिन हमें एक स्टैण्डर्ड बनाकर रखना पड़ता है नहीं तो कोई भी ऐरा-गैरा मुँह उठाए चला आएगा और फिर खर्चे भी तो लगे हैं। अब यह रिक्शा वाला ही ले लो। भरोसे का बना रहे, अतः इसे भी सम्हालना पड़ता है। छोटी सी बस्ती है... सब देखना पड़ता है। अब आप जैसे लोग भी ऐसा सोचेंगे तो...” बात अधूरी छोड़कर वह मेरी ओर एक भेद भरी नज़र डालते हुए अंदर चली गयी।
मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया। दस मिनट हो गये न मनोहर आया और न ही वह बाहर आई। मुझे भी थोड़ा-थोड़ा नशा होने लगा था और उसका बार-बार अंदर जाना भी जाने क्यों मुझे आशंकित सा कर रहा था। अब मैंने सोचा की अगली ‘होनी’ से बेहतर है चुपचाप निकल लूँ। मैंने गिलास में पड़ी व्हिस्की हलक से उतारी और खड़ा हो गया। दो कदम आगे ही अंदर की ओर खुलने वाला दूसरा दरवाजा था, जिसका पर्दा आधा खुला हुआ था। उस कमरे में रोशनी धीमी थी, फिर भी इतना दिख गया कि वह वहाँ दीवार से सटे पलंग पर अधलेटी है। यूँ ही बगैर कुछ कहे चले जाना असभ्यता होगी। अतः मैं उसके कमरे में पलंग के पास खड़ा होकर शब्द टटोलने लगा, क्योंकि वह उनींदी सी मेरी ओर ही देखे जा रही थी।
“मनोहर अब तक आया नहीं। आए तो कह देना कि मुझे कुछ जरूरी काम था इसलिए चला गया।” बड़ी मुश्किल से इतना कहकर मैं ज्योंही आगे बढ़ने को हुआ, “वो नहीं आयेगा।” कहकर उसने मेरा हाथ हौले से अपनी ओर खींचा। मैं चूँकि इस स्थिति के लिए तैयार न था और कुछ अल्कोहल का असर भी था, भरभरा कर उसके ऊपर गिर पड़ा। वो हँसने लगी। फिर बोली, “मैंने उसे बहाने से चलता कर दिया, क्योंकि मुझे उसके बात करने का तरीका कुछ जँचा नहीं।”
“और मैं ?” मैंने उठने का प्रयास नहीं किया।
“आप ! आप तो बस आप हैं। यकीन मानेंगे, मेरे इस कमरे तक कभी कोई यूँ ही नहीं आता।”
“बेकार की बात है। हम यूँ ही आ गये कि नहीं ?”
“यही तो... मुझे पता था तुम यही कहोगे। अच्छा बताओ, पिछले रविवार को तुम शाम को पिक्चर देखने गये थे ?” मैंने याद कर कहा – “हाँ, लेकिन तुम्हें कैसे पता ?”
“बस उसी दिन मैंने तुम्हें देखा था। देखा क्या, गोपाल ने दिखाया था।”
“गोपाल कौन ?”
“अरे वही रिक्शे वाला। जब मन उचटता है तो गोपाल को बुलाकर सिनेमा देखने चल देती हूँ, और करूँ भी क्या ? उसी ने बताया कि आप हाल में ही आये हैं। कॉलेज में पढ़ाते हैं और अकेले रहते हैं।”
“और इसीलिए तुम्हें मुझ पर तरस आ गया।” मैंने चुहल की।
उसने थोड़ा शरमाते हुए मेरे सीने में अपना मुँह छिपा लिया। हम कुछ क्षणों तक इसी तरह पड़े रहे। फिर वह अपनी दोनों कुहनियों पर शरीर का सारा बोझ डालते हुए चेहरा मेरे बिल्कुल पास लाकर बोली, “इस छोटी सी बस्ती के इस बंद-बंद कमरे में मेरा दम घुटता है। मेरे साथ बाहर चलोगे ?”
“बाहर ? बाहर कहाँ ?” मैं चौंका।
“कहीं भी... जबलपुर या...। जबलपुर ही चलते हैं। भेड़ाघाट घूमेंगे। पूर्णमासी के दिन, रात में वहाँ बहुत अच्छा लगता है। सब कुछ मेरी तरफ से। मैं, फर्स्ट क्लास कूपे में अपनी बुकिंग ले लूँगी, फिर उसमें कोई नहीं आएगा। तुम बस ऐन टाइम में स्टेशन पर आ जाना, मैं सब सम्हाल लूँगी। मेरी मौसी रहती है, गार्ड साहब जानते हैं, इसलिए उनकी कोई चिंता नहीं।”
बातों में मुझे रस आने लगा था, मगर घड़ी आठ बजा रही थी। न चाहते हुए भी मैं बोला, “अच्छा अब चलते हैं।”
