2/28/2006

कविता


खंण्डहर

अठारह वर्षों के अन्तराल के बाद
देखकर इन्हें अहसास हुआ
कितना बुढा़ गई है ज़िन्दगी
खिला करते थे गुलाब कभी यहाँ
मंडराती थी उन पर
रंग-बिरंगी तितलियाँ
गुनगुनाते भौंरे आज भी
आकर लेते हैं धूप आज भी
आकर लेते हैं धूप आँगन में
टूटी खिड़की से चाँदनी
आ धमकती है
आज भी मगर
बुझी-बुझी वीरानी याद दिलाती है
उस आलम की
ढूँढने आ पहुँचे
तलाश रहे हर ओर
बिखरे जज़्बात सिसकती मजबूरियाँ
घायल मन या तड़पता आलम
शायद मिट्टी में दबी
गुम हो चुकी खुशियाँ
फिर से मिल जाएँ वरना
उनकी यादों को सीने से लगाए
लौट जाएँगे
खण्डहरो
ना पुकारों हमें
ज़ख़्म हो गए
फिर से हरे
जी लेंगे किसी भी तरह


0अंजु दुआ जैमिनी
द्वारा- श्री यशपाल गोगिया
डी-7, नवभारत अपार्टमेंट, पश्चिम विहार
नई दिल्ली- 110063

भारतीय कविताः असमिया

असमिया कविता की यात्रा
(मूल्याँकन)
आसाम प्रान्त की भाषा असमिया कही जाती है। अठारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में आसाम का इतिहास अत्यन्त शिथिल एवं गतिहीन रहा। घरेलू विद्रोह, बर्मी आक्रमण और अफीम का घातक व्यसन इसके कारण हैं। सन् 1854 में जब समूचे आसाम को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया तब अपने गौरव के मद में डूबी आसाम की जनता की नींद टूटी। जब होश आए तब तक अंग्रेजी थोपी जा चुकी थी। इस नीति के विरुद्ध पियलि फुकन मलिराम देवान, आदि ने विद्रोह किया जिन्हें फाँसी की सजा दे दी गई। आसाम ने इस प्रकार इस युग में केवल अपनी स्वतंत्रता को ही नहीं खो दिया अपितु भाषिक स्वतंत्रता भी जाती रही। सन् 1836 ई. में आसाम के स्कूलों तथा अदालतों से असमिया भाषा को निष्कासित कर दिया गया और उसके स्थान पर बंगला भाषा का प्रचलन किया गया। पादरी रेवरेन्ड नैथन ब्राउन और ओ.टी. कौटर ने धर्म प्रचार के लिए असमिया भाषा सीखी और असमिया की पहली पुस्तक प्रकाशित की। इसके पूर्व असमिया को बंगला की एक गौणभाषा मानी जाती थी, जिसका कोई साहित्य नहीं था।
कई उठापटक के बाद सन् 1872 ई. में आनन्दराम ढेंकियाल फुकन के प्रयत्नों से असमिया को अपना उचित स्थान प्राप्त हुआ। मसीही धर्म प्रचारकों के माध्यम से असमिया बाषा पनपी और साहित्यिक रूप प्राप्त कर सकी। आधुनिक असमिया साहित्य का इतिहास यह है कि पहले तो धर्म प्रचारकों और आसाम के कुछ लोगों ने असमिया भाषा को उसका उचित स्थान दिलाया और फिर कुछ अधिक जागरुक लोगों ने यह अनुभव किया कि स्वाधीनता छीन जाने और उसके बाद की सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा से देश की स्थिति क्या से क्या हो गई है ? पर राष्ट्रीय भावना को परिपक्व रूप में प्रस्फुटित होने में कुछ समय लगा। राजा राममोहन राय के समकालीन श्री आनन्दराम ढेकियाल फुकन ने असमिया लोगों में राष्ट्रीय भावना फूँकी और उनमें जागृति लाई। सन् 1853 में मनीराम दीवान ने आसाम पर अंग्रेजों के अधिकार की विस्तृत आलोचना की। स्व. लक्ष्मीकांत बेजबरुआ को असमिया साहित्य के भारतेन्दु और द्विवेदी के रूप में हम पाते हैं। हेमचन्द्र बरुआ और गुणाभिराम बरुआ आदि ने जो परंपरा स्थापित की, बाद के कवियों-लेखकों ने उसी का विर्वाह किया। गत और विगत शताब्दी के बीच रचना करने वाले कुछ लेखकों में देशभक्ति की यह भावना और भी स्पष्ट रूप से प्रखर और उत्कट रूप में प्रकट हुई। इस प्रकार की रचनाओं में साहित्यिक प्रतिभा न रही हो ऐसा नहीं है। हेमचन्द्र बरुआ के कार्यों को इन्होंने पूरा किया। वस्तुतः एक राष्ट्रीय कवि व युग चेतना के मार्गदर्शक स्व. लक्ष्मीकांत बेजबरुआ के उदय से असमिया साहित्य में संजीवनी शक्ति आ गई, अपितु समग्र भाव जगत में नवीन स्पंदन छा दिया, एक नवीन चेतना का संचार किया। राष्ट्रीय जागरण की यब भावना देशभक्त कमलाकांत भट्टाचार्य के गीतों और लेखों में मुखरित हुई। श्री भट्टाचार्य ने “चिन्तानल” नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखा था – “न जाने असमिया कब एक होंगे।” अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा है – “आसाम की शिल्प-कृतियों से प्रेरित होकर किसी न किसी दिन लोग पुनः गौरव प्राप्त करेंगे। उस दिन इस महत्वपूर्ण दिख पड़ने वाले प्रस्तर खंड से सैकड़ों मैजिनियों का जन्म होगा। सैकड़ों ‘गैरीबाल्डी’ जन्म लेकर भारत भूमि को आलोकित करेंगे।” इसी काल में ही मातृभूमि के प्रति ममत्व, उनके सम्मान की रक्षा के लिए आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रत्येक हृदय में हिल्लोर लेने लगी थी। असमिया काव्य-साहित्य भी इसी युग में राष्ट्रीय कविताओं द्वारा सबसे अधिक समृद्ध हुआ जिसका समारंभ इन्होंने ही किया था और आगे “जोनाकी” साहित्य गोष्ठी द्वारा विकसित हुआ।
“चन्द्रकुमार अग्रवाल (1858-1938ई.) लक्ष्मीकांत बेजबरुआ (1867-1938) और हेमचन्द्र गोस्वामी (1872-1928) इन तीनों महान लेखकों को वर्तमान असमिया साहित्य का निर्माता कहा जाता है। “जोनाकी” (जुगनू) नाम पत्रिका का शुभारंभ इसी मित्रमंडली ने कोलकाता में अध्ययन करते हुए किया था। उसने देशप्रेम की नई लहर से आधुनिक असमिया साहित्य में नवजीवन का संचार किया। स्वदेशप्रेममूलक “वैरागी और वीणा” की तरह बहुत ही उच्च स्तर की है। सौंदर्य की खोज, मानव प्रीति, वेदान्तिक प्रभाव, नूतन समाज का आह्वान और आशावाद चन्द्र कुमार की कविता की विशेषताएं हैं। (डॉ. सत्येन्द्र नाथ शर्मा, असमिया साहित्यर इतिवृत्त)”
प्रारंभिक बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रतिभाशाली लेखक बेजबरुआ हैं। उनके जीवन का अधिकांश समय हावड़ा और सम्बलपुर (उड़ीसा) में बीता। किन्तु वे चाहे जहाँ भी रहे हों उनका मन सदा आसाम के पार्वत्य रमणीय प्रदेशों में रमता रहता था। उनकी “वैरागी और वीणा” कविता असमिया में देशप्रेम संबंधी सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसके कुछ भाव ये हैं:-
“ओ ! वैरागी,
अपनी वीणा पर
मंद मधुर धुन छेड़,
मेरे हृदय को शांति मिले
तेरे शब्द, मैं नहीं समझ पाता
किंतु तेरी वीणा माधुरी
नस-नस में व्याप्त है मानो
जन्म-जन्मांतर से उसे ही सुनता रहा हूँ,
उस दूर लोक की मादक स्मृति
रह-रह कर जगाता तू
अपनी उस वीणा से
ओ वैरागी !”
उन्होंने कई ऐतिहासिक नाटक भी लिखे हैं, जिनमें से दो हैं – ‘बेलिमार’ (आसाम की स्वतंत्रता का सूर्यास्त) और ‘चक्रध्वजसिंह’ जो रामसिंह की पराजय पर आधारित है। “मेरा देश” नामक उनका एक गीत संग्रह आसाम का राष्ट्रगीत स्वीकारा जा चुका है।
असमिया काव्यों में मधुसूदन के प्रभाव से राष्ट्रीय भावना को बल मिला। अम्बिका गिरिराय चौधरी सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी हैं वे राजनैतिक आन्दोलनकर्त्ता और देशभक्त हैं। उनकी “इन्द्र धनुष” की कुछ पंक्तियों में उन्होंने कहा है – “मैं विद्रोही ! मैं आराधक!” इसमें उन्होंने सामाजिक दुर्गुणों की निन्दा की है। राजनैतिक बंदी के रूप में राय चौधरी ने जेल में राजनैतिक स्फूर्ति पैदा करने वाली अनेक कविताओं की रचना की है। इनमें रौद्र रस का प्राधान्य है। उनकी कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं –
“मेरे गीत हर्ष या आल्हाद के नहीं
जिनसे श्रांत भुजाओं में स्फूर्ति आ जाये।
मेरे स्वर अग्नि वीणा के स्वर हैं
जिसकी ज्वाला से शिथिल और
द्रुतगामी दोनों ही में स्फूर्ति का
संचार होता है।”
विनन्द्र चन्द्र बरुआ की रचनाओं में देशप्रेम का बाहुल्य है। ये राष्ट्रीय चेतना के कवि हैं। “शंखध्वनि” और प्रतिध्वनि, “रंगाभुवावीर”, “आगिया ठुठिर वीर” जैसी मनोरम देशात्मबोधक करुण रस से सिक्त कविताएं संग्रहीत है।
शैलधर राजरखोवा ने भी सुन्दर देशप्रेम प्रेरक रचनाएं की है।
सूर्य कुमार भुइयाँ की “आपोनसुर” कविता एक उल्लेखनीय आव्हान-रचना (ओड़) है, जिसमें प्रेम का गुणगान किया गयाहै। उनकी “टिपामर डेका”, “असमगौरव” जैसी देशप्रेममूलक विवरणात्मक कविताओं ने अत्यन्त ख्याति पायी है।
डिम्बेश्वर मेओम की रचनायें वर्णनात्मक हैं। “इन्द्रधनुष”, “शापमुक्ता”, “स्वर्गपुरी”, “मोरगाँव”, “बुरजी लेखक” जैसी उनकी उच्च कोटि की देशप्रेम मूलक कविताएं हैं।
1942 ई. के आन्दोलन के पश्चात नवयुवक समाजवाद की ओर झुके और मार्क्सवादी सिद्धांतों की ओर आकृष्ट हुए। उनके दृष्टिकोण में स्पष्ट परिवर्तन आया। आधुनिक असमिया साहित्य में जो राष्ट्रवादी चेतना आई थी, उसके कारण समय-समय पर दलित लोगों की आवाज मुखर हो उठती थी। अब उतनी भाव-प्रवणता नहीं रह गई। 1946 में आधुनिक असमिया कविता का जो काव्य संग्रह निकला उसमें तरुण लेखकों ने पूंजीवादी शोषण और जाति भेद के विरुद्ध आवाज उठाई और परिस्थितियों को बदलने का बीड़ा उठाया। ज्योति प्रसाद अग्रवाल की रचनाओं से प्रकट यह होता है कि किस प्रकार एक देशभक्त कवि देशभक्ति की उमंगों को छोड़ स्वयं सेनानी बन गया। उनके बाद के गीत क्रांतिमूलक हैं। नई कविता का स्वर अटूट आत्मविश्वास और जीवन संघर्ष से मोर्चा लेने के उत्साह का स्वर है। केशव महन्त की कविता इस प्रकार है –
“मुत्यु पर भी विजय प्राप्त करने वाले अमर वीर
जिनके नाम पर नये युग के नये इतिहास रचे जाते हैं,
कभी मरते नहीं।
आज दिन भी जीवित हैं,
युग-युगान्तर में मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हुए,
जीवन-ज्योति को उन्होंने जलाये रखा है।”
हितेश्वर वरबरुआ की “मुख्य गामारु” में यशोगान एवं राष्ट्रीयता का उदघोष मुखरित हुआ है। इनके काव्य राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत होने के कारण अत्यन्त प्रभावोत्पादक है।
नीलमणि फुकन का अंतिम ग्रंथ “शतधारा” है, जिसमें गांधी जी और विनोबा बावे से प्रभावित कवितायें हैं।
दंडिनाथ कलिता के “असम-संध्या” काव्य में असम की स्वतंत्रता-रवि के डूबते क्षण का मार्मिक वर्णन है अर्थात “आहोम” के अंतिम राजा चन्द्रकांत सिंह को लेकर ही यह काव्य रचा गया है।
पदमधर चलिहा ने सन् 1921 में “स्वराज्य संगीत” कविता लिखी जो बड़े ही आदर के साथ लोगों के मुंह से गाई गई।
लक्ष्मीनाथ फुकन का “ब्रह्मपुत्र के प्रति” देशप्रेम मूलक कथा काव्य है।
कवयित्री नलिनीबाला देवी की “परशमणि” जैसी राष्ट्रीय कविताओं द्वारा कवि के देशप्रेम की झलक भी स्पष्ट होती है।
अतुलचन्द्र हजारिका की “पांचजन्य” कृति में कवि की राष्ट्रीय चेतना उदघोषित हुई है।
प्रसन्न लाल चौधरी की कविताओं मे स्वदेश प्रीति की उद्दाम कामना है। “इनका विद्रोह यौवन का विद्रोह है, कंकाल सदृश किसान का विद्रोह है।” (डॉ. निओम)
असम के लोकप्रिय नेता स्व. तरुणराम फुकन के आइमोर असमे कविवर नवीनचन्द्र बरदलै के “श्याम असम आइ धुनिया”, “डेका गामरुर दल” जैसे अत्यन्त प्रभावोत्पादक देशप्रेम मूलक गीत हैं।
गणेश ने उच्चस्तर की कई कविताओं की भी रचना की थी। देवकांत बरुआ की कविताओं का प्रारंभ बन्धनहीन नग्न आकांक्षा से हुआ और अन्त जड़ संस्कारों से मुक्ति की उदग्र आकांक्षा के साथ। इसी में ही अतीत गौरव और राष्ट्रीय चेतना का तूर्यनाद भी सुनाई पड़ता है। तिरस्कृत प्रेम विद्रोह बाद में देश-मातृका की सेवा में लगकर पूर्णता प्राप्त करता है और “लांचित फुकन” जैसी कविता के द्वारा उस समय के जनचित्त को प्रभावित करता है।
इसी तरह असमिया कविता में स्वाधीनता आन्दोलन की तीव्रता है। भारतीय राजनैतिक रंगमच पर गांधीजी के आविर्भाव से छुआछूत का त्याग, वर्ण-भेद, दूरीकरण की शिक्षा का प्रचलन, आर्थिक समता का स्थापन, अतीत गौरवगान, गांधी दर्शन आदि अन्तः स्वर मुखरित होते हैं।


डॉ. अर्जुन शतपथी
संपर्क, आकाशवाणी मार्ग
जगदा, राउरकेला, उड़ीसा

(रचनाकार मूलतः उड़ियाभाषी अनुवादक एवं हिन्दी के वरिष्ठ रचनाकार हैं । उच्चशिक्षा विभाग से सेवानिवृत्ति के उपरान्त साहित्य साधना में संलग्न हैं । उन्हें सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ द्वारा 12-13 फरवरी 2006 को आयोजित एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्यक्रम में छ.ग. के राज्यपाल श्री के.एम.सेठ ने अनुवादक सम्मान-2004 से अलंकृत किया है । संपादक )

तलाश जारी है

अभी कल की ही बात है, दो दिन की ताबड़-तोड़ तलाश के बाद मेरा पर्स मिल गया, बस वह तलाश निपटी ही थी कि अब भ-हार्न की तलाश शुरू हो गई, जिसे मैंने टेबल पर रख दिया था, पर न जाने कहाँ खो गया। ढूँढे जा रहा हूँ, मुझे विश्वास है कि वह कहीं गया नहीं, यहीं आसपास होगा, पर भगवान की तरह मिल नहीं रहा और मेरी तलाथ जारी है। ऐसे ही हम सब लोग, अक्सर कुछ न कुछ ढूँढते ही रहते हैं और न मिलने से चिन्तित परेशान होते रहते हैं। यह तलाश हमारा पीछा ही नहीं छोड़ती।
इसके लिये कभी हम अपने भुलक्कड़पन को या कभी स्मरण शक्ति को अथवा धीरे-धीरे आते जा रहे बुढ़ापे को कोसते रहते हैं। पर असलियत यह है कि इसका बुढ़ापे से कोई संबंध नहीं। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी अपनी-अपनी तरह से अपने लिये किसी न किसी चीज के अथवा व्यक्ति की तलाश में जुटे रहते हैं। सबका वह भगवान रोज कोई न कोई ऐसी चीज ढूँढ ही लेता है, जिसे हम चाहते और ढूँढते रहते हैं। ऐसा करते-करते जब सांसारिक चीजों को ढूँढने से हमारा मन ऊबने लगता है तो फिर भगवान को ढूँढने व उसे पाने में हम अपना मन लगाते रहते हैं। बस कुछ ऐसे ही जीवन भर हमारी तलाश जारी रहती है।
इस तलाश के जाल में मैं अकेला नहीं हूँ। जी का जंजाल बनी इस तलाश में लगभग सभी फँसे हैं। हर जीवित प्राणी को किसी किसी की तलाश है। यह तलाश मरने के बाद बन्द हो जाती हो इसका मुझे पक्का ज्ञान तो नहीं पर कभी-कभी लगता है कि मृत्यु उपरान्त स्वर्ग या नरक पाने अथवा वहाँ की वस्तुओं / सुविधाओं की तलाश फिर जारी रहती होगी। अगर आप किसी तरह हिसाब लगा सकें तो पता चलेगा कि वह समय जिसमें हमने कोई तलाश नहीं की, बहुत थोड़ा सा ही होगा। अगर हम धनवान नहीं, एक साधारण आदमी हैं, तो हमें थोड़ा अमीर बनने की तलाश रहती है। अगर कुछ थोड़ा कमा लिया तो फिर और ज़्यादा कमाने व और अमीर बनने की तलाश शुरू हो जाती है। अमीरी की भूख तो कभी शान्त होती ही नहीं। अगर करोड़पति हो गये तो इतने अरबपति दिखने लगते हैं कि उनकी ओर ताकते-ताकते वैसा बनने के तरीकों की तलाश शुरू हो जाती है। एक बच्चा है तो उसे तलाश है कुछ पसन्दीदा खाने-पीने या खिलौनों की या माँ-बाप रिश्तेदारों के प्यार और दुलार की। थोड़ा बड़ा हुआ कि तलाश शुरू हो गई मित्रों के सहयोग व आदर की। विद्यार्थी है तो उसे तलाश है अच्छे गुरू की, अच्छे स्कूल कॉलेज की, परीक्षाएँ अच्छे नंबर से पास करने की, जरा और बड़े हुए तो तलाश है अच्छी नौकरी की, पदोन्नति की, अच्छी पदस्थापना की, सुन्दर बीवी बच्चों की, अच्छे पारिवारिक जीवन की। तलाशों का अन्तहीन सिससिला लगातार जारी है। दुकानदार को तलाश है, अच्छे मुनाफा देकर खरीदारी करने वाले ग्राहक की, शिक्षक को तलाश है योग्य विद्यार्थी की, वकील को तलाश है मोटी फीस देने वाले मुवक्किल की, पुलिस को बदमाश की, जज को अपराधी की, डॉक्टर को मरीज की, पति को पत्नी की, गुरू को चेलों की आदि-आदि।
मुझे तो इसमें उस चतुर चितेरे की कुछ चंचल चाल सी लगती है जो उसने सारी चीजों को हमारे आसपास ही संजोकर रखा है और मानव की तथा सृष्टि की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि हम सब हमेशा कुछ न कुछ तलाशते रहते हैं तो कुछ मिल जाता है – जिन खोजा तिन पाइयाँ और कुछ देर के लिये हम खुश व सुखी हो लेते हैं और जल्दी ही फिर किसी नई तलाश में अपना मन लगाकर अपने लिये कुछ नई चिन्ताओं और परेशानियों को बटोर लेते हैं। इस तलाशने, पाने और न पाने के बीच सुखी व दुखी होते सारा जीवन निकल जाता है।
कहा जाता है जल ही जीवन है। पर मेरा मत है कि जल की भाँति जीवन की सक्रियता, चंचलता, व्यस्तता का प्रमुख आधार यह सतत् चलने वाली, छोटे-छोटे टुकड़ों से एक लम्बी कड़ी बनी तलाश ही है। कभी इसकी, तो कभी उसकी। कभी मीठी, कभी नमकीन। नमकीन के बाद ही मीठा अच्छा लगता है। मीठा-मीठा सा लगे इसीलिये नमकीन बनाया। तलाश का अन्त प्राप्ति में हो तो उसका मीठा अहसास कराने के लिये बीच-बीच में असफलताओं, देरी के नमकीन को रचा। हर इन्सान अच्छे की तलाश में अपना सारा जीवन लगा देता है। कई बार तो लोग यह नहीं जानते कि वह तलाश क्या कर रहे हैं और उसे न पाने के कारण दुखी होते रहते हैं। कई मर्तबा अच्छे या बुरे की सही पहचान न कर पाने से लोग जो तलाश किया उसे पाकर भी दुखी हो जाते हैं। अच्छे की तलाश में चक्कर-घिरनी सा घूमता इन्सान सारा जीवन बीता देता है। इन्सान की तरह भगवान भी क्या अच्छों को न तलाशता होगा ? वर्तमान में चल रहे कलियुग में असत्य का, झूठ का, अनीति का, भ्रष्टाचार का, अपराधों और पापों का, बड़ों के अनादर व अपमान का, गुणीजनों के निरादर का, चालू धोखेबाजों के आदर और सम्मान का, श्रद्धालु जनों की उपेक्षा का, छली कपटियों की ऊँची उड़ान का युग बड़ी शान से चल रहा है। झूठों-दगाबाजों का बोलबाला है, सच्चे का मूँह काला है। इस कलियुग को सतयुग में बदलने के लिए उस सर्वनियन्ता भगवान को भी तो भ्रष्टाचार को सदाचार बना देने वाले पथभ्रष्ट मानव को बदलने के लिये, अच्छो की तलाश होगी। उसे भी तो अपने गोपनीय संगठन से सही जानकारी प्राप्त कर अच्छों की तलाश कर उन्हें प्रोत्साहित व प्रेरित कर उन्हें पृथ्वी स्वर्ग, नरक जैसे लोकों के महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना होगा। इसीलिये कई बार वह अच्छे-अच्छे युवाओं को भी जल्दी बुलावा भेज देता है। भगवान की लीला अपरम्पार है। हम तुच्छ प्राणी उसे समझ ही कहाँ पाते हैं ?
समग्र विचार से लगता है कि जब तक तलाश जारी रहेगी तो चिन्ता व परेशानी बनी रहेगी। और तलाश पूरी होने पर ही चैन व सुख मिलेगा। यानी तलाश है तो चिन्ता है, दुख है। तलाश बंद हुई कि चैन व सुख आया। तो इस तलाश से छुटकारा कैसे मिले ? सिर चकराया और एक सस्ता सा हल सामने आया। यदि हम मानवगण, जो हमारे पास है उसमें संतोष करना शुरू कर दें, तो तलाश के चक्र से बचकर आनन्द पा सकते हैं। हमारे पूर्वजों, सन्तों, मुनियों, ऋषियों ने इसीलिये कहा भी है ‘संतोषी सदा सुखी’। सन्तोष ही हमारे सुख का मजबूत आधार है। निरर्थक तलाश छोड़ो और जो कुछ है उसमें सन्तोष कर भगवान का धन्यवाद करो। पर इस सन्तोष का अभिप्राय या पर्याय अकर्म नहीं हो सकता। इसी समस्या का निदान भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता के द्वितीय अध्याय में अपने जग-प्रसिद्ध शब्दों – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” अर्थात् “कर्म करो, फल की चिन्ता मत करो” में दिया है। यह फल की तलाश ही हमारे दुखों का कारण है। उसे भगवान पर छोड़ो। उसकी शरण में जाओ। पर वाह री तलाश। तेरे रूप अनेक, चेहरे अनेक। कर्मणा गहनों गति। हमारी तलाश सदा की तरह अभी भी जारी है।


