2/28/2006

तलाश जारी है

अभी कल की ही बात है, दो दिन की ताबड़-तोड़ तलाश के बाद मेरा पर्स मिल गया, बस वह तलाश निपटी ही थी कि अब भ-हार्न की तलाश शुरू हो गई, जिसे मैंने टेबल पर रख दिया था, पर न जाने कहाँ खो गया। ढूँढे जा रहा हूँ, मुझे विश्वास है कि वह कहीं गया नहीं, यहीं आसपास होगा, पर भगवान की तरह मिल नहीं रहा और मेरी तलाथ जारी है। ऐसे ही हम सब लोग, अक्सर कुछ न कुछ ढूँढते ही रहते हैं और न मिलने से चिन्तित परेशान होते रहते हैं। यह तलाश हमारा पीछा ही नहीं छोड़ती।
इसके लिये कभी हम अपने भुलक्कड़पन को या कभी स्मरण शक्ति को अथवा धीरे-धीरे आते जा रहे बुढ़ापे को कोसते रहते हैं। पर असलियत यह है कि इसका बुढ़ापे से कोई संबंध नहीं। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी अपनी-अपनी तरह से अपने लिये किसी न किसी चीज के अथवा व्यक्ति की तलाश में जुटे रहते हैं। सबका वह भगवान रोज कोई न कोई ऐसी चीज ढूँढ ही लेता है, जिसे हम चाहते और ढूँढते रहते हैं। ऐसा करते-करते जब सांसारिक चीजों को ढूँढने से हमारा मन ऊबने लगता है तो फिर भगवान को ढूँढने व उसे पाने में हम अपना मन लगाते रहते हैं। बस कुछ ऐसे ही जीवन भर हमारी तलाश जारी रहती है।
इस तलाश के जाल में मैं अकेला नहीं हूँ। जी का जंजाल बनी इस तलाश में लगभग सभी फँसे हैं। हर जीवित प्राणी को किसी किसी की तलाश है। यह तलाश मरने के बाद बन्द हो जाती हो इसका मुझे पक्का ज्ञान तो नहीं पर कभी-कभी लगता है कि मृत्यु उपरान्त स्वर्ग या नरक पाने अथवा वहाँ की वस्तुओं / सुविधाओं की तलाश फिर जारी रहती होगी। अगर आप किसी तरह हिसाब लगा सकें तो पता चलेगा कि वह समय जिसमें हमने कोई तलाश नहीं की, बहुत थोड़ा सा ही होगा। अगर हम धनवान नहीं, एक साधारण आदमी हैं, तो हमें थोड़ा अमीर बनने की तलाश रहती है। अगर कुछ थोड़ा कमा लिया तो फिर और ज़्यादा कमाने व और अमीर बनने की तलाश शुरू हो जाती है। अमीरी की भूख तो कभी शान्त होती ही नहीं। अगर करोड़पति हो गये तो इतने अरबपति दिखने लगते हैं कि उनकी ओर ताकते-ताकते वैसा बनने के तरीकों की तलाश शुरू हो जाती है। एक बच्चा है तो उसे तलाश है कुछ पसन्दीदा खाने-पीने या खिलौनों की या माँ-बाप रिश्तेदारों के प्यार और दुलार की। थोड़ा बड़ा हुआ कि तलाश शुरू हो गई मित्रों के सहयोग व आदर की। विद्यार्थी है तो उसे तलाश है अच्छे गुरू की, अच्छे स्कूल कॉलेज की, परीक्षाएँ अच्छे नंबर से पास करने की, जरा और बड़े हुए तो तलाश है अच्छी नौकरी की, पदोन्नति की, अच्छी पदस्थापना की, सुन्दर बीवी बच्चों की, अच्छे पारिवारिक जीवन की। तलाशों का अन्तहीन सिससिला लगातार जारी है। दुकानदार को तलाश है, अच्छे मुनाफा देकर खरीदारी करने वाले ग्राहक की, शिक्षक को तलाश है योग्य विद्यार्थी की, वकील को तलाश है मोटी फीस देने वाले मुवक्किल की, पुलिस को बदमाश की, जज को अपराधी की, डॉक्टर को मरीज की, पति को पत्नी की, गुरू को चेलों की आदि-आदि।
मुझे तो इसमें उस चतुर चितेरे की कुछ चंचल चाल सी लगती है जो उसने सारी चीजों को हमारे आसपास ही संजोकर रखा है और मानव की तथा सृष्टि की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि हम सब हमेशा कुछ न कुछ तलाशते रहते हैं तो कुछ मिल जाता है – जिन खोजा तिन पाइयाँ और कुछ देर के लिये हम खुश व सुखी हो लेते हैं और जल्दी ही फिर किसी नई तलाश में अपना मन लगाकर अपने लिये कुछ नई चिन्ताओं और परेशानियों को बटोर लेते हैं। इस तलाशने, पाने और न पाने के बीच सुखी व दुखी होते सारा जीवन निकल जाता है।