“चले जाना। अभी तो प्रोग्राम बनाना शुरू किया है। अच्छा थोड़ा और रुको मैं तुम्हारे लिए एक ड्रिंक बनाती हूँ, उसे लेकर चले जाना।”
लौटी तो उसके दोनों हाथों में गिलास थे। आकर, धम्म से पलंग पर इस तरह बैठी कि मुझे रोमांच हो आया। वह एक गिलास मुझे देकर दूसरा स्वयं सिप करने लगी थी।
“इज़ इट फॉर रोड ?” मैंने हँस कर पूछा तो उसने धीरे से नकारात्मक सर हिलाकर उसे मेरे सीने में टिका दिया।
इस कमरे में कम रोशनी का कारण था इकलौता टेबल लैम्प, जो दीवार की ओर मुँह करके रखा गया था। इस कमरे में दो और दरवाजे थे। एक अंदर की ओर और दूसरा शायद सीधे बाहर बरामदे में खुलता था। नशा जो उतार पर आ रहा था, इस पैग के बाद फिर शूट कर गया। वह अपना ड्रिंक खत्म कर सीधी लेट गयी। उसके देह की गर्मी अब मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। अब मेरी इच्छा भी उसे आलिंगन में लेने की होने लगी। मैं इसके लिए ज्यों ही उसके ऊपर झुका तभी... मुझे ऐसा लगा कि कमरे में कोई दबे पाँव आया है। मैंने अपनी गर्दन घुमाकर शंका का समाधान करना चाहा तो उसने मेरा चेहरा अपने सीने में धँसा दिया।
चेहरा थोड़ा तिरछा दबा होने के कारण मेरी एक आँख खुली थी। मैंने देखा कि एक दस-ग्यारह साल का बालक सर झुकाए कमरे से गुज़र रहा था। कमरे में धीमी रोशनी के कारण कोई आकृति साफ नज़र नहीं आ रही थी।
मेरा मन उचट गया। सारा नशा हिरन हो गया। यद्यपि मैंने उसे आभास नहीं होने दिया कि मैंने लड़के को देख लिया है। पर अब मुझे एक पल भी वहाँ रुकना बहुत भारी लगने लगा।
शायद उसने मेरी मनःस्थिति भाँप ली थी। अतः मेरे “चलता हूँ, फिर मिलेंगे” कहने पर “अच्छा, पर इस तरह नहीं” कहा और हौले से अपनी गिरफ्त ढीली कर दी।
वह दरवाजे तक छोड़ने नहीं आई। बरामदे में अंधेरा था। आगे लान भी अंधेरे में डूबा हुआ था। मैंने मेन गेट धीरे से खोला और बाहर निकल आया। खुली हवा में एक लम्बी, गहरी साँस ली और मेन रोड पकड़ ली। कुछ दूर सीधे चलने के बाद पीछे मुड़ कर देखा तो चौथा बँगला बाहर से अब भी अंधेरे में ही डूबा हुआ था। हाँ ! अंदर वाले कमरे की धीमी रोशनी अवश्य रोशनदान से निकलने का प्रयास कर रही थी।
लगभग एक सप्ताह बाद मनोहर मिला। वह कहीं बाहर चला गया था। हम दोनों समान रूप से उतावले थे कहने-सुनने के लिए। मैंने उसे डांटते हुए कहा, “क्यों, मुझे अकेला छोड़कर भाग गये थे।”
“नहीं, बड़े भाई, बात कुछ जँच नहीं रही थी, सो मैं बढ़ लिया। लेकिन आप के लिए मैं सब सेट कर आया था। कोई ऐसी-वैसी बात तो नहीं हुई ना ? चलो कछु हमारे बतावे काजे हो तो बता दो। मन नई मान रौ।” मूड में आने के बाद वह अपनी बुंदेली में शुरू हो जाता था।
मैंने आगे का हाल कमेंट्रेटर की भाँति सुनाकर पूछा – “यार वो लड़का...”
“वो तो उसी का लड़का है।” मनोहर बड़े सहज ढंग से बोला।
“क्या ?” मुझे यकीन नहीं आया।
“हाँ बड़े भाई। वो उसी का लड़का है और सैनिक स्कूल में पढ़ता है। छुट्टियों में यहाँ आता है। पर, साब, वोए सब मालुम है।”
“तुम बकते हो।”
“नई साब, मोये तो गोपाल ने बताओ हे। वो काये खों झूठ बोले हे। कच्छू मत पूछो साब, पैंसन के काजे...” उसने बुरा सा मुँह बनाया।
मनोहर की बात मुझे अच्छी नहीं लगी। मैंने कहा, “नहीं, ऐसी बात तो नहीं लगती। अब मैंने ही उसे कोई पैसा नहीं दिया और न उसने माँगा।” मैं जानता था कि यह सुनते ही वह एकदम चौंक जाएगा।