देव प्रकाश खन्ना
जानकी एन्कलेव, चूनाभट्टी, कोलार रोड़
भोपाल, मध्यप्रदेश- 462016

(श्री खन्ना मध्यप्रदेश के सेवानिवृत पुलिस महानिदेशक हैं । वर्तमान में त्रैमासिक देवभारती के संपादक हैं । सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ द्वारा पंचम अ.भा.साहित्यमहोत्सव में उन्हें भाषा सेवा के लिए राजकुमारी पटनायक सम्मान-2004 से अलंकृत किया जा चुका है । संपादक)

लोककाव्य


महादेव-ब्याह का रचना तंत्र
“महादेव का ब्याह” लोक गाथा है। कथात्मकता, गेयता और अनुष्ठानिकता, परम्परा से प्राप्त गाथा (तन्त्र) के तीनों आवश्यक तत्त्वों का इसमें समावेश है। इसमें शिव पार्वती विवाह की कथा है। नाथपन्थी गायक जोगी इसे विशेष वाद्यों पर भक्त की मनौती और उद्देश्य पूर्ति के लिए गाते हैं। ‘महादेव ब्याह’ शिवरात्रि, चतुर्दशी या सोमवार को ही गाया जा सकता है और रात्रि के प्रहरों में ही यह गाया जा सकता है। सोमवार के दिन के प्रमाण में उपलब्ध हुआ है मराठी लोकगीत –
“गिजा बाई चं लगीन लागलं दिस होता सोमवार
लंगीन झालं साडं झालं वेडा अवतार”1

अर्थात् गिरजा का विवाह हुआ उस दिन सोमवार का दिन था। ‘शंकरा चं लगीन’ नाम से उपलब्ध इस गीत में शिवजी की बरात और साली सलहजों के मनोरंजन का ‘महादेव ब्याह’ से मिलता-जुलता वर्णन है।
गाथा के तीनों आवश्यक तत्त्वों से संयुक्त होने पर भी ‘महादेव-विवाह’ रचना तन्त्र ब्रज की अन्य लोक गाथाओं ‘जगदेव का पँवारा’, ‘जाहरपीर और गुरुगुग्गा’ ठोला और आल्हा या राजस्थान की ‘भारत’ (भारत नवरात्रों में गाये जाते हैं और ये भी शैव शाक्त परम्परा में हैं) नामक गाथाओं जैसा अनेकायामी कथाभिप्रायों से युक्त नहीं है। जटिल नहीं है। राजस्थान का ‘देवनारायण रो भारत’2 तो कथाभिप्रायों (motif) का सागर ही है। चन्दबरदायी कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ और जायसी के ‘पदमावत’ को छोड़कर इतने कथाभिप्राय और कथान रुढ़ियों का समावेश अन्य किसी महाकाव्य और लोकगाथा में प्राप्य नहीं। यहाँ तक कि ‘सात खण्ड रामायण तो चौदह खण्ड लोरिकायन’ कहलाते अहीरों के जातीय काव्य ‘चनैनी’ या ‘लोरिकायन’ में भी नहीं।
लोकवार्ता में किसी भी लोक गाथा के रचना तन्त्र में कथा अनुष्ठानिक तत्त्व में ग्रथित अभिप्राय (motif) ही उसका आधार बीज होता है। जिसे मैंने रचनातन्त्र का केद्रीय बिम्ब3 कहा है। कथा, कहानी, गाथा में यही वह तत्त्व है जो परम्परा के प्रवाह में सनातन बने रहने की शक्ति रखता है। इसी में वह क्षमता है जो किसी भी जातीय स्मृति को संग्रथित रख सकती है। यह हमारा कल या आधुनिक शब्दावली में कहूँ तो आधुनिकता है। रचनातन्त्र का शैलीगत शिल्प-विन्यास हमारा वर्तमान और आज होता है।यह मनोवैज्ञानिक, धार्मिक और सामाजिक धरातलों पर परिवर्तनशील है।
अभिप्राय की दृष्टि से महादेव के ब्याह का रचनातन्त्र इकहरा है। यह मंगल गाथा ‘जगदेव का पँवारा’ या आल्हा के सदृश्य घटना प्रधान न होकर कथा एवं वर्णन प्रधान है। इसमें आनुसंगिक कथा प्रसंगों की योजना भी नहीं है। इसका मूल अभिप्राय या केन्द्रीय बिम्ब वर-वधू के रूप में शिव पार्वती की उपयुक्तता है। यह मोटिफ लोकवार्ता में अत्यन्त व्यापक और बहुआयामी कथाभिप्राय4 है। यद्यपि ब्याह का शिल्पविन्यास लचीला और परिवर्तनशील है पर केन्द्रीय बिम्ब से उसके सूत्र अच्छी तरह से जुड़े हैं । वैसे भी लोक गाथाओं, विशेषतः मंगल गाथाओं में परम्परा के प्रति अनुष्ठानिक आस्था और भय, मूल कथाक्रम में परिवर्तन के सुरक्षा कवच हो रहते हैं। गायकों का आशुकवित्व, प्रतिभा का योगदान, श्रोताओं की इच्छा, सराहना भी उसमें परिवर्तन नहीं कर पाते।
फिर भी, गुरु शिष्य परम्परा होने पर भी, मौखिक होने के कारण गाथाएँ भारतभर में व्याप्त हैं। एक ही गाथा का शिल्प-विन्यास की दृष्टि से अन्तर लिये होना स्वाभाविक है। अतः लम्बी-लम्बी गेय गाथाओं के किसी एक और सर्वसम्मत पाठ का निर्धारण कदाचित ही सम्भव हो। एक और भी पक्ष, यदि ऐसा कोई प्रयास किया भी गया तो लोकगाथा जड़ हो जायेगी। उसमें विविध अंचलों के रंग और सुगन्धें न रहेंगी। गायकों का मौलिक योगदान भी पकड़ में न आ सकेगा और मूल कथाभिप्राय के विकास को भी नहीं समझा जा सकेगा। जबकि वर्तमान स्थिति, शोध और अध्ययन के अधिक अवसर और मूल तक पहुँचने के अधिक रास्ते रखती है।
प्रारम्भ में मैंने उपर्युक्त दृष्टि से प्रयास किया। कुरु प्रदेश और बुन्देलखण्ड के शिव ब्याहुलों की बानगी ली। ब्रज के मुथुरा-आगरा जिलों के चार गाँवों के गायकों से, गौरी जन्म से सगाई-प्रस्ताव तक का अंश, अलग-अलग पाठों में लिपिबद्ध किया। तुलना के उपरान्त ज्ञात हुआ कि हर गाँव और मण्डली के गायन में कथाक्रम वहीं है, तथ्य भई वहीं है, पंक्ति में कहीं कोई शब्द अलग पड़ जाता है या एकाध व्याख्यापरक पंक्ति जुड़ जाती है। छूट भी जाती है। यहाँ अवलोकनीय है – गौरी के शंकर से वचन पाने के बाद अन्तर्ध्यान होने का अंश –
जब बाई सिला पै पैदा कीन्ही
बाई सिला भसमंत करी
उड़यौ हंस काया कुम्हिलाइ गयी
(जब) है मंचल धर सुरतिधरी
- जोगी नत्थी नाथ, राया
अब बाई सिला पै पैदा कीन्ही
बाई सिला ना पैदा भयी
अब हैमाचल धर सुरतिधरी
- जोगी सूखानाथ, अछनेरा
जब बाई सिला पै पैदा कीन्ही
बाई सिला भसमंत करी
उड़यौ हंस काया कुम्हिलानी
पड़ी रही माटी ढेरी
जब हैंमंचल घर सुरतिधरी
- जोगी पंचमनाथ, मिढ़ाकुर
जब बाई सिला पै पैदा कीन्ही
बाई सिला भसमंत करी
उटिगिया पंछी बोलनहारा
मिल गयी माटी में माटी
जब हैमांचल की सुरतिधरी
- जोगी मुन्नानाथ, गढ़ी गोहनपुर
लेकिन रात्रि जागरणों में भक्त जिजमान की इच्छानुसार या वक्त देखकर, गायकों द्वारा ब्याह के विवरणात्मक या व्याख्यापरक अंशों का विस्तार और संकुचन प्राप्त होता है। ब्याह में कुछ कुछ प्रसंग और वर्ण्य-विषय हैं। पार्वती के नामकरण प्रसंग में चारों वेदों के पन्नों के बाँचे का उल्लेख कुछ गायक करते हैं, कुछ नहीं करते। नामकरण में नाम बताते वक्त, नामों की संख्या, घटा-बढ़ा देते हैं किन्तु पार्वती का भविष्य सब, एक ही बताते हैं जोगी से ब्याह होना।
इसी क्रम में, जब बेटी के जोगी से ब्याह की बात पर हिमाचल क्रोधित होकर ब्राह्मण को दण्ड देने को तत्पर होता है और रानी मैनादे, ब्रह्महत्या से कुल नाश की बात कर, ब्रह्मण को दक्षिणा दिला बिदा कराती है तब चलते वक्त ब्राह्मण, चेतावनी के रूप में, पार्वती की विकट और विचित्र बरात का चित्र खींचता है कि ये, और ऐसे-ऐसे बरात में आयेंगे। ये सारी वस्तुएँ, हिमाचल की लग्न पत्रिका में लिखायी माँगें बन जाती हैं और वे ही सब बरात के वर्णन में पुनः दुहरायी जाती हैं। इस पुनरुक्ति से, यद्यपि हम इसे अवान्तर प्रसंग और अनावश्यक नही कह सकते, ब्याह काफी विस्तार पा लेता है।
जबकि कई बार ब्याह गाने में ब्राह्मण का इतना-सा कथन ही रहता है –
जबै बिरामन न्यों उठि बोल्यौ
जा दिन कन्या कौ ब्याहु करौगे
बड़े-बड़े कारज आमे
सोने की दछिना दई ऐ बिरामन
कियौ बिदा घर कूँ जइयौ
जब पलना लईऐ झुलाय बेटी
भोज्य वस्तुएँ, अनाजों, जैसे चावल, मिठाई, गहने कपड़ों के नाम, जीवन में धर्म नीति की महत्ता, ‘करमलेख’ की दुर्निवारता एवं लोकाचार इत्यादि ऐसे बिन्दु तन्त्र के विस्तार और संकुचन की संधि रेखाएँ हैं। ब्याहुला गायन के दौरान श्रोता समुदाय की रुचि का रुझआन, गायक के अशुकत्व और प्रतिभा को प्रेरित करता है। इन पक्षों पर गायक का कौशल ही नहीं उसका ऐतिहासिक ज्ञान, चेतना, ग्राम्य और नागरिक अधिवास तथा मानसिकता भी अभिव्यंजित होती है।
राजकन्या गौरा पार्वती से यदि विवाह किया तो कितनी झंझटें हैं, कितनी माँगों की पूर्ति करनी पड़ेगी, दृष्टव्य है, उनका शंकरजी का खींचा चित्र, जिसमें ये अलग-अलग झलकते हैं –
गायन परम्परा से दूरी और नागरिकता की झलक-
...गौरा तो ए राज कुमारी, राज दुलारी
::::
पूरी कचौरी माँगें पार्वती
आलू का रायता माँगे पार्वती
मोतीचूर के लड्डू माँगे पार्वती
कांसे लाऊँ जा बन में ?
- छुट्टननाथ, ग्वालियर
मुगल संस्कृति का प्रभाव
गौरा तो राजन की लड़िकी
रंगमैहलरहिबै कूँ माँगे, नौरंग पंलिगु पोढ़िवे कूँ माँगै
और खिदमति कूँ बाँदी माँगे, सात सहेली बतराइबे कूँ माँगे
कहाँ ते लाऊँगौ जा बन में ?
- पंचमनाथ, मिढ़ाकुर
राजपूत रजवाड़ों की संस्कृति
गौरा तौ राजौ की बेटी
रंगमहल रहने को माँगै
नौरंग पलंक पौड़ि वे माँगै
औरु सेवा को दासी माँगै
कहां ते लाऊँ जा बन में ?

- किशनाथ, भरतपुर
शिव-ब्याह के जन्म से सगाई-प्रस्ताव तक के तन्त्र संयोजन में उपर्युक्त चारों पाठान्तरों में तथ्यात्मक अन्तर केवल एक उपलब्ध हुआ। पार्वती का ब्याह जोगी से होगा, यह भविष्य सुन राजा हिमाचल जब ब्राह्मण को दण्ड देने के लिए रानी से गँड़ासा माँगता है, तो वह बिना कुछ लिये-दिये, नाराज होकर, काशी चला जाता है –
एक करम में ओछो लिखाय लायी
ब्याही जाय काऊ जोगी के

इतनी बात सुनी राजा ने
तनमन ते बुऊ पचरिगयौ
मोई दै रानी मेरौ गुल सबा
जा ब्रह्में दछिना देउँ रानी

इतनी बात सुनी ब्रह्मा ने
ब्रह्मा रूँठि कासी सैहर डिगरि गयौ
यह पंक्ति राया के नत्थीनाथ का पाठान्तर में उपलब्ध है, शेष तीन पाठों में प्राप्त नहीं होती। लेकिन ब्राह्मण की नाराजगी को हम कथाक्रम में किसी बड़े उलट-फेर के रूप में नहीं पाते। अस्तु, इस विचार के बाद मैंने पंचमनाथ का पाठ ही रहने दिया है।
आज शिव-पार्वती विवाह की कथा, लोकवार्ता और शास्त्र-पुराणों मे अखिल भारतीय रूप में प्राप्त है पर वैदिक साहित्य में शिव-विवाह का कोई उल्लेख नहीं आया। यजुर्वेद तैत्तरीय संहीता 1-8-6 तथा वाजसनेयी संहिता 3-,57,63 में रुद्र के साथ अम्बिका का उल्लेख मात्र है। किन्तु वहाँ रुद्र से उसका कोई सम्बन्ध नहीं बताया गया है। कैनोपनिषद में (3-12) देवों को ब्रह्मज्ञान कराने वाली देवी के रूप में ‘उमा’ तथा ‘हेमवती’ नाम आये हैं, किन्तु उनको भई वहाँ शिवपत्नी नहीं कहा गया है। अतः शिवपत्नी के रूप में दक्ष कन्या सती या उमा की कल्पना ही नहीं, हिमाचल पुत्री पार्वती की कल्पना भी, वैदिक साहित्य के पश्चात् की गयी और तभी उनके विवाह की कथाओं का भी सृजन हुआ।
रामायण से पुराणों की रचना के काल तक इन दोनों प्रसंगों का पूर्णतः विकास हो चुका था... सामान्य बातों के अतिरिक्त मूलकथा का लगभग समस्त रूप शिव-सम्बन्धी सभी पुराणों में एक समान मिलता है।5
डॉ. दिनेश ने प्रथम-शिव-विवाह ग्रन्थ ‘पार्वती रुक्मिणीयः’ विद्यामाधव कवि का संस्कृत में रचित माना है। ब्रजभाषा और भक्तिकाल में स्वतंत्र रचना तुलसी का ‘पार्वती मंगल’ और लखपति कवि का ‘शिव-विवाह’ है।6
लोक वार्ता में, प्रादेशिक भाषा और बोलियों में शिव विवाह की कथा गीत, आख्यान एवं गेय मंगल-ब्याहुलों के रूप में प्राप्त होती है।7 मराठी लोक-साहित्य में भी ‘शंकराचं लगीन’ छोटे-छोटे गीतों और विस्तृत गाथा रूप में प्राप्त है।8
लेकिन अभी तक शिव-विवाह की कथा का, गेय गाथाओं और मंगल ब्याहुलों में, कथा में निहित पूर्व विवेचित मूलकथा, अभिप्राय के विकास और पल्लवन की दृष्टि से अध्ययन नहीं हुआ है। लोक वार्ता की दृष्टि से ही नहीं, साहित्य कि दृष्टि से भी, ऐसा अध्ययन, महत्त्वपूर्ण है। कथा में, अभिप्राय ही देश और काल की सीमाएँ लाँघ, विश्व स्तर पर नाम और चरित्र की भिन्नता में, घटना चरित्र और कार्य श्रृंखला की विविध सरणियों में दीख पड़ता है। अभिप्राय (motif) ही किसी कथानक का मूलभूत तत्त्व है, कथाक्रम के सभी रूप-रूपान्तरों में, सभी बोली और भाषाओं में तत्सम्बन्धी कथानक के विविध रूप बनाता है। घटना चरित्र और कार्य श्रृंखला को विकसित करता तथा अनेक मोड़ देता है।
युवक-युवती विवाह के लिए एक-दुसरे के उपयुक्त होने का अभिप्राय, मंगल-ब्याहुलों के साथ, अन्य लोक गाथाओं, महाकाव्यों में भई, कथानक की संयोजना रचता है। मूल अभिप्राय का पल्लवन, वर-वधू-परीक्षा की विविध शर्तों के रूप में होता है। कभी-कभी तो परीक्षा पूर्ति की शर्त विवाह की पूरी परिकल्पना को उभारती है, पूरा ब्याह ही उस पर खड़ा होता है। ‘सीता का मंगल’ में धनुष भंग की शर्त ऐसी ही है। चौका देते समय (घर लीपते वक्त) जब सीता शिवजी का धनुष एक हाथ से उठाकर रख देती है तो जनक चिन्तित हो उठते हैं –
राजा जनक घर क्वारी-सी कन्या।।टेक।।
जबरे राजा महल बिच पहुँचे, रानी उठी अकुलाय
कैसे राजा मन रंजन भये और कैसे भये उदास, राजा0
सिवि कौ धनुस किननु उठायौ जाकौ अरथु बताइ राजा0
सीता चौका दियौ मंदुर में उनई नें धरयो उठाइ राजा0
जा बेटी वरु कौन सौ ब्याहै अकहात ते धनुष दीयौ उठाय

और तव वे उपयुक्तता की कसौटी रूप में धनुष-भंग सीता विवाह की शर्त रखते हैं।
कभी पहेली बुझाना विवाह की शर्त होती है। जैसे ‘जगदे के पँवारे’ में। चौबोला गढ़ की रानी आनबोला, जगदेव के पिता उदियाजीत को और अन्य राजाओं को बन्दी बना लेती है।10
तत्सम्बन्धी आवर्जनाएँ (Tabus) भी कथा के विकास में अपनी भूमिका निभाती हैं और अनेकानेक रूप में कथा तन्तुओं की बुनावट में योग देती हैं। विवाह में आवर्जनाएँ अधिकर विघ्नों के रूप में उपस्थित होती हैं। इनका अतिक्रमण, तप, व्रत, उपासना की कथाओं में तथा जल, जंगल, किले, महल, शस्त्र और राक्षसों से सम्बद्ध, अनेक दुर्वह कार्यों को पूरा करने वाली साहसिक कथाओं के रूप में पल्लवित होता है। अस्तु, यह तो शोध का एक पृथक ही विषय है।
कहना न होगा कि इस केन्द्रीय बिम्ब, मूल कथाभिप्राय (motif) के इर्द-गिर्द महादेव-विवाह के रचना तन्त्र की संरचना और कथाविन्यास अत्यन्त सुगठित है। कथाविन्यास शिल्प में आरम्भ से अंत तक, वर्णन, सम्वाद और घटनवाक्रम में उत्सुकता और नाटकीयता का अच्छा निर्वाह है। कार्यकारण श्रृंखला भी है।
प्रारम्भ में ही पूर्व रंग के रूप में तपस्या करने से पूर्व मौज में आकर महादेव द्वारा गौरा को अपने अंग के मैल से जन्म देने की कथा है। गौरा शिव की सेवा में 12 वर्ष तक खड़ी रहती है। समाधि से जागने पर शिव उनसे वर माँगने को कहते हैं तो गौरी उन्हें ही पतिरूप में माँगती है। शिव ऐसा वर दे नहीं पाते क्योंकि वह पुत्री है। कथानक में यह प्रसंग आवर्जना का पल्लवन है। शिव गौरी से पिता पुत्री के वर्ज्य सम्बन्धों के कारण विवाह करने में असमर्थ हैं, मर्यादा भंग होती है। उधर वर देने का वचन पूरा न करने पर, सेवा का फल न दे पाने पर भी, सत जाता है। अतः दूसरा जन्म धारण करके विवाह के उपयुक्त होने की बात आती है। इस आवर्जना पल्लवन से पार्वती के जन्म की कथा का विकास होता है।
पार्वती मैना के गर्भ से हिमाचल के यहाँ चन्म लेती है। अपनी उपयुक्तता सिद्ध करती हैं। अब पार्वती के नामकरण के बाद ब्याह योग्य होने पर उपयुक्त वर की खोज ही ब्रह्मण की (पुरोहित) सारी भटकन की कथा है। इस जन्म में पार्वती पर्वतराज हिमाचल की बेटी है, राजकुमारी है। सामाजिक दृष्टि से शंकर जो भिखारी जाति के, अज्ञात कुल शील के, वृद्ध और रोगी हैं, किन्तु दिव्य शक्ति सम्पन्न पार्वती के योग्य नहीं। लोक साहित्य में ‘सीता का मंगल’ भी ऐसे ही दशरथ और जनक के सामाजिक वैषम्य का वर्णन करता है –
“जनक ने पाती लिखि दयी धरीए दसरथ के हाथ
हम तो रे भाट भिखारिया और तुम राजा महाराज
हमें तुम्हें कैसे होइगी सजनई ?11