कहा जाता है जल ही जीवन है। पर मेरा मत है कि जल की भाँति जीवन की सक्रियता, चंचलता, व्यस्तता का प्रमुख आधार यह सतत् चलने वाली, छोटे-छोटे टुकड़ों से एक लम्बी कड़ी बनी तलाश ही है। कभी इसकी, तो कभी उसकी। कभी मीठी, कभी नमकीन। नमकीन के बाद ही मीठा अच्छा लगता है। मीठा-मीठा सा लगे इसीलिये नमकीन बनाया। तलाश का अन्त प्राप्ति में हो तो उसका मीठा अहसास कराने के लिये बीच-बीच में असफलताओं, देरी के नमकीन को रचा। हर इन्सान अच्छे की तलाश में अपना सारा जीवन लगा देता है। कई बार तो लोग यह नहीं जानते कि वह तलाश क्या कर रहे हैं और उसे न पाने के कारण दुखी होते रहते हैं। कई मर्तबा अच्छे या बुरे की सही पहचान न कर पाने से लोग जो तलाश किया उसे पाकर भी दुखी हो जाते हैं। अच्छे की तलाश में चक्कर-घिरनी सा घूमता इन्सान सारा जीवन बीता देता है। इन्सान की तरह भगवान भी क्या अच्छों को न तलाशता होगा ? वर्तमान में चल रहे कलियुग में असत्य का, झूठ का, अनीति का, भ्रष्टाचार का, अपराधों और पापों का, बड़ों के अनादर व अपमान का, गुणीजनों के निरादर का, चालू धोखेबाजों के आदर और सम्मान का, श्रद्धालु जनों की उपेक्षा का, छली कपटियों की ऊँची उड़ान का युग बड़ी शान से चल रहा है। झूठों-दगाबाजों का बोलबाला है, सच्चे का मूँह काला है। इस कलियुग को सतयुग में बदलने के लिए उस सर्वनियन्ता भगवान को भी तो भ्रष्टाचार को सदाचार बना देने वाले पथभ्रष्ट मानव को बदलने के लिये, अच्छो की तलाश होगी। उसे भी तो अपने गोपनीय संगठन से सही जानकारी प्राप्त कर अच्छों की तलाश कर उन्हें प्रोत्साहित व प्रेरित कर उन्हें पृथ्वी स्वर्ग, नरक जैसे लोकों के महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना होगा। इसीलिये कई बार वह अच्छे-अच्छे युवाओं को भी जल्दी बुलावा भेज देता है। भगवान की लीला अपरम्पार है। हम तुच्छ प्राणी उसे समझ ही कहाँ पाते हैं ?
समग्र विचार से लगता है कि जब तक तलाश जारी रहेगी तो चिन्ता व परेशानी बनी रहेगी। और तलाश पूरी होने पर ही चैन व सुख मिलेगा। यानी तलाश है तो चिन्ता है, दुख है। तलाश बंद हुई कि चैन व सुख आया। तो इस तलाश से छुटकारा कैसे मिले ? सिर चकराया और एक सस्ता सा हल सामने आया। यदि हम मानवगण, जो हमारे पास है उसमें संतोष करना शुरू कर दें, तो तलाश के चक्र से बचकर आनन्द पा सकते हैं। हमारे पूर्वजों, सन्तों, मुनियों, ऋषियों ने इसीलिये कहा भी है ‘संतोषी सदा सुखी’। सन्तोष ही हमारे सुख का मजबूत आधार है। निरर्थक तलाश छोड़ो और जो कुछ है उसमें सन्तोष कर भगवान का धन्यवाद करो। पर इस सन्तोष का अभिप्राय या पर्याय अकर्म नहीं हो सकता। इसी समस्या का निदान भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता के द्वितीय अध्याय में अपने जग-प्रसिद्ध शब्दों – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” अर्थात् “कर्म करो, फल की चिन्ता मत करो” में दिया है। यह फल की तलाश ही हमारे दुखों का कारण है। उसे भगवान पर छोड़ो। उसकी शरण में जाओ। पर वाह री तलाश। तेरे रूप अनेक, चेहरे अनेक। कर्मणा गहनों गति। हमारी तलाश सदा की तरह अभी भी जारी है।


देव प्रकाश खन्ना
जानकी एन्कलेव, चूनाभट्टी, कोलार रोड़
भोपाल, मध्यप्रदेश- 462016

(श्री खन्ना मध्यप्रदेश के सेवानिवृत पुलिस महानिदेशक हैं । वर्तमान में त्रैमासिक देवभारती के संपादक हैं । सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ द्वारा पंचम अ.भा.साहित्यमहोत्सव में उन्हें भाषा सेवा के लिए राजकुमारी पटनायक सम्मान-2004 से अलंकृत किया जा चुका है । संपादक)

1 टिप्पणी:

Yatish Jain ने कहा…

तलाश की तलाश बहूत अच्‍छी है,
जिन्‍दगी एक तलाश ही तो है
और वो भी ऐसी जो
तलाश से शुरू होती है
और तलाश करती हुयी
खत्‍म हो जाती है.
रह जाती है तो एक तलाश,
जो खत्‍म नही होती.
यतीष जैन