“पैसे ! वो तो मैं गोपाल को पहले ही पकड़ा आया था। दो सौ, खाने-पीने के और...” वह फिर उसी सहजता से बोला।
अब चौंकने की बारी मेरी थी। मेरी सोच को बड़ा धक्का लगा और मैं अनमना हो गया।
इस घटना को गुजरे एक माह होने को आया लेकिन शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो कि उसकी याद न आई हो। किसी बहाने सही, अब मेरी उत्सुकता इस बात को लेकर और बढ़ गई थी कि आखिर वह क्या कारण है कि जिसके लिए वह यह सब करती है ? मेरा लेखक मन गोपाल को तलाशने लगा, लेकिन वह भी न जाने कहाँ गायब हो गया था।
एक दिन मुझे याद आया कि उसने कहा था कि वह संडे के दिन गोपाल के रिक्शे में पिक्चर देखने आती है। मैं अगले संडे शाम का शो शुरू होने के आधे घंटे पहले वहाँ पहुँच गया। रिक्शा स्टैण्ड में गोपाल को ढूँढा, पर वह नहीं मिला। मन बहुत उद्विग्न हो रहा था कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करुँ। दिलो-दिमाग से उसका चेहरा हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। सोचा रूम मे जाकर तो और बोरियत होगी। स्टेशन का एक चक्कर लगाया जाय, शायद कुछ मन बहले। रेल्वे क्रॉसिंग के आगे जहाँ से शार्ट कट शुरू होता था, मैं मुड़ते-मुड़ते अचानक मेर रोड की ओर चल पड़ा। शायद यह मेरे दिल का चोर था, क्योंकि मेन रोड में उसका बँगला पड़ता था।
जब बँगला तीन चार क्वार्टर आगे रह गया तो जाने क्यों दिल की धड़कन तेज हो गयी और चाल धीमी। बँगला उस दिन की तरह आज भी अंधेरे में डूबा हुआ था और अंदर वाले कमरे से धीमी-धीमी रोशनी बाहर की ओर फिसल रही थी। अचानक मेरे पैर उस गेट के सामने रुके और यंत्रचलित सा हाथ घंटी बजाने को उठ गया। कुछ पलों में ही वो गहरे कत्थई सलवार सूट में खुले बाल लिए दरवाजे में हाजिर हो गयी।
मैंने मुसकरा कर नमस्ते की। जवाब में उसने बगैर किसी उत्साह के सिर्फ सिर हिला दिया, जिससे मेरा सारा जोश ठंडा हो गया।
“अभी मैं खाना बना रही हूँ, आप फिर कभी आइएगा।” उसने बड़े ठंडेपन से कहा और मेरे मुड़ते ही दरवाजा लगा लिया। मुझे लगा कि मैं एकदम नंगा हो गया हूँ। सोचा, जितनी जल्दी इस इलाके से निकल जाऊँ अच्छा रहे लेकिन पैर ऐसे भारी हो गये थे जैसे उन पर मनों बोझ हो। रास्ते में कोई रिक्शा नहीं मिला। किसी तरह कमरे में पहुँचा और बगैर कपड़े बदले बिस्तर पर लुढ़क गया। सुबह देर से आँख खुली। सिर भारी था। लेकिन नौ बजे की क्लास थी सो जल्दी-जल्दी तैयार हो गया। कॉलेज दूर न था। अतः पैदल ही जाता था। अभी होटल से कुछ दूर ही निकला होऊँगा कि पीछे से एक रिक्शा आकर बगल में रुक गया। देखा तो गोपाल था। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। जिसे ढूँढते-ढूँढते थक गया वह मेरे सामने स्वयं आ गया। मैं कुछ बोलने को ही था कि वही बोला –
“साब, एक मिनट सुनेंगे।”
“हाँ-हाँ, बोलो, मैं खुद तुम्हे ही खोज रहा था।”
“आप कल वहाँ गये थे ?”
“हां, क्यों ? तुम्हें...”
“आइंदा आप वहाँ नहीं जाएंगे, बगैर मेरे।”
“लेकिन...”
“लेकिन वेकिन कुछ नहीं। हमने के दई बस।” उसकी भृकुटि जरा टेढ़ी हो गयी थी।
वह दिन और आज का दिन अभी तक मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई कि आखिर वह क्या मजबूरी थी....।
समाधान मिला तो अगली कहानी में मिलेंगे।