तो यहाँ धनुष टूटता है। लेकिन पार्वती के लिए पूर्वजन्म की वचनबद्धता के कारण वर मात्र शंकर है। नामकरण के वक्त, भविष्य बताते समय, ब्राह्मण यह बता भी देता है। हिमाचल वररूप में जोगी शंकर की पात्रता निरस्त करने के लिए, लगुन में प्राकृतिक शक्तियों और देवी-देवताओं को बरात में लाने की शर्त लिखाता है और निश्चिन्त है कि इस कसौटी पर शंकर उपयुक्त नहीं ठहरेंगे।
ऐसा सामा लिखूँ लगुन में ना सिबजी पै पैदा होगी
ना मेरे ब्याहन आमें
कथा आगे बढ़ती है तो इसी बिन्दु पर। पार्वती को शिव से ही सगाई करने को भेजती है। शिव, ब्राह्मण के द्वारा, पार्वती के प्रेम की दृढ़ता की परीक्षा लेते हैं। एक जोगी भिखारी के साथ रह सकने की उपयुक्तता को, कसौटी पर कसते हैं। जब ब्राह्मण –
बा गौरा सिबजी ज्यों कहि दई ऐ
मैहल तिवारे सिव तेरै नाँय चहिएँ
बन में गुजरि करूँगी, बरूँगी मैं तो
भोली ई नाथै बरूँगी...
गौरा की ओर से भाँग भाखने, कमरी ओढ़ कर अकेली रह लेने की तैयारी बताता है और जब ब्राह्मण ऐसी प्रतिज्ञा करता है –
अरप लौटौ, पूरब लौटौ ब्रह्म लौटि घर नाँय जाइगौ
मैं टीका करिकै ई जाऊँगौ

तो शिवशंकर के मन में आ जाती है। इतनी दृढ़ता देख शिव सगाई करने की अनुमति दे देते हैं। ब्राह्मण चूँकि बिचौलिया था। सगाई करने, वर की स्थिति देखने, घर-द्वार, कुटुम्ब, परिवार की, उपयुक्तता जाँचने आया था। अतः उसे शिवद्वार, जन्मद्वार का दर्शन कराके, अपनी भाँग की तैयारी और लटाओं से गंगा छोड़कर, शिव अपनी शक्ति सामर्थ्य, विद्या और कला का परिचय देते हैं। यह सारी कथा संयोजना, इसी के लिए है, सारे दृश्य विधानों की ध्वनी यही है।
पर फिर भी, राजा हिमाचल, राज्य, नगर और समाज के सम्मुख उपयुक्तता सिद्ध होना शेष रहता है। उसके लिए ही जोगी रूप में मालिन को बाग में डेरा लगाने के लिए जवान करने का प्रसंग है। नगर में चर्चा होती है। गौरा की सहेलियाँ आती हैं बाग में। तब, उनके साथ ठिठोली में, पहले अंगों की विकृति, अवमानना और उपहास के लिए होती है। फिर शिव सबकी विकृतियाँ ठीक करके अपनी कला दर्शाते हैं। नगर में चर्चा फैल जाती है।
सखियों के शिव के कोढ़ी जोगी के विचित्र रूप में आने की बात सुनकर पार्वती बरात और वेश परिवर्तन के लिए विनय करती हैं। अपनी शादी को एक उपमान बनाने की बात जब कहती हैं तो शिव स्पष्ट कहते हैं –
जानै बड़ बड़े बोल लगुन में बोले
मैं भौतु मान मारूँ जाकै
मैं बड़े मान मारूँ जाकै

परदा औट के रूप में बहाई हुई गंगा के उस पार खड़ी पार्वती शिव की महानता और अपने पिता कि तुच्छता बताती है –
जब हाथ जोरि पारवती बोली
तुम तो और समदुर बु ऐ पोखरा
तुम बा तिनियाँ पै च्यों कोपे ?
तुम तो औ परवत बु ऐ पथरियाँ
तुम लीज्यों पार लगाय स्वामी
तो शंकर उन्हें आश्वासन देते हैं –
घर जाहु नारि, नरसिंध रूप मेरौ अब देखौ

और तब फिर सारी प्राकृतिक एवं देव शक्तियों की बारात सज जाती है। बरात देखकर हिमाचल फिर घबराते हैंतो पार्वती ‘अगवानी साधने’ की बात कहती है।
अगवानी के वक्त शिव के स्वरूप और बरात को देख हिमाचल के मुख से निकल जाता है –
“भ्वाँ ठाड़ौ हैमाचल राजा
बुअ जोगी कै रुन्दि मरयौ कै खुन्दि मरयौ ?
न्याँते दाढ़ी बारौ भाजि गयौ, मेरे छतरपती ब्याह आयौ”

तो इसके मन में अभी भी शंका बाकी है। इसने अपनी पुत्री के उपयुक्त मुझे अभी भी नहीं समझा। यह वह जोगी है और वह जोगी कितना सामर्थ्यवान है; इसे अभी भी समझाना होगा। कथा और एक मोड़ लेती है। शंकर क्रोधित हो शुक्र सनीचर को नोंच देते हैं। वे रोने लगते हैं। राजा उन्हें घर भेजता है खाने के लिए तब राजा हैमाचल की ‘भरे पंचों में’ आँखें नीचे होने का प्रसंग है। बरात के लिए तैयार सारा भोजन खाकर भी शुक्र सनीचर भूखे लौटते हैं और महादेव की झोली का टुकड़ा खाकर अफर जाते हैं।
इतने पर भी वहाँ राजा अपनी रानी का दोष समझाता है। महल में लौटकर वस्तुस्थिति ज्ञात होने पर वह महल में, बारूद के ढेर में, आग लगाकर पार्वती के साथ जलकर अपनी मान रक्षा करना चाहता है, किन्तु वह प्रयास भी निष्फल जाता है, बारूद पानी हो जाती है।
निरुपाय हो, जब पार्वती के कहने पर, गले पगड़ी और दाँतों में तृण दबाकर, शंकर के सम्मुख आत्म समर्पण होता है, तभी, शंकरजी की वर रूप में श्रेष्ठता, उपयुक्तता और राजा के राजा होने का, सर्वसम्पन्न, सामर्थ्यवान होने का, गर्व खण्डित होता है। ‘इन्दुर सरीखों’ को कर्ज देने की औकात का मान भंग होता है।
मूल कथाभिप्राय का कथानक के विकास विन्यास में मेरी दृष्टि से यह चरम बिन्दु है। इसी के बाद विवाह होता है। ब्याह के लोकाचारों का संक्षिप्त वर्णन है। ब्याह की जैसे टोन ही बदलजाती है।
‘महादेव का ब्याह’ के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समस्त रचना तन्त्र में, कथानक के समस्त घटनाक्रम में मूल अभिप्राय का विकास विन्यास है।
कथासूत्रों को जोड़ने वाले सूत्रधार, पुरोहित, ब्राह्मण और शिव का नाँदिया है। ब्राह्मण विवाह की पूर्वाद्ध की कथा के सूत्र सँभालता है तो नाँदिया उत्तरार्द्ध के। लग्न दे आने के बाद, ब्राह्मण मंच से हट जाता है। नाँदिया, सगाई चढ़ाने के बाद से, विवाह कराने का बीड़ा उठा लेता है। वही प्राग नगरी में जाकर पार्वती के ब्याह की तैयारियों की खबर लाता है, देवसभा में न्यौता देने जाता है, शिवजी की बरात में वही बराती हैं और वही नेगी।
सकलनत्रय और नाट्य सन्धियों की दृष्टि से ‘महादेव ब्याह’ के रचना तन्त्र में, मूलकथाभिप्राय का जैसे सहज, सन्तुलित और कार् कारण श्रृंखलाबद्ध कथा विन्यास है, शिल्प संयोजना है, लोक प्रचलित किसी अन्य मंगल ब्याहुले में यह निपुणता कदाचित ही उपलब्ध हो सके। और भी आश्चर्यप्रद तो यह है कि शिव-विवाह की कथा में शिवजी की विचित्र बरात का और अन्य विघ्न बाधाओं का मूल कारण यह उपर्युक्त मोटिफ कहीं किसी अन्य कृति में उपलब्ध भी नहीं होता। इस सूत्र को किसी ने देखा पकड़ा ही नहीं है।
- सन्दर्भ-
1. कुलदैवत, पृ. 247-248, महाराष्ट्र राज्य लोकसाहित्य समिति प्रकाशन
2. देवनारायण रो बारत, डॉ. महेन्द्र भानावत, भारतीय लोककला मण्डल, उदयपुर
3. मंगल और ब्याहुलों का तन्त्र, इसी पुस्तक में
4. स्मिथ थामसन, मोटिफाइण्डैक्स H300-H499
5. हिन्दी शइवकाव्य का उदभव और विकास, पृ. 19, डॉ. रामगोपाल शर्मा दिनेश, राज प्रकाशन, जयपुर
6. वही, पृ. 77
7. भारतीय साहित्य क.म.मुंशी विद्यापीठ आगरा का मुखपत्र, वर्ष 1956 के अंक
8. कुलदैवत, पृ. 229-238
9. भारतीय साहित्य, वर्ष 2, अंक 2, पृ. 393
10. जगदेव का पँवारा, लेखिका के संग्रह में
11. ‘सीता का मंगल’, सेठ कन्हैयालाल पोद्दार अभिनन्दन ग्रन्थ


श्रीमती मालती शर्मा
ब-8, मधु अपार्टमेंट, 1034/1, माडल कॉलोनी, कैनाल रोड़
पूणे, महाराष्ट्र, 411016


(रचनाकार प्रख्यात लोकवार्ताविद् हैं । बालसाहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया है । सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ द्वारा पंचम अ.भा.साहित्यमहोत्सव में उन्हें लोक साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए रामचन्द्र देशमुख सम्मान-2004 से अलंकृत किया जा चुका है । संपादक)

हिन्दी की चर्चित कहानी



कौए के पीछे बैलगाड़ी
(कहानी-श्री राजेन्द्र अवस्थी)

टुंक टुकर टुंक !
घंटियों की हल्की-सी आवाज़ के साथ चूं-चूं चर करती बैलगाड़ी ऊबड़-खाबड़ राह से, अंधेरो को चीरते धीरे-धीरे सरक रही थी। दोनों ओर घना जंगल, बार-बार सीधी चढ़ाई और फिर एकदम नीची ढाल। बैलों के दम पर चाहे जो आये, गाड़ी में बैठनेवाला भी कांप-कांप जाता था। तब वह अपनी दोनों हथेलियां छाती के सामने रख लेता और कलेजे से ऊपर चढ़ा थूक, एक बार ज़ोर से खखार कर गाड़ी के बाहर फेंक देता। उसकी बाजू में बैठी थी रसीली – उसकी उमरभर की साथी, जो नाम से तो जवान पर शरीर से उतनी ही कृश थी। उसका यह नाम उसके बाप ने रखा था। ब्याह कर आ गयी पर सानी ने उसका नाम नहीं बदला। वह बार-बार कहती रही, सासुरे का नाम मैके से अलग होता है, अपनी मरजी का नाम रख लो न, पर सानी; वह सिर्फ हंस देता। कहता, “तेरा नाम बदलूंगा तो तेरा रस चला जाएगा।” रसीली अपनी नयी जवान आंखों तब कुछ इस तरह मटकाती कि सानी दांतों के बीच अपनी जीभ दबाकर उसकी ओर दौड़ पड़ता। तब वह भागकर अपनी सास के पीछे छुप जाती। सास हंस देती। कहती, “बहू, नाम बदलने की परंपरा को यदि यह तोड़ रहा है, तो बुरा नहीं कर रहा।”
सास की यह बात उसे गुस्ताखीभरी लगती। वह उसके गाल दबा देती और हंसीभरी खीझ में कहती – जानती हूं, जाया तो वह तेरा है। मैं तो परायी ठहरी ! वह कूदती-फांदती उस कमरे से बाहर चली जाती।
एक दिन..! सानी और रसीली में ऐसे ही बात बढ़ गयीथी। सानी ने पानी मांगा। जब वह लेकर आ गयी तो सानी ने पहले वह गिलास रसीली के होंठों से छुआया, तब फिर उसने पानी पिया। इस पर रसीली ने इस तरह नज़रें उठाकर देखा था कि सानी की छाती में बबूल का कांटा चुभ गया था। सानी हंसकर यही कहा था – रस उतर आया है गिलास में, जैसे भट्ठी में महुए ने अपनी छाती का एक कतरा चुवा दिया !
सुनकर रसीली भागी थी। सानी ने उसका पीछा किया और तब दोनों दौड़ते मकई के उस घने खेत में पहुंच गये थे, जहां के झा़ड़ अपने सिर पर हाथभर लंबे दानेदार भुट्टे रखे थे और उनसे सफेद रेशे लटकाये हवा के साथ आवाराओं की तरह झूल रहे थे। चिड़ियों के झुंड-के-झुंड वहां आते। उन भुट्टों पर बैठते और फिर फुर्र से उड़ जाते। उस समय इन चिड़ियों के पर रसीली को मिल गये थे। सानी तब शिकारी था। अपना हाथ हवा में ऐसा घुमाता मानों गुलेल झुला रहा हो और जब वह रसीली की चोटी पकड़ पाया तो उसने इतने ज़ोर से उसे नीचे पटक दिया कि वह बस, एक हिचकी लेकर रह गयी। उसका मुंह फिर नहीं खुल पाया।
गाड़ी के चक्के से एक पड़ा पत्थर जैसे ही टकराया कि बूढ़ा खांसता हुआ रसीली पर ऐसा गिरा जैसे उस भुट्टे के खेत में बरसों पहले रसीली गिरी थी। तब आज भी रसीली कांख कर रह गयी। उसने अपना दाहिना हाथ बूढ़े के सिर पर फेरा और उसे अपने आंचल में छिपा लिया। सामने देखकर बोली, “अरे बीरसिंह गाड़ी धीरे हांक ! तेरे दादा को दौरे आ रहे हैं !”
बीरसिंह गाड़ी के चौर पर बैठा था। उसने हाथ का कोड़ा उठाया और दोनों बैलों की पीठ पर जड़ दिया, “धीरे रे धीरे !”
वह यह न जान सका कि इसमें बेचारे बैलों का क्या दोष है ! गाड़ादान ही ऊटपटांग है ! रात अंधेरी है। एक टिमटिमाती बाती और सनसनाता जंगल – जितने विवश उसमें बंधे बैल हैं, उतनी ही विवश वह बैलगाड़ी है। और इनसे भी ज्यादा विवश उसमें सवार ये तीन सवारियां हैं। बूढ़ा खांसता है तो छाती फटती है। खंखार के साथ थूक आता है या खून किसने देखा है ? दमा का रोगी, जो इस रोग को चालीस बरस से पाल रहा है और उसे पालते बीस बरस हो गये हैं ! रसीली तो अब दांतों में चूसकर फेंके गये गन्ने की गंडेरी रह गयी है जिंदगी का सूरज जब उगा तो चने की भाजी और मक्का की सिर्फ दो रोटियां उसने फूस की उस झोपड़ी में देखी थीं। उमर चढ़ नहीं पायी कि उसने देखा कि सानी उसकी लगाम थामे है। वह आज लाया और बरस बाद ही उसके पेट की अंतड़ियां खिंचने लगीं।
दर्द और पीड़ा के बीच गांव की औरतों ने नाच-गाकर रात बितायी और पूरब दिशा जब सिंदूर लगाकर जाती तो रसीली ने अपनी बाजू में एक फूल पड़ा देखा ! उसकी किहें-किहें ने रसीली की जिंदगी में वह रस घोल दिया कि आज भी जब वह उस दर्दभरे सुख का अनुभव करती तो शारदा मइया के सामने सिर झुका देती है – हे मईया, जिंदगी की वह घड़ी एक बार ला दे ! उमर का यह बोझ पलभर को उतर जाए तो भला। पर शारदा मइया कुछ नहीं सुनती। सारी चढ़ोतरी हजम कर जाती है। पत्थर की देवी तब पत्थर रह जाती है ! सिंदूर से लाल उसका तन तब जैसे खून से रंग जाता है। रसीली ने दस लड़के-लड़कियों को जन्म दिया। वह और चाहती है, यह बात नहीं है। दरअसल वह बुढ़ापे को भूलना चाहती है। उसे झुठला देना चाहती है और इसलिए उन दिनों को याद करती है। कारण बचपन से उसने सुना है – लड़कपन उचटने और हंसने के लिए है। जवानी बच्चे जनने के लिए और बुढ़ापा रोने के लिए। वह रोने से डरती है और इसलिए फिर जवानी के दिनों में लौट जाना चाहती है पर जब उसकी नज़र सामने बैठे बीरसिंह पर पड़ती है, तो उसके मन में अपने-आप एक हूक उठती है। वह अपनी आंखों को आंचल के छोर से बंद कर लेती है। वह बीरसिंह का अधिकार छीनना चाहती है। उस बीरसिंह का, जो दस में दूसरा है और उसका अब इकलौता बेटा रह गया है, जिसे उसने बड़े लाड-दुलार से पाला-पोसा है। उसके बाद जितने आये, सब धोखा दे गये। सबसे बड़ी है बेटी। जब वह बारह साल की हुई तो वह चिड़िया की तरह फुर्र से उड़ गयी –
चिड़िया मैं परदेस की
मोर पंख हिराने हो माय।
बचपन के गीत, बचपन के बीतते-बीतते अपने-आप डूब जाते हैं, जैसे सबेरे के सूरज के पहले ही आसमान के तारों को एक-एक कर नीचे समंदर में कूद जाना पड़ता है; मानो कोई ग्वाला उनके पीछे लगा, उन्हें इसके लिए विवश कर रहा है। रसीली क्या करती ? गाड़ी के चक्के की तरह जिंदगी घूम रही है। आदमी उसकी लीक पर खड़ा है। लीक पर कितना खतरा है, वह जानता है, पर जानते हुए वह उसे मोल लेता है। एक अजीब मृगतृष्णा है, इस जिंदगी में ! रेत के असीम छोर को वह छूना चाहता है, चमकती रेतों को पानी की लहराती झीलें समझकर ! बेटी चली गयी पर उसका साहस नहीं गया। बीरसिंह जो उसके पास था – वह बीरसिंह जिसने बचपन में कितने नटखट नहीं किये ! गांव के कितने लोगों को परेशान नहीं किया ! कितनी छोकरियों के गले के छूटे उसने नहीं उतारे ! कितनी इठलाती, बलखाती, पनिहारिनियों की गगरियां नहीं फोड़ीं! कितनी लड़कियों से उसने दोस्ती नहीं की और जितनों के साथ वह आया, एक से उसने ब्याह करने की बात कही। पर ब्याह भला आदमी के वश की बात है ! वह तो भाग का लेखा है। कपाल की लकीरें जन्म के साथ खिंच जाती हैं। उन्हें है कोई जो मेटे ?
बैरी की हरकतों से तंग आकर सानी और रसीली ने अपने बाप-दादों का गांव छोड़ा था। गांव-वालों ने उन पर रोज हरजाने लगाने शुरू कर दिये थे। रोज पंचायत जुड़ती। रसीली की नयी-नयी दलीलें और बीरसिंह की नयी-नयी बातें किसी काम न आतीं। कब तक जुर्माने की रकम वे देते। उन्होंने गांव छोड़ दिया। इकलौता बेटा, समझे तब न? पर भाग का फेर उसी जुर्माना करने वाले सरपंच की लड़की ने हरे मड़वा के नीचे सरीली की लाज रख ली। पुराने गांव में उन्हें फिर आना पड़ा और आज ही शाम को कहारों ने डोली उतारी थी कि...।
“दादी, अब तो चला नहीं जाता”, बीरसिंह के सुर थक गये थे। सानी और रसीली इस थकावट का कारण जानते हैं। उसका मन पास हो तब वह तो जैसे निर्जीव देह लिये गाड़ी की चौंर पर बैठा है। मां-बाप का कहना न माने, वह भी तब अनसुना कर जाए जब उसे पता चले कि उसकी इकलौती बहन ही रांड हो यी। कहारों ने डोली उतारी थी। दुलहन भीतर गयी और उसे पहुंचाकर जैसे ही रसीली बाहर आयी कि बाहर से दहाड़ मारकर रोने की आवाज़ आयी। सब-कुछ छोड़कर बैरी बाहर गया तो देखता है उसकी मां अचेत पड़ी है। साने पोस्ट ऑफिस का हरकारा खड़ा है। उसने अपनी ऐसी सूखी आंखों से उसे देखा, जिनका पानी जैसे आग में तपते तवे ने एकदम सोख लिया है। हरकारे ने चिट्ठी बांचकर सुना दी और बैरी की छाती पर जैसे रारा पहाड़ उठाकर दे मारा। उसने गाड़ी फांदी और फूल-सी महकती नयी दुलहिन को कमरे में छोड़कर यहां चला आया।
“वह क्या है रे बैरी ?” सानी ने अपनी सिकुड़ी हुई आंकों से सामने दिखाते हुए पुछा। बीरसिंह ने नज़रें घुमायी – दो बार, चार बार, नीलमणि की तरह घटाटोप अंधेरे में जैसे तारे चमक रहे थे। धरती पर और तारे ! बीरसिंह प्रसन्न हुआ। बोला, “गाड़ी आ रही है, बापू ! बैलों की आंखें चमक रही हैं।”
तीनों सतर्क हो गये। चलते-चलते रात थक रही थी पर इनकी यात्रा का अंत नहीं था। घंटियों की आवाज़ पास अदी गयी और फिर गाड़ी भी किनारे आकर रुक गयी। जब गाड़ीवान ने बताया कि बस आगे का गांव ही अमरवाड़ा है तो बीरसिंह खुश हुआ। बूढ़ा सानी कथरी संभालकर सतर्क बैठ गया और रसीली ने तूमा में रखे पानी को गले के नीचे उतारा, ताकि आगे की कसरत के लिए वह गले को ताजा कर सके।
अंधेरा भागा। सूरज ने अपनी सोनिया किरनें नये गांव की नयी गलियों में बिछा दीं। तब रहट चल रही थी। बैलों की घंटियां बड रही थीं। गेंवड़े में मरद-औरतों के सुर तैर रहे थे और कुओं पर जवान औरतों ने घेरा डाल दिया था। और दिन होता तो बीर सिंह इन कुओं की ओर मुड़ जाता, पर आज उसकी नज़रें भी उस ओर नहीं उठीं। सानी ने बुढ़िया को धकियाया और उसे जैसे “सिंगल” मिल गया। उसका बूढ़ा गला एकदम फट पड़ा। अनवरत क्रंदन एक नदी के प्रवाह की भांति बह चला। रसीली ने अपनी बेटी-दामाद के भूले-बिसरे किस्से उस क्रंदन के साथ दुहराने आरंभ कर दिये। यह एक परंपरा थी। उसका निर्वाह रसीली न करे, तो गांव में उसकी थुड़ी-थुड़ी हो जाए। सारा गांव उसके सिर पर आसमान पटक दे।जवान बेटी का खसम नहीं रहा ! दामाद के मरने पर सास न रोये!
रोते-धोते, चीखते-चिल्लाते किस्से-कहानियों की अनगिनत श्रृंखलाओं के साथ ही गाड़ी रुक गयी और बीरसिंह एक उचाट भरकर नीचे उतर पड़ा। तब बीरसिंह और सानी ने भी रसीली के कंठ से होड़ लगानी शुरु कर दी थी। और इन्हीं रोती आंखों, जिसमें आंसू थे या रातभर के जागरण का आलस्य, बीरसिह ने देखा, उसकी बहन बाहर फरके में खड़ी हंस रही है। उसने दांत चबाये। उसे लगा कि वह एक पत्थर उठाकर उसके सिर पर पटक दे। उसका खसम मर गया और वह हंस रही है ! उसने देखा, गांव की औरतें, जो गैल चल रही थीं, वहां रुक गयी हैं। एक खासी भीड़ लग गयी है। बेटी आगे आकर मां से लिपट पड़ी। दोनों खूब रोयीं। सानी समधी के बाजू में खड़ा आंसू पोंछता रहा और समधी बराबर मुसकराता सबको देख रहा था। बोला, “अरी रधिया, बाबू के लिए पानी तो ला।”
बीरसिंह ने सुना तो दंग रह गया। भीतर लाश पड़ी होगी और उसका बाप पानी मंगा रहा है। बाप है कि कसाई ? बीरसिंह कुछ पास आ गया। मातम के मौसम में उसे पैर पकड़ने का भी ध्यान नहीं रहा। वह तो समाचार सुनकर ही ठूंठ बन गया था। उसने अपनी धुंधली आंखों को ऊपर उठाते हुए पूछा, “दादा, बापू को क्या हो गया था ? अभी...।”
“हां, बेटा, भीतर तो चलो...।” दादा के बनावटी स्वरों में निराशा तो थी, पर होंठ अब भी तिरछे ही थे। बीरसिंह यह देखकर कितना खिसियाया था, इसे दूसरा नहीं जान सकता। ये सब आदमी हैं या जानवर ? जवान जीव चला जाए और सब हंसते रहें। रसीली की बेटी ने अब रोना बंद कर दिया था, पर सरीली बराबर अपना सिर और छाती पीटती जा रही थी। वह इस तरह रो रही थी जैसे उसी का खसम चला गया है। इतना रोना-पीटना कि कोई अंदर जाने को तैयार नहीं और तब बीरसिंह ने अपनी आंखों को बार-बार पीटना शुरू कर दिया, जब उसने देखा कि उसका बहनोई तो लोटे में पानी लेकर बाहर आ रहा है। यह क्या सपना है ? यह शारदा मइया परताप है, जो मुर्दा जी गया। उसकी पलकें बार-बार बंद होने और खुलने लगीं। वह आकर अपने साले से जैसे लिपटा कि बीरसिंह के पैर से जमीन खिसक गयी। वह जैसे अचेत हो गया, सुन्न पड़ गया ! अब रसीली ने भी रोना बंद कर दिया था और सानी की आंखे भी पथरा गयी थीं।
“बुरा न मानो बापू !” बेटी ने शरमाते हुए कहा, “कल इनके सिर पर कौआ बैठा था तो पंडितजी ने कहा कि इनके मरने की खबर भेज दो। तुम्हीं पास थे सो... सो मैं यह भी खयाल न रख सकी कि मइया...” बेटी ने मुंह में अपनी साड़ी का छोर ठूंस लिया और भीतर चली गयी। बीरसिंह तत्काल एक खूंखार भेड़िए की तरह चीख पड़ा। उसने एक धक्का देकर अपने बहनोई को दूर फेंक दिया। अपनी जलती आंखों से एक बार उसने वहां खड़े सारे लोगों को देखा फिर फंदे बैलों की रास पकड़कर जो गाड़ी पर चढ़ा तो फिर दौड़ती गाड़ी आगे भागती गयी। किसानों ने उसे बुलाया पर अब किसी की आवाज़ उसके कानों में नहीं आ रही थी।


