2/28/2006

पाँच नवगीत

छाँह में किस गाछ की

दूर कितनी दूर
हम घर से
और बादल
राह मे बरसे ।

झर रहे ये
फुहारा के फूल
धारासार
और हम सहते
शेरा की
एक मीठी मार

काँपती लौ
जुगनुओं की
तिमिर के डर से ।

दस्तकें देते रहेंगे
स्यात् कोई
शब्द सुन चौंके
खिड़कियों पर
किवाड़ों पर
वहा के झौंके

द्वार तक आये
दिया ले
अचक भीतर से ।

छाँह में
किस गाछ के
हम भीगते हैं मौन
रात के सुनसान क्षण में
जान पाया कौन

पूछते हम
स्वयं अपनी
साँस के स्वर से ।

आ बसे हम राजधानी में

नयी में
अथवा पुरानी में
पात्र हैं हम हर कहानी में।

हम समय के साथ क्या दौड़े
कट गये अपने पुरातन से
पर नहीं अब तक भुला पाये
याद कल की, एक पल मन से

आधुनिकता
सोन हिरनी-सी
रही छलती ज़िंदगानी में।

अनगिनत बेनाम चेहरों में
यहाँ कोई नहीं अपना है
साथ बुझती हुई आँख के
एक टूटा हुआ सपना है

छत नहीं कोई
कहीं सिर पर
धूप, आँधी और पानी में।

फूल अलसी और सरसों के
फिर नहीं वैसे कभी फूले
हैं कहाँ वे नीम औ’ बरगद
डाल जिनका थाम कर झूले

बन्धु !
गँवई गाँव से चलकर
आ बसे हम राजधानी में।


यह अपरिचय और यह चुप्पी

कौन है
जिसने तुम्हारे चेहरे की मुस्कुराहट
नोंच डाली है।

सुनो तुमको इन दिनों
यह क्या हुआ है
क्या तुम्हें भी
लग गयी
निर्मम समय की बद-दुआ है

खुशबुओं, फूलों भरा
आँचल तुम्हारा
दीखता क्यों आज ख़ाली है।

यह अपरिचय
और यह चुप्पी
कहाँ से आ गयी है
वह दरो-दीवार पर
नीली उदासी
चील-सी मँडरा रही है

आइने पर
जम गयी क्यों धुँधलके की
एक गुमसुम पर्त्त काली है।

दूर कितना जा बसीं हमसे
हमारी दूसरी औ’ तीसरी
वे पीढ़ियाँ
अब हमें यों ही उतरनी चढ़नी
उम्र की ये शेष सीढ़ियाँ

कहो सुनकर ओस भीगी पाँखुरी-सी
दीठि क्यों छिपाली है।

बहुत दिन बीते

मञ्च यह ख़ाली करें, आओ।

हमें गाते-गुनगुनाते
बहुत दिन बीते
स्वरों की प्रतियोगिता में
कभी हारे, तो कभी जीते

लोग सुनना चाहते अब
और लोगों को
बन्धु ! मत बूढ़े स्वरों से
इस सभा को और ललचाओ।

हैं तुम्हारे पास वे ही
बादशाह, गुलाम, बेग़म और इक्का
खेल में जिनके सहारे
एक युग तक तुम जमाये रहे सिक्का

तुरुप के पत्ते सरीखी
नयी पीढ़ी आ रही है
जो न बख़्शेगी किसी को
खौफ़ कुछ खाओ।

ये तुम्हारे बिम्ब और प्रतीक कितने
हो चुके अब बे-असर, पोले
बहुत दिन तुमने निकाले
बन्द मुँह से
शब्दछल के जादुई गोले

नया गढ़ने के बहाने
मत विगत को और दुहराओ।

चलो, दर्शक मण्डली के बीच बैठें
सहज होकर भूला जाओ तुम कभी थे
सूत्रधार, नायक, विदूषक
तुम समय के सँग चले थे

अब समय के साथ ही
इतिहास बन जाओ।

खड़ी करें रेती पर मीनारें

पलभर के इस सुख को
आँगन से कमरे तक आ पहुँचीं
छिटक-छिटक चिड़ियों के बच्चों-सी
बरखा की बौछारें।

फ़र्श पर फुँदकती फिर
आ बैठीं कन्धों पर
सिहराते छुअन भरे
वत्सल सम्बन्धों पर

इस घर में यह अन्तिम मेघ-पर्व
फिर हमसे बिछुड़ेंगे
ये खिड़की, दरवाज़े, दीवारें।

मेघों की झोली से
झरती जल की खीलें
जी करता
फुहियों को अँजुरी में भर पीलें

छोटे-छोटे सुख के
हर सोनल सपने की
खड़ी करें रेती पर मीनारें।

हंसों की पाँतों-से
उड़ते पाँखों के बल
इधर-उधर
दल-के-दल रंग-बिरंगे बादल

जीवन के शाश्वत जलते वन में
पल भर के इस सुख को स्वीकारें।

(देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ हिन्दी के वरिष्ठतम नवगीतकार हैं । इनकी रचनात्मकता के लिए सृजन सम्मान द्वारा वर्ष 2004 का विश्वम्भरनाथ ठाकुर पुरस्कार से नवाजा गया है । संपादक)

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