- शांतिनाथ नगर, टाटीबंध
रायपुर, छत्तीसगढ़- 492 099

3/10/2006

हमारे ब्लाग की लोकप्रियता


छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित दैनिक 'हरिभूमि' ने छत्तीसगढ़ राज्य से ब्लाग के माध्यम से संचालित हिन्दी की आनलाईन पत्रिका 'सृजन-गाथा' पर टिप्पणी प्रकाशित की है ।

3/09/2006

आज की कविता-1


पिंजरे में बंद तोता

पिंजरे में बंद तोता
सुन्दर दिखता है बहुते
उड़ते हुये तोते से
वह बोलता है मीठे-मीठे बोल
पुकारता है लोगों के नाम
गुनगुनाता है संस्कृत के श्लोक
बहुत सुन्दर है वह और
बहुत सुन्दर है उसकी बोली
मुग्ध हुँ ईश्वर की रचना से
पर क्षण भर भी खुला रखना
मंजूर नहीं पिंजरा
उसके स्वतंत्र हो जाने के भय से
भयभीत हूँ हर घड़ी
बंदी बनाने में ज्यादा खुशी है
या खुला आकाश बाँटने में
यह पाठ अभी मैंने नहीं पढ़ा है
00000000000

- विजय राठौर

आज की कविता-2


मेरा आकाश

ऊबड़-खाबड़ सड़क
धूल के गुब्बारे
ट्रकों की गड़गड़ाहट
मनुष्यों के रेले
फिर भी सूरजर उगता है प्रतिदिन
और डूबता है संध्याओं में
चिरन्तन जैविक संभावनाओं के साथ
चलता हुआ पार करता हूँ
हजारों पड़ाव
तमाम विसंगतियों के बावजूद
ओझल नहीं होता
मेरी निगाहों से मेरा आकाश
0000000000

-विजय राठौर

आज की कविता-3



खुद को पक्षी समझा करो

जिसके आकाश का कोई अंत नहीं
खुद को फूल समझा करो
जिसकी सुवास की कोई सीमा नहीं
खुद को पृथ्वी समझा करो
जिसमें सहनशीलता का है अक्षय-कोष
खुद को सूरज समझा करो
जिसके शब्द-कोष में अँधरारा होता ही नहीं
मनुष्य !
तुम्हारे घुटने पेट ढंकने के लिये मुड़ने चाहियें
या प्रार्थना के लिये/यह भी समझा करो कभी