श्री राजेन्द्र अवस्थी
पूर्व संपादक, कादंबिनी
एफ-12, जंगपुरा एक्सटेंशन

नई दिल्ली, 110014
(हिन्दी के प्रख्यात संपादक एवं चिंतक श्री राजेन्द्र अवस्थी को उनकी पत्रकारिता एवं साहित्य साधना के लिए सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ ने वर्ष 2004 का पद्मभूषण झावरमल्ल शर्मा सम्मान से अलंकृत किया गया है । संपादक )

फाग के दोहे

सत्ता मौसम हाथ में सौंपे शिशिर निराश
सन्यासी बनकर मिला पहिने वसन पलाश


केशर कस्तूरी कुसुम फागुन भेजे पत्र
गंध बांटने हम खड़े यत्र तत्र सर्वत्र


फूलों के संग आ गई गंधों की बारात
अंग गई छूकर पवन ऊँची नीची जात


मुस्काती हैं चूड़ियाँ खनकें बाजूबन्द
केशर रंग गुलाल ने रचे फागुनी छंद


केशर ऐपन हाथ ले संखियाँ करें किलोल
फागुन ‘वो’ सखि लिख गया छूकर सुर्ख कपोल


देह लासनी पर खिंचे इन्द्रधनुष के रंग
सांसे भीजीं रस-मदन मन में मिलन तरंग


सरसों ने ऐसा किया धरती का श्रृंगार
चन्दा छिप-छिप कर तके व्योम करे मनुहार


सुन टेसु भौंचक हुआ लवंग लता का राग
उसके मन में आग है अपने तन में आग


भंवरे कलियों से कहें अपने मन की बात
फागुन कैसे चुप रहे बिना किए उत्पात


श्री प्रमोद सक्सेना
91, चित्रगुप्त नगर, कोटरा सुल्तानाबाद
भोपाल,मध्यप्रदेश

पाँच नवगीत

छाँह में किस गाछ की

दूर कितनी दूर
हम घर से
और बादल
राह मे बरसे ।

झर रहे ये
फुहारा के फूल
धारासार
और हम सहते
शेरा की
एक मीठी मार

काँपती लौ
जुगनुओं की
तिमिर के डर से ।

दस्तकें देते रहेंगे
स्यात् कोई
शब्द सुन चौंके
खिड़कियों पर
किवाड़ों पर
वहा के झौंके

द्वार तक आये
दिया ले
अचक भीतर से ।

छाँह में
किस गाछ के
हम भीगते हैं मौन
रात के सुनसान क्षण में
जान पाया कौन

पूछते हम
स्वयं अपनी
साँस के स्वर से ।

आ बसे हम राजधानी में

नयी में
अथवा पुरानी में
पात्र हैं हम हर कहानी में।

हम समय के साथ क्या दौड़े
कट गये अपने पुरातन से
पर नहीं अब तक भुला पाये
याद कल की, एक पल मन से

आधुनिकता
सोन हिरनी-सी
रही छलती ज़िंदगानी में।

अनगिनत बेनाम चेहरों में
यहाँ कोई नहीं अपना है
साथ बुझती हुई आँख के
एक टूटा हुआ सपना है

छत नहीं कोई
कहीं सिर पर
धूप, आँधी और पानी में।

फूल अलसी और सरसों के
फिर नहीं वैसे कभी फूले
हैं कहाँ वे नीम औ’ बरगद
डाल जिनका थाम कर झूले

बन्धु !
गँवई गाँव से चलकर
आ बसे हम राजधानी में।


यह अपरिचय और यह चुप्पी

कौन है
जिसने तुम्हारे चेहरे की मुस्कुराहट
नोंच डाली है।

सुनो तुमको इन दिनों
यह क्या हुआ है
क्या तुम्हें भी
लग गयी
निर्मम समय की बद-दुआ है

खुशबुओं, फूलों भरा
आँचल तुम्हारा
दीखता क्यों आज ख़ाली है।

यह अपरिचय
और यह चुप्पी
कहाँ से आ गयी है
वह दरो-दीवार पर
नीली उदासी
चील-सी मँडरा रही है

आइने पर
जम गयी क्यों धुँधलके की
एक गुमसुम पर्त्त काली है।

दूर कितना जा बसीं हमसे
हमारी दूसरी औ’ तीसरी
वे पीढ़ियाँ
अब हमें यों ही उतरनी चढ़नी
उम्र की ये शेष सीढ़ियाँ

कहो सुनकर ओस भीगी पाँखुरी-सी
दीठि क्यों छिपाली है।

बहुत दिन बीते

मञ्च यह ख़ाली करें, आओ।

हमें गाते-गुनगुनाते
बहुत दिन बीते
स्वरों की प्रतियोगिता में
कभी हारे, तो कभी जीते

लोग सुनना चाहते अब
और लोगों को
बन्धु ! मत बूढ़े स्वरों से
इस सभा को और ललचाओ।

हैं तुम्हारे पास वे ही
बादशाह, गुलाम, बेग़म और इक्का
खेल में जिनके सहारे
एक युग तक तुम जमाये रहे सिक्का

तुरुप के पत्ते सरीखी
नयी पीढ़ी आ रही है
जो न बख़्शेगी किसी को
खौफ़ कुछ खाओ।

ये तुम्हारे बिम्ब और प्रतीक कितने
हो चुके अब बे-असर, पोले
बहुत दिन तुमने निकाले
बन्द मुँह से
शब्दछल के जादुई गोले

नया गढ़ने के बहाने
मत विगत को और दुहराओ।

चलो, दर्शक मण्डली के बीच बैठें
सहज होकर भूला जाओ तुम कभी थे
सूत्रधार, नायक, विदूषक
तुम समय के सँग चले थे

अब समय के साथ ही
इतिहास बन जाओ।

खड़ी करें रेती पर मीनारें

पलभर के इस सुख को
आँगन से कमरे तक आ पहुँचीं
छिटक-छिटक चिड़ियों के बच्चों-सी
बरखा की बौछारें।

फ़र्श पर फुँदकती फिर
आ बैठीं कन्धों पर
सिहराते छुअन भरे
वत्सल सम्बन्धों पर

इस घर में यह अन्तिम मेघ-पर्व
फिर हमसे बिछुड़ेंगे
ये खिड़की, दरवाज़े, दीवारें।

मेघों की झोली से
झरती जल की खीलें
जी करता
फुहियों को अँजुरी में भर पीलें

छोटे-छोटे सुख के
हर सोनल सपने की
खड़ी करें रेती पर मीनारें।

हंसों की पाँतों-से
उड़ते पाँखों के बल
इधर-उधर
दल-के-दल रंग-बिरंगे बादल

जीवन के शाश्वत जलते वन में
पल भर के इस सुख को स्वीकारें।

(देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ हिन्दी के वरिष्ठतम नवगीतकार हैं । इनकी रचनात्मकता के लिए सृजन सम्मान द्वारा वर्ष 2004 का विश्वम्भरनाथ ठाकुर पुरस्कार से नवाजा गया है । संपादक)

2/27/2006

दो ग़ज़लें

एक

अपनों को समझाने निकले
हम भी तो दीवाने निकले

सच कहने की ज़िद है अपनी
जीते जी मर जाने निकले

हर उदास चेहरे के पीछे
दर्दों के अफसाने निकले

अंधों की बस्ती में किसको
दर्पण यहां दिखाने निकले

भीतर आंसू, बाहर हँसना
तुम भी बड़े सयाने निकले

दो

मर गया लेकिन कभी टूटा नहीं
शख्स था खुद्दार वो झूठा नहीं

है बड़ा दिलदार वो इंसान जो
दुश्मनों से भी कभी रूठा नहीं

दोस्ती है इक इबादत की तरह
मुफलिसी में साथ गर छूटा नहीं

ऐसा करने चंद घड़ियाँ वे आयी
उसके पापों का घड़ा फूटा नहीं

हाय जनता और ये गुंडे सभी
कौन जिसने इसे लूटा नहीं


गिरीश पंकज
संपादक, सदभावना दर्पण, रायपुर

बुश और बुश का हिन्दी प्रेम ?

(वैचारिक टिप्पणी)
यह एक अच्छी ख़बर हो सकती है कि बुश या अमेरिका को हिन्दी से प्यार हो गया है । हो भी क्यों नहीं । हिन्दी एक समृद्ध भाषा है । उसके बोलने वालों की संख्या भी चीनी के बाद दूसरे नंबर पर है । इसमें अमेरिका का क्या स्वार्थ हो सकता है ?
विश्व-बाजार में अमेरिका ही सबसे बड़ा क्रेता और बिक्रेता है । वह दुनिया की हर श्रेष्टतम् वस्तु का खरीददार है । इसकी खरीदफ़रोख्त में बाधक तत्वों की संख्या न के बराबर है । उसके बावजूद हिन्दी के साथ भी जब वह अरबी, चीनी, रूसी, फारसी और प्रभावशाली भाषाओं को सिखाने के लिए अमेरिकनों को उत्साहित कर रहा है तो इसका मतलब क्या हो सकता है ? हमारे विचार से अमेरिका अन्य ताकतवर देशों से दोस्ती करता है भले ही यह ऊपरी तौर पर हो फिर भी वह ताकतवर से द्वंद्व नहीं चाहता । इसी प्रकार तीसरी दुनिया को कई प्रकार की सहायता करता है । या ताकत के बल पर अपने को दादा मनवा लेने के लिए बाध्य करता है तो इस दोस्ती और दुश्मनी के पीछे वह अपनी ही ताकत को बढ़ाता है । यही वज़ह है कि शेष विश्व में अनेक दृष्टि से अमेरिका सबसे ज्यादा ताकतवर देश है । उसका दूसरा विकल्प नहीं ।
गंभीरता से परखने से यह साफ-साफ झलकने लगता है कि यहाँ बात कुछ दूसरी ही है । भाषा ही विनिमय का सबसे बड़ा माध्यम है । यहाँ अमेरिका हिन्दी या अन्य भाषाओं के माध्यम से उस बहुसंख्यक क्षेत्र में सीधे ताल्लुकात रखना चाहता है जिसके बीच कोई सरकार या शासन व्यवस्था न हो और जहाँ वह विश्वसनीय हो सके । जहाँ वह अपनी पकी-पकायी वैचारिक माल के लिए ग्राहक तैयार कर सके और अपनी अपसंस्कृति को भी बिना शक-सुबहा के बेच सके । जहाँ वह भाषा के ज़रिये देश के सर्वोच्च संस्थान शिक्षा, सुरक्षा और खुफिया तंत्र में दबाव डाल सके या गड़बड़ी पैदा कर सके । यह मान कर चलना चाहिए कोई कुछ देता है तो यों ही नहीं देता, उसमें उसका अपना स्वार्थ होता है । यह बात हिन्दुस्तानियों को अच्छी तरह जान लेनी चाहिए । इससे साहित्य और संस्कृति या विश्वबन्धुत्व की भावना को कम लेकिन क्रेता-बिक्रेता को ज्यादा लाभ मिल सकेगा । इससे सदियों से अमेरिका का संजोया सपना (विश्व सरकार की स्थापना) का भी आधार मिल सकेगा । चारा न डालने से मछली फँसेगी कैसे ?
हम भारतीयों का बाजार हिन्दी से संचालित होता है । खासकर किसानों की मंडियाँ और उसके खेत- खलिहान । यहाँ जह हम हिन्दी कहते हैं तो इसमें हिन्दी की अन्य बोलियाँ को भी सम्मिलित समझना चाहिए । भारतीय ग्रामीण बाजार को नियंत्रित करने एवं उस तक पहुँचने के लिए हिन्दी एवं उसके भाव-तकनीक को जानना निहायत जरूरी हो चुका है । यह अब राज नहीं रहा कि अमेरिका व्यापार जगत की ललचायी आँखे लम्बे समय से भारतीय बीजों सहित श्रम एवं कौशल पर टिकी हुई हैं । वह हिन्दी के अस्त्र से ही भारतीय ग्रामीण उद्योग एवं उसके उत्पाद के किलों को जीतना चाहता है ।
हमारे ऐसा कहने में यह निहितार्थ नहीं है कि अमेरिका के इस कदम से हिन्दीभाषी मानव संसाधन के विकास के लिए कोई भूमिका नहीं बनेगी । हिन्दी की महत्ता अमेरिका में बढने से युवा इंजीनियर, टेक्नोक्रेट्स, डाक्टर्स आदि नये सिरे से अपना भाग्य अमेरिका जैसे विकसित देश में आजमा सकेगें । जाहिर है अमेरिका भी सोचता है कि हिन्दीभाषा में संचित ज्ञान, तकनीक, पांरम्परिक कौशल व दक्षता का क्यों न दोहन किया जाय । अब तक होता यह था कि भारत के उच्च आय वर्ग के प्रतिभा ही अमेरिका में रोजगार के नाम पर अपनी सेवा देते रहे हैं, वह भी अमेरिका की तुलना में कम और भारत की तुलना में अधिक वेतन एवं सुविधा पर । अब अमेरिका द्वारा हिन्दी के शरणागत होने के पीछे मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग की युवा संसाधनों का दोहन भी सन्निहित है जिसे अमेरिका बड़ी आसानी से कर सकेगा । इसमें किसी कोई शंका नहीं होनी चाहिए कि असली भारतीय कौशल, दक्षता तथा युगों-युगों से संचित ज्ञान का रहस्य हमारे हिन्दीभाषी मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग के पास ही सुरिक्षत है जो साधारणतः अंग्रेजी के विरोधी व हिन्दीप्रेमी रहे हैं ।
अमेरिका की वर्चस्ववादी नीतियों का प्रखर विरोध भारत का हिन्दीभाषी जनता ही करती रही है । क्योंकि वह सांस्कृतिक चेतना के मामले में अंग्रेजीभाषी भारतीयों से ज्यादा सतर्क और दृष्टि-संपन्न है । बुश के हिन्दी प्रेम का रहस्य इस बात का भी संकेत है कि ऐसा कर वह अंग्रेजी विरोधी व हिन्दीप्रेमी बहुसंख्यक भारतीयों के विरोधी-स्वरों को कम कर सकेगा ।
कुछ इसे भाषायी उदारवाद और हिन्दी की वैश्विक विस्तार का सम्मान भी कह सकते हैं । इससे हमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती किन्तु अचानक उपजे हिन्दी प्रेम को सरल कोण से सोचना शायद जल्दबाजी भी हो । इसे भावुकता से नहीं अपितु वैचारिक बुद्धिमता से ही देखा-समझा जाना चाहिए...

डॉ. बल्देव

मेरे साथ क्या-क्या नहीं हुआ ?


कहानीः भरत प्रसाद

अंत – “अभी आपने अपने हृदय में एक नारी की पीड़ा नहीं सही है, नहीं महसूस की है।”


आप देख लीजिएगा मैं उस हैवान दरिंदे को एक न एक जरूर खत्म कर दूंगी। मैं उसे छोड़ूंगी नहीं चाहे कुछ भी हो जाय। आप क्या सोचते हैं कि मैं औरत हूं तो मर्दों का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। बिलकुल गलत सोचते हैं जनाब, भारी गलतफहमी में हैं। चलिए माना कि औरत सहनशील, शांत और गम बर्दाश्त करने वाली होती है, लेकिन यह मत भूलिए कि ऐसा वह एक सीमा तक ही करती है। जब उसे लगता है कि उसकी सज्जनता का गलत फायदा उठाया जा रहा है – तो वह आग हो जाती है, जिसकी लपट में आपका घमंड और आपकी मर्दानगी जलकर ख़ाक हो जाएगी। आप उसकी मौन-विनम्रता को जब कमजोरी समझ बैठते हैं, तभी आपकी गलती शुरू हो जाती है। वह ज़माना चला गया जब मर्द अपनी पत्नी को रात-दिन पीटता रहता था, गंदी-गंदी गालियां बकता था, और पत्नी उसे बिना कोई मजा चखाए रो-गाकर चुपचाप साफ-साफ बच जाएं। भूल जाइए वे दिन ! आपका मुंह नोंच लूंगी, चबा डालूंगी जी ! अभी किसी ने अपमान के प्रतिशोध में क्रोधोन्मत्त नारी के भयानक रूप को देखा कहां है ? जिस दिन देख लेंगे न, उस दिन आप किसी औरत को हाथ लगाने का मतलब समझ जाएंगे।
वैसे, जिस दिन से मैं यहां आयी हूं, तब से न जाने कितनी बार मेरी इच्छा हुई कि आत्महत्या कर लूं, लेकिन फिर मैं सोचती हूं कि क्या इससे वे भेड़िए समाप्त हो जाएंगे, जिनके चलते मैं इस दुर्दशा को पहुंची ? क्या उनके वे घिनौने कारनामे बंद हो जाएंगे, जिसके कारण हमारी जैसी कितनी बहू-बेटियां बर्बाद हो रही हैं ? नहीं, हरगिज नहीं। हम खुद को मारकर अत्याचार का ऐसा आत्मघाती विरोध करते हैं – जो दुश्मन से लड़ पाने में अक्षम होने के कारण अन्ततः हार मान बैठता है, और अत्याचारी को दण्ड न दे पाने की आत्मग्लानि में खुद को दण्डित करने लगता है। इसलिए आत्महत्या जीवन के प्रति मन की अंतिम हार है, और ऐसी हार, जिसमें शत्रु को अपनी खटिया जीत का आनंद महसूस होता है और वह अपनी नीचता रोकने या उस पर पछताने के बजाय, अपनी बदतमीजी को दुगुनी इच्छा के साथ आगे भी जारी रखता है। अतः जरूरत इस बात की है - कि हम अपमान का जवाब उसके घोर अपमान के रूप में देकर अत्याचारी को अंततः यह एहसास दिला दें कि दरअसल वह कितना नीच है। उसे यह पता चल जाय कि वह आदमी नहीं, जावनर है, बल्कि जानवर से भी गया-गुजरा। जानवरों के पास कुछ तो दिमाग होता है, वे प्रायः सीधे भी होते हैं। खैर, मेरा यह साफ-साफ मानना है कि कुकर्मी को उसके किए की सजा मिलनी ही चाहिए, ताकि वह अपनी नीचता की पीड़ा का एहसास करके दूसरों को फिर पीड़ित न करने का सबक सीख जाय। इसलिए मैंने आत्महत्या का विचार फिलहाल छोड़ दिया है।
अब आप या कोई भी मेरे इस निर्णय को नहीं बदल सकता और यह सिर्फ निर्णय नहीं, बल्कि मेरी समस्या का समाधान भी है, जो न सिर्फ अपमान से व्याकुल मेरी आत्मा को गहरी शांति देगा, बल्कि उन लड़कियों को भी साहस और शक्ति प्रदान करेगा, जो पुरुषों द्वारा अपने ऊपर किए जा रहे अपराधों को अंतिम नियति मान बैठी हैं, जिन्हें इस सच्चाई का जरा भी भान नहीं कि उनमें अपना स्वतंत्र विकास करने की कितनी अजेय शक्ति छिपी हुई है। इसलिए मैंने अपनी वर्तमान बर्बादी के बाद भविष्य का जो रास्ता चुना है, वह भले ही हमको दुख के अथाह अंधकार में पुनः भटकने के लिए मजबूर कर दे, लेकिन रौशनी का एहसास करेंगी, और उसके द्वारा इस समाज के ऐसे आदमियों की भद्दी वास्तविकताओं को देख सकेंगी, जो भीतर से भ्रष्ट और बाहर से निहायत सभ्य नजर आते हैं। वे यह जान सकेंगी कि इस लड़की ने कैसे और क्यों हिंसा का रास्ता अपनाया, जबकि स्वभाव से वह शांत और नरम व्यवहार की होती हैं। उसे आज क्यों मजबूर किया जा रहा है कि अपने अच्छे-भले स्वभाव को छोड़कर निर्मम व्यवहार और कठोर मानसिकता की हो जाय। खैर, ये सवाल मेरे लिए बहुत सामान्य बन चुके हैं, जो सवाल के बजाय समाधान का रूप धारण कर लिए हैं। हां, इस पर सवाल उठाएं आप सब क्योंकि अभी आपने अपने हृदय में एक नारी की पीड़ा नहीं सही है, न ही महसूस की है। आपका भविष्य हमारी तरह बचपन में ही नहीं मर गया है, खैर हमारी वर्तमान ज़िदगी की तरह आपका जीवन इतना निरर्थक नही बन गया है। चूंकि मैंने इसी पच्चीस साल की उम्र में ही औरत के अपमानित और लांछित जीवन की दुखद से दुखद स्थितियों को जीते-मरते देख लिया है, इसीलिए मैं कहती हूं कि वे सवाल ही मेरे उत्तर हो गए हैं।
मैं आगे क्या करने जा रही हूं और आगे क्या करूंगी, यह अभी किसी को नहीं बताया है, और न बताऊंगी। जब तक मैं अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो जाती, तब तक चैन से नहीं बैठूंगी। मेरी मां, मेरी भावुक, सीधी-सादी और प्यारी मां आज मेरे साथ, अपनी अभागी बेटी के साथ है। कभी वे भी दिन थे, जब मैं मां को सबसे सच्चे दोस्त और सबसे अच्छे दोस्त की तरह मन की एक-एक बात बताती थी, उससे कुछ भी छिपाना मेरे लिए कठिन था। जैसे लगता था कि यह मां तो है ही लेकिन उससे भी अधिक मेरी आदरणीय सहेली, मेरी प्रिय शुभचिंतक और हर सुख-दुख को समझने वाली दोस्त है। आज मुझे लगता है कि बच्चों की उम्र बढ़ने के साथ-साथ मां-बाप का अनुशासन अपने आप ढीला होने लगता है, और उनके भीतर बच्चों को आजादी देने का विश्वास पनपने लगता है । लेकिन आज मैं जिस हालत में हूं, उससे मेरी मां कतई निश्चिंत नहीं और न ही सुखी है। बल्कि अब उसकी चिंता – मुझसे भी गहरी हो उठी है। कभी-कभी उसकी हालत देखकर मैं खुद को विक्षिप्त-सी महसूस करने लगती हूं कि हाय रे बदनसीब संतान ! एक भोली-भाली मां तेरे ही कारण चिंता, बेचैनी और मार्मिक पीड़ा में दिन-रात डूबती-उतराती अपने आपको भूलती जा रही है। वह भूल चुकी है कि सुख-चैन क्या होता है ? वह भूल चुकी है कि भूख-प्यास किसे कहते हैं ? हाय रे ममता ! तू अपनी संतान से पागल कर देने वाला इतना प्रेम क्यों करती है ? ओह, मैं उसी दिन क्यों नहीं मर गई। आज इस तरह घुट-घुटकर मरने के लिए क्यों जिंदा हूं ? ऐसा नहीं कि मैं मां की पीड़ा नहीं समझती, नहीं महसूस करती। करती हूं, खूब करती हूं। मां नहीं हूं तो क्या ? एक औरत तो हूं। मेरे भी भीतर ममता की निर्मल शक्ति है, हां, वह पत्थरों के नीचे दब गयी है। उसे कभी खाद-पानी, उन्मुक्त आकाश और सुखद हवा नसीब नहीं हुई, उसे कभी उज्ज्वल, ऊर्जामय प्रकाश हासिल नहीं हुआ, नहीं तो आज वह भी अपने फूलों और पत्तियों के साथ पूरा विस्तार ले चुकी होती। खैर, आज मेरी इस भावुकता का कोई मतलब नहीं, बल्कि जिस मार्ग पर मैं चल पड़ी हूं, उसके लिए यह भावुकता कांटे का काम करेगी, और मैं अपने लक्ष्य तक पहुंचना तो दूर, बीच रास्ते में ही थक-हारकर बैठ जाऊंगी।
अब मैंने अपने आपको निर्ममतापूर्वक मजबूत बनाना सीख लिया है, क्योंकि जो काम मुझे करना है, उसमें जितनी ही कठोरता सध सके, उतना ही अच्छा है। आज मुझे पता चला था कि कमजोर हृदय से कठिन मार्ग पर चलना कितना कठिन है। इन दिनों मैं लगातार ऐसी रोमांचक और दिल कंपा देने वाली घटनाओं को बड़े ध्यान से पढ़ती हूं, जो अक्सर हमारे समाज में घटित होती रहती हैं। इनको पढ़ते ही मेरे भीतर अपमान की सुलगती आग सहसा धधक उठती है, और यही जी करता है कि इस तरह की वारदात करने वालों को अभी इसी वक्त खत्म कर दूं। जिस बात को जिस घटना को खुद मैंने झेला है, उसको सुनते ही मेरी नस-नस में हिंसा और प्रतिशोध का पागलपन दौड़ने लगता है। मेरे रोम-रोम में जबरदस्त उफान भर उठता है, और क्रोध के भारी आवेश में पूरा शरीर थर-थर-थर-थर कांपने लगता है, सांसों में जैसे तूफान मच गया हो। ऐसा पता नहीं क्यों होता है ? मैं कुछ समझ नहीं पाती। जो मैं निश्चित तौर पर करना चाहती हूं, उसे करने से मन बार-बार रोकता है, लेकिन हृदय के किसी कोने से आवाज भी उठती है कि अपमान सहकर चुप बैठे रहना और उसका कोई भी जवाब न देना अपने प्रति और अपनी ही तरह से दुखी अन्य नारियों के प्रति अन्याय है। कहीं न कहीं, कभी न कभी हमें इन सबके सामने तनकर खड़ा होना ही पड़ेगा। जब तक हम सवाल करना नहीं सीखेंगी, तब तक कहीं से कोई उत्तर हमें नहीं मिलने वाला। यद्यपि इन सबको हमारे हर प्रश्न का उत्तर खूब पता है, लेकिन चूंकि उनके उत्तर में उनकी बदनामी छिपी हुई है, उनकी काली असलियत खुल जाएगी, बनावटी सज्जनता का नकाब हट जाएगा और सबसे कष्टकर उनके लिए यह कि हम उनके बराबर खड़ी हो जाएंगी इसीलिए वे उत्तर को चुपचाप निगल जाते हैं। अब आप ही बताइए, कभी ऐसा हुआ है कि आज हो जाएगा ? उन्हें पूरे संदेह के साथ डर है कि शताब्दियों से औरत की आत्मा पर जमी हुई उनके तानाशाही शासन की कुर्सी उठ जाएगी। इसीलिए वे उत्तर देने के डर से हमारे सवालों को बराबर टालते रहते हं, जान-बूझकर अनसुना करते रहते हैं, और जब बात खुलती नजर आती है, तो हमारे बहाने हमारे जिंदा सवालों की हत्या कर डालते हैं।
आज मेरे बंदी जीवन का मुक्ति-दिवस है। आज की रात मेरी आत्मा का एक पीड़ित उद्देश्य सिद्ध होगा। यह वह रात नहीं जो हर रोज शाम के रूप में आती है, और सुबह के पहले चली जाती है। यह हमारे स्वाभिमान की अमिट उदाहरण और कुछ लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण होने जा रही है। विशेषकर उन लोगों के लिए जो यह मान बैठे हैं कि वे चाहे कुछ भी कर लें, उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। यदि बचा सकें, जो खुद को बचा लें वे लोग, जिन्होंने अपनी विषाक्त भावना के अंधेपन को अपनी जीवन-दृष्टि बना लिया है। उनका यह खेल अब अधिक दिन तक हरगिज नहीं जलने वाला। कम से कम मैं इसे जीते-जी नहीं चलने दूंगी, इसे उखाड़ फेंकूंगी और इसे नेस्तनाबूद करने के लिए अपना सारा जीवन लड़ा दूंगी।
पता नहीं क्यों यह जानते हुए भी कि उसका घर यहां से दूर है, मुझे वह दो कदम से अधिक कुछ नहीं लगता। अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण के जोश से इतनी भरी हुई हूं कि आज बड़ी से बड़ी दूरी मुझे अपने पैरों तले नजर आएगी। जिधर चल दूंगी, वह रास्ता मेरा साथ देने लगेगा। इस वक्त जहां कहीं भी चाहूं पलक झपकते पहुंच सकती हूं। कोई भी दूरी मेरे अडिग संकल्प के सामने बौनी है। आज सुबह से ही मैं इसी शाम की प्रतीक्षा कर रही थी कि कितना जल्दी से जल्दी दिन बीते और मैं अपनी बहुप्रतीक्षित योजना में जुट जाऊं। यह शाम अब अपने चरम पर अंततः रात का रूप धारण करने वाली है। वहां मेरे चलने का समय हो गया है, मुझे अब चल देना चाहिए। थोड़ा-सा भी रुकना अपनी आत्मा के प्रति अक्षम्य अपराध होगा। अब मुझे किसी कीमत पर पुनर्विचार नहीं करना है, क्योंकि पुनर्विचार कभी-कभी आदमी को लक्ष्य के प्रति कमजोर बना देता है। और फिर मैं पुनर्विचार करूं ही क्यों ? आज जिसने मुझे यह रास्ता अख्तियार करने पर मजबूर किया, क्या उसने एक बार भी थमकर सोचा कि वह क्यों करने जा रहा है ? उसके मन में क्या एक बार भी डर पैदा हुआ कि दुनिया और समाज के लोग उसे क्या कहेंगे ? काश, उसने खुद को स्वयं से सवाल करने लायक बचाए रखा होता। वह कमीना बेफिक्र होकर आराम की जिंदगी जी रहा है। अरे, उसे तो अपने जीने पर धिक्कारना चाहिए, अपनी नजरें किसी के भी सामने उठाने पर शर्म करनी चाहिए। लेकिन ऐसी आदमियत उसमें कब से आने लगी ? वह तो भरे समाज के बीच सज्जनता की नकाब ओढ़े वर्षों से इज्जतदार लोगों को धोखा दे रहा है। वह तो ऐसा गुप्त शातिर है कि बहुत मंजे हुए लोग तक धोखा खा जाएं, सीधे-साधे लोगों की बात ही क्या ?मैं अब घर से निकल पड़ी हूं। शाम अभी कुछ देर पहले बीती है। चारों ओर अंधकार ही अंधकार घिरा हुआ है। यह अंधकार मुझे बहुत अच्छा लग रहा है, इससे इतनी राहत महसूस करती हूं कि क्या बताऊं। जैसे शिकारी के तीर से बुरी तरह घायल कोई पक्षी किसी तरह उड़ते-उड़ते कांटों की घनी झाड़ियों में जा छिपे। जब मैं घर से निकली तो मां कहीं गयी हुई थी। मैं तो बिल्कुल इसी मौके की तलाश में थी कि मां कहीं और चली जाय, और मैं यहां से चल दूं, क्योंकि यह मैं बिल्कुल नहीं चाहती कि मां को मेरी इस योजना के बारे में जरा-सी भी भनक लगे। यह तय मानिए कि मेरा इरादा जानने के बाद वह किसी भी की मत पर मुझे घर बाहर नहीं निकलने देती। इसलिए नहीं कि उसे उससे हमदर्दी है। वह भी घृणा करती है, थूकती है – उसके नाम पर। लेकिन उसे भय है कि कहीं वह अपनी बेटी से हाथ न धो बैठे, कहीं उसके जीवन की निष्फल टहनी से लगे हुए घोंसले को वक्त का कोई झोंका अलग न कर दे। वह जमाने से इतनी डरी हुई है कि मुझे दुधमुँहे बच्चे की तरह हमेशा चिपकाए रहना चाहती है। ओह ! वह कारण तू ही है मां। तू ही मेरे जीने का कारण है। तू ही मेरे जीवन की मूल-शक्ति है। आज तू न होती तो मैं उसी दिन अपना प्राण दे देती , जिस दिन मैं अपने ससुराल में सारे गांव के सामने बुरी तरह से अपमानित करके बाहर निकाली गयी।
उसका घर पता नहीं अभी कितनी दूर है ? वैसे मैं जितनी तेजी से जा रही हूं, इस रात में क्या कोई चल पाएगा। यह रात ज्यों-ज्यों गहराती जा रही है, मेरी चाल और तेज होती जा रही है। जैसे यह अंधकार मेरे साहस में उत्प्रेरक का काम कर रहा हो और चलने की शक्ति को निरंतर तेज करता जा रहा हो। वैसे मैं इधर कई वर्षों के बाद आयी हूं। बहुत बचपन में कभी-कभी मां के साथ ाकर अपनी हमजोली में खेला करती थी, तब से मुझे याद नहीं पड़ता कि मैं फिर कभी जी भरकर हंस-खेल पायी हूं। आज जब पूरे बीस साल बाद यहां आयी हूं, न जाने क्यों अपना वह बचपन बहुत याद आ रहा है। वही पार्क, वही बूढ़ी दादी जैसी चुपचाप निहारती हुई गलियां, वही अमरूद का पेड़, अब तो बूढ़ा हो चला है, उस समय बिल्कुल हमरी उम्र का था, अपने साथी की तरह। इन सबको देखकर लग रहा है – जैसे मुझे यहां आया हुआ महसूस कर इन सबमें रौनक लौट आयी हो। अब आप ही देखिए न, ये सब मुझसे शिकायत कर रहे हैं कि तुम इतने दिनों तक कहां रही बेटी ? तुम्हें क्या पता कि उस दिन से तुम्हारे अचानक चले जाने के बाद मेरे ऊपर कई दिनों तक बच्चे खेलने तक नहीं आए। हम सबको तो वैसे भी न जाने क्यों चुपचाप रहकर तन्हाई में जीवन काट देने का अभिशाप मिला हुआ है। उस दिन के बाद से यदि भूलकर भी कोई बच्चा हमारी गोद में हमारे पास आ जाता, तो किसी अदृश्य खतरे के आतंक से सहमा-सहमा दबे पांव भाग निकलता था। बेटी गोदावरी, तुम्हें देखकर देखकर आज मेरा हृदय नन्हें बच्चों के हंसते-खिलखिलाते, उछलते-मचलते बचपन को एक बार फिर देखने को बेचैन हो उठा है। कई सालों से मैं बच्चों की किलकारियों की भूखी हूं, बेचैन हूं कि कोई छोटा-मोटा नन्हा-सा बच्चा आए, जिसके भोले-भाले तन का स्पर्श पाकर अपने जीवन को धन्य कर सकूं। बेटी, मेरी बच्ची ! अब अपनी बेजान, गूंगी और सबके कदमों में दिन-रात पड़ी हुई मां की गोद को छोड़कर फिर कभी मत जाना, मत जाना।
लेकिन मैं इन सबको कैसे समझाऊं, कैसे क्या कहूं कि मैं यहां रुकने या बचपन में लौटने के लिए नहीं आयी हूं। मुझे तो अपने माध्यम से उन लोगों के हारे हुए दिल को राहत पहचान है, जो कदम-कदम पर भ्रष्टता की अभेद्य दीवारों से घिरे हुए हैं। जिनकी स्थायी नियति बन चुकी है कि हर गलत के सामने चुपचाप घुटने टेक दें। वैसे मैं उसके घर के बिल्कुल नजदीक तो आ गयी हूं, लेकिन मुझे बड़ी सावधानी से कदम उठाना है। यह तो मुझे पता है कि राक्षसों के घर में मनुष्यों का वास नहीं हो सकता, फिर भी संभव है बुढ़िया और उसके दो बच्चे रहते ही हों। यदि वे होंगे, तो मुझे अपने काम को अंजाम देने में थोड़ी बाधा आ सकती है, क्योंकि यदि वे सब सामने आ गये तो मैं कह नहीं सकती, कि वहां भी इतना साहस जुटा पाऊंगी। इनमें से यदि कोई भी उसकी तरफ से क्षमा मांगने लगा, तब मैं क्या करूंगी ? लेकिन क्या मैं उसे छोड़ दूंगी, क्या उसे माफ कर दूंगी ? नहीं-नहीं, यह तो मेरी बहुत बड़ी कायरता होगी। वैसे, यह हो सकता है मेरी इस कायरता को उदात्त मानवता का नाम दिया जाए, लेकिन ऐसी निष्क्रिय औरक अशक्त मानवता किस काम की जिसमें अपराधी छुट्टा घूमता रहे और भुक्त-भोगी अपमान-बोध से ग्रसित होकर जीवन भर विक्षिप्त बनकर जीये। मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि इस घटना के बाद मेरा क्या होगा ? लेकिन क्या उसका मुझे भय है ? हं-हं-हं-हं! यह क्या चीज है ? चकोई मुझे बताए कि अब भय क्यों नहीं होता ? अरे, अब जो होगा, सो होगा। हमें जो करना है – करूंगी, क्योंकि बहुत शिक्षित न होने के बावजूद अपने लम्बे अनुभव और खुद पर बीते हुए भयावह दिनों के चलते इतना तो अच्छी तरह से जानने लगी हूं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा! आपबीती दुर्गति से अब मैंने जान लिया है कि न्याय सबसे पहले प्रताड़ित के भूखे हृदय में जन्म लेता है। कानून की बड़ी-बड़ी पुस्तकें तो आत्मा की कसौटी पर खरे उतरे हुए नियमों की तरह दस्तावेज मात्र हैं। वैसे अभी फिलहाल कानून की व्याख्या में उलझने का मेरा समय नहीं है। अभी तो जो करने आयी हूं, उसे पूरा करूं, उसके बाद ही और कुछ।
इतने वर्षों बाद समय के दुष्चक्र ने मुझे लाकर पुनः ऐसे दरवाजे पर खड़ा कर दिया है, जिसके भीतर युद्ध है, और बाहर चुनौती। जिसके इस पार खड़ी रहती हूं-तो जीने का दुख होता है, उस पार जाती हूं-तो मरने का आत्मसंतोष। जिसके भीतर अपमान ही अपमान लिखा हुआ है और बाहर प्रतिशोध के लिए ललकार। ठीक दरवाजे की आड़ में हौले से खड़ी होकर मैं चुपचाप आंकने लगी कि घर में कौन-कौन हैं ? काफी देर तक कुछ अंदाजा नहीं मिला। इसी बीच खड़ी-खड़ी मैं न जाने क्या-क्या सोचती रही। एक साथ कई तरह के विचार हृदय में बुलबुलों की तरह उठते और थोड़ी ही देर में बुझ जाते। खास चिंता इस बात की थी कि आगे क्या किया जाय ? मैं अपनी तरफ से पूरी तरह चौकस और तत्पर थी, और बिल्कुल दम साधकर वर्षों से प्रतीक्षित उस क्षण के इंतजार में थी, कि वह कब आ जाय और मैं अपना लक्ष्य पूरा करूं। लगभग आधे घण्टे बाद मुझे छत पर बातचीत की हल्की-फुल्की आवाज सुनाई पड़ी। मेरी गहरी राहतपूर्ण खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इतने में भीतर से खांसने की आवाज आयी। इस प्राणघातक ध्वनि को पहचानने मैंने जरा भी गलती नहीं की। अब मैं अधिकतम सावधान की मुद्रा में खड़ी हो गयी, जैसे शरीर ने विद्युत का रूप धारण कर लिया हो। वह इधर ही आ रहा है मैं पदचाप को एकदम ध्यान लगाकर सुनने लगी। इस समय मेरा हृदय, मेरा दिमाग अपनी-अपनी जगह छोड़कर कानों में बैठ गए थे, और आत्मा ने पूर्णतः श्रवण-चेतना का रूप धारण कर लिया था। एक पैर दिखा, ये, ये, ये... दूसरा पैर भई दिखा। अब पूरा शरीर मेरे सामने है। इस वक्त सर्प के फन और उसके धड़ में मुझे कोई अंतर नहीं दिख रहा था; फिर देरी किस बात की ? बादलों में कड़कती बिजली की रफ्तार से मेरा हाथ उठा और उसमें कसकर जकड़ा हुआ शस्त्र उसकी गर्दन में विधिवत समा गया।
मध्य “शरीर जैसे क्षण-भर में रक्तशून्य होकर सफेद हो गया हो। बुद्धि कुछ काम नहीं कर पा रही थी, कि आखिर हुआ क्या ?”
आज एक साल बीत चुका है। मैं यहां जेल में बंद हूं। लेकिन इस एक साल के भीतर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं कैदी हूं। जानते हैं क्यों ? यह इसलिए कि मेरा वास्तविक कैदी जीवन आज से बहुत पहले शुरू हो गया था, जो कि न जाने कितने सालों से बरकरार है – और वो आज भी है। सच पूछिए तो मेरा सासा जीवन बन्दीयुग के रूप में बीता है। मैं अपना रोना रोकर आपको दुखी नहीं करना चाहती, लेकिन इतना मुझे पता है कि यदि आप लोग मेरी कहानी नहीं जानेंगे, तो दमन से मर्माहत एक निर्दोष औरत की दुर्दशा से अपरिचित रह जाएंगे; यदि आपने उसकी विक्षिप्त मानसिक स्थिति को जान भी लिया तो कोई आवश्यक नहीं कि आप उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए उठ ही खड़े हों। इसीलिए मैं कहती हूं कि दूसरों की असहाय दशा को देखकर बेहिसाब बेचैनी से तड़प उठना बहुत जरूरी है। मेरे घायल हृदय का दुखी राग इसीलिए छिड़ा है।
आज से करीब छः साल पूर्व मेरी शादी गांव के एक नौकरीशुदा आदमी से सम्पन्न हुई। वे स्टेट बैंक में क्लर्क थे, काफी शिक्षित थे, समझदार भी थे और भले आदमी कर तरह आचरण-व्यवहार भी करते थे। शादी के समय मेरे भीतर कई तरह की शंकाएं भविष्य के प्रति काफी चिंता पैदा करती थीं। ससुराल कैसा होगा ? सास-ससुर किस स्वभाव के होंगे, वे हमें मानेंगे कि नहीं, न जाने कैसा बर्ताव करें ? पास-पड़ोस के लोग पता नहीं किस पसंद के निकलें ? पहले-पहल ससुराल जाने वाली लड़की तो उस मूक गाय की तरह होती है, जिसको बचपन से पाल-पोसकर बड़ा करने वाले अपने ही लोग सयानी हो जाने पर किसी अनजाने ग्राहक के हाथ बेच देते हैं। उस गाय को यह क्या पता कि वहां अपने अनुसार मन-भर खुलकर चरने की छूट नहीं मिलेगी। घास के फैले हुए खेतों, ऊंचे-नीचे टीलों और चारों ओर विस्तृत मैदानों में अपनी टोली के साथ अलमस्त प्रसन्नता में विचरने के दिन शायद ही लौटें। खुले मौसम की घास जो उन्मुक्त हृदय से चरी जाती है, गाय के शरीर को बहुत जल्द लगती है, लेकिन खूंटे बांधकर उसे खिलाई गई जा रही सानी, चाहे उसमें रोज हलुवा-पूड़ी क्यों न डाला जाय, उसके शरीर को नहीं लगती, जैसे वह अन्न न हो जहर हो। क्या यह सच नहीं कि बंधन में, विकसित हो रहे हृदय को क्षीण कर देने की शक्ति होती है ? वैसे मैं तो केवल उन चिंताओं की बात कर रही हूं – जो प्रायः हर ब्याही जा रही लड़की के साथ होती हैं।
जिसके पास हम बराबर रह रहे हैं, जिसके साथ जीवन के बहुत सारे पहलुओं पर खुलकर बातचीत हो जाती है या जिसके व्यवहार और सोच के माध्यम से चरित्र काफी कुछ समझ लेते हैं – उसके प्रति भविष्य को लेकर एक निश्चिंतता हो जाती है कि अच्छा चलो यह ऐसे हैं और कम से कम इससे नीचे नहीं जाएंगे या उस सीमा को कभी पार नहीं करेंगे जो उनके मूल स्वभाव के विपरीत हो। यह मानती हूं कि ससुराल में पति ही संतोष और खुशी का आधार होता है, और उसी के सहारे ही कोई दुल्हन घर-परिवार, पास-पड़ोस, हितू-दोस्त या अन्य लोगों के साथ खुशियां बांटती है या उमंगपूर्वक इन सबके प्रति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी कोपूरा करती है। अगर उसका पति पास में नहीं है, कहीं और है या रोजी-रोजगार के लिए बाहर निकल गया है तो वह उसको बहुत याद करने या उसकी मीठी-मीठी चिंता करने के बावजूद उतनी परेशान नहीं होती, जितनी कि मर्द के बेकार घूमने या लम्पट निकल जाने पर। सौहर अगर निकम्मा निकल गया तो समझिए कि औरत की जीते-जी मौत है, तब उसका सारा जीवन कठिनाइयों एवं संघर्ष के दुर्गम पहाड़ों से घिररा हुआ समझिए। ऐसा मर्द अगर पास भी है तो बहुत खराब लगता है, क्योंकि दूर रहकर भी पत्नी को इज्जत और सम्मान के साथ जिलाना, घर में बैठकर बेइज्जती कराने से लाख गुना बेहतर है। इसलिए मेरे विचार के मुताबिक ऐसी शायद ही कोई औरत हो, जो यह चाहे कि उसका पति हमेशा उसके पीछे-पीछे घूमे, चाहे कोई काम-धन्धा करे या नहीं। अगर ऐसी कोई होगी, तो वह पतुरिया ही होगी। चूंकि मेरे साथ ऐसी निर्लज्ज बात नहीं थी, इसीलिए मैं उनके तरफ से पूरी तरह निश्चिंत थी। यदि पति सर्विस वाला होने के साथ-साथ अच्छे आचरण का, सुशील और सुंदर निकल गया तो फिर कहना ही क्या ? समझिए जनम-जनम की मुराद पूरी हो गई, जीवन तर गया।
मैं शादी के पहले उनसे बस एक ही बार मिली थी, वो भी मिली क्या थी, बस देखी थी। जहां मिलते समय लड़के या लड़की के मां-बाप, रिश्तेदार या भाई-बहन खड़े हों, वहां न तो कोई कायदे से मिल सकता है, न ही बात कर सकता है। इच्छा तो बहुत जोर की हुई कि कहीं एकांत में बैठकर कायदे से बातचीत कर लें, लेकिन ऐसा चाहने के बावजूद मारे शर्म और लाज के सीधे देखने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, खुलकर बात कर लेना तो बहुत दूर की बात थी। जहां पहले से यह तय हो जाय कि इनके साथ जीवन-भर के लिए बंधन में बंध जाना है, वहां मिलते समय न जाने कैसी आत्मीयता की ऐसी आकुल भावनाएं उठने लगती हैं – कि शरीर उसकी प्रबलता में शिथिल हो जाता है। जुबान निशक्त होकर बुझी-बुझी सी मंद पड़ने लगती है। हृदय में जैसे मीठे कुतूहल ने घर कर लिया हो, वह सहज न हो पा रहा हो। उस पर जैसी किसी के अपरिचित मोह का पर्दा पड़ गया हो। आज जब इन सब बातों को सोचती हूं तो दिल में बड़ी हूक सी उठती है। खुशहाली के बीते हुए दिन आदमी के बुरे समय में सुकून और संतोष तो देते हैं, लेकिन उनकी याद क्षणिक ही होती है। और चूंकि उनको फिर लौटा पाना मुश्किल होता है, इसीलिए वे भविष्य में एक भूख बनकर मन को काफी तकलीफ देते हैं। ऐसे दिन कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे फिर सच नहीं सकते, इसलिए उन्हें याद करने के बावजूद उनका मोह छोड़ देना ही बेहतर है, क्योंकि बीता हुआ कल मर चुका है, वह कभी जिंदा नहीं हो सकता। लीजिए, मैं अपनी बात करते-करते कहां से कहां पहुंच गयी। वैसे मेरे मां-बाप गरीब न थे। रोजी-रोजगार की चिंता से मुक्त, सुकून की जिंदगी जी रहे थे। मेरी मां को न तो आप शिक्षित कहें, न अशिक्षित। वह उस दर्जे तक पास, जिसे गंवई मुहावरे में अक्षर जानने का शौक मिटाना कहते हैं, यानी कक्षा 5 पास। लेकिन मेरे डैडी दर्शनशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल किए थे; वह भी पूरब का आक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। डैडी का बड़ा कि उनकी इकलौती बेटी इसी विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल करके अपने पापा का नाम रोशन करे, लेकिन भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। काश उनकी यह इच्छा पूरी हो पायी होती।
जिस समय मेरी शादी पक्की हुयी, उस समय मैं एम.ए. के अंतिम साल में थी। सुनकर थोड़ी चिंतित हुई कि परीक्षा कैसे दूंगी, लेकिन मन में एक उम्मीद जागी कि चलिए कोई बात नहीं, पति महोदय किस दिन काम आएंगे ? उन्हें मनाकर परीक्षा दिलवाने लेते आऊंगी। मानेंगे कैसे नहीं ? कई उपाय हैं – सीधे-सीधे नहीं माने तो ‘उस तरह’ से। और कहीं श्रीमान नाजुक हृदय वाले निकल गये, तब तो अपना ही राज समझिए। बिना किसी अतिरिक्त कलाकारी के सारी सत्ता अपने हाथ में। ये सब बातें मैं उनदिनों सोचती थी, जब शादी होने वाली थी। शादी के बाद तो परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि इन सारी बातों को भूल गयी और घर संभालने की जिम्मेदारी ने पिछले सारे शौक और सपने भुला दिए। ससुराल आने के बाद किताबों को पलटकर फिर कभी नहीं देख पायी। वैसे पुस्तकों से मुझे दीवाने भक्तों जैसा लगाव है। नित नयी-नयी किताबें मेरे मन में कीमती सौंदर्य भरने वाली नई-नई खिड़कियां तैयार करती हैं। उन्हें मैं जीवन के सम्भावित विकास के गहरे, निर्मल स्रोत मानती हूं। उस समय तो यही समझिए कि बस पास होने के लिए पढ़ती थी। पढ़ती क्या थी, रटती थी। लेकिन अब, जबकि उनसे बहुत दूर हो चुकी हूं- लगता है- पुस्तकें ममता और त्याग से भरी हुई वे मांएं हैं, जो अपने बच्चों जैसा डांटती हैं, मारती हैं, चेतावनी देती हैं, सपनों-भरी नींद सुलाती हैं और ठीक सुबह जगा भी देती हैं। वे हमको निहायत ममता के साथ समझा-बुझाकर, अबोध हाथों को थामे मिट्टी वाली राह दिखाती हैं। पर अब हो भी क्या सकता है ? घर-परिवार को देखूं या किताब संभालूं। और जहां आदमी दिन-रात अपनी हालत सुधारने में परेशान हो, उसे ज्ञान सीखने की बात कहां सूझती है ? ससुराल वाले तो प्रायः बहुओं की शिक्षा के विरोधी ही होते हैं। बुढ़िया सासुजी यदि देख लें, कि बहू किताब खोलकर बैठ गयी है, उनका भीतर ही भीतर कुढ़ना शुरू हो जाता है। त्योंरियां बदलने लगती हैं। शुरुआत में तो कुछ बोलेंगी नहीं, लेकिन जब यह जान जाएंगी कि पोथी रोज-रोज खुल रही है, तो एक दिन सीधे बरस पड़ेंगी और तैश में आकर हाथ झमकाते हुए बोलेंगी – “अच्छा, बंद करो अपना कथा-पुराण। मैके में तो किताब का मुंह नहीं देखा और यहां कलट्टर साहब बनेंगी। आजकल की बहुएं तो जैसे त्रिया चरित्तर पेट में से ही सीखकर आती हैं। अरे कलजुग है कलजुग। इनको समझ पाना इतना आसान नहीं।जब काम करने का मन नहीं करेगा, तब पोथी-पत्तरा खोलकर बैठ जाएंगी। बड़का पढ़ाकू बनने चली हैं।”
इस तरह के मौके सिर्फ एक-दो बार नहीं, कई बार आए, जब मुझे अपनी बुढ़िया का कोप-भाजन बनना पड़ा, लेकिन मैं सब सहती थी, चुपचाप सुन लेती थी, सुनकर पचा जाती थी। अंदर-अंदर दुख तो बहुत होता था कि देखो बहू तो इनकी हूं- बेटी के समान हूं। पढ़-लिख ली तो क्या बुरा हो जाएगा। इनको तो खुश होना चाहिए कि मेरे घर में इतनी पढ़ी-लिखी बहू मौजूद है। पढ़कर और समझदार ही बनेगी, लेकिन अब इस उमर में इन्हें समझाए भी तो कौन ? किसे मुफ्त में आफत मोल लेनी है। सही बात कोई कह दे तो तुरंत लड़ बैठें, बाल की खाल निकालने लगें कि अच्छा ये बता कि तूने यह बत कही क्यों ? इसीलिए तो बाबा, मैं उनसे चार कदम दूर ही रहती थी। बोलती थी तो बस काम-भर के लिए, कहीं कोई बात लगी, कि बवाल मचा। वे जब अपने असली रूप में आती थीं, तो क्या मजाल की सामने कोई टिक जाय। एक सांस में सात पुश्त तारती थीं। बेचारे लोग इज्जत बचाकर धीरे से खिसक लेते थे। कौन कांटे से उलझे ? ससुरजी में वैसे इस तरह मीन-मेख निकालने वाली आदत नहीं थी। याहं आने के बाद पहली बार मैंने जाना कि पिता के अलावा भी उन्हीं की तरह प्यार करने वाला और कोई होता है। आप मेरी हर बात का खयाल रखते थे, बुलाकर पूछते रहते थे कि बेटी कोई दिक्कत तो नहीं ? निःसंकोच मुझसे बोल देना। किसी बात की चिंता मत करना। हम तो हैं न। तुम्हारे मा-बाप न सही, ससुर तो हैं। और देखो बेटी, ससुराल में ससुर ही बहू का पिता होता है। अरे, जैसी मेरा ममता, वैसी तुम। उसके अपने ससुराल चले जाने से घर में पड़ा सूनापन लगता था। बिना लक्ष्मी का घर भूतों का डेरा लगता है। अब तुम आ गयी हो, तो लगता है, घर भर उठा है। मैं अब निश्चिंत हो गया हूं। बेटी ! तुम्हें जब देखता हूं तो अपनी ममता याद आती है। पता नहीं वहां कैसी होगी ? गोदावरी बेटी, तुम बिल्कुल चिंता मत करना। हम हैं न। कभी-कभी वे मुझे गोदावरी के बजाय गोदरी कहकर बुलाते थे। इस बुलाने में लगता था जैसे मेरे बाबूजी अपनी बच्ची को गोद लेने के लिए बुला रहे हैं। वे मेरे बाबूजी ही थी। अपने खून का न होकर भी तीसरा कोई अपनों जैसी आत्मीयता दे सकता है, इसे मैंने अपने ससुरजी से जाना।
रेलवे की नौकरी से रिटायर होने के बाद अक्सर घर पर ही रहते थे। इधर-उधर जाने या ऐसे ही मन बहलाने के लिए भी वे बाहर कम ही निकलते थे। घर के पिछवाड़े करीब दस मण्डी का खेत था, उसी में आलू, गोभी, लौकी, और ? और हां, सरपुतिया, कोहड़ा, सेम जैसी मौसमी सब्जियों का बड़ा ही सुंदर बाड़ा तैयार कर दिया थाथ एकदम दीवार की तरह चारों तरफ टाटी से घेरकर; क्योंकि गांव में छु्ट्टा घूमने वाले सांड़ों का आतंक मचा रहता कि कहीं मौका पाते ही बाड़े में घुसकर सारी मेहनत पर पानी न फेर दें। जरा नजर हटी, कि उधर सारी कमाई चौपट। जैसे एकजुट होकर कहीं ताक लगाए बैठे हों, कि रखवाला उठे, तनिक खिसके यहां से, और हम सब चलकर खेत का निबटारा करें। लेकिन ससुरजी अपने परिवार की तरह खेत को पालते थे। सब्जियों की बड़ी जतन से देखभाल करते थे। एक-एक पौधे को मन से निराना, उसमें खाद-पानी डालना, जड़ में कीटनाशक दवाइयां छिड़कना, क्या कुछ नहीं करते थे ? अरे तो, इसीलिए पौधे भी हर मौसम में जान छोड़कर फलते थे, बाड़े से इफरात की सब्जी निकलती थी। घर में चाहे कोई सीजन हो, सब्जी भरी रहती थी, बल्कि अड़ोस-पड़ोस के लोग भी इस सम्पन्नता का लाभ उठाते थे। लेकिन मैं ऐसा सभी करती थी, जब ससुरजी घर पर नहीं होते थे, क्योंकि वे पड़ोस के लोगों को भी देना पसन्द नहीं करते थे। कहते थे – “सबके सब ससुरे निकम्मे हैं। मेहनत करते हुए नानी मरती है। काम से जी चुराएंगे। बैठे-बैठाए मिल जाता है तो रोज दौड़ पड़ेंगे। बिना हर्र फिटकरी के कुछ भी मिल जाय बस। वही बेहयाई वाली निर्लज्ज आदत पकड़ लिए हैं। अब किसी को इधर झांकने तो देंगे नहीं और आने की बात करते हैं तो आएं इधऱ आ जायं। ले लें लौकी, रखी तो है, उठा ले जायं। अरे, सड़ी तो पाएंगे नहीं और सही की कौन चलाए ? खरीदकर खा लें, कौन किसी से दुबले हैं। पीठ पीछे घूम-घूमकर मजाक उड़ाएंगे और काम पड़ने पर काका भी कहेंगे, हूंह।”
उनके इसी क्रोध के कारण कई बार मैं भी पीछे खिड़की से ही सब्जियां भेजवा देती थी। किसी पड़ोसी के घर का कोई लड़का यदि खेलते-कूदते इधर आ निकला तो उसे चुपके से बुलाकर खिड़की पर ही थमा देती थी। वह शर्ट के भीतर छुपाकर हड़बड़ी में दबे पांव घर की ओर भाग निकलता था। वैसे किसी न किसी तरह बाबूजी को इस बात की कानों-कान खबर लग जाती थई कि इधर-उधर कुछ पहुंचाया जा रहा है, पर इतना सब जानने के बावजूद वे न तो मना करते थे, न ही कभी कुछ कहते थे, कभी नहीं। उनके चेहरे पर मैं शिकन या क्रोध की झलक तक नहीं पाती थी। इस तरह ससुराल के दिन अपने घर की तरह बीतने लगे। खेती-बारी भी ठीक ही थी। कुछ तो अपने ही कराई जाती थी और कुछ को अधिया-बटाई पर दे दिया गया था। छोटे से परिवार में कितना अन्न चाहिए। अपनी उपज और अधिया से मिला हुआ अनाज पूरे साल-भर के लिए पर्याप्त होता था। कभी-कभी तो बच भी जाता था, और उसे नरम-गरम दाम पर बेच देना पड़ता था। वैसे बाबूजी को पेंशन मिलती थी। थी तो कम ही, लेकिन जो भी थी, घर की खुशहाली का आधार थी। पैसा तो मेरे वे भी कमाते थे, और ठीक-ठाक कमाते थे, लेकिन महीने के अंत तक बड़ी मुश्किल से कुछ बच पाता था। पहले तो नहीं, लेकिन बाद में जब लगा कि इनकी यह परमार्थ सेवा सी मा से बाहर हो रही है तो हमने मीठी शिकायत के साथ मौन नाराजगी जाहिर की। लेकिन इससे उन पर भला क्या फर्क पड़ता ? उनकी आदत नशा बनकर उन्हें लगातार बर्बादी की ओर खींचती रही और वे भी मोहांध आशिक की भांति आंख मूंदकर उसके पीछे-पीछे भागते रहे, और पैसा दिन-रात दोस्तों में लुटाते रहे। मैं कह नहीं सकती कि वे बाहर क्या करते थे ? इतना पैसा कहां खर्च करते थे ? वैसे उनको मैंन न तो कभी शराब के नशे में देखा और न ही सिगरेट-बीड़ी पीते पाया, फिर ये करते क्या थे ? स्वार्थी दोस्त कितना पूछते थे, इसके बारे में विश्वासपूर्वक कुछ कह पाना बड़ा मुश्किल है। हां लेकिन, एक दिन अनायास ही उनके कपड़ों की अलमारी में एकदम नीचे रखी हुई कुछ ऐसी चीजें देखीं, जिनके बारे में कुछ कहते हुए मुझे बहुत शर्म आती है।
ससुरा में करीब दो साल इसी तरह की छोटी-छोटी खुशियों, चिंताओं और सपनों को सजाने में बीत गये। किसी के मन में किसी के प्रति जन्मे राग-द्वेष के उतार-चढ़ाव तो जीवन के स्वाभाविक नियम की तरह है- जो बारी-बारी से आएंगे ही। इसीलिए मैं इन सबको झेलने के बावजूद बहुत दुखी नहीं थी। और सच कहूं तो मैं वहां के अनुसार धीरे-धीरे ढल भी गयी थी, बल्कि यों कहें कि परिस्थितियों ने मुझे अपने सांचे में ढाल लिया था। जब मुझे सारा जीवन वहीं का बनकर रहना था, रोज-रोज झंझट से क्या फायदा ? क्योंकि अपनी इच्छानुसार जीवन चला पाना उस पार जाने को तैयार नदी की उस नाव की तरह है जो किनारे से छूटते समय शांत जल में कुछ दूर तक तो ठीक चलती है, लेकिन बीच धार में लहरों का झोंका नाव को भटकाकर कहां का कहां पहुंचा देता है। ठीक किनारे पर तो वही नाव लग पाती, जिसका नाविक धाराओं के विपरीत नाव खेने की कला में पारंगत हो और लहरों के प्रचण्ड जोश पर विजय हासिल कर उनकी पीठ को सीधे चीरते हुए आगे बढ़ने का हौसला रखता हो। मेरा जीवन भटकी हुई इसी नाव की तरह है।