- विजय राठौर
जांजगीर, छत्तीसगढ़

3/08/2006

भाई साहब - गिरीश पंकज



कहानी
वह मुझे गेटविक एयरपोर्ट में मिली थी। हम दोनों को पोर्ट ऑफ स्पेन के लिए उड़ान भरनी थी। सुनीता ने मुझे देखा तो अपनी ओर से हाथ बढ़ाते हुए अपना परिचय दिया। वह अँगरेजी बोल रही थी, लेकिन बीच में कुछ शब्द हिंदी के भी निकल रहे थे।
उसने अपना नाम सुनीता बताया था। वह भारतीय मूल की युवती थी। उसके पूर्वज डेढ़ सौ साल पहले गिरमिटिया मजदूर बन कर दक्षिण अमरीकी देशों में भटकते रहे और अब त्रिनिडाड मे रहते हैं। सुनीता के चाचा सूरीनाम में बस गए हैं।
“आप भारत से आ रहे हैं ?”
“जी, और आप ?” मैं सुखद आश्चर्य के साथ लड़की को देख रहा था, “आपकी तारीफ?”
“मेरा नाम सुनीता राम है। मैं त्रिनिडाड में रहती हूँ। दिवाली नगर के पास और आप ?”
“मैं महेश हूँ। दिल्ली में रहता हूँ। त्रिनिडाड जा रहा हूँ एक कवि सम्मेलन में।”
“ओह इट मीन्स यू आर ए पोएट। अच्छा रहेगा आपके साथ दस घंटे का सफर मजे से काट जाएगा ?” “काट जाएगा नहीं, कट जाएगा। बीत जाएगा ?”
“ओह सॉरी, मेरी हिंदी वीक है। थोरा-थोरा समझती हूँ। अभी सीख रही हूँ। ट्राई करती हूँ लेकिन देयर इज नो एनी एटमॉस्फियर इन त्रिनिडाड। मजबूरी में इंग्लिश बोलना पड़ता है।”
“आप जितनी अच्छी हिंदी बोल रही हैं, उतनी अच्छी हिंदी तो हमारे यहां हिंदी में एम.ए. करने वाले लोग भी नहीं बोलते।”
बात करते-करते गेटविक एयरपोर्ट आ पहुँचे। चेक इन किया और ड्यूटी फ्री शॉप के सामने पहुँच कर खड़े हो गए। दो कॉफी का ऑर्डर सुनीता ने दिया। दो पौंड भी उसी ने पटाए। कॉफी पीते-पीते मैंने गौर से देखा, सुनीता कहीं से भी वेस्ट इंडियन नहीं लग रही थी। लगती भी कैसे ? है तो भारतीय मूल की। थोड़ी सी साँवली है। लेकिन नाक-नक्श आकर्षित करने वाले हैं। सुनीता मुझे देखकर मुसकरा रही थी। फिर बोली, “क्या देख रहे हैं ? शायद सोच रहे होंगे कि किस ब्लैक-गर्ल से पाला पड़ गया। यहाँ चारों तरफ गोरे-गोरे चहरे नज़र आ रहे हैं।”
मैंने कहा – “आप ब्लैक गर्ल नहीं, ब्लैक ब्यूटी हैं। हमारे यहाँ आप जैसी कोई लड़की दिख जाए तो लोग पागल हो जाएं।”
सुनीता इतनी भी खूबसूरत नहीं थी कि मुझे इतनी बड़ी बात बोलनी पड़े। लेकिन तारीफ से वह और जीवंत बनी रहती। तारीफ से ऊर्जा मिलती है। ज्यादातर तारीफें झूठी होती हैं। बढ़ा-चढ़ाकर की जाती है। सामने वाला भी गलतफ़हमी में जीना पसंद करता है। यह भी जीवन जीने की अपनी शैली है।
“सुनीता जी, अपने बारे में तो कुछ बताइए। क्या कर रही हैं ? घर में कौन-कौन हैं?”
“मैं लंदन में एमबीए कर रही हूँ। पिता की खेती-बाड़ी है। एक फैक्ट्री है। माँ हाउस वाइफ है। भाई सूरीनाम में डॉक्टर है।एक छोटी सिस्टर है। अभी पढ़ रही है।”
“अच्छा है। छोटा परिवार सुखी परिवार।”
“आप अपने बारे में भी तो कुछ बताइए।”
“मैं... क्या बताऊँ। बैंक में हिंदी अधिकारी हूँ। शादीशुदा हूँ। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। दिल्ली के बसंतकुंज के फ्लैट में माता-पिता साथ रहते हैं। पत्नी डीडीए में अधिकारी है।”
“मतलब आपका भी छोटा परिवार, सुखी परिवार ?”
मैंने देखा, अब सुनीता के चेहरे पर हल्की-सी उदासी नज़र आने लगी थी। और वह उदासी छिपाने के लिए रह-रहकर मुसकराने की कोशिश कर रही थी।
“क्यों क्या बात है, अचानक फूल सा चेहरा उदास क्यों नज़र आने लगा है ?”
“ऐसी कोई बात नहीं, बस घर की याद आ रही है, इसलिए...”
“मुझे लगता है, कुछ और बात है, तुम कुछ छिपा रही हो ? सच-सच बताओ, तुम्हें मेरी कसम !”
इतना बोलकर मैंने सुनीता का हाथ पकड़ लिया। बस उसकी आँखें भर आईं।
“एक बार फिर मेरा सपना टूट गया, इसलिए उदास हो गयी हूँ।”
“कैसा सपना ?”
“सच बोल दूँ ?” सुनीता ने मेरी ओर एकटक निहारते हुए कहा, “मैं चाहती हूँ कि किसी इंडियन लड़के से शादी करूँ और इंडिया में ही कहीं बस जाऊँ। मेरे पूर्वज बिहार से यहाँ आए थे। बिहार का भी कोई लड़का मिल जाता। बिहार का न सही, भारत का हो, बस। लेकिन लगता है, यह इच्छा अधूरी रह जाएगी। आपको देखकर सोचा था, आप बेचलर होंगे। लेकिन...”
मैंने मजाक करने की गरज से यूँ ही कह दिया – “अगर आप कहें तो तलाक ले लूँ ? सोच लो ?”
मेरी बात सुनकर सुनीता उदास चेहरा लिये हँस पड़ी, “ना बाबा ना ! ऐसा सोचना भी पाप है। अपनी खुशियों के लिए दूसरे का घर उजाड़ना ठीक नहीं है। भले ही मैं मॉडर्न सोसाइटी में रहती हूँ। लेकिन मुझे अपनी जड़ें पता है। देश छोड़ दिया तो क्या, हमने अपनी संस्कृति तो नहीं छोड़ी है। हमारे परदादा अपने साथ रामचरित मानस लेकर यहाँ आए थे। मैंने उसे पढ़ा तो नहीं है, लेकिन उसकी चर्चा सुनती रहती हूँ। वह कितना ग्रेट एपिक है। मैं इंडिया के बारे में सुनती रहती हूँ। सीता, सावित्री, अनुसूइया, द्रौपदी, रानी दुर्गा एक से एक करेक्टर.....देवियाँ। ऐसे महान देश को याद करती हूँ तो मन करता है इंडिया में ही बसूँ। इसीलिए सोचती हूँ कि इंडियन लड़के से मैरिज हो जाए, लेकिन हमारा कल्चर यह नहीं सिखाता कि अपने सुख के लिए दूसरों का घर उजाड़ दो। आपका सुखी जीवन मैं बर्बाद नहीं कर सकती।”
“मैंने तो बस यूँ ही मजाक कर दिया था। आपने तो इसे काफी सीरियस ले लिया।” मैंने हँसते हुए कहा, “खैर, टॉपिक चेंज करते हैं। आप हिंदी फिल्में तो जरूर देखती होंगी। हिंदी गाने भी खूब सुनती होंगी।”
“हाँ, मुझे हिंदी गाने बहुत पसंद है। त्रिनिडाड में सात रेडियो स्टेशन हैं, इनमें से पाँच स्टेशन तो सुबह-शाम हिंदी गाने ही बजाते रहते हैं। एक सिनेमा हॉल में तो अक्सर इंडियन मूवी लगती रहती है।”
सुनीता फिर गंभीर हो गयी थी। मैं भी बहुत देर तक चुप रहा। समय काफी हो चुका था। पोर्ट ऑफ स्पेन जाने वाला ब्रिटिश विमान काँच के पार साफ-साफ दिखाई दे रहा था। एनाउंसमेंट भी शुरू हो चुका था। हमने अपने-अपने बैग उठाए और विमान की तरफ बढ़ चले। सुनीता और हमारी सीटें इकॉनामी क्लास में थी। लेकिन अलग-अलग। सुनीता ने मेरे बगल बैठे ब्रिटिश पैसेन्जर से आग्रह किया कि वह उसकी सीट में चला जाए तो हम लोग एक साथ यात्रा कर सकेंगे। ब्रिटिश यात्री भला था। वह पता नहीं क्या सोचकर मुसकराया और ओक्के, नो प्रॉब्लम बोलकर उठ गया।
सुनीता खिड़की के सामने वाली सीट में बैठ गयी। और मुसकराते हुए बाहर देखने लगी। फिर मुझसे बोली, “खिडकी के पार देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ये हवाई जहाज जब पचपन हजार फुट ऊपर उड़ता है, तब तो और मजा आता है। खिड़की के बाहर जैसे एक माया लोक बनता है। सागर को देखो। बादलों को देखो, एक अनोखी दुनिया से रू-ब-रू होते चले जाते हैं हम।”