अब आगे सुनिए। एक दिन की बात है, मैं दोपहर के समय गांव के ही एक पट्टीदार के घर गयी हुई थी। पूरे दिन में यही एक समय बचता है, जब आप घर के काम-धंधों से छुट्टी पाकर किसी के पास बैठकर दो ठो बात कर सकते हैं। कुछ दिन पहले उस घर में एक शादी हुई थी, जो पद में मेरे देवरजी लगते थे। वे अक्सर मौका पाते ही हमसे मिलने चले आते थे। बड़े खुले स्वभाव के थे। बात-बात पर मजाक कर बैठते थे, जैसे कहीं से इसकी ट्रेनिंग लेकर आए हों। गप्प हांकने में भी पूरे उस्ताद थे। उस दिन मैं इन्हीं की दुल्हन देखने गयी थी। मन में बड़ी चाहत थी, कि अगर स्वभाव एक-दूसरे से बैठ गया तो सखी बना लूंगी। वहां दुल्हन देखी, इक्यावन रुपया भेंट दिया और कान में धीरे से अपने मन की बात कहकर करीब घण्टे-भर के भीतर ही वहां से चल दी। अब मैं आपको क्या बताऊं ? बड़ी ही सुंदर दुल्हन थी। धीरे से घूंघट उठाकर मुखड़ा देखा तो एकदम ठगी की ठगी रह गई और अपने आपको भूली हुई-सी उसे एकटक देखती रही। वैसे में भी अपने आपको कुछ मानती थी, लेकिन वाह रे बनाने वाले ! कैसा सांचे में ढला हुआ चेहरा दिया है उसे ? यही सब सोचते-विचारते मैं घर के भीतर अभी दो कदम रखी ही थी की पता चला मायके से कोई मेहमान आए हुए हैं। मेरे भीतर उत्सुकता जगी कि जरा सासूजी से पूछूं कि कौन हैं ? लेकिन कुछ देर तक असमंस की हालत में खड़ी रही कि क्या करूं ? पता नहीं वे जलपान किए कि नहीं ? घर से खाना खकर तो चले नहीं होंगे। मुझे उनके खाने की कुछ व्यवस्था करनी चाहिए. रसोईघर की अलमारी में सुबह की बनी हुई रोटी-सब्जी अभी बची है, लेकिन वह तो ठण्डी हो गयी होगी। फिर से क्यों न बना दें ? खीर, पूड़ी, सब्जी बनाएं तो कैसा रहेगा ? जल्दी बन भी जाएगा। लेकिन पहले अम्माजी से पूछ लें तभी कुछ करें। इतने में बाहर सुनाई पड़ा कि वे जा रहे हैं। मैं तो मारे घबड़ाहट के हकबका गयी। काफी आश्चर्य में थी, कि आज ही आए और आज ही जा रहे हैं। ऐसा क्यों ? आज रुकते, कल चले जाते। एक दिन में कौन-सा काम बिगड़ जाएगा ? मैं भी बुलाकर थोड़ा मिल लेती। अम्मा को एक चिट्ठी लिख देती। पता नहीं क्यों इधर उसकी बहुत याद आती है। आज उसके सिवा याद करने के लिए मेरे पास और है ही कौन ? कितने महीने बीत गए मायके से कोई आया नहीं। कुछ समझ में नहीं आता।
मायके की इन्हीं सब यादों में खोई-खोई-सी पलंग पर बैठी रही और मुझे याद तक नहीं रहा की वे जा रहा हैं, जरा बुलाकर थोड़ी देर बातचीत कर लूं, घर-परिवार का हाल-चाल पूछ लूं। जब वे सबको प्रणाम करते हुए कुछ दूर निकल गये, तब मुझे अचानक होश आया कि हाय रे, मैं तो मिली ही नहीं। भईतर से दौड़ी-दौड़ी ड्योढ़ी के चौखत तक आयी और सहमी आवाज में सासुजी को धीरे से संकेत दिया। वे मेरी तरफ विचित्र ढंग से घूमीं और एक निगाह से अपलक घूरने लगीं। उनकी ऐसी नजर देखकर मैं तो मारे भय के सिहर उठी। शरीर जैसे क्षण-भर में रक्तशून्य-सा सफेद हो गया हो। बुद्धि कुछ काम नहीं कर पा रही थी, कि आखिर क्या हुआ ? अचानक इतनी ही देर में कौन-सी गलती हो गयी ? कहीं खाना न बनाना उनके इस कोप का कारण तो नहीं ? कम से कम मुझे पूछ तो लेना ही चाहिए था न, कि अम्माजी क्या बनाऊं ? इतना पूछ लेने से मेरा क्या घट जाता। भले ही कुछ भला-बुरा करतीं। इतना तो पता चल जाता कि उनकी इच्छा क्या है ? अपने दोष से मुक्त तो हो जाती। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं उनसे न मिलने पर नाराज हो रही हैं कि देखो, इस लड़की में इतनी-सी सभ्यता नहीं कि इतनी दूर से कोई मिलने आया है, दो मिनट बैठकर बात कर लूं। लेकिन इसमें मेरी क्या गलती ? क्या मैं ऐसा नहीं चाहती थी ? लेकिन पहले यह तो मालूम हो कि वे हैं कौन ? पता नहीं कभी मुझसे मिले हैं या नहीं। नई दुल्हन का किसी से मिलना लोगों को वैसे भी पच नहीं पाता है। इसी डर से मैं चाहकर भी नहीं पूछ पायी। पता नहीं सासुजी को कैसा लगे? अब जरा आप ही देखिए न ज्यादा विनम्र बनने की चिंता सबको संतुष्ट रखने की आदत डालकर हमेशा कमजोर बने रहने की स्थिति पैदा कर देती है। वे बड़े ही तैश में मेरे बेडरूम के भीतर गयीं और दरवाजे पर अजीब सवाल की मुद्रा में खड़ी होकर मुझे बुलाने लगीं। उनके इन तेवर मुझे बहुत आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यही स्वभाव ही उनका असली परिचय था, लेकिन आज उनकी आंखें कुछ इस भाव से घूर रही थीं, जैसा पहले मैं कभी नहीं देखी थी। तुरंत समझ गयी कि जरूर कोई अनहोनी हो गयी है। कोई बात है अवश्य जो यहां के वातावरण में बवण्डर उठने के पहले चुपचाप उमड़-घुमड़ रही है, क्योंकि मेहमान के जाने के बाद इनके चेहरे पर अचानक सन्नाटा छा जाना और क्या संकेत करता है ? हर तरह की चुप्पी का एक ही अर्थ का संकेत नहीं देती, सबमें बहुत बड़ा फर्क होता है। प्रसंग के अनुसार सबका अर्थ बदलता रहता है। कई बार तो यह भावी अशांति की भूमिका सिद्ध होती है। मैंने अपने अंतर्ज्ञान के आधार पर पल-भर में ढेर सारे अनुमान लगा डाले, लेकिन ऐसा कोई भी अनुमान स्थायी ज्ञान नहीं बन पा रहा था, जो इनकी चुप्पी का रहस्य खोल सके। उस समय मुझे लगा कि मैं ऐसी नजरबंद अपराधिन हूं, जिसे अपनी गलती के बारे में उसका अपराध बताए, बिना कुछ पुछे काल-कोठरी में घसीटा जा रहा है। उस दिन सासु का वह रूप स्त्री के किसी भी भले रूप से दूर-दूर तक संबंधित नहीं था, क्योंकि उनकी आंखों में हिंसक संदेह का क्रुद्ध तेवर ज्वार मार रहा था, और तनी हुई भौंहों पर जैसे विषमय सवालों की बौछार बैठी हुई हो। खैर, अब तो मुझे कटघरे में खड़ा होना ही था। धीरे-धीरे डरी हुई-सी उनके नजदीक गयी और सिर झुकाए अपने बिस्तरे से सटकर नीचे बैठ गयी। उनकी तरफ देखे बिना ही धीमे से बोली – “अम्माजी, बैठ जाइए न !” पता वे सुनीं कि नहीं या सुनकर भी अनसुना कर गयीं। कुछ देर बाद मेरी ओर दो कदम आगे आयीं और खड़े-खड़े झाड़ना शुरू कर दिया – “तो आज पता चला कि तू कितनी मायाविनी है।” अम्माजी का यह प्रश्नमय आरोप मेरे कानों में पिघला हुआ गर्म शीशा जैसा महसूस हुआ, लेकिन यह ऐसा क्षण नहीं था कि प्रतिवाद किया जाय या पलटकर जवाब दिया जाय, क्योंकि मुझे इस बात का पूरा-पूरा एहसास हो चुका था कि बात जो कुछ भी हो, हालत काफी नाजुक है, इसलिए स्थिति की गंभीरता को देखते हुए मेरा मौन बने रहना और चुपचाप सुनते जाना ही बेहतर था और फिर, जब तक यह न पता चल जाय कि सच्चाई है क्या, तब तक क्या बोलें ? इसीलिए मैंने मन में यह गांठ बांध ली कि जब तक पूरी बात समझ नहीं लूंगी, तब तक कुछ नहीं बोलूंगी, चूं तक नहीं करूंगी। इनके जो मन में आए कहें, जो मन में आए करें। चाहे जितनी उट-पटांग बातें कह डालें, चाहे जितनी गालियां दे डालें, सब बर्दाश्त करूंगी, कुछ भी नहीं बोलूंगी। एक चुप, हजार चुप। उन्हें मैं बीच में टोकी नहीं। आक्रमण और बढ़-चढ़कर आगे भी जारी था, अभी तो यह शुरुआत थी।
“तो लूटने के लिए मेरा ही घर बचा था ? न जाने मेरे उदई का कहां करम फूट गया था, उसके सिर तुझ जैसी कुलटा मढ़ उठी। अच्छा बता, किस-किस से हो-हवाकर आयी है ? अरे, तेरे लच्छन तो हमें शुरू मे ही अनरथ के लगने लगे थे, पर मुझे क्या पता था कि तू इतनी पतुरिया निकलेगी। नाते-रिश्तेदारों ने तो और चढ़ा-चढ़ाकर मेरे बेटे को लूट लिया। कहते थे, तेरे जैसी बहू किसी को बड़े नसीब से मिलती है। अब लो नसीब, लेकर चाटो इन्हें। रात-दिन अगरबत्ती सुलगाकर पूजा करो। कल सारे गांव में डंका बजेगा कि दयानाथ की बूह भरष्ट है, बदचलन है, एक नम्बर की आवारा है। दस जगह से लुटाकर आयी है। अच्छा यह बता कि आज तक यह सब छिपाए क्यों रही ? तभी तो मैं सोचती थी, कि इतनी जल्दी-जल्दी बियाह की तारीख क्यों ठीक हो रही है ? बिना लड़की को ठीक से जांचे, परखे, समझे यह सब क्यों हो रहा है। सब महीने-भर के अंदर-अंदर निपटा दिया। कुछ विलंब होता, तो बीच में ही पोल खुल जाती न। सारी असलियत का पता लग जाता। पेट की बात सबको मालूम हो जाती।”
अब तो चुपचाप बैठी रहना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। उनके एक-एक शब्द दहकते अंगारों की तरह मेरे हृदय पर बरस रहे थे। इस समय मेरी क्या दशा थी, इसका आप अंदाजा नहीं लगा सकते। बस इतना ही समझिए कि उस समय सामने कोई और नहीं था, नहीं तो मैं न जाने क्या-क्या कर बैठती। सभी बड़ों को आंख मूंदकर सम्मान देने की रूढ़िवादी मान्यताओं ने हमारे भीतर उनके अन्याय को भी चुपचाप सह लेने की कमजोरी पैदा कर दी है। यही कमजोरी धीरे-धीरे आदत बनकर हमें भीतर से रीढ़विहीन कर देती है और फिर भविष्य के किसी काम लायक नहीं छोड़ती यही ज्ञान मुझे शुरू में ही आ गया होता, तो कितना अच्छा था ? कम से कम इस ऐस मौके पर बुढ़िया के चुभने वाले आरोपों का जवाब तो दे सकती। लेकिन अब जबकि सारी खेती उजाड़ हो चुकी है, खाली सोचने से क्या फायदा ? यह बुड्ढी इसी तरह हृदय चीर देने वाले आरोपों से और भी मर्मान्तक प्रहार करने लगी। आखिर मुझसे न रहा गया। वैसे ही बैठे-बैठे थोड़ा दृढ़ शब्दों में बोली – “अम्माजी, जिसने आपसे कहा हो, उसे बुलाकर ले आइए। वह मेरे सामने आकर कहे। पीछे क्यों चुगली करता है ? जिन्हें किसी के सुख को देखकर जलन होती है, वही आढ़े-आढ़े लांछन लगाते फिरते हैं। आप किसी के कहने पर मत जाइए।”
“अच्छा, अच्छा क्या कहती है तू ? किसी के कहने पर मत जाऊं ? जो कहती है उसे मान लूं ? मेरी अम्मा है न ! मेरी सासु है। अरे, यह तीन-पांच किसी और को पढ़ाना। पाटी नहीं पढ़ी हूं तो क्या ? सब जानती हूं, सब समझती हूं। अभी मेरे सामने पैदा हुई और मुझे ही बात पढ़ाने चली है। अभी और सीख ले, फिर उपदेश बघारना। हमने भी बहुत दुनिया देखी है, बाल ऐसे ही नहीं सफेद हो गए। एक तो घर फूंक दिया, ऊपर से पूछती है – किसने फूंका अम्मा ? तेरी यह जो मीठी बोली है न, बिल्कुल जहर है- जहर। जो किसी को डंस ले तो लहर न मिले। जो ज्यादा मीठा बोलता है, वह बाद में उतना ही मुड़कटवा निकलता है। अब तो तेरी वह दशा होगी कि कोई सहाय नहीं लगेगा। मैं तो सास ठहरी, जदि मर्द होती तो इसी बखत तेरा हाथ खींचकर घर से बाहर निकाल देती। पापी को एक सेकेण्ड के लिए भी बर्दाश्त करना पाप है। जा हो भगवान ! तुम्हीं इसका न्याव करना।”
अब मैं समझ गयी कि इनके सिर पर नीचता का भूत सवार हो गया है, इसलिए वहां कुछ भी सफाई देना, मानो किसी पक्के सनकी के सामने आंख मूंदकर भाषण देना था। फिर भी जब सरासर झूठा इल्जाम लगाया जा रहा हो, तो धैर्य रखने के बावजूद अपने आपको संभाल पाना मुश्किल होता है। यही जी करता है कि या तो वही रहे या मैं। बेगुनाह सह जाते हैं, ताज्जुब होता है। बड़ी दया आती है उन पर। या तो वे अपने स्वाभिमान से समझौता करते-करते अनीति के समझने की दृष्टि हमेशा के लिए खो बैठते हैं या फिर उसे अपने जीवन का नासूर मानकर मन ही मन खुद की खुद्दार इच्छाओं को उसके चंगुल में समर्पित कर चुके होते हैं।
अपने मन की सारी भड़ास निकाल लेने के बाद वे मुझे भस्म कर देने की मुद्रा में घूरती हुई उठीं, और झमककर सिर पर पल्लू सीधा करती हुई बाहर निगल गयीं। जाते-जाते एक और तीर छोड़ गयीं – “हूंह, यह मेरी बहू है।” उनके जाने के बाद लगा कि जैसे मुझे भरी सभा में अर्द्धनग्न कर दिया गया हौ, और हर कोई मेरे खुले रूप पर लपकना चाहता हो। कोई मेरी बेबसी पर झूम-झूमकर ठहाका मार रहा हो। कोई हाथ उठा-उठाकर मनमाना आनंद लूट रहा हो, तो कोई भद्दी-भद्दी कालियां देकर अपना क्रोध शांत कर रहा हो और मैं हतशून्य नेत्रों से विह्वल होकर खून से लथपथ, किसी घायल चिड़िया की तरह सबको असहाय दृष्टि से देख रही होऊं। मैं उस औरत की भांति थी, जिसको कटघरे की तरह घेरे हुए कई बलिष्ठ शरीर हिंसोन्माद से पागल होकर टूट पड़ना चाहते हों, और उनके सैकड़ों हाथ मुझे पत्थर मार-मारकर दफन कर देने के लिए उतावले हो रहे हों। इन्हीं प्राणघातक भावों की अवस्था में मैं विक्षिप्त-सी काफी देर तक अस्त-व्यस्त बैठी रही। रात करीब दो घण्टे बीत चुकी थी, इसी बीच मुझे कुछ भनक लगी, जैसे वे आ गये हैं। लगा जैसे घायल पीठ पर अचानक गरम पोटली रख दी गयी हो। मैं भावी बेइज्जती की पीड़ा से मन ही मन कराह उठी। वे आए, बाहर ओसारे में बैठे, पता नहीं सासुजी पानी पूछी कि नहीं ? मुश्किल से दस मिनट बीता होगा, वे फुसफुसाकर धीरे-धीरे वही जहर उगलने लगीं। उस कसाई ने मेरी बुढ़िया से कैसी आग लगायी, यह मुझे उस समय तक भी नहीं मालूम हो पाया था। हां, यह संदेह पक्का हो गया कि यह चुगली मेरी लाज और इज्जत से जुड़ी हुई है। तभी तो घर में इतना तूफान मचा हुआ है। मेरे पति को जब सारी बात मालूम हो गयी, तो पहले काफी देर तक वहीं बाहर की चारपाई पर सन्न मारे बैठे रहे, फिर बैग वहीं रखकर चुपचाप भीतर आने लगे। लगा जैसे- मुजरिम कटघरे के भीतर लाचार ऐसे जज के सामने खड़ा हो, जिसने पहले से ही घूस ले रखी हो और कैदी अपनी कठोर सजा भुगतने की बात सोच ले। वे मुझसे बिना कुछ पूछे, बिना कुछ बोले कमरे के भीतर जाकर पलंग पर लेट गए। उस वक्त मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं ? वहां जाऊं कि न जाऊं ? मेरे मन में बैठे पत्नी-भाव ने कहा- तुम्हें उनके पास जाना चाहिए, परंतु अनर्थ का डर बार-बार रोक देता था कि तेरा इस वक्त वहां जाना ठीक नहीं, क्योंकि मूड उनका गरम है, वे इस वक्त कुछ भी कर सकते हैं। हो सकता है मार-पीट भी दें। या कच्ची-पक्की बक दें। ऐसी असहज मानसिकता में अच्छा से अच्छा आदमी भी बहुत गलत कर बैठता है, जिसे वह सपने में भी नहीं सोच सकता। इसलिए जब तक वे खुद न बुलाएं तुम मत जाना, कतई नहीं। खैर! वे थोड़ी देर में मेरा नाम लेकर भीतर बुलाए और मैं लगभग कांपती हुई-सी डरी-डरी अपने कमरे में किसी अजनबी की तरह दाखिल हुई। उस समय मेरी हालत कितनी खराब हो चुकी थी, इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते, बस इतना ही समझिए कि जैसे प्रचण्ड आंधियों से भरे घुप्प अंधकार में भटकते हुए किसी राहगीर को कोई बुझती हुई रोशनी दिख गयी हो। मैं उनके सिरहाने थोड़ा दूर ही जाकर खड़ी हो गयी। ओह ! क्या ये वही मेरे पति हैं ? एक ही क्षण में सब-कुछ इतना बदल गया ? वे न तो मुझसे बैठने को कहे, न ही मेरी ओर देखे और न ही मेरे करीब आने पर सुख या आनंद का एहसास जाहिर किया। बस वैसे ही लेटे-लेटे सासु वाले सहजे में पूछना शुरू कर दिया – “बताओ! क्या हुआ था तुम्हारे साथ ?” इतना सुनते ही मुझे लगा जैसे पूरा शरीर मुर्दा हो गया हो, उसमें बस किसी तरह सांस चल रही हो। यह सवाल सुना तो जरूर, मगर ऐसी प्रश्नमय पहेली मेरी समझ के बाहर थी, इसलिए चुप रही। अब उनका संदेह और भी पक्का हो गया। मेरी चुप्पी ने उनके प्रश्न को उचित ठहराने में मजबूत नींव का काम किया। फिर दुबारा बोले; इस बार शब्दों में कुछ उत्तेजना-सी थी- “मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूं – सुनती हो कि नहीं ?”
“हां, सुन रही हूं।”
“तो बोलती क्यों नहीं ? मेरे सवाल का जवाब दो।”
“क्या बोलूं ? मुझे तो कुछ नहीं मालूम।”
“क्या कहा ? कुछ नहीं मालूम ? पागल तो नहीं हो गयी हो ? घर-भर में तुम्हारे कारण बवाल मचा हुआ है, और तुम कहती हो कि तुम्हें कुछ नहीं मालूम ? देखो, मैं अभी आदमी की तरह पूछ रहा हूं – सच-सच बता दो।”
“पहले यह तो बताइए कि बात क्या है ? अम्माजी ने आपसे क्या कहा ?”
“फिर वही फालतू वाली बात। अम्मा क्या कहेंगी ? तुम क्या समझती हो, मुझे कुछ मालूम नहीं ? सब पता है। बनो चालाक, कब तक बनती फिरोगी ?”
“मैं आपकी कसम...।”
“बस-बस, बंद करो ये बकवास। सामने सती-साध्वी बनेंगी और पीछे गुलछर्रे उड़ाएंगी।”
“मैं आपके हाथ जोड़ती हूं, आपके पैर पड़ती हूं – प्लीज झूठा इल्जाम मत लगाइए।”
“तो क्या यह झूठ है कि तुम बचपन से ही इज्जत लुटाती आयी हो ?”
चारों ओर समुद्र, घनघोर समुद्र। रात है – नहीं-नहीं प्रलय है। कोई बचा है ? नहीं-नहीं सब डूब गए हैं, सब मर चुके हैं, कोई नहीं दिखता, कोई नहीं देखता। दिशाओं-दिशाओं में, जल में, थल में, आकाश में। सब कहीं, सब तरह चक्रवात, चिंघाड़ता हुआ, दहाड़ मारता हुआ चक्रवात। लहरें हैं। चक्रवात के बीचोंबीच समुद्र के महागर्त में मैं मरकर डूबती-उतराती तैर रही हूं। लहरें आकाश में उछाल देती हैं, और मैं समुद्र पर बार-बार पटक दी जाती हूं।
काफी देर बाद मुझे थोड़ा होश आया। पुरानी स्मृतियों के आतंक ने मुझे भीतर-भीतर इतना कमजोर बना दिया कि मैं वहां खड़ी न रह सकी, टूटकर गिरती हुई –सी फर्श पर आ गयी। लगा जैसे अभी मूर्छित हो जाऊंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न जाने मुझमें कैसे होश बाकी था। इस दशा का का उन्हें भी कुछ एहसास हुआ कि नहीं, मुझे नहीं पता। वे तो शायद इस संदेह के पीछे छिपी मेरी अन्य बुरी सच्चाइयों को सोच-सोचकर खोज निकालने में लगे हुए थे।
वह कंटीली रात, जब मैं छलनी होकर जमीन पर पड़ी हुई थी, और वे पलंग पर लेटे हुए थे, न जाने मुझे कब नींद आ गयी। सुबह हुई तब मुझे भान हुआ कि रात में मैं तो नीचे ही सो गयी थी। वे भी उसी उधेड़बुन में वैसे ही सो गये। मैं उठते ही थोड़ा संभलकर साड़ी ठीक करते हुए झुकी-झुकी-सी नजर ऊपर उठायी तो मालूम हुआ कि वे जाग चुके हैं।
अब मैं चुपचाप दिल थामकर प्रतीक्षा करने लगी – कि आगे क्या होता है ? करीब आठ-नौ बजे के आस-पास वे ऑफिस के लिए तैयार होकर मेरे पास आए और दो टूक शब्दों में निर्णय सुनाया – “अब तुम मेरे साथ नहीं रह सकती। आज के बाद तुम यहां फिर दिखाई नहीं पड़ोगी। अब तुमसे मेरा कोई मतलब नहीं। तुमसे मुझे कोई लेना-देना नहीं है। तुम जहां चाहो जा सकती हो, जहां चाहो रह सकती हो, बस मेरा पिण्ड छोड़ दो। आइंदा फिर कभी इधर झांकने की भी कोशिश मत करना वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा, समझी ?” आगे वे कुछ बोलने के बजाय मुट्ठी भींचकर दांत किचकिचाने लगे। हमको तो पहले से ही पता था कि ऐसा ही कुछ होने वाला है, बल्कि मैं तो और भी बुरी स्थिति झेलने को तैयार थी। मार-पीट का भी अंदेशा था, क्योंकि पत्नी के प्रति मर्द के क्रोध की अंतिम परिणति इसी रूप में होती है। बहू की वजह से से इनकी इज्जत पर उठी हुई उंगली इन लोगों को लोकनिंदा के भय से कितना निष्ठुर और अमानवीय कर देगी, यह कल्पना मेरे लिए जीते-जी मौत देखने की तरह थी। अपना दण्ड सुनाकर वे झटके से बाहर निकले और जाने लगे, फिर तो निकल ही गए। मैं भी तय कर ली कि अब यहां से निकलती हूं। झूठी इज्जत के इन पुतलों की बीच में मेरी कोई जगह नहीं, कोई अस्तित्व नहीं। धृतराष्ट्र की तरह अंधे लोक-लाज की तानाशाही जब तक इन सबके दिलो-दिमाग पर भय बनकर छायी रहेगी, तब तक इसी तरह बहू-बेटियों का घर उजड़ता रहेगा। इन्हें इसी तरह लांछित और अपमानित होकर दुनिया में बार-बार अकेला होना पड़ेगा, और वे अन्याय की लपटों में नाच-नाचकर जीवन-भर जलती रहेंगी।

और शुरुआत

“जज साहब ! इस अभागिन को उसके जीवन से मुक्त कर दीजिए, बड़ी कृपा होगी।”
हाय रे दुर्भाग्य ! आज तू यह कैसा दिन लाया कि ससुराल की मधुर गलियां अब छूटती हैं। जिसे में अपना घर समझती थी, जिस माटी के मौन स्नेह के अशीर्वाद में मैंने सारा जीवन बिता देने का सपना देखा था; जिसकी दिशाओं, आकाश और मिट्टी को भरे दिल से निरख-निरखकर आत्मविभोर रहती थी, आज वे सब छूटते हैं। अब इन्हें फिर कब देखूंगी ? क्या मुझे ये फिर नसीब होंगे ? उस समय मेरे हृदय में ममत्व की विह्वलता का ऐसा ज्वार उमड़ा, ऐसी धधक मची, ऐसा भाव उठा कि अपने काबू में रह नहीं पायी। यही जी में आया कि अपनी धरती को अंकवार में भरकर फूट-फूटकर रोऊं। मां के कितने रूप हो सकते हैं, इसका एहसास मुझे उसी समय हुआ। मेरे हृदय का एक-एक कोना उस माटी के प्रति कृतज्ञता से लबालब भर उठा। ससुराल की चौखट बहू के अस्तित्व की सीमा-रेखा होती है। जब तक उसके भीतर है, तब तक बहू है, कुललक्ष्मी है, धर्मपत्नी है। लेकिन जैसे ही वह उस सीमा को लांघी, समझिए कि बदचलन है, कुलटा है, आवारा है, कुलनाशिनी है। वह ससुराल के लिए मर चुकी है। सास-ससुर-पति या कोई भी उसे अपनी प्रतिष्ठा का सबसे कष्टकारक शत्रु समझते हैं। कितना अंधेर है – यह कोई नहीं देखता कि आखिर बहू हमारी और आपकी तरह ही एक आदमी है। आपकी ही तरह उससे भी गलतियां हो सकती हैं। औरों की तरह वह भी अपने मन की खुशी और सुख के अनुसार जीने की ख्वाहिश रखती है। क्या औरों की तरह उसे भी अपनी पसंद की दुनिया में जीने का हक नहीं ? लेकिन इस तरह से आज सोचता कौन है ? मर्द भले नीचता के गड्ढे में गिरा पड़ा रहे, भले भोग-विलास के दलदल में डूबा रहे, पत्नी बिल्कुल पाक-साफ रहनी चाहिए। आज चौखट लांघकर में अस्पृश्य और मूल्यहीन वस्तु बनने जा रही हूं। आज से सम्मान पाने की भूख समाप्त होती है। मुझे खूब पता था कि आज के बाद बहू बनकर जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। बल्कि और साफ कहूं तो मात्र एक औरत के रूप में जी पाना दुश्वार हो जाएगा, क्योंकि मैं इस जन्मांध रीति-रिवाजों और मर्यादाओं की कूपमंडूकता और निर्ममता को अच्छी तरह से जान चुकी थी। यही समाज एक दिन इज्जत की दुहाई देकर औरत को बीच सड़क में खड़ा कर देता है, और यही समाज उसकी लुट चुकी इज्जत से खेलने के लिए हमेशा गिद्ध-दृष्टि लगाए रहता है। इतना बड़ा ढोंग ? इतना बड़ा दोमुंहापन ? फिर भी चल रहा है न जाने कब से चल रहा है।
मुझे घर से निकलने का आदेश तो मिल ही चुका था। सासुजी तो पहले से ही मुझे दूध की मक्खी समझी हुई थीं, फिर इस हालत में किससे उम्मीद करती और करती भी तो क्यों ? हां एक थे, मेरे। वे मेरे ससुरजी ही थे। मुझे उनके स्नेह पर जरा-सा भी संदेह नहीं था, लेकिन वे आज किसी घायल शुभचिंतक की तरह लाचार थे। मुझ कैसे रोकते, कैसे क्या करते ? यह सब जानने के बाद उन पर क्या बीती होगी, इसकी कल्पना करते ही मैं हीनभावना की वेदना से तड़प उठती हूं। सिर्फ वही ऐसे सज्जन थे जिनका ध्यान करते ही मेरी आत्मा बच्चा होने के लिए आतुर हो उठती है। उस समय वे घर के पिछवाड़े चले गये थे, और घर में जब से यह आग लगी, तब से मेरे सामने आने से बचते थे। आज मुझे वह रास्ता नसीब नहीं था, जिस रास्ते से मैं गाजे-बाजे के साथ सम्मानपूर्वक ससुराल आयी थी। वह रास्ता तो उन लोगों के लिए है, जिन्हें किसी से नजरें चुराने का दण्ड नहीं मिला है। मैं उन लोगों में से नहीं थी। ससुराल की वह राह जिसकी प्यारी धूल मेरी आत्मा का कोना-कोना सुगन्धित कर देने वाली चंदन राशि कर तरह पवित्र थी, जिस पर बार-बार चल कर हमने खुद को उसके प्रति जीव-भर के लिए ऋणी बना लिया था, उसको आज इन लोगों ने छीन लिया। मैं पिछवाड़े की खिडकी के रास्ते से निकल पड़ी। जाते-जाते एक बार पीछे मुड़कर घूंघट की ओट से बुजुर्ग पिता की तरह अपने घर को देखा और मन ही मन अंतिम आशीर्वाद लेते हुए भावी कष्टों के आंसू लेकर अनजाने मार्ग पर निकल पड़ी। मैं नहीं चाहती थी कि राह में ससुरजी से सामना पड़े, लेकिन वे बाड़े में बैठे-बैठे मरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे आता हुए देखकर वहां से बाहर निकल आए और सिर झुका कर मेड़ पर बैठ गये। उनके करीब पहुंचते ही मेरी गति अनायास ही धीमी पड़ गयी, लगभग जैसे रुक गयी होऊं, लेकिन रुकी नहीं। थोड़ा फासला बनाते हुए अपनी राह पर ही आगे निकलने लगी। इतने में ससुरजी उठकर खड़े हो गए और कटी हुई जिह्वा की पीड़ी भरकर बोले – “कहां जाती हो बेटी ?” मैं कह नहीं सकती उस समय मुझमें कितनी सुखद तड़प उठी। लगा जैसे दूसरा जन्म हुआ हो। मगर नहीं, यह भावुकता का समय नहीं था, मैं संभल गयी। वे फिर बोले – “मुझे माफ कर देना बेटी। तुम्हारा अभागा ससुर तुम्हारे साथ एक पिता की जिम्मेदारी न निभा सका। बुढ़ापा आदमी को कितना अधिकारहीन और लाचार बना देता है। अपनी बेटी नहीं थी, तुम्हें देखकर संतोष करता था, अब गोदरी कहकर किसे बुलाऊंगा ? तुम्हारे साथ सारा अन्याय देखता हूं पर कुछ नहीं कर पाता। मेरी गलती-सही माफ करना बेटी। बस... और क्या कहूं ???... क्या बताऊं ??... जाओ बेटी इस गंदगी से निकल जाओ। मेरा स्नेह और आशीष सदा तुम्हारे साथ रहेगा।”
मैं अपना सिर नीचा किए ही चलने की मुद्रा में रुकी हुई-सी उनकी बात सुनती रही। जब बोल चुके तो उनकी तरफ देखे बिना ही पैरों की ओर आकर शिशुवत अगाध भाव से झुकी और आशीर्वाद लेकर धीरे से मुड़ती हुई वही पगडंडियों वाली राह चल दी। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो नहीं, लेकिन महसूस किया कि वे मुझे ऐसे भाव से देख रहे थे, जैसे घर से उजड़ा हुआ कोई छोटा किसा भयानक बाढ़ में अपनी फसलों को डूबता हुआ असहाय-सा देखता रहता है। सदा-सदा के लिए बिछुड़ने की ऐसी असह्य दशा मन को इतना भारी और जुबान को इतना अवाक् कर सकती है, इसका ज्ञान इतनी शिद्दत से, पहले कभी नहीं हुआ था। किसी के आंसुओं में ठहरे हुए बेबस स्नेह की प्रबलता इतनी गहराई तक कचोटती है कि उसका असर जीवन-भर नहीं भूलता। लगता है जैसे उसकी सहृदयता निरीह बनकर मुझसे पूरी तरह हार मनवा लेती है और अपनी निर्दोष लाचारी से हृदय जीत लेती है। मेरी आंखों से झर-झर आंसू बह निकले, विह्वलता के कारण सामने कुछ सूझ नहीं रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं ? आंसुओं के वेग से लगा जैसे आगे दलदल है और मार्ग उसमें गुम हो गया है। लेकिन मुझे इस तथ्य तक पहुंचने में जरा भी देरी नहीं लगी कि यह स्नेहावेग का क्षणिक ठहराव है, जहां सोच-समझ सुन्न हो जाती है और भावुकता बाढ़ की तरह पूरे शरीर में छा जाती है। मैं थोड़ी ही देर में फिर सजग हो गयी। मेरे आत्मसम्मान ने मुझे आदेश दिया – “अब तुम चलो यहां से।” मैं अपनी चाल थोड़ा तेज करती हुई आगे बढ़ गयी। अब मुझे रोकता कौन ? आगे बढ़ती चली गयी और सरपट निकलती हुई सीधे जाने लगी। अगल-बगल के खेत, अभी कल तक सभी अपने थे। यहां मेरा रोज का आना-जाना होता था। कहने को तो सब निर्बोल थे, देखते ही नहीं थे। पर ऐसा कौन कहता है ? वे तो हर मौसम में अपनी हरी-भरी दौलत के साथ मुझसे जी भरकर बातें करते थे बिना बोले। और देखते तो रोज ही थे। उन्हें जैसे मैं देखती थी, लगता था वैसे ही वे मुझे देख रहे हैं। अब फिर कभी इस आत्मीय पगडंडी पर आना नहीं हो पाएगा। रास्ते तो बहुत मिलेंगे, मगर अपने खेत-खलिहानों के नहीं, बल्कि उपेक्षा-भरे दुख और आत्मग्लानि के।
इसी तरह के सोच-विचार में डूबती-उतराती मैं काफी दूर तक निकल आयी। आसपास अब कोई परिचित चेहरा नजर नहीं आ रहा था। मुझे भी लगा कि मैं गांव की चौहद्दी से बाहर आ गयी हूं। जी में थोड़ी तसल्ली हुई की चलो और कोई सामने नहीं पड़ा, नहीं तो कुछ पूछ बैठता तो क्या जवाब देती ? खेतों की मेड़ों से पार निकलते ही बीच में खूब लम्बा-चौड़ा, दूर-दूर तक फैला हुआ घास का मैदान नजर आया। मैं उसके बीचोंबीच पहुंची ही थी कि इतने में मैदान के एक कोने से किसी बच्चे की आग्रहपूर्ण कातर पुकार सुनाई पड़ी – “रुक जाओ चाची, रुक जाओ। मुझे छोड़कर मत जाओ।” उधर घूमकर देखी तो चकित रह गयी। अरे, यह तो तिलक है, लेकिन यहां क्या कर रहा है ? शायद घूमने, खेलने निकला हो। नहीं, शायद गाय चराने आया होगा। हां – तो, देखिए न, इधर गाय लेकर निकला हुआ है। घर वालों द्वारा सुबह-सुबह इसके ऊपर एक जिम्मेदारी लाद दी जाती है, फिर तो पढ़ चुका। आठ साल का हो आया, लेकिन किताब पढ़ते समय अभी भी हकला कर बोलता है। वह बेतहाशा जी छोड़कर दौड़ता हुआ आया और मेरे सामने लाठी टेकता हुआ याचक की मुद्रा में खड़ा हो गया। ओंठ सूख गए थे, कोमल-सा शरीर प्रबल अपनत्व के वेग से बुरी तरह कांप रहा था। वह कुछ देर तक ठगा-ठगा-सा मौन खड़ा रहा, फिर नन्हीं-नन्हीं सी आंखों से आंसू झरने लगे। मैं सब-कुछ समझ गयी। यही वह भोली-प्यारी शक्ति थी जिसने मुझे उस समय अपनी सरलता से शक्तिहीन बना दिया था। मैं खुद को रोक नहीं पायी और उसके रुखे, बिखरे बालों को धीरे-धीरे सहलाते हुए उसे अपनी गोद से चिपका लिया। मेरे हृदय का अतृप्त मातृत्व एक भूख बनकर धधक उठा। यह मेरा बच्चा है। मेरा छोटा बच्चा, मेरा बाबू तिलक। मैं मां हूं। कौन कहता है – मैं बांझ हूं। काफी देर बाद उठकर खड़ी होती हुई उसके आंसुओं से तर-ब-तर मुरझाए चेहरे को दोनों हाथों में लेकर शांतिपूर्वक चूमा फिर ढाढस दिलाते हुए बोली – “मैं जा कहां रही हूं – बाबू। तुम यहीं रुको, अभी थोड़ी देर में वापस आ जाऊंगी।” “लीजिए चाची देखिए- आज से कान पकड़ता हूं- फिर कभी लौकी मांगने नहीं आऊंगा, लेकिन आप मत जाइए।” लौकी को लेकर उसकी इस बाल-सुलभ चिंता पर मुझे हंसी भी आ गयी। इस तरह उसके निवेदन और मेरे समझाने-बुझाने का प्रेम-द्वंद्व बड़ी देर चलता रहा। आखिर वह थक-हारकर वहीं गुमसुम-सा बैठ गया और मैं काठ की मूर्ति की भांति किसी अमूर्त शक्ति से जबरदस्ती खींची जाती हुई उठकर चलने लगी। फिर दुबारा उसे मुड़कर देख लेने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। वह वहां कब तक बैठा रहा ? घर कब गया ? मुझे नहीं मालूम। अब मैं क्या बताऊं ? आज इतने वर्षों बाद भी इस जेल में सोते-जागते, उठते-बैठते सबसे अधिक अपने तिलक बाबू का वही भोला-सा याचक चेहरा याद आता है। जैसे वह यहां भी आ रहा है और कहता है – “चाची घर चलो न, फिर कभी लौकी मांगने नहीं आऊंगा। लेकिन आप लौट चलिए।” ओह ! बचपन भी कैसी अनमोल चीज होती है।
हाय रे बाबू ! अब कहां लोटूंगी ? किसके पास लौटूंगी ? मेरा वहां कौन है जो इज्जत के साथ मुझे रखने का साहस दिखाएगा। अब तो यह जेल और न्यायालय ही कटघरा मेरे मरणशील भविष्य के दो ध्रुव हैं – जिसके बीच मुझे रात-दिन घूमना है, लगातार चक्कर काटना है। अब यही मेरी नियति है। ऐसा तो मुझे पहले ही आभास था, लेकिन क्या मैं इससे डरती थी ? भूल जाइए जी ! रत्ती-भर भी नहीं। डर तो तब हो, जब विकास की कोई आकांक्षा बाकी रह गयी हो या जीवन के प्रति कोई मोह शेष रह गया हो। यहां तो हर क्षण जीते हुए मृत्यु से भी भयानक एहसास की दुर्दशा में पहुंच गयी हूं। आखिर ऐसा हुआ क्यों ? कैसे मैं सुख के शांतिमय प्रभात से भटककर यातना और पीड़ा की दुर्गम भयावह रात से घिर उठी ! लीजिए आज मैं इसे बताती हूं।
जब मैं छोटी थी, लगभग चार साल की; उस समय मेरे मासूम बचपन पर अचानक वज्रपात हो गया। इसका वर्णन करने का कलेजा वैसे मेरे पास तो नहीं; लेकिन बिना सब-कुछ बताए रह भी नहीं सकती। हुआ यों कि मेरे पिताजी का चचेरा बाई कालिका एक बैंक में मामूली क्लर्क था। वह मम्मी और डैडी से मिलने या किसी और काम की वजह से अक्सर आता रहता था। उसकी और डैडी की उम्र में मामूली अंतर था। शायद एक-दो साल का अंतर रहा हो। मगर था वह बहुत नीच। उसके मन पर दिन-रात अंधी हवश का भूत सवार रहता था। वह मुझे बेटी-बेटी कहकर बहला-फुसला लेता और टाफी, बिस्कुट या केला, इत्यादि खिलाकर अपने घर के पास वाले पार्क में ले जाता था। वहां घण्टों मेरे साथ खेलता, बार-बार गोद में उठाता, चूमता और जमीन पर बैठकर मुझे गोद में ही लिए रहता। मैं उसकी नीच हरकतें भला कैसे समझती ? उस समय तो बस यही सोचती कि अंकलजी हमको कितना मानते हैं। मां या बाबूजी को उसकी इस आदत का जरा-सा भी एहसास नहीं हुआ। एक दिन की बात है – शाम होने के बाद जब पार्क से लोग धीरे-धीरे अपने घर जाने लगे, वह मुझे पार्क के ही एक सुनसान कोने में ले गया और वहां मेरा मूंह जोर से ढंक दिया। आगे क्या कहूं ? उसके द्वारा मेरी इज्जत लूट ली गयी। रात में रोते-बिलखते हुए मेरे मम्मी-पापा पार्क की तरफ आए और मुझे बेहोशी की हालत में उठाकर घर ले गए। बीच के जीवन के बारे में और क्या कहूं ? एम.ए. तक पढ़ी वह पूरा कहां हुआ ? शादी हो गयी। ससुराल से बेइज्जतीपूर्वक निकाली गयी। उसके बाद मायके आकर सारी दुर्दशा की जड़ कालिका से इस धरती को मुक्त कर दिया। समाज के श्रेष्ठ और आदरणीय संबंधों को अपने विचारों की गंदगी से भ्रष्ट करने वाले ऐसे कालिका सरीखे लोग, जब तक जिंदा रहेंगे, तब तक गोदावरी बार-बार ससुराल से वापस होगी। उसमें बार-बार प्रतिशोध की भावना भड़केगी। वह मूलतः इस प्रवृत्ति की न होते हुए भी हिंसक बनेगी। आप चाहे उसे जेल में ठूंसें या काल-कोठरी में बंद करें। चाहे उसे आजीवन कारावस दे दें या फांसी पर लटका दें। वह वही करेगी जो एक घायल अपने ऊपर प्रहार करने वाले के साथ करना चाहता है।
आज फिर अदालत लगेगी। सब लोग उपस्थित होंगे। पता नहीं मेरी मां आएगी कि नहीं ? वह न आती तो ठीक ही था। उसे सामने देखकर खुद को संभाल कैसे पाऊंगी ? जज साहब आज मेरा पुनः बयान लेना चाहते हैं। आखिर इससे फायदा ही क्या ? मैं तो कह चुकी, कई बार फरियाद कर चुकी हूं कि – “जज साहब ! इस अभागिन को उसके जीवन से मुक्त कर दीजिए, बड़ी कृपा होगी।” इसके बावजूद भी वे फैसला नहीं सुनाते। पिछली तारीख को उन्होंने निर्देश दिया था कि – “अपना बयान दर्ज कराना होगा कि आपके साथ कैसे-कैसे क्या हुआ ?” अब आप ही जरा सोचिए मैं यह सब कैसे बताऊंगी ? खैर ! मुझे तो वहां जाना ही है, और जाऊंगी भी, लेकिन अदालत के सामने यह बताने के बजाय कि मेरे साथ क्या-क्या हुआ, यह बताऊंगी कि मेरे साथ क्या-क्या नहीं हुआ ?

(कहानीकार भरत प्रसाद मूलतः गोरखपुर के निवासी हैं । जे.एन.यु., दिल्ली से हिन्दी में स्नातकोत्तर की शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात इन दिनों शिलांग के पूर्वोत्तर विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं । हाल ही में इन्हें सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ, रायपुर द्वारा 5 वें अखिल भारतीय साहित्यमहोत्सव में कहानी के लिए पं. बल्देव मिश्र सम्मान-2004 से सम्मानित किया गया । संपादक)