मैं समझ रहा था कि सुनीता टॉपिक बदल चुकी है। अब शादी वाली बात छेड़ना ही नहीं चाहती, लेकिन मुझे लग रहा था कि एक बार जिक्र छेड़ूँ। चाची का लड़का है। वह भी अमरीका में पढ़ रहा है। दो-चार साल बाद दिल्ली लौट आएगा। लेकिन बात शुरू करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
मैंने दूसरी बात शुरू की – “कभी दिल्ली आने का कार्यक्रम बनाओ न। ऐसे ही घूमने। मेरे ही घर आकर रुकना। पत्नी तुम्हें दिल्ली घुमा देगी। पास में आगरा है। ताजमहल भी देख लेना।”
ताजमहल का नाम सुनकर सुनीता मुसकरा पड़ी – “इसे देखने की इच्छा है। मोहब्बत की निशानी है न । पता नहीं कब मौका लगे। बहुत इच्छा है इंडिया घूमने की। लेकिन सपने सपने ही रह जाते हैं। सपने टूटने के लिए ही बनते हैं शायद। लेकिन कभी न कभी जरूर आऊँगी।”
बहुत देर तक बातें होती रही। मैंने देखा सुनीता जमुहाई ले रही है। अब मैं खामोश हो गया। थोड़ी देर बाद सुनीता नींद की आगोश में थी। वह घंटों सोती रही। बीच-बीच में वह आँखें खोलकर मेरी तरफ देखती और मुसकरा देती। मैं भी मुसकरा कर जवाब दे देता।
दस घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला। मेरा पूरा सफर नीले सागर को देख-देखकर कट गया।
पोर्ट ऑफ स्पेन में जब हवाई जहाज उतरा तो शाम हो चुकी थी। मैंने कहा – “चलो, मेरे साथ युनिवर्सिटी। वहाँ फंक्शन है। उसे अटेंड कर लेना।”
सुनीता बोली – “नहीं, मैं सीधे घर जाऊँगी, भाई साहब। मम्मी डैडी इंतजार कर रहे होंगे। टाइम मिले तो कल घर आइए। हम सबको अच्छा लगेगा।”
सुनीता ने अपने घर का पता मेरी ओर बढ़ा दिया। विजिटिंग कार्ड पर नाम लिखा था राम कुटीर। यह पढ़कर बेहद खुशी हुई। इससे भी ज्यादा खुशी इस बात पर हुई कि सुनीता ने मुझे भाई साहब कह कर संबोधित किया था। मैं रोमांचित हो रहा था। मैंने मुसकराते हुए सुनीता का कंधा थपथपाया – “जरूर आऊँगा। आपके घर आना मुझे अपने घर आने की तरह लगेगा।”
चेक आउट करके हम लोग साथ-साथ ही बाहर आए। एयरपोर्ट पर सन्नाटा पसरा हुआ था। चारों तरफ मोटे-तगड़े काले-सांवले वेस्ट इंडियनों का देखकर भय लग रहा था। उनकी अंगरेजी ठीक से पल्ले नहीं पड़ रही थी। फिर भी मैं टूटी-फूटी अंगरेज़ी में उन तक अपनी बात पहुँचा सकता था। लेकिन मेरी मुश्किल हल कर दी सुनीता ने। एक टैक्सी ड्राइवर को पास बुलाया। उसका नाम सुखराम था। लेकिन वह हिंदी नहीं बोल सकता था। सुनीता ने उससे अंगरेजी में ही बात की और कहा इन साहब को युनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट इंडीज के कैम्पस में पहुँचा देना। ज्यादा किराया मत लेना। ये हमारे इंडियन गेस्ट हैं।
मैं टैक्सी में बैठ गया। बैठने के पहले सुनीता ने हाथ मिलाया और कहा – “ओके भाई साहब, अपना ध्यान रखना और टाइम मिले तो घर जरूर आना।”
“जरूर आऊँगा।”
टैक्सी आगे बढ़ गयी। मैंने पलट कर देखा, सुनीता बहुत देर तक हाथ हिलाती रही। शायद तब तक जब तक टैक्सी आँखों से ओझल नहीं हुई।


0 गिरीश पंकज
जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर

3/07/2006

बाज़ारः एक परिभाषा



होना फ़रा जगह
ढ़ेर सारे असबाब के
लिए
मी के लिए नहीं के रोबर
घर में
-जयप्रकाश